अविद्योपाधि: सन् आत्मा जीव इत्युच्यते। मायोपाधि: सन् ईश्वर इत्युच्यते।
अविद्या उपाधि से युक्त आत्मा को जीव कहते हैं। माया उपाधि से युक्त आत्मा को ईश्वर कहते हैं।
—तत्वबोध, श्लोक २८-२९
तस्मातकारणात् न जीवेश्वरयोर्भेद बुद्धि स्वीकार्या।
इसलिए जीव-ईश्वर में भेद बुद्धि को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
—तत्वबोध, श्लोक ३१
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। गुरु शंकराचार्य ने जीव और ईश्वर के आत्मा से संबंध के बारे में बताया है। मैंने अभी तक दो ही तत्वों के बारे में सुना था, मरणधर्मा जीव और शाश्वत आत्मा। तीन तत्वों का क्या अर्थ है? कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें ‘ईश्वर’ तत्व को लेकर समस्या हो रही है। ऐसे समझो, जीव अपने-आपको आत्मा तो जानता नहीं, जीव अपने-आपको जानता है देह, और देह माने वस्तु। और वस्तुएँ जहाँ होती हैं, उस स्थान को कहते हैं संसार। संसार क्या है? वह आकाश जहाँ वस्तुएँ हैं। और जीव का अनुभव यह रहा है कि जहाँ वस्तु है, वहाँ वस्तु का निर्माता-निर्धाता भी है। गाड़ी है अगर तो कोई है जो गाड़ी को बनाया होगा और कोई है जो गाड़ी को चलाता होगा।
संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ जीव का यही अनुभव है, क्या? कि उस वस्तु के पीछे कोई रचनाकार ज़रूर बैठा है, और यह भी कि उस वस्तु का कोई-न-कोई संचालनकर्ता भी ज़रूर है। संचालनकर्ता अगर कोई व्यक्ति नहीं है तो कोई नियम हो सकता है, पर कुछ-न-कुछ है जिससे प्रत्येक वस्तु संचालित ज़रूर हो रही है।
अब जीव ने कहा, “मैं भी वस्तु हूँ।” जीव अपने-आपको क्या मानता है? देह, देह माने वस्तु। जीव ने कहा, “मैं भी वस्तु हूँ।” अगर जीव वस्तु है तो प्रत्येक वस्तु के ऊपर जो नियम जीव ने लगते देखा, वही नियम उसने अपने ऊपर भी लगा लिए। उसने कहा कि जब माटी के घट के पीछे कुम्हार है तो ज़रूर इस घट (देह) के पीछे भी कोई घटकार है, और अपने घटकार को उसने नाम दे दिया ‘ईश्वर’—परमात्मा नहीं, ईश्वर। ईश्वर मिथ्या है, ईश्वर झूठ है। आत्मा अनंत सत्य है, ब्रह्म अनंत सत्य है। ईश्वर मिथ्या है।
तो शंकराचार्य बहुत साफ़ करने के लिए कहते हैं कि माया उपाधि से युक्त आत्मा को ईश्वर कहते हैं। जीव की आँखों पर पर्दा पड़ा है माया का, वह आत्मा को नहीं देख पा रहा। तो माया के कारण वह ईश्वर की बात करना शुरू कर देता है। अब जीव कहता तो यह है कि “मैं घट हूँ और ईश्वर मेरा घटकार है”, जीव कहता तो यह है कि “मैं रचना हूँ और ईश्वर रचनाकार है”, पर बात बिलकुल उल्टी है; इस ईश्वर की रचना स्वयं जीव ने करी है।
आत्मा अनादि है, ब्रह्म अनादि है। ईश्वर अनादि नहीं है, ईश्वर की तो उत्पत्ति जीव से है, माया से है।
सामान्यतया आप लोग परमात्मा और ईश्वर को एक ही मान लेते हो, एक दूसरे के पर्याय की तरह ही प्रयुक्त कर लेते हो। कभी कहते हो, ‘हे परमात्मा!’, कभी कहते हो, ‘हे ईश्वर!’, पर ज्ञानियों से पूछोगे तो कहेंगे, “यह क्या अनर्थ कर रहे हो!” परमात्मा माने सत्य और ईश्वर माने मिथ्यत्व। तुम अपने-आपको देह मानते हो इसीलिए तुमने ईश्वर खड़ा कर लिया और फिर कहने लग जाते हो कि ईश्वर ने संसार की रचना की इत्यादि-इत्यादि।
वेदांत स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करता है कि ईश्वर भ्रम मात्र है। इसीलिए ईश्वर को तुम तमाम तरह की उपाधियाँ भी दे लेते हो। करुणावान है, न्याय करता है, रक्षा करता है—“हे ईश्वर! रक्षा करना। हे ईश्वर! न्याय करना। हे ईश्वर! दया करना।” कभी सुना है, “ब्रह्म दया करना”? क्योंकि ब्रह्म को कोई उपाधि नहीं दी जा सकती, ब्रह्म सत्य मात्र है।
ईश्वर को तुम अपनी इच्छा अनुसार उपाधियाँ, गुण पहना देते हो। तुम चाहते हो कि कोई हो जो ऊपर बैठा तुम्हारी खोज-ख़बर लेता रहे, तुम पर दया रखे, तुम्हारा ख़्याल रखे, तो तुमने एक काल्पनिक ईश्वर गढ़ लिया है और फिर ख़ुद ही कह देते हो कि वह अपनी रचना को संचालित कर रहा है, लोगों का ख़्याल रखता है, अच्छे को अच्छा, बुरे को बुरा देता है इत्यादि-इत्यादि।
आत्मा के साथ कोई उपाधि, कोई विशेषण, कोई गुण संबंधित नहीं होता। ईश्वर के साथ तुम तमाम तरीक़े के गुण, उपाधियाँ लगा देते हो। तमाम प्रार्थनाएँ भी तुम ईश्वर से ही करते हो। वास्तव में ब्रह्म और आत्मा से तो प्रार्थना की ही नहीं जा सकती क्योंकि वह अद्वैत है। आत्मा से तुमने प्रार्थना करी नहीं, ब्रह्म से तुमने प्रार्थना करी नहीं कि तुमने उनको नकार दिया।
प्रार्थना के लिए दो चाहिए न − एक जो प्रार्थना करे और एक जिससे प्रार्थना की जा रही है। तो इसीलिए तुम्हारी कोई भी प्रार्थना कभी ब्रह्म, सत्य, आत्मा के प्रति नहीं होती, तुम्हारी प्रार्थना हमेशा ईश्वर के लिए होती है। “हे ईश्वर! मेरी कामनाएँ पूरी कर दे”, तुम कहते हो। क्योंकि ईश्वर की तो उत्पत्ति ही द्वैत में है, तो वहाँ तुम्हें बड़ी सुविधा है; तुम प्रार्थना कर सकते हो।
ईश्वर का तो सारा कारोबार ही द्वैत में है। तुम कहते हो, “ईश्वर है और उसने सृष्टि बनायी है”, तो दो तो तभी हो गए न! एक ईश्वर − बनाने वाला, और एक सृष्टि − बनाई गई चीज़। तो अब तुमको सुविधा है, तुम प्रार्थना कर सकते हो। ब्रह्म से तो तुम प्रार्थना ही नहीं कर पाओगे।
वास्तव में जब तुम ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हो, तब तुम अपनी ही कामनाओं से प्रार्थना कर रहे हो। वास्तव में जब तुम ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हो, तब तुम अपनी ही प्रतिमा के सामने प्रार्थी हो रहे हो, जैसे कि कोई आईने में ख़ुद को देखकर नमित हो जाए, नमित ही ना हो जाए, इच्छापूर्ति की कामना भी करने लगे।
जीव है तो ईश्वर है। अहम् अगर देह के साथ जुड़ा हुआ है तो वह सत्य का नाम देगा ‘ईश्वर’, और यही अहम् अगर आत्मा के साथ जुड़ जाए तो वह सत्य का नाम देगा ‘ब्रह्म’। तो जो देहभाव में जीते हैं, उनकी पहचान यह है कि ‘ईश्वर-ईश्वर’ करते मिलेंगे और जो आत्मस्थ होकर जीते हैं, वे ब्रह्म की बात करेंगे। जीव यदि देह है तो वह कहेगा, “सत्य ईश्वर है”, और जीव यदि अपने-आपको आत्मा जान ले तो कहेगा, “सत्य ब्रह्म है।”
इतना ही नहीं, जीव यदि देह है तो जीव और जीव के सत्य में अंतर होगा, द्वैत रहेगा। जीव और ईश्वर में सदा दूरी रहेगी, द्वैत रहेगा। जीव कहेगा, “मैं नीचे, ईश्वर ऊपर।” लेकिन जीव यदि आत्मा है, तो जीव में और सत्य में कोई दूरी नहीं रहेगी।
समझना, जीव यदि शरीर है तो उसका सत्य है ईश्वर, और जीव और ईश्वर ऐसे हैं, दूर-दूर *(इशारा करते हुए)*। और जीव अगर आत्मा है तो उसका सत्य है ब्रह्म, और आत्मा और ब्रह्म एक हैं—"अयं आत्मा ब्रह्म", यह आत्मा ही ब्रह्म है।