प्रश्नकर्ता: सर अभी दो दिन पहले यूपी बोर्ड (उत्तर प्रदेश परीक्षा मंडल) का रिज़ल्ट (परिणाम) घोषित हुआ है तो उसमें एक छात्रा हैं जिन्होंने यूपी बोर्ड टॉप (शीर्ष) करके देश का नाम रोशन किया है, तो ये तो एक गर्व की बात है। लेकिन एक शर्मनाक बात ये देखने को मिल रही है कि हमारे ही समाज के लोग जहाँ पर भी उनकी ये बात कही जा रही है उसी के नीचे अगर कमेंट देखें या टिप्पणियाँ देखें तो वो काफ़ी फूहड़ सी टिप्पणी हैं और वो टिप्पणियाँ उनके देह को लेकर है अधिकतर कि उनके चेहरे पर बाल उग गये हैं या मूँछें उग आई हैं, तो इसको लेकर है।
और मैं कुछ दिन पहले के सत्र को अगर याद करूँ तो आपने सानिया मिर्ज़ा का उदाहरण दिया था कि वो खेल में अच्छा प्रदर्शन कर रही थीं लेकिन लोगो का ध्यान उनके खेल में न होकर उनके भी देह की तरफ़ था और वो उनके जिस्म को लेकर बात करते थे। तो इधर एक छोटी बच्ची है, उन्होंने मेहनत की है और उनकी मेधा का सम्मान न करते हुए हम लोग उनके भी देह को लेकर टिप्पणी कर रहे हैं। तो मैं ये जानना चाह रहा था कि हमारा समाज किस ओर बढ़ रहा है और हमें कैसे एक सही दिशा मिल सकती है कि हम कम-से-कम उत्कृष्टता का और उनकी मेहनत का सम्मान कर पाएँ।
आचार्य प्रशांत : देखो वही चल रहा है जो लोक संस्कृति हमारी रही है। हम कुछ भी बोल दें कागज़ी तौर पर कि हमारा वैदिक धर्म है और वेदांत हमारा दर्शन है। हम सांख्य दर्शन की बात कर सकते हैं, हम योग की बात कर सकते हैं। हम ये सब ऊपरी-ऊपरी बातें करते रहेंगे। हम बौद्ध दर्शन की बात कर लेंगे, हम जैन दर्शन की बात कर लेंगे, हम आजीविकों की बात कर लेंगे, हम न्याय वैशेषिक की बात कर लेंगे, हम ये सब बातें कर लेंगे। लेकिन हमारी जो जन संस्कृति है, लोक संस्कृति है, जिसका हम सचमुच व्यवहार करते हैं वो किसी दर्शन पर नहीं आधारित है।
ये कितनी अजीब बात है कि भारत षड् दर्शन का देश है, आस्तिक छः। उसके अलावा आपके पास जैन हैं, बौद्ध हैं, चार्वाक भी हैं और उनके अलावा भी कई और भी दर्शन थे या दर्शनों की उपधाराएँ थीं। बौद्धों के साथ योगाचार है और दर्शन-ही-दर्शन रहा। भारत दर्शन का पालना रहा है।
जब आप बात करते हो पाश्चात्य दर्शन की, तो उसमें ग्रीक्स और जो आधुनिक दर्शन हैं उसके बीच में कितनी शताब्दियों का फ़ासला है। ठीक है। वो ग्रीक दर्शन लगभग तब था जब भारत में उपनिषदों का काल था और जैनों का, बौद्धों का। और उसके बाद से फिर सीधे जाकर के जो पाश्चात्य दर्शन है वो हमको मिलता है चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में या उसके भी आगे सोलहवीं-सत्रहवी शताब्दी में मिलता है।
लेकिन भारत में दर्शन की एक अटूट निरंतर एक श्रृंखला रही है और भारत का ही दर्शन है जो कि फिर यात्रा कर-करके पहुँच गया अद्वैत तक और अद्वैत को दर्शन में द लास्ट वर्ड (आखिरी शब्द) माना गया है कि इसके बाद अब कोई बात हो नहीं सकती, क्योंकि अब इसके बाद तो जो दर्शन करने वाला है वही विलुप्त हो गया, तो अब दर्शन किसके लिए।
लेकिन ये सब होने के बाद भी इतनी अफ़सोस की चीज़ है कि आम आदमी भारत का किसी दर्शन पर नहीं चलता। भारत होगा दर्शन का पालना, लेकिन आम आदमी के लिए कोई दर्शन नहीं है। आम आदमी के लिए सिर्फ़ लोक संस्कृति है और झूठे आत्मविश्वास में भरा हुआ ये हमारा आम आदमी, उसी लोक संस्कृति को ही धर्म समझता है, उसी को दर्शन समझता है और सोचता है कि ये बड़ा अच्छा काम कर रहा है वही लोक संस्कृति का, परंपरा वगैरह का पालन करके।
हमारी जो लोक संस्कृति है, उसमें महिला के लिए कोई ऊँचा स्थान है नहीं देखो, बिल्कुल समझो बात को। लेकिन मैं जैसे ही ऐसे बोलूँगा तो बहुत सारे ये लोक संस्कृति के ठेकेदार खड़े हो जाएँगे। कहेंगे, ‘ऐसे कैसे बोल रहे हो, अरे! हमारे उपनिषदों में जो इतनी सारी विदुषियों का उल्लेख है उनको तुम कैसे भूल गए।’
फिर वो गार्गी मैत्रैयी की वगैरह की बात करनी शुरू कर देंगे। हम कहेंगे कि ये किस उपनिषद में है? वो उनको नहीं पता होगा। कभी नहीं पढ़े उन्होंने उपनिषद। हम कहेंगे, ‘ये उपनिषदों में हैं भी सब देवियाँ, तो तुम क्या उपनिषदों के आधार पर ज़िंदगी चलाते हो?’ तो उनका मुँह लटक जाएगा।
लेकिन मैं जैसे ही कहूँगा कि भारत की लोक संस्कृति में महिलाओं के लिए अच्छा स्थान नहीं है। तो ये लोग कहेंगे, ‘ये देखो, ये हिन्दू धर्म की और देश की अवमानना कर रहा है और हमारे यहाँ तो दर्शनों में स्त्री को माना गया है कि वो पुरुष की समकक्ष और वगैरह-वगैरह ये सब।’
अरे! दर्शनों में माना गया होगा, तुम किसी दर्शन पर चलते ही नहीं हो। तुमने किसी दर्शन की कोई किताब नहीं आज तक पढ़ी है। जो अपने आप को ये भी बोलते हैं कि हम योगा करते हैं और सुबह-सुबह योगा मैट लेकर भागते हैं। इनसे आप कहिए, ‘थोड़ा सा बताना, पतंजलि योग सूत्र के दो-चार सूत्र ही बता दो।‘ वो कुछ न बता पाएँ। इसमें से नब्बे प्रतिशत तो ये न बता पाएँ कि अष्टांग योग में आठ होता है कि अठारह और आठ होता है तो आठ माने क्या।
बात समझ रहे हैं?
यहाँ तो बस ऐसे ही चलता है। लोक संस्कृति, वो लोक संस्कृति कहाँ से आ रही है? वो विविध ऐतिहासिक स्रोतों से आ रही है। भारत तमाम तरीके से विदेशी प्रभावों के अधीन रहा, तो जो लोग आते गए वो अपनी संस्कृतियाँ लेकर के आते गए और चूँकि वो विजेताओं की संस्कृति थी, तो वो संस्कृति भारतीयों की संस्कृति बन गई। आज भारतीय उसी संस्कृति को पकड़कर बोलते हैं, ‘ये तो हमारी संस्कृति है।’
उदाहरण के लिए आपने बात करी कि कोई खिलाड़ी हो, महिला खिलाड़ी या महिला तैराक हो या महिला साइक्लिस्ट हो। तो उसके पीछे पड़ने लग जाते हैं कि ‘अरे! तूने कपड़े कैसे पहन रखे हैं।’ क्यों? क्योंकि हमारे यहाँ तो ये चलता है, पल्लू चलता है और घूँघट चलता है और पर्दा चलता है। हमको जैसे पता ही नहीं कि ये भारत में तो कभी था ही नहीं। ये तो इस्लाम के साथ आया है। पर आज भारत के घर-घर में ये मौजूद है और अगर इसकी निन्दा करो। तो वो कहते हैं, ‘देखो तुम हिन्दू संस्कृति पर आघात कर रहे हो।’ हिन्दू संस्कृति पर आघात कर रहे हो! ये हिन्दुओं की संस्कृति कब से हो गई कि ये (घूँघट) डालो, ये हिन्दुओं की कब से हो गई? बताओ तो।
हमारी जो संस्कृति है वो बहुत ही साधारण आधारों पर खड़ी हुई है और महिलाओं का उसमें, मानिए, कोई बहुत अच्छा स्थान नहीं है। आप आज भी अगर धार्मिक किताबों की किन्हीं स्टॉलों पर चले जाएँगे और वहाँ पर आदर्श हिन्दू स्त्री जैसी आप कोई किताब उठाएँगे। तो उसमें यही लिखा होगा कि पति ही परमेश्वर है और घर में बच्चे पालना ही तुम्हारा धर्म है। उसमें तो ये तक लिखा होता है कि तुम अगर किसी गुरु के पास गईं, कोई विवाहिता स्त्री अगर किसी गुरु के पास जाती है तो वो महापाप कर रही है और वो महापाप में वो गुरु भी शामिल हो रहा है। अगर स्त्री विवाहित है तो उसका एक ही गुरु हो सकता है, वो है उसका पति और अगर स्त्री विवाहित है तो उसका एक ही स्वर्ग हो सकता है, वो है उसका घर।
तो वो पढ़-लिखकर कर आ रही है कोई लड़की, बच्ची हमारी। तो हमारे समाज को ऊपर-ऊपर से तो ठीक है, अच्छा लगता है, पर भीतर-ही-भीतर तो भाव यही रहता है अधिकांश लोगों में कि करना क्या है तुझे चूल्हा-चौका करना है और बच्चे पैदा करने हैं ये इतनी पढ़ाई-लिखाई क्या कर रही है। पति को खुश ही तो रखना है तुझे और पति को खुश रखना है तो तेरी देह मस्त होनी चाहिए न!
तो जो लोग इस बच्ची के देह पर या शक्ल पर अभद्र टिप्पणियाँ कर रहे हैं, उनको पता भी नहीं है कि उनकी उन टिप्पणियों का स्रोत क्या है। वो नहीं जानते कि उनके भीतर से वो टिप्पणी की भावना क्यों उठ रही है। इसलिए उठ रही है क्योंकि तुम्हारे घरों में, गली-मोहल्लों में और शहरों में, वास्तव में स्त्रियों के लिए कोई ऊँचा स्थान नहीं है। तुमने उनको यही बना रखा है, घर की सजावट की चीज़ें, घर का सेवक और ये मत कहिएगा ये पुरानी बात है।
आज भी बहुत सारे धर्म गुरु और कथा वाचक जो बातें कहते हैं उसमें सुनिए कि महिलाओं के लिए क्या संदेश रहता है। कि अगर महिला ने पति की थाली में खा लिया तो पति मर जाएगा या उसे कुछ हो जाएगा। लेकिन पति की जूठी थाली में अगर महिला खाएगी तो स्वर्ग पाएगी और पति के अगर पाँव दबाएगी तो घर में लक्ष्मी आएगी। अगर उसे पति के पाँव ही दबाने है तो बोर्ड टॉप करके क्या कर लेगी!
तो उस बच्ची की खिल्ली उड़ाकर के उसको यही कहा जा रहा है की पढ़ाई-लिखाई से करना क्या है, तू अपनी बॉडी (देह) बना, क्योंकि तेरा काम है पति को अपनी देह से खुश रखना और फिर उसी देह से बच्चे पैदा करना।
एक-से-एक साधारण दिखने वाले लड़के भी बोर्ड टॉप करते हैं या आइआइटी वगैरह परीक्षाएँ पास करते हैं या यूपीएससी पास करते हैं। उनको तो कोई नहीं कहता है कि करेले जैसी शक्ल और ये आइएएस बन गया, उनको तो कोई नहीं कहने आता। पर लड़की की शक्ल अच्छी नहीं है या साधारण है और उसने कुछ पढ़ाई में अच्छा कर दिया, तो ये आ जाते हैं उस पर टिप्पणी करने के लिए। क्योंकि लड़की की हमारी संस्कृति में पहचान ही बस देह है और ये बड़ी पशुता की बात है समझो इसको।
पशुओं के यहाँ मादा बस मादा होती है। उसकी एक ही पहचान होती है, उसका लिंग। इसी तरीके से एक मनुष्य को कोई देखे और उसको बस उसके लिंग से पहचाने, तो ये पशुता की बात है। आपको इंसान नहीं दिखाई दे रहा है, आपको औरत दिखाई दे रही है।
जब तक हमारी संस्कृति दर्शन की तरफ़ उन्मुख नहीं होती, उसमें आधी मनुष्यता, आधी मानवता के लिए कोई अच्छा स्थान नहीं रहेगा। देखो दो बड़ी गलतियाँ हैं हमारी संस्कृति में। पहला, उसमें सब जातियों के लिए क्या स्थान है और दूसरा उसमें नारियों के लिए क्या स्थान है। ये दो बहुत बड़ी गलतियाँ हैं हमारी संस्कृति में। और ये दोनो गलतियाँ सिर्फ़ इसलिए हैं क्योंकि हमारी संस्कृति दर्शन से बहुत दूर है। हमारी संस्कृति जो है वो परंपरा पर चल रही है और किस्सों-कहानियों पर चल रही है, दर्शन पर नहीं चल रही है।
संस्कृति कैसे बनती है? कल्चर आगे कैसे जाता है? उदाहरण के लिए जब मैं बोलता हूँ महिलाओं से कि बेटा बच्चे पैदा करने से ज़्यादा ज़रूरी भी कुछ है ज़िन्दगी में। तो उस पर कई लोग टिप्पणी करते हैं। कहते हैं, ‘दिस इज़ अगेन्स्ट इंडियन कल्चर (ये भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है)।’ ये कहाँ लिखा है कि दिस इज़ अगेन्स्ट इंडियन कल्चर?
कल्चर आपके मन में घुसता कैसे है? वही जो अपने घर में देखते हो। आप कोई किताबें थोड़े ही पढ़ रहे हो दर्शन के बारे में। आपने तो जो काम अपने घर-मोहल्ले में होते देखा वही आपको लगा यही कल्चर है।
जितने भी ये कल्चर वादी घूम रहे हैं, संस्कृति वादी। इनको पकड़ो और पूछो कि ‘तुमने जो संस्कृति पकड़ी है, ये तुम्हें मिली कहाँ से, तुमने कहाँ से सीखी? किस विद्यालय में सीखी? या किस किताब में पढ़ी?’ किसी विद्यालय में नहीं सीखी, किसी किताब में नहीं पढ़ी। जो आचरण उन्होंने अपने घर में चाचा, ताऊ, बाप-माँ, फूफा-फूफी को करते देख लिया, उनके अनुसार वही संस्कृति है। और वो उसी को पकड़कर के बैठ गए हैं कि हमारी संस्कृति ही परम सत्य है। ‘कहाँ से मिली?’ ‘वो फूफा-फूफी को हमने ऐसे करते देखा तो वही संस्कृति है।’ ‘कैसे पता यही संस्कृति है?’ ‘यही है।’
संस्कृति को दर्शन से आना होगा, परंपरा से नहीं। परंपराएँ बदलती रहती हैं। हर परंपरा कभी शुरू हुई, कभी समाप्त हुई। हज़ारों परंपराएँ मिट चुकी हैं और हजारों नई परंपराएँ शुरू होती रहती हैं। परंपराओं से संस्कृति नहीं बन सकती।
संस्कृति को सत्य पर आधारित होना होगा और सत्य का अन्वेषण होता है दर्शन में। संस्कृति को दर्शन पर आधारित होना होगा। तब उसमें महिलाओं और दलितों के लिए सम्मान का स्थान होगा। नहीं तो वही चलता रहेगा भारतीय समाज में जो चलता आ रहा है। हमें लगा था, खत्म हो रहा होगा आधुनिकता के साथ, आधुनिकता भी हारती जा रही है, आधुनिकता भी हारती जा रही। वो बन गया है अब कि जाति कभी नहीं जाती, आधुनिकता के सामने भी वो नहीं जाती।
कोई ऐसे ही तिलिस्मी किस्सा-कहानी उस पर कोई टीवी सीरियल बन गया। तो एक अदाकारा हैं, जो अपने गर्मा-गर्म दृश्यों के लिए जानी जाती हैं, वो करती ही यही हैं बस। कोई ऊँचा पात्र वो नहीं निभाएँगी। कुछ ऐसा नहीं करेंगी जिससे कि समाज को, दुनिया को उठने का संदेश जाए। लेकिन जब उनसे उस किस्से-कहानी वाले सीरियल (धारावाहिक) के बारे में कहा गया मिथोलॉजिकल सीरियल (पौराणिक धारावाहिक) है। बोलती हैं, ‘मिथोलॉजी (पौराणिक कथा) थोड़ी है, ये सब कुछ सचमुच हुआ था।’
ये हमारी संस्कृति है कि कोई आपको कहानी दे दी गई और आप उसको कहना शुरू कर दें ये सचमुच हुआ था। आधुनिकता भी हारी जा रही है।
आज के समय के लोग और आज के समय के पढ़े-लिखे लोग भी इसी *कल्चर*। भाई कल्चर क्या होता है या तो फिलोसॉफी (दर्शन) होती है या रिलीजन (धर्म) होता है। कल्चर माने वो जिसका तुम व्यवहार करते आए हो। माने जो कुछ तुम करते आ रहे हो, वही तुम्हारा कल्चर है। जिस तरह का तुम व्यवहार-आचरण करो, वो कल्चर है। माने तुम्हारी मर्ज़ी कल्चर है। माने तुम्हारे पूर्वजों की मर्ज़ी कल्चर है और तुम्हारे पूर्वजों ने भी अगर कभी उपनिषद्-गीता न पढ़े हों तो? क्यों मान लें उनकी बात? और अगर पुरानी बात ही माननी है, तो सबसे पुरानी बात मानेंगे न, गीता को मानेंगे। और परंपरा का ही पालन करना है तो फिर सती परंपरा का भी पालन कर लो। बाल विवाह भी रखो, बहु विवाह भी रखो। लड़कियों के बाप के जायदाद में हिस्सा भी मत दो। तमाम तरीके की परंपराएँ थीं। अभी उनके बारे में सुनो तो शर्म आती है।
ऊँचे-से-ऊँचा दर्शन हमारे पास, पर बहुत ही साधारण किस्म की संस्कृति हमारी। क्योंकि हमने संस्कृति में और दर्शन में कोई सेतु, कोई पुल ही नहीं बनाया। दर्शन अपनी जगह, संस्कृति अपनी जगह। ऐसा कैसे चलेगा भाई?
एक खोखली सी बात हम लेकर के घूमते रहते हैं इंडियन कल्चर (भारतीय संस्कृति)। उनसे पूछो इंडियन कल्चर माने क्या, कहाँ से आया, क्यों आया और आज जो है सौ साल पहले वो नहीं था और जो सौ साल पहले था, तीन-सौ साल पहले नहीं था। तो तुम कहते हो, ‘पुराने कल्चर पर चलना है तो बता दो, सौ साल वाले पर चलें, तीन-सौ साल वाले पर चलें, पाँच-सौ साल वाले पर चलें, पाँच-हज़ार साल वाले पर चलें। किसको माने?’
ये तो समय की रेत है, उड़ती रहती है, जमती रहती है। सत्य अकेला होता है जो अपरिवर्तनीय होता है, बाकी सब तो परिवर्तनशील होता ही है, उसे बदलना होगा।
कितना भी पढ़ लिख जाए लड़की, हमारे लिए तो वो लड़की ही रहती है। कितना भी आगे बढ़ जाए लड़की हमारे लिए तो वो लड़की ही रहती है। बॉस (मालिक) बन जाए लड़की, तो भी वो हमारे लिए लड़की ही रहती है। लड़कियाँ बॉस बन जाती हैं उनके जो अधीनस्थ होते हैं, सबऑर्डिनेट्स, उनके साथ ठीक से काम नहीं कर पाते लड़कियों के साथ। क्योंकि उनको घरों में ये शिक्षा ही नहीं मिली है कि लड़की भी बॉस हो सकती है।
उनको तो ये शिक्षा मिली है घरों में कि लड़की माने पैर की जूती। तो लड़की जब बॉस बन जाती है तो ये सब लड़के बिफरना शुरू कर देते हैं। उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे, उसके काम में बाधा करेंगे और फिर अगर वो परफॉर्म (प्रदर्शन) न कर पाए, क्योंकि सब लड़के मिलकर के उसको काम नहीं करने दे रहे। तो कहेंगे, ‘देखा जिसकी जगह घर में है और रसोई में है और बिस्तर पर है, वो आकर के ऑफिस (कार्यालय) में काम कर रही थी, इसका असफल होना तो पहले ही तय था।’ उसका असफल होना तय नहीं था। तुमने साज़िश करके उसको असफल करा है। और जब वो असफल हो जाती है तो तुम ताली बजाते हो।
तुम बारह-चौदह साल के होते हो, घर से पिताजी की स्कूटर लेकर भगना शुरू कर देते हो। वो जब बीस-इक्कीस साल की होती है कॉलेज जाने को होता है, तो उसको स्कूटी मिलती है, एक्टिवा मिलती है। और वो भी वो दिन में एक बार चलाने को पाती है जब उसे कॉलेज जाना है। अब उसे ठीक से चलाते न बने, तो तुम उसके वीडियो बनाकर के, रील्स बनाकर डालते हो और खूब ताली पीटते हो कि ये देखो ये पापा की परी हैं इनको स्कूटी चलानी नहीं आती, जाकर भिड़ा दी। उसने भिड़ा इसलिए दी, क्योंकि उसको कभी चलाने को नहीं मिली। वो तुम्हारी तरह नहीं बारह की उम्र से पापा की बाइक लेकर के भागा करती थी। उसको अनुमति ही नहीं थी भागने की।
सड़क पर वो गाड़ी चला रही हो, उससे गाड़ी न चलाते बने क्योंकि उसमें आत्मविश्वास नहीं है, तुम उसका मज़ाक उड़ा देते हो। तुम ये भी तो देखो कि उसने गाड़ी चलाई है आज तक कुल साढ़े-चार-सौ किलोमीटर। तुम गाड़ी चला चुके हो पैंतालीस-हज़ार किलोमीटर। साढ़े-चार-सौ किलोमीटर वो गाड़ी चलाएगी, तो कहाँ से उसमें आत्मविश्वास आएगा। फिर वो धीरे-धीरे चलाती है अपना कोने में हॉर्न बजाते हुए। सब खूब हँसते हैं, ‘हा-हा-हा, इसको तो कुछ आता ही नहीं। आन्टी गाड़ी लेकर निकली हैं हँसो इस पर।’
मानो सबसे पहले। ये सब हटा दो कि भारतीय संस्कृति में तो स्त्रियों को देवी माना गया है। अभी मैं बोल रहा हूँ न, मुझे मालूम है अभी आना लोगों की टिप्पणियाँ आनी शुरू हो जाएँगी।
‘अरे! आप क्या बात कर रहें, हमारे यहाँ तो कहा गया है कि जहाँ-जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ-वहाँ देवता वास करते हैं।’
कहीं से उद्धरत कर देने से वो बात व्यवहारिक ज़मीनी तल का यथार्थ नहीं बन जाती। लिखी बात एक तरफ़ और व्यवहृत बात प्रैक्टिस्ड बात एक तरफ। तुम जिसका व्यवहार कर रहे हो, वो कोई लिखा-पढ़ी की बात नहीं है। वो तो लोक परंपरा है और हमारी लोक परंपरा कोई बहुत अच्छी नहीं है। और जैसे ही मैं कहूँगा लोक परंपरा अच्छी नहीं है, तो खड़े हो जाएँगे सब संस्कृति के ठेकेदार। वो कहेंगे, ‘तो क्या हमारे पूर्वज-पुरखे जो करते थे वो गलत करते थे?’ क्यों नहीं गलत कर सकते भाई?
आपके पास हज़ार तरीके के ज्ञान के स्रोत हैं, आपके पूर्वजों के पास क्या था? तो इसमें ताज़्जुब की क्या बात है अगर आपके पूर्वज गलती करते पकड़े जाएँ तो। बल्कि अगर वो गलती नहीं कर रहे, तो उनका सम्मान करिए कि आपके पास इतने ज्ञान के स्रोत नहीं थे, फिर भी आपने गलतियाँ नहीं करीं तो आपका सम्मान बहुत है। पर अगर वो गलती कर रहे हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये तो बहुत ही बड़ा कुतर्क है ‘तो क्या हमारे पूर्वज गलती करते थे?’ हाँ करते थे क्योंकि इंसान थे और इंसान गलती करता है।
आज शिक्षा का स्तर कितना है और आज से चार-सौ साल पहले कितना था? वो लोग गलती क्यों नहीं करेंगे। आज शिक्षा का और ज्ञान का स्तर कितना है और आज से चार-सौ साल पहले, आठ-सौ साल पहले कितना था? क्यों नहीं करेंगे वो गलती?
और फिर कह रहा हूँ भारतीय संस्कृति को बेहतर होने के लिए कहीं बाहर देखने की ज़रूरत नहीं है। मत कहिएगा कि भारतीय संस्कृति क्या वेस्टर्न (पश्चिमी) संस्कृति बन जाए, क्या हमें वेस्टर्न कल्चर को, पाश्चात्य संस्कृति को कॉपी (नकल) करना पड़ेगा? नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है।
भारतीय संस्कृति को अगर बेहतर होना है तो उसे बस भारतीय दर्शन से जुड़ना पड़ेगा। और भारतीय दर्शन कहता है “नाsहम् देहास्मि’’ देह छोड़ो पीछे हटो, तुम चेतना हो। और चेतना जैसी स्त्री में है, वैसी पुरुष में है, दोनों मनुष्य हैं, दोनों मनुष्य हैं। ये भारतीय दर्शन है कि देह की बहुत कीमत ही नहीं। तुम क्या उस लड़की को परेशान कर रहे हो कि तेरी देह ऐसी है, तेरी देह वैसी है। जो असली कीमत है वो ज्ञान की है, चेतना की है।
समझ में आ रही है बात?
भारतीय संस्कृति को भारतीय दर्शन से जोड़ो, नहीं तो नतीजा क्या होगा वो बता देता हूँ। नतीजा ये होगा कि बहुत सारे लोग जिनकी बुद्धि चलती है, जो सोच-समझ सकते हैं और जो विद्रोही हैं वो भारतीय संस्कृति छोड़कर के पाश्चात्य संस्कृति अपनाते जाएँगे। जो कि खूब हुआ भी है, आज भी हो रहा है।
भारतीय संस्कृति को अगर आपने भारतीय दर्शन से नहीं जोड़ा, तो लोग भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति अपनाते जाएँगे। कौन ऐसी संस्कृति का पालन करना चाहेगा, जिसमें आधी मानवता को एक निचला स्तर दिया गया हो, महिलाओं को और कौन ऐसी संस्कृति का पालन करना चाहेगा जिसमें देश की अस्सी-नब्बे प्रतिशत आबादी को ये बोल दिया गया हो कि तुम तुम जन्म के आधार पर ही हीन हो। हमारी संस्कृति में तो ये दो बड़े स्तम्भ हैं –– स्त्रियों का हीन स्थान और जो गैर सवर्ण हैं, उनका हीन स्थान। कौन ऐसी संस्कृति पर चलेगा। वो धीरे-धीरे सब चले जाएँगे पाश्चात्य संस्कृति की ओर। और फिर छाती पीटने से नहीं होगा कि इंडिया में तो वेस्टर्न कल्चर आ गया, वेस्टर्न कल्चर आ गया।
अगर चाहते हो कि ना आए वेस्टर्न कल्चर तो इंडियन कल्चर को इंडियन फ़िलोसॉफ़ी (भारतीय दर्शन) से जोड़ दो। उसके लिए इंडियन फ़िलोसॉफ़ी पढ़नी पड़ेगी। पर पढ़ने-लिखने से तो हमको अरुचि है। न हमने आठवीं में पढ़ाई करी, न दसवीं में पढ़ाई करी, न कॉलेज में पढ़ाई करी।
तो जैसे ही कहा जाता है की दर्शन पढ़ो तो बहुतों को नींद आ जाती है। और जो संस्कृति वादी हैं उनको तो एकदम नींद आ जाती है। जैसे ही कहो कि किताब उठाओ, पढ़ाई करो, वो एकदम रोना, सोना सब शुरू कर देते हैं। उनको तो सस्ती संस्कृति मिल गई है। कैसे? कि बस वही कि मेरी दादी मेरी माँ से कैसा व्यवहार करती थी, वही इंडियन कल्चर है। गजब!
भारतीय दर्शन ज़बरदस्त तरीके से खुला हुआ है। और मैं फिर बोल रहा हूँ भारतीय दर्शन अगर जुड़ गया भारतीय संस्कृति से, तो जिसको आप भारतीय संस्कृति कहते हो, ये बिल्कुल बदल जाएगी।
हमारी संस्कृति में ऐसा बहुत कम है जो सचमुच बहुत ऊँचा हो, क्योंकि वो हमारे दर्शन से जुड़ी हुई नहीं है। वो बस ऐसे ही परंपरा पर चल रही है, कहा-सुनी पर चल रही है, जन श्रुति पर चल रही है। और यही वजह है कि जब मेरे जैसा कोई प्रयास करता है कि हमारी संस्कृति में सुधार हो और वो हमारे दर्शन से प्रेरणा पाए, तो लोगों को ये बात बहुत अखर जाती है। क्योंकि हमारी संस्कृति इतनी ज़्यादा बीमार है कि जैसे ही उसको दर्शन से जोड़ते हो तो संस्कृति पूरी बदलनी शुरू हो जाती है। जब बदलनी शुरू हो जाती है तो जिन लोगों के स्वार्थ जुड़े हैं संस्कृति की बीमारी से, उन्हें तकलीफ़ होने लगती है।
समझ रहे हैं बात को?
प्रश्नकर्ता: जी, मैं ये भी देख रहा था सर कि मतलब वो तो अपना आत्मविश्वास से अपने बारे में बता रही थी। लेकिन नीचे (कमेन्ट में) उनको अनावश्यक सुझाव दिए जा रहे थे कि इनको कुछ घरेलू जड़ी-बूटियाँ ले लेनी चाहिए या उनको मतलब बार-बार ये एहसास दिलाया जा रहा था कि आप लड़की हो और लड़की की तरह ही रहना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: मैं बताता हूँ क्या होता है जब कोई भारतीय प्रतिभा सम्पन्न छात्र इन संस्कृति वादियों के द्वारा ठेला जाता है। वो फिर भारत ही छोड़ देता है। वो कहता है, ‘जिस देश में प्रतिभा का सम्मान नहीं है, जहाँ की संस्कृति मेरी प्रतिभा को नहीं, मेरी देह को देखती है, मुझे उस देश में रहना ही नहीं है।’ और चूँकि वो प्रतिभा सम्पन्न है, मेधावी छात्रा है तो उसे अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) में प्रवेश मिल जाएगा। वो वहाँ चली जाएगी, वहीं बस जाएगी। वो कहेगी, ‘मैं ऐसे देश जाऊँ क्यों, जहाँ की संस्कृति, जहाँ के लोग ऐसे हैं कि जो न मेरा गणित देख रहे, न मेरा विज्ञान देख रहे, न मेरी प्रतिभा देख रहे, वो बस मेरा चेहरा, मेरी देह देख रहे।’ कह रहे, ‘मुझे रहना ही नहीं ऐसे देश में।’
भारत से जो इतना ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) हुआ है, वो बस इसलिए नहीं हुआ कि लोगों में स्वार्थ था तो वो पैसा कमाने के लिए अमेरिका भाग गए। मैं जानता हूँ न! आइआइटी, आइआइएम के मेरे दो-तिहाई बल्कि शायद नब्बे प्रतिशत बैचमेट भारत से बाहर ही हैं। उनमें से बहुत सारे इसलिए बाहर हैं क्योंकि वो भारत से बहुत दुखी हो गए थे। बहुत सारे लौटना चाहते हैं, पर लौटने का विचार बनाते हैं, भारत आते हैं, पन्द्रह दिन रहते है। कहते हैं, ‘नहीं आना यहाँ।’ कहते हैं, ‘बाकी तो सब ठीक है, पर इस कल्चर का क्या करें? जुगाड़ का कल्चर, पाखंड का कल्चर, क्या करें?’ और इसी कल्चर को हम अपनी शान समझते हैं।
हम कहते हैं, ‘इंडियन कल्चर, द ग्रेट इंडियन कल्चर (महान भारतीय संस्कृति)।‘ भाई वो ग्रेट (महान) हो सकता है, अगर तुम उसको भारतीय दर्शन से जोड़ दो। अभी वो ग्रेट नहीं है, मान लो इस बात को।
अग्रणी लोग, मेधावी लोग, बुद्धिजीवी लोग भारत छोड़कर हमेशा जाते रहे हैं और पिछले पाँच-दस-पन्द्रह सालों में तो भारत छोड़ने वालों की संख्या में ज़बरदस्त उछाल आया है। भारत पर संस्कृति वादी जितना हावी होते गए हैं लोग, उतना भारत से प्रतिभा पलायन बढ़ता गया है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी ऐसे में तो मतलब जो यहाँ रह गए, वो तो पहले से ही हम कह सकते हैं कि एक अपने स्तर पर जी रहे थे और जो थोड़ा स्तर ऊँचा उठ रहा है जिनका वो चले गए। तो ये स्थिति तो फिर और भयावह होती चली जाएगी, अगर....।
आचार्य प्रशांत: छोड़ दोगे यहाँ जैसा चल रहा है तो भयावह होगी-ही-होगी। पर जो छोड़कर चले जाते हैं, मैं उनको भी बहुत दोष कैसे दूँ। वो कहते हैं, ‘हम में दम नहीं है, ये करोड़ो हैं, इनसे कैसे निपटें और ये ज़्यादातर जो संस्कृति वादी हैं अशिक्षित लोग हैं। अशिक्षित लोग, जिनमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर के भरा हुआ है, इनसे बात कैसे करें?’ वो कहते हैं, ‘हमारी एक ही ज़िंदगी है, इन मच्छरों से भिड़ने में अपनी वो ज़िंदगी खराब नहीं करेंगे, हम यूएस जा रहे हैं।’
मुझे न जाने कितनी बार ये कभी सुझाव भेजते हैं, कभी न्यौता भेजते हैं कि क्यों भारत में सड़ रहे हो, बाहर आ जाओ। अब मैं अंगद की तरह यहाँ पाँव जमाकर खड़ा हुआ हूँ, नहीं तो ये प्रश्न मुझसे भी बार-बार पूछा जाता है कि ये देश तुम्हारी कदर कभी नहीं करने वाला, तुम यहाँ क्यों अपनी ज़िंदगी खराब कर रहे हो।
कितनी अजीब बात है न! ऊँचे-से-ऊँचा दर्शन जिस देश के पास है, उस देश की संस्कृति ऐसी है। लेकिन फिर भी पाखंड पूरा है, हेकड़ी पूरी है और आत्मविश्वास पूरा है कि अवर कल्चर इज़ द बेस्ट (हमारी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है)।
दहेज हत्या और कहाँ होती है? बताना। अवर कल्चर इज़ द बेस्ट ! जनसंख्या के एक बहुत बड़े वर्ग को सम्मान से और कहाँ नहीं जीने दिया जाता? इतना ज़बरदस्त अंधविश्वास समाज में है और वो बहुत सारा संस्कृति के नाम पर है। कह रहे, ‘ये तो हमारा कल्चर है।’ ‘भाई, वो अंधविश्वास है तुम उसे संस्कृति क्यों बोल रहे हो?’
और दहेज हत्या न भी हो, तो भी सौ में से निन्यानवे शादियाँ बिना दहेज के हो ही नहीं सकती। कोई ताकतवर है, उसके आगे झुक जाओ। जल्दी से सत्ता पा लो, मोटी नौकरी पा लो, वहाँ घूस खाओ।
कल्चर माने क्या होता है? जिसका आप व्यवहार कर रहे हो, वही कल्चर कहलाता है। तो चाहे वो आपका खान-पान हो, चाहे आपकी भाषा हो, चाहे आपका आर्किटेक्चर (वास्तुकला) हो, ये सब कल्चर के तत्व होते हैं, संस्कृति के। आपके सोचने का जो ढंग है वो भी कल्चर में आता है। आप किसी से मिलते हो, अभिवादन कैसे करते हो, ये भी कल्चर में आता है।
सामाजिक व्यवहार हमारा ऐसा है कि बिना घूस लिए हम कुछ करेंगे नहीं। प्रकृति की तरफ़ व्यवहार हमारा ऐसा है कि बिल्कुल नाश कर दो प्रकृति का, हमें तो विकास चाहिए। सार्वजनिक स्थलों को गंदा रखने में हम कोई कसर नहीं छोड़ते। टैक्स (कर) चोरी में हम सबसे आगे हैं और उसके बाद भी हमको आत्मविश्वास भरपूर है कि हम अपनी संस्कृति को सुधारना चाहेंगे नहीं बिल्कुल।
हम कहेंगे, ‘हमारी संस्कृति जैसी है, वैसे ही सर्वोत्तम है, बल्कि पश्चिम की संस्कृति निंदनीय है। हमारी संस्कृति बहुत अच्छी है। हमें कोई सुधार नहीं करना है।‘ और मैं कह रहा हूँ सुधार करने के लिए पश्चिम की नकल करने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम अपने ही उपनिषदों की तरफ़ चले जाओ और उनके दर्शन के आधार पर अपनी संस्कृति का सुधार करो और कुछ?
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी।