भिक्षां देहि! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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भिक्षां देहि! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: ये बड़ा रूमानी सपना रहता है कि, "हम सन्यासी हो जाएँगे, और जैसे बुद्ध के चेले थे, बोलेंगे, 'भिक्षाम देहि', और द्वार से सुंदरी प्रकट होगी पात्र लेकर के, दाल-चावल, और हमारी अंजुली में डाल देगी और हम बिल्कुल नयन नीचे करे, मुक्त पुरुष की तरह खड़े रहेंगे।" बेटा, वो घर तो अब होते नहीं। अब तो सोसाइटी हैं, और वहाँ गार्ड (चौकीदार) हैं बाहर। वहाँ बोलोगे, "भिक्षाम देहि"। बहुत मारेगा!

तो कमाना सीखो। पहले की बात दूसरी थी—खेत थे, उपवन थे, बाग थे—किसी को कुछ नहीं मिला तो फल-फूल पर ही निर्वाह कर सकता था। तुम बताना, यहाँ कहाँ तुम्हें आम और लीची के भरे हुए वृक्ष मिल रहे हैं, कि भिक्षा नहीं मिली तो कोई बात नहीं, आज एक आम ही सही? एक बढ़िया आम कितने रुपए का आता है? अब तो आम बाज़ार में ही मिलेगा। और बाग में मिलेगा तो उसके आसपास कुत्ते घूम रहे होते हैं। वो गिरा हुआ आम भी किसी दूसरे जानवर को न खाने दें, पेड़ वाला आम तो छोड़ दो! किसान अपने फलों पर रसायन मल के रखते हैं कि चिड़िया भी उसको न खाये, नहीं तो तोते वगैरह आकर के चोट मारते हैं तो किसान उसपर मल देते हैं चीज़ें। और भी अगर बड़ा और मूल्यवान फल होता है तो उसको बाँध देते हैं। अब वो ज़माना थोड़े ही है कि सन्यासी होकर निकले तो—गंगा का किनारा और फलदार वृक्ष, और चाहिए ही क्या? जाओ ऋषिकेश, गंगा के किनारे लेटो, पुलिसवाला दो डंडा लगाएगा। जाओ लेट के दिखाओ।

तो कमाओ!

साधक के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता परम आवश्यक है। इस बारे में किसी को कोई गलतफ़हमी न रहे। जो रोटी के लिए भी परतंत्र है, वो आत्मिक तौर पर स्वतंत्र नहीं हो सकता।

और इसका मतलब ये नहीं है, फिर दोहरा रहा हूँ, कि तुम्हें लाखों-करोड़ों कमाने चाहिए। पर कम-से-कम इतना कमाओ कि कोई तुम्हारी साधना में व्यवधान न डाल सके। जगत की कोई ताकत तुमसे आकर ये न कह सके कि हमारा खाते हो तो हमारे अनुसार जिओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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