बीमारी को बीमारी न मानना ही बीमारी है || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

12 min
131 reads
बीमारी को बीमारी न मानना ही बीमारी है || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्न : आचार्य जी, अपने आप को इस दिशा में ले जाना; आपने तो कहा इस चीज़ का अनुशरण करो, लेकिन मैं ये समझता हूँ, ये आसान काम नहीं है।

श्रोता : कोशिश करो।

प्रश्नकर्ता : नहीं, कोशिश अलग चीज़ है।

कौन चाहता है बुरा बनना? कोई नहीं चाहता है बुरा बनना। विरला कोई होगा जो बोले, “नहीं, मैं खराब हूँ। खराब बनना चाहता हूँ।” हर आदमी चाहता है कि वो अच्छा करे, उसको लोग पसंद करें, उसकी अच्छाईयों को। लेकिन उस रास्ते पर, मुझे लगता है नब्बे प्रतिशत लोग चल नहीं पाते हैं। मुझे लगता है कि हम किसी वजह से लाचार हैं।

तो मैं ये चाहता हूँ कि आप बताएँ कि हम रास्ते पर कैसे अपने को धीरे-धीरे ले के आएँ? ये कोई रात भर में तो होगा नहीं, जादू तो है नहीं कि आपने बोल दिया, और हमने कर दिया, और कल से हो गया। ये नहीं होने वाला। अनुशाषण से लाना है, कैसे लाना है? छोटे-छोटे कदम – जैसा आपने बोला।

आचार्य प्रशांत : आपने कहा, “नब्बे प्रतिशत लोग कर नहीं पाते, चाहते हुए भी।”

श्रोता : ये तो विचार है। हो सकता है मैं गलत हूँ।

वक्ता : नहीं, ठीक कह रहे हैं आप, ऐसा ही है। आप तथ्यों को देखें तो ऐसा ही है। नब्बे से बल्कि ज़्यादा ही होंगे। नहीं, चाहते सभी हैं, बढ़िया कहा आपने कि बुरा कौन बनना चाहता है। कोई बुरा नहीं बनना चाहता, कोई भी भुगतना नहीं चाहता।

एक दुर्घटना हो गयी है। दुर्घटना ये है कि हमने एक झूठ को सच मान लिया है। अगर आप को ये पता ही हो कि आप तकलीफ में हैं, तो आपके पास पूरा बोध है, पूरी शक्ति है, उस तकलीफ से मुक्त हो जाने की। क्योंकि तकलीफ में कोई जीना नहीं चाहता। लेकिन आदमी के साथ एक विचित्र स्थिति है। मैं उसी को दुर्घटना का नाम दे रहा हूँ। वो स्थिति ये है कि हम तकलीफ में होते हैं, पर उसे तकलीफ का नाम नहीं देते, हम उसे कोई खूबसूरत नाम दे देते हैं। तो तकलीफ कायम रह जाती है।

एक बार आप ये मान लें कि आप जैसे हैं, जिस पल आप जहाँ बैठे हुए हैं; मान लीजिये आप ये स्वीकार कर लें कि वहाँ आपको तकलीफ है, कुछ गड़ रहा है या कुछ टेढ़ा है, तो आप वहाँ से हट जाएँगे। हटने के तमाम रास्ते मौजूद हैं। ऊपर कुर्सी है, या अन्य जगह स्थान है, आप जा सकते हैं।

श्रोता : मगर इतनी देर से मेरे पैरों में दर्द हो रही है, मैं तो बैठा हुआ हूँ। तो ये तो गलत है, तकनीकि रूप से ये गलत है।

वक्ता : पैरों में दर्द हो रहा हो, और आपको पता हो कि उस दर्द से ज़्यादा मूल्यवान कुछ और है। आप जानते हैं, वो दर्द है, आप दर्द को कोई और नाम नहीं दे रहे। पर आपको पता है कि दर्द से ज़्यादा मूल्यवान बोध है, तब दर्द को बर्दाश्त करना एक बात है। और एक दूसरी बात ये होती है, कि आप दर्द को दर्द कह ही नहीं रहे, आप दर्द को कह रहे हैं कि ये तो प्रेम है। आप दर्द को कह रहे हैं, “न, ये दर्द नहीं है। ये तो ज़िम्मेदारी का प्रसाद है।” तब आप दर्द से कभी मुक्त नहीं हो पाएँगे।

जो कैंसर, अपने होने का एहसास करा देता है, उसका अकसर इलाज हो जाता है। इसलिए कुछ तरह के कैंसर, बहुत घातक होते हुए भी मौत नहीं ला पाते। क्यों? क्योंकि वो दिख जाते हैं।

और कुछ कैंसर ऐसे होते हैं, जो उतने घातक नहीं होते पर जिनमें मृत्यु दर बहुत ज़्यादा है, क्योंकि दिखते ही सिर्फ आखिरी हालत में हैं।

हम बीमारी को बीमारी का नाम ही नहीं दे पाते। हम सब समर्थ हैं। ताकत हम सब में है, बुरा न होने की, कष्ट में न जीने की, विद्रोह कर देने की। पर विद्रोह तो आप तब करो ना, बंधन से तो आप तब छूटो ना, जब पहले आप बंधन को बंधन मानो।

हमारी शिक्षा कुछ ऐसी हो गयी है, हम में मूल्य कुछ ऐसे भर दिए गए हैं कि हम बंधन को बंधन नहीं मानते, हम उसे कोई सुन्दर नाम दे देते हैं; हमें सिखा ये दिया गया है। हमारा दम घुट रहा होगा, हम मानेंगे ही नहीं कि दम घुट रहा है। हम कहेंगे, “न न न, ये तो ऐसे ही दिन की सामान्य थकान है।” हमें प्रेम न मिल रहा होगा, हम मानेंगे ही नहीं कि हम प्रेम के प्यासे हैं। हम कहेंगे, “न, जीवन ऐसा ही होता है। इसी को तो परिवार कहते हैं। परिवार का अर्थ है वो जगह जहाँ प्रेम न होता हो। ये तो हमें बता ही दिया गया था। तो यदि इस घर में मुझे प्रेम नहीं मिलता, तो ये कोई विद्रोह की बात ही नहीं है। ये तो…”

श्रोता : आम बात है।

वक्ता : सामान्य है।

सामान्य की जो हमारी परिभाषा है, वो बड़ी गड़बड़ हो गयी है। इसलिए हम विद्रोह नहीं कर पाते। विद्रोह उठता भी है, तो हम उसको दबा देते हैं। हम कहते हैं, हर घर में यही तो हो रहा है। और देखो ना, टी वी को देखो, स्कूल को देखो, कॉलेज को देखो, परिवार को देखो, माँ बाप को देखो, उन सबने यही तो बताया है कि ऐसा ही होता है। और ऐसा ही होता है तो मैं होता कौन हूँ, क्रांति करने वाला। मैं होता कौन हूँ, उस जगह से उठ जाने वाला, जो जगह चुभ रही है।

जैसे मुझे चुभ रहा है, ऐसे ही मेरे पिताजी को चुभ रहा था। ऐसे ही मेरे दादा जी को चुभा था। और हमारे परिवार में, जो चुभ रहा हो उससे न उठने की परंपरा है। वो कभी अपनी गद्दी छोड़ के नहीं उठे, जब चुभ भी रहा था, तो मैं क्यों उठूँ? इतना ही नहीं, उन्होंने कभी चुभन को चुभन कहा ही नहीं। उन्होंने कहा, “ये तो फूलों की पंखुड़ियों का दैवीय स्पर्श है। ये काँटा थोड़े ही चुभ रहा है, ये तो पंखुड़ी मुझे सहला रही है। हम अपने ही प्रति क्रूर और असंवेदनशील हो गए हैं। हमें अपनी ही तड़प के प्रति ज़रा भी सद्भावना नहीं है। एक छोटा बच्चा होता है, आप उसको ज़बरदस्ती गोद में ले लें, वो ऐंठेगा और छिटक के दूर हो जाएगा। देखा है आपने? उसको भी अपने स्वार्थ का ख़याल होता है।

हमने स्वार्थ को गंदा शब्द बना दिया है। हमें जब किसी को गाली देनी होती है तो , हम कहते हैं , “ तू स्वार्थी है ।” नतीजा क्या निकला है ? नतीजा ये है कि हमें अपने ही हित का अब कोई ख़याल नहीं है। वास्तविक स्वार्थ हम जानते ही नहीं। वास्तविक स्वार्थ परमार्थ होता है। वो ईश्वरीय बात है। वो परमात्मा की दी हुई चीज़ है।

छोटा बच्चा भी जानता है, कि जहाँ साँस न आती हो, वहाँ से दूर हो जाओ। हम उन दफ्तरों में, ऑफिसों में, जगहों में, गोष्ठियों में, पार्टियों में, बार-बार जाते हैं जहाँ हमें पता है कि साँस नहीं आएगी। जहाँ हमें पता है कि सिर्फ दिखावा है, सिर्फ झूठ है, सिर्फ कष्ट है, प्रतियोगिता है, जलन है; हम जलती हुई जगह पर बार बार पाँव रखते हैं। जानते बूझते भी। क्यों? क्योंकि हमने जलन को क्या नाम दे दिया है? “दायित्व” का, “ज़िम्मेदारी” का। हमें पता है कि हम उस जगह पर जाएँगे, उस गोष्ठी में बैठेंगे, उस सभा में जाएँगे, तो जलन उठनी है, दाह आएगा, ताप आएगा, गलत होगा। फिर भी हम चले जाते हैं। क्योंकि परंपरा है, और हमें बता दिया गया है कि अगर तुम ये नहीं करोगे तो तुम बुरे कहलाओगे।

तो ये सब सिखाई हुई बातों ने, इस आयातित नैतिकता ने हमें बड़ा ही, जैसे में कह रहा था, असंवेदनशील बना दिया है। हम अपने ही प्रति दुर्भावना और हिंसा से भरे हुए हैं। हम किसी के साथ — थोड़ी देर पहले मैंने कहा — उतना अन्याय नहीं करते जितना अपने साथ करते हैं। हम ऐसे हैं, कि जैसे छत्तीस इंच कमर वाले किसी आदमी ने अट्ठाईस इंच की पैंट पहन रखी हो।

श्रोता : सर, ऐसी तो हमारी परवरिश है ना, हमें जैसे बड़ा किया गया है, हम अपने बच्चों को कर रहे हैं।

वक्ता : उसका कारण मत पूछिए।

श्रोता : आपने बताया कि समाज में जाना है, गोष्ठी में जाना है, अगर मैं उस गोष्ठी में नहीं जाती, मुझे पता है मेरा मन वहाँ नहीं लगेगा, पर वहाँ जाना आवश्यक है। अगर मैं वहाँ नहीं जाउँगी, मैं समाज से निष्कासित कर दी जाउँगी। तो कोई और ऑप्शन ही नहीं है ना। तो आपके दिमाग में अभी भी अशांति ही है।

वक्ता : हाँ। देखिये ये आदमी को तय करना पड़ता है कि ऐसी जगह से निष्काषित किया जाना, जहाँ दम घुटता हो, अभिशाप है या वरदान है? आप अगर एक ऐसी जगह से निकाल ही दिए गए, जहाँ लोग आपको नहीं समझते, जहाँ उल्टे-पुल्टे पैमाने चल रहे हैं, तो इससे अच्छा आप के साथ हो क्या सकता था? आप एक पागलखाने में बंद हो, और वहाँ आप पर दुर्व्यवहार का इलज़ाम लगा कर आपको निष्कासित कर दिया जाता है, आप रोओगे या हँसोगे? बोलो?

श्रोतागण : हँसेंगे।

वक्ता : तो अच्छा है ना, कि निकाल दें। आप कहो, यही तो चाहते थे, धन्यवाद। बढ़िया है, निकालो। तुम्हारे साथ रह कर के वैसे भी नुकसान ही नुकसान था।

श्रोता : लेकिन जो ज़िम्मेदारी मिली हुई है समाज की, मतलब जो हमें करनी है, अगर मेरे को वहाँ से निष्कासित कर दें तो?

वक्ता : देखिये, हम सब यहाँ बैठे हुए हैं, कोई किसी की कान नहीं खींच रहा। कोई किसी की पूँछ नहीं खींच रहा। कोई किसी को परेशान नहीं कर रहा। और ये इसीलिए थोड़े ही है कि हम अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभा रहे हैं। ये बात तो सामान्य होश की है ना? ज़िम्मेदारी की ज़रुरत क्या है? प्रेम काफी नहीं है?

श्रोता : तो जैसे घर के बड़े हैं, उनको उस प्रोग्राम में जाना ही जाना है, अगर नहीं गए तो वो बोलेंगे, “आये नहीं।”

वक्ता : पर जो कह रहे हैं, “आये नहीं”, वो खुद बेहोश हैं। उनकी बात क्या सुननी है? जो कह रहे हैं, नहीं आये, वो खुद यदि जागरूक होते तो वे स्वयं भी क्यों आते?

तो जो आदमी खुद सोया हुआ है, उसको थोड़े ही तुम मौका दोगे ये कहने का कि तुम बेहोश हो।

और जहाँ तक ज़िम्मेदारियों की बात है, रिश्ते ज़िम्मेदारियों से नहीं चलते, प्रेम से चलते हैं। आप अपने बच्चे कि यदि देखभाल करते हो, उसकी सेवा करते हो, तो कोई ज़िम्मेदारी थोड़े ही निभा रहे हो। ये तो आपके प्यार की बात है। आप पति को सुबह सुबह एक प्याला चाय देते हो, या पत्नी को, तो ज़िम्मेदारी निभा रहे हो? या ये प्यार है कि सो के उठे हैं, तो तेरे लिए, ले। अगर ज़िम्मेदारी भर निभा रहे हो, तो मत निभाओ। किसी दिन ऊब जाओगे कि सुबह सुबह रोज इसको चाय देनी पड़ती है। आज कुछ और ही क्यों न दे दूँ?

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये तो प्यार की बात है ना।

श्रोता : जब भी ज़िम्मेदारी होगी वहाँ…

वक्ता : हिंसा होगी। जहाँ ज़िम्मेदारी है, वहाँ हिंसा है। क्योंकि ज़िम्मेदारी थोपी हुई चीज़ है, प्यार असली है, आतंरिक है।

श्रोता : आचार्य जी, बच्चे भी समाज के हिस्से हैं तो वो भी देखते हैं कि भाई ये ये करियर ऑप्शन्स हैं, इसमें लोगों की बड़ी इज़्ज़त होती है – आई आई टी हो गया, आई आई ऍम हो गया। तो उसमें अपना जो होता है, कि बिना किसी प्रभाव के निर्णय लें, वो कर नहीं पाते। कई बार पैरेंट भी उसी भावना को आगे बढ़ा देते हैं कि हाँ बेटा अपना जो निर्णित रास्ता है, उसी पर चल, अपना नया रास्ता मत निकालो। तो उस स्थिति में कई बार वो आतंरिक साहस नहीं आता।

तो कैसे हम लोग एक अच्छे अभिभावक बनें, कि जैसे बच्चे की जो भी सम्भावना है, उसका जो स्वभाव है वो है, वो उसमें जिये?

वक्ता : अपने जीवन के द्वारा, ये उदाहरण स्थापित करिये, ये मूल्य स्थापित करिये कि सच का साथ देना है भीड़ का नहीं। मुझे उस कॉलेज में नहीं जाना है जहाँ भीड़ है, मुझे उस कॉलेज में जाना है, जो वाक़ई मेरे लिए अच्छा है। जहाँ मुझे तृप्ति मिलेगी, शान्ति मिलेगी, जहाँ मैं कोई सृजनात्मक काम कर पाउँगा।

अगर वो देखता है कि मेरे पिता ने जीवन में जो भी चुनाव किये वो सच्चाई के पक्ष में थे, तो बच्चा स्वयं ही समझ जाएगा कि सच्चाई ऊँची बात है, इसको मूल्य देना चाहिए। और बच्चा ये देखता है कि मेरे पिता ने जो भी चुनाव किये, वो तो ज़माने की आँखों में पद-प्रतिष्ठा आदि अर्जित करने के लिए थे, तो बच्चा भी यही कहेगा, फिर मुझे भी ऐसे निर्णय लेने चाहिए जिसमें ज़माने से इज़्ज़त मिल जाए। दो-चार लोग आ के कहें, “वाह क्या बात है।”

आप स्वयं मूल्यों की स्थापना करते हैं, अपने मूल्यों का प्रदर्शन कर के। तो होशियार रहें कि आप के मन में कौन से मूल्य पल रहे हैं। आप जिस किसी को मूल्य देते हैं ना, वही आपकी ज़िंदगी बन जाता है। जो आपकी ज़िंदगी बन जाता है, वही आपके द्वारा स्थापित उदाहरण बन जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories