भीकाजी कामा - जीवन वृतांत

भीकाजी कामा - जीवन वृतांत

22 अगस्त 1907 को जर्मनी में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इन्होंने भारत का झंडा फहराया था।

आज़ादी से 40 साल पहले, भारत का झंडा फहराने वाली वे पहली भारतीय बनी। अधिकतम समय उन्होंने भारत से बाहर ही बिताया लेकिन उन्हें आज भी 'भारतीय क्रांति की जननी' कहा जाता है।

हम बात कर रहे हैं - श्रीमती भीखाजी कामा की।

वर्ष 1861 में उनका जन्म एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था। माता-पिता ने हमेशा उन्हें पढ़ने को प्रोत्साहित किया, वे भारत से सबसे अच्छे स्कूल व कॉलेजों में पढ़ीं और अनेकों भारतीय व विदेशी भाषाओं में निपुणता हासिल की।

वे जब बड़ी हो रही थीं तब स्वामी विवेकानंद व स्वामी दयानंद की सामाजिक क्रांति अपने शिखर पर थी, और देश में जगह-जगह पर क्रांतिकारी संगठन जन्म ले रहे थे। देश में दौड़ रही क्रांति की लहर से वे बहुत आकर्षित थीं। लेकिन इसी बीच 24 साल की उम्र में उनकी एक अमीर पारसी घर में शादी हो गई।

उनका वैवाहिक जीवन कभी मधुर नहीं था क्योंकि उनके पति अंग्रेजों को भला मानते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों की वजह से भारत की तरक्की हुई है। लेकिन मैडम कामा उनकी इस बात से कभी सहमत नहीं हो पाईं।

वर्ष 1896 में मुंबई में ब्यूबोनिक प्लेग फैलने लगा। महामारी के चलते पूरे शहर में लाशें बिछने लगी थीं। ऐसे में मैडम कामा ने राहत कार्य में भाग लिया। और अंग्रेजों के अनदेखी के चलते अपने देशवासियों की पीड़ा देख, उनको साफ़ दिखने लगा था कि भारत का आज़ाद कितना ज़रूरी है।

कुछ दिनों में महामारी ने उन्हें भी जकड़ लिया, और वर्षों तक तबियत के ठीक ना होने पर उन्हें यूरोप जाने की सलाह मिली। वर्ष 1902 में वे इंग्लैंड पहुँचीं और अपने इलाज के दौरान उन्होंने पहली बार श्री दादाभाई नौरोजी का एक भाषण सुना। कुछ समय बाद वे वहाँ रह रहे अन्य क्रांतिकारियों से भी मिलीं और जगह-जगह पर अंग्रेज़ी शासन के अंतर्गत भारत की दुर्दशा पर जागरूकता फैलाने लगीं।

जब 'वन्दे मातरम' को अंग्रेजों ने भारत में बैन कर दिया, तो उन्होंने इसी नाम की एक पत्रिका इंग्लैंड से छापनी शुरू की। जब मदनलाल ढींगरा को फाँसी दी गई, तो उन्होंने 'मदन की तलवार' नाम से एक और पत्रिका शुरू की, और उन्हें पॉण्डिचेरी की रास्ते भारत में पहुँचाया।

उनकी इन्हीं गतिविधियों के चलते अंग्रेजों ने उनके भारत में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया और उन्हें जेल में डालने की कोशिश की। लेकिन उन्हें फ़्रांस में शरणार्थी के तौर पर जगह मिली, और उन्होंने पेरिस में रहना शुरू किया। इसके बाद उनका जीवन कभी आसान नहीं रहा। उन्हें हर सप्ताह पुलिस स्टेशन में हाजिरी के लिए जाना पड़ता था। ख़राब तबीयत के साथ, सीमित संसाधनों में गुज़ारा करना पड़ता था।

वहीं रहकर उन्होंने 'पेरिस इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की। और श्री श्यामजी कृष्णवर्मा के साथ मिलकर स्वतंत्र भारत के पहले झंडे की रूप-रेखा तैयार की।

इसी झंडे को 22 अगस्त 1907 को जर्मनी में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने फहराया था।

जर्मनी के बाद, मैडम कामा अमेरिका गईं। वहाँ उन्होंने खूब यात्रा की और अमेरिका के लोगों को भारत की आजादी के संघर्ष के बारे में जानकारी दी। उन्होंने महिलाओं के हितों के लिए भी लड़ाई लड़ी और अक्सर राष्ट्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका पर ज़ोर दिया।

वर्ष 1910 में मिस्र के राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने पूछा,

“मिस्र का बाकी आधा भाग कहाँ है? मैं केवल पुरुषों को देख पा रही हूँ जो सिर्फ़ आधे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं! माताएँ कहाँ हैं? बहनें कहाँ हैं? आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि जो हाथ पालना झुलाते हैं, वही हाथ व्यक्ति का निर्माण भी करते हैं।''

अपनी मातृभूमि से 30 वर्ष तक दूर रहने के बाद, वर्ष 1935 में उन्हें भारत आने की अनुमति मिली। अब उनकी तबियत बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थी। नौ महीने बाद, 13 अगस्त 1936 को मुंबई में उन्होंने आख़िरी साँस ली।

वे चाहतीं तो दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं के बीच अपना जीवन बिता सकती थीं। लेकिन उन्होंने संघर्ष चुना, आज़ादी को चुना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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