प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बाइबिल में एक दृष्टान्त है, एक कहानी है, उससे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।
“जीसस ने उन्हें एक और दृष्टान्त दिया कि स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के समान है जिसने अपने खेत में अच्छे उपजाऊ बीज बोया। पर जब सभी लोग सो रहे थे तो उसका एक बैरी आकर गेहूँ के बीच जंगली बीज बोकर चला गया। जब अंकुर निकले और बालें लगीं, तो जंगली दाने भी दिखाई दिये। इस पर उस गृहस्थ के दासों ने आकर उससे कहा, हे स्वामी, क्या तूने अपने खेत में अच्छा बीज नहीं बोया था? तो फिर जंगली दाने के पौधे उसमें कहाँ से आ गये? उसने उनसे कहा, यह किसी बैरी का काम है।
दासों ने उनसे कहा, तेरी क्या इच्छा है कि हम जाकर इन जंगली बीजों को बटोर लें? तो उसने कहा, ‘ऐसा नहीं करो। जंगली दानों को उपजने दो। और जंगली दाने के पौधे बटोरते हुए यह हो सकता है कि तुम गलती से गेहूँ को भी उखाड़ लो। कटनी तक दोनों को एकसाथ बढ़ने दो और कटनी के समय मैं काटने वालों से कहूँगा कि पहले जंगली दानों के पौधे बटोरकर जलाने के लिए उन्हें गट्ठे में बाँध लें और फिर गेहूँ को मेरे खेत में इकट्ठा कर दें।”
आचार्य जी, प्रश्न यही है कि जो दुर्गुणी है, गलत है उसको उपजने का भी मौका क्यों दिया? जब अवसर था कि उसको बीज रूप में ही हटाया जा सकता है।
आचार्य प्रशांत: इसका उत्तर तो कहानी में ही निहित है। बात सिर्फ़ दुर्गुणों को हटाने की नहीं है। बात ये है कि तुम्हारे सद्गुण भी अभी कितने मज़बूत हैं भाई। दुर्गुणों को हटाने में जो उथल-पुथल होगी, क्या तुम्हारे सद्गुणों में इतनी गहराई है कि उस उथल-पुथल को झेल जाएँ? तो सुनने में ऐसा लगता है जैसे ये कहानी दुर्गुणों को तात्कालिक, आवधिक संरक्षण देने के बारे में है। लेकिन ये कहानी वास्तव में उन ज़हरीले पौधों या झाड़-झंखाड़ के बारे में नहीं है जो गेहूँ के साथ खेत में खड़े हो गये हैं। ये बात वास्तव में गेहूँ की ही है। गेहूँ है, वो जिस पर तुमको ध्यान केन्द्रित करना है। और दूसरे झाड़ हैं, वो जो उसके बगल में ही खड़े हैं जिस पर ध्यान केन्द्रित करना है।
तुमने अगर अपनी ऊर्जा उनको उखाड़ने में लगा दी, जिनको तुम अपने लिए अहितकर समझते हो, विषैला, अनावश्यक समझते हो तो तुम्हारा ध्यान गेहूँ से तो हट गया न। और तुम्हारा गेहूँ अभी शैशवावस्था में है, छोटा ही है। ये कहानी उन साधकों के लिए है जो अभी साधना के आरम्भिक तल पर हैं। उनसे कहा जा रहा है कि अभी तुम अपनी पूरी ऊर्जा सद्गुणों के विकास में लगाओ। अभी तुम इधर-उधर लड़ाई-झगड़ा मोल लो ही मत, भले ही तुम्हें ज्ञात भी हो कि जिससे तुम उलझने जा रहे हो, वो वही है जिसको अन्तत: हराना है और जीवन से हटाना है। तो भी थोड़े विवेक का प्रयोग करो। थोड़ा समय का खयाल करो। अभी उचित समय नहीं आया है।
जब अपना केन्द्र मज़बूत कर लेना तब बाहर जितनी चाहे उतनी लड़ाइयाँ करना। कच्चे केन्द्र से तुम उनसे लड़ोगे जिन्हें तुम नहीं चाहते जीवन में प्रवेश देना, तो तुम्हारी जीत में भी हार हो सकती है। कैसे? अभी आवश्यक है कि तुम्हारी ऊर्जा का एक-एक अंश ‘सत्व’ के पोषण में जाए। ठीक? और अगर तुमने अपनी ऊर्जा ‘असत्’ को उखाड़ने में लगा दी, तो हो सकता है असत् तो उखड़ भी जाए, तुम जीत गये, इस अर्थ में कि तुमने असत् को उखाड़ फेंका। लेकिन वो जो पीछे बैठकर तुम्हारी ऊर्जा का अभिलाषी था, तुम्हारी ऊर्जा से ही जिसको पोषण मिलना था, जो तुम्हारे समय और ध्यान की मांग कर रहा था, उसको तो ऊर्जा, समय और ध्यान की कमी पड़ गयी न। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारा समय किधर को चला गया?
जब आप साधना की शुरुआत करेंगे, तो आप पाएँगे कि हज़ार दुर्गुण आपके भीतर मौजूद हैं। और उन्ही दुर्गुणों के साथ-साथ आपके मन में सद्गुणों के बीज भी डाले जा रहे हैं। सद्गुणों पर ध्यान दीजिए। दुर्गुणों को हमें बचाए नहीं रखना है। पर ये विवेक आवश्यक है कि कौनसा काम किस समय किया जाए।
रसोईघर बहुत गन्दा हो गया है। उसकी सफ़ाई आवश्यक है। पर खाना पक जाने और खाना परोस दिये जाने के बाद भई। अभी खाना पक रहा है, क्या तुम रसोईघर की सफ़ाई शुरू कर दोगे? छत पर कुछ जाले दिखाई दे रहे हैं, कुछ कालिख दिखाई दे रही है उसको खुरचना शुरू कर दोगे? नीचे अभी कढ़ाई में सब्ज़ी पक रही है और तुमने छत खुरचनी शुरू कर दी, ये कहकर कि ये सब दुर्गुण है, झाड़-झंखाड़ हैं ये क्यों मौजूद हैं? हो सकता है कि तुम वो गन्दगी हटा दो, वो झाड़ हटा दो इस अर्थ में तुम जीत जाओ। लेकिन वो जीत तुम्हारी हार हो गयी। क्योंकि तुम्हारा खाना बेकार हो गया, ज़हरीला हो गया शायद। पहले खाना पकाकर रसोई से बाहर कर लो। यही बात इस कथा में कही गयी है कि पहले फसल खड़ी हो जाने दो। पहले खाना पक जाने दो। उसके बाद सफ़ाई करेंगे।
बात समझ में आ रही है?
ये विवेक की बात है। कई दफ़े सत्य का और सत्य के प्रति प्रेम का तकाज़ा ये होता है कि तत्काल युद्ध में कूद पड़ो और कई दफ़े सत्य और सत्यनिष्ठा का तकाज़ा ये होता है कि सब्र करो।
दोनों ही बातें हमें अक्सर सुहाती नहीं। जब हमसे कहा जाता है कि न एक क्षण की भी अभी देर मत करना, ये मौका गँवाना नहीं है, कूद पड़ो। तो हम कहते हैं, ‘ये देखो, ये तो अन्धाधुन्ध ज़बरदस्ती हो रही है। कहा जा रहा है कि बिना तैयारी के, बिना विलम्ब के अभी कूद पड़ो। हम ऐसा तर्क दे देते हैं। और जब हमसे कहा जाता है कि सब्र करो, तो उसके विपरीत भी तर्क उठता है कि अगर प्रेम वास्तविक है, तो सब्र करने को क्यों कहा जा रहा है? ये तो समझौतापरस्ती हो गयी, ये तो आन्तरिक नपुंसकता हो गयी। क्या हममें दम नहीं कि अभी लड़ाई कर लें? क्या हममें दम नहीं कि अभी इन पौधों को उखाड़कर फेंक दें?
बात तुम्हारे दम की नहीं है, बात तुम्हारे मन्तव्य की है। तुमको अपना शक्ति प्रदर्शन करना है, अपना प्रतिभा प्रदर्शन करना है या अपना लक्ष्य हासिल करना है? तुमको अपनी व्यक्तिगत वीरता चमकानी है या अपनी मंज़िल पानी है? इन बातों के कोई तयशुदा नियम नहीं हो सकते। इन्तज़ार करते रहने का भी एक वक़्त होता है और एक उपियोगिता होती है। और तत्काल कूद पड़ने का भी एक वक्त होता है, उसकी भी एक उपियोगिता होती है। ध्यान इसीलिए है और प्रेम इसीलिए है कि हम जान पाएँ कि कब इन्तज़ार करना है और कब कूद पड़ना है।
प्र: जो गलत है, जब तक उसको रोकोगे नहीं तब तक जो सही है, वो भी उजागर नहीं होगा। तो ये दोनों तो कॉम्प्लीमेंटरी (पूरक) होते हैं न। तो ऐसा थोड़ी होगा कि पहले आप सद्गुणों का विकास करने में लग जाएँ फिर जब वो विकसित हो जाएँ, उसके बाद फिर आप अपने दुर्गुणों पर आयें।
आचार्य: तो गलत को रोकने की बात इसीलिए कही गयी है न, ताकि जो सही है उसको प्रश्रय और पोषण मिल सके। पर तब क्या करा जाए जब जीवन में तुमने ऐसी परिस्थिति बना ली हो कि सच और झूठ बिलकुल अगल-बगल रोप लिये हों तुमने अपने मन के मैदान में। और सच तुम्हारा अभी इतना नन्हा और इतना दुर्बल हो कि झूठ को उखाड़ने पर सच के प्राणों पर भी आँच आती हो। सच माने, तुम्हारा जो सच है अभी, परम सत्य नहीं। परम सत्य को कौन हानि दे सकता है। तो ये सब बातें तुम्हारे परिपेक्ष्य में हैं।
बात समझ में आ रही है?
जिनका सच मज़बूत हो, जिनकी साधना थोड़ा आगे बढ़ गयी हो, उनसे मैं निश्चित रूप से कहूँगा कि एक पल भी इन्तज़ार मत करो। जाओ समर में कूद पड़ो। पर जो अभी शुरुआती हैं, नन्हे हैं, अशक्त हैं, उनको अगर मैं कह दूँ कि तुम तत्काल बाहर निकलकर जूझ पड़ो। तो वो बाहर तो हारेंगे ही, भीतर भी हार जाएँगे।
सच का नन्हा पौधा तुम्हारे भीतर दो लड़ाइयाँ लड़ रहा होता है। समझना। एक लड़ाई वो लड़ रहा है अपने नन्हेपन से। वो उसकी भीतरी लड़ाई है। वो अभी बहुत छोटा है न, यही उसकी लड़ाई है। उसकी जड़ों में दम नहीं, उसके तने में दम नहीं, उसके प्राण में दम नहीं ये उसकी आन्तरिक लड़ाई है। और उसकी दूसरी लड़ाई है उसके ही बगल में खड़े झूठ से।
मैं उसको कौनसी लड़ाई पहले लड़ने के लिए प्रेरित करूँ? कहिए। पहले अपने नन्हेपन से लड़ना होगा न। उस नन्हेपन से लड़े बिना तुम अगर बाहरी लड़ाई में कूद पड़े, तो बाहरी लड़ाई में सर्वप्रथम हार की सम्भावना है ज़्यादा। और दूसरी बात बाहरी लड़ाई तुम जीत भी गये, लेकिन झूठ की जड़ उखाड़ने में अगर सच की जड़ भी ज़रा सी हिल गयी तो झूठ के खिलाफ़ मिली जीत भी हार से बदतर हो जाएगी।
तो मैं अलग-अलग लोगों से अलग-अलग बात कहता हूँ। जिनको जान जाता हूँ कि अब इनका सामर्थ्य कुछ विकसित हो गया है, उनसे कहता हूँ कि सामर्थ्य ही विकसित करोगे या दुनिया में बाहर निकलकर कुछ बदलाव भी लाओगे? कमरे में बैठे एकान्त साधना ही करोगे या घर को, परिवार को, समुदाय को और दुनिया को कुछ बदलकर भी दिखाओगे? ये मैं उनसे कहता हूँ जिनका सामर्थ्य अब कुछ विकसित हो गया है, आध्यात्मिक सामर्थ्य।
मुझे पता है कि अब ये बाहर निकलेंगे, इन्हें चोट भी पड़ेगी तो भी ये झेल लेंगे। और जो अभी-अभी नन्हे, शिशु पौधे होते हैं, उनसे मैं कहता हूँ, तुम इधर-उधर की अभी बात मत करो। तुम ये मुझे बताओ ही मत कि बगल में झूठ खड़ा है, सामने झूठ खड़ा है, पीछे झूठ खड़ा है। अभी तुम बाहर की ओर से आँखें बन्द कर लो। अभी तो तुम अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान दो। और जिस दिन मैं देखूँगा कि तुम्हारी ताकत एक सीमा को पार कर गयी है, उस दिन मैं तुमसे कहूँगा कि अब जूझ जा। और वास्तव में ये एक निरन्तर प्रक्रिया है। क्योंकि बाहर की भी जो चुनौतियाँ हैं, वो सब एक सी नहीं होतीं। उनकी भी अलग-अलग श्रेणियाँ होती हैं।
तो जैसे-जैसे तुम्हारी सामर्थ्य बढ़ती रहती है, वैसे-वैसे मैं सलाह देता रहता हूँ कि अब अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो सही चुनौती है, उससे जूझ जाओ। फिर तुम्हारी और सामर्थ्य जब बढेगी तो कहूँगा, अब और बड़ी चुनौती से जूझ जाओ, अब और बड़ी चुनौती से जूझ जाओ। बल्कि जितना सामर्थ्य हो उससे थोड़ी सी ज़्यादा बड़ी चुनौती से ही जूझना। उससे सामर्थ्य बढ़ती है।
लेकिन सामर्थ्य है अभी नन्हीं कोंपल की, और जूझ गये तुम झूठ के बरगद से, तो ये बात रुमानी तो है, ये बात परी कथा जैसी तो है पर ये बात तुम्हारे काम नहीं आएगी। सच के प्रति अगर वास्तव में प्रेम है, तो जूझ जाने की अपनी आकांक्षा को अनुशासन में भी रखना सीखना होगा। ताकि जब वास्तव में जूझ जाने का अवसर आये, उस समय तुम जिसके लिए जूझ रहे हो, उसकी हार के कारण न बन जाओ।
याद रखना, झूठ के खिलाफ़ लड़ना धर्मयुद्ध होता है। और धर्मयुद्ध में अगर हार होती है, तो वो तुम्हारी हार नहीं है, वो धर्म की हार है। जो धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं इसीलिए उनमें आकुलता, जल्दबाज़ी, भावुकता इत्यादि नहीं होने चाहिए। तुम्हारी अपनी कोई निजी लड़ाई होती तुम हार जाते, कोई बात नहीं। तुम किसके प्रतिनिधि बनकर लड़ रहे हो, जब तुम कोई भी सच्ची लड़ाई लड़ रहे हो? कोई भी व्यक्ति जो सच्ची लड़ाई लड़ रहा है, वो वास्तव में धर्म का प्रतिनिधि बनकर लड़ रहा है। तो तुम हारे माने, धर्म हारा। तो अपनी जल्दबाज़ी में ऐसा कुछ मत कर जाना कि दूरगामी हानि हो जाए। साथ-ही-साथ मेरे इन शब्दों को कायर बन जाने का बहाना मत बना लेना।
मैं कह रहा हूँ, बहुत धैर्य के साथ लगातार परखते रहो कि कब सही मौका आएगा बाहर की ओर मुड़ने का। और जब तक बाहर की ओर मुड़ने का सही मौका नहीं आया है, तुम भीतर-ही-भीतर आन्तरिक बल अर्जित करते रहो। यही तो अध्यात्म है न। आन्तरिक बल बढ़ाते रहो, बढ़ाते रहो, बढ़ाते रहो। बाहर के दुश्मनों से भिड़ जाने से पहले, भीतर के दुश्मनों को जीतते रहो। और जैसे-जैसे भीतर के दुश्मनों को जीतते जाओगे, वैसे-वैसे बाहर तुम और बड़े संघर्षों को आमन्त्रित करने की क्षमता पाते जाओगे।
भीतर तुमने थोड़ी फ़तह हासिल की, तो बाहर अब तुम एक छोटी लड़ाई लड़ सकते हो। तुम अधिकारी हुए, तुम्हें हक मिला। भीतर तुमने थोड़ी और विजय हासिल की, तो अब बाहर तुम थोड़ी और बड़ी लड़ाई लड़ सकते हो। तुम्हें अधिकार मिला। ऐसे खेल आगे बढ़ता है, भीतर-बाहर, भीतर-बाहर। भीतर का थोड़ा बढ़ाओ फिर बाहर जूझ जाओ। बाहर जूझ जाओ फिर भीतर का और बढ़ाओ। फिर और बाहर जूझ जाओ।
प्र: क्या बाहर जूझने से भी भीतर की क्षमता बढती है?
आचार्य: बिलकुल बढ़ता है। इसीलिए अपनी जितनी सामर्थ्य हो उससे नीचे की लड़ाई नहीं लड़नी है। जितनी सामर्थ्य हो, उससे थोड़ा ऊपर की ही लड़ाई लड़नी है, थोड़ा ऊपर की। इतना ऊपर की नहीं कि चोट ऐसी पड़ी कि फिर कमर ही टूट गयी और कहा कि अब आगे कोई लड़ाई नहीं लड़ेंगे। भूलना नहीं कि अभी लड़ने वाले का भी पूरा शुद्धिकरण हुआ नहीं है। उसके भीतर भी अभी वृत्तियाँ, वासनाएँ और दोष बाकी हैं।
उसको बाहरी लड़ाई में अगर ज़्यादा ज़ोर की चोट पड़ गयी। तो वो ये निष्कर्ष निकाल लेगा कि बाहरी लड़ाइयाँ और भीतरी लड़ाइयाँ, ये सब बेकार की चीज़ है। मुझे कोई लडाई लड़नी ही नहीं। क्या चाहते हो कि ऐसा हो? अगर तुम पूरे तरीके से सच्चे और निर्मल होते तो मैं कहता, तत्काल सबसे ऊँची लड़ाई में कूद पड़ो बाहर की। पर अभी तुम खुद भी न पूरे साफ़ हो, न दोषरहित हो। बाहर लड़ोगे और ज़्यादा पिट गये तो बाहर की लड़ाई तो छोड़ोगे-ही-छोड़ोगे जो आन्तरिक शुद्धि की प्रक्रिया चल रही है, उसको भी त्याग दोगे। ये अनर्थ हो जाएगा न। तो इसलिए कह रहा हूँ कि सोच-समझकर उतरो लड़ाइयों में। इतना बड़ा संघर्ष अभी आमन्त्रित मत करो जिसके सामने तुम जानते हो कि तुम अभी तैयार नहीं, अभी अदने (छोटे) हो। ये सच के प्रति तुम्हारी निष्ठा का ही प्रमाण होगा।
इसी बात को इस तरह से समझ लो कि जब तुम जानते हो कि अभी तुम्हारे भीतर दोष और विकार बाकी हैं। तो ऐसे माहौलों में जाओ ही मत जहाँ तुमको पता है कि तुम हार जाओगे, टूट जाओगे, घुटने टेक दोगे। हाँ, जिस दिन तुम बहुत शुद्ध हो गये, उस दिन मैं कहूँगा ज़रूर जाओ उस माहौल में। क्योंकि अब अगर तुम उस माहौल में गये, तो माहौल तुम्हें नहीं खराब करेगा बल्कि तुम माहौल को साफ़ कर दोगे। ये दो घटनाएँ घट सकती हैं।
आध्यात्मिक आदमी दुनिया में निकले तो दो बातें हो सकती हैं। दुनिया आध्यात्मिक आदमी को गन्दा कर दे या ये जो आध्यात्मिक आदमी है, ये दुनिया को साफ़ कर दे। तो जिनको मैं पाऊँगा कि अभी ऐसे हैं कि ये निकलेंगे दुनिया में तो खुद ही गन्दे होकर आ जाएँगे, उनको मैं कहूँगा कहीं मत निकालो, तुम तो भीतर की ओर ही बढ़ते रहो। बाहर को निकालो मत। और जिनको मैं पाऊँगा कि अब ये बाहर को निकलेंगे तो जहाँ को जाएँगे वहीं रोशनी फैलाएँगे। उनको मैं कहूँगा अब बाहर निकालो।
पुराने सन्तों का, संघों का भी यही नियम रहा है। जो नये-नये प्रशिक्षार्थी होते थे, उनको संघ के भीतर कड़े अनुशासन में रखा जाता था, तुम यहाँ रहो, कई वर्ष तक। और जो थोड़े वरिष्ठ हो जाते थे, थोड़े पक जाते थे उनको फिर बुलाकर कहा जाता था कि अब तुम जाओ और देश भर में फैल जाओ।
अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग नियम होते हैं। साधना के अलग-अलग तल पर अलग-अलग बातें चलती हैं। तो कोई ये न कहे कि अरे! फ़लाने को तो कहा कि जाओ और फैल जाओ, गाँव-गाँव भ्रमण करो और हम पर नियम लगाए जाते हैं पाबंदियों के कि तुम्हें कहीं नहीं निकलना है, न ये देखना है, न वो देखना है। वो जो दूसरा था भिक्षु, उसको तो बोल दिया कि जो जगह जितनी गन्दी देखो, उतना ज़्यादा उस जगह की ओर जाओ। और हमसे कहा गया कि सब गन्दी जगहों से बचना। ये भेदभाव क्यों किया जा रहा है? ये गलत बात है। ये भेदभाव आवश्यक है। क्योंकि तुममें और उस दूसरे व्यक्ति में भेद वास्तव में है। चूँकि तुममें भेद है, इसीलिए दोनों के लिए नियमों में भी भेद है।
बात समझ में आ रही है?
अब यही जो तुमने कहानी सुनाई, ये गेहूँ के खेत के बारे में थी न, गेहूँ के खेत के बारे में थी। मैं इसी को थोड़ा बदल देता हूँ। आम का बगीचा है जिसमें आम के दरख्त हैं। ठीक? और वो बढ़िया वयस्क वृक्ष है। और उनमें पाया जाता है कि वृक्षों के बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ खड़े हो गये हैं, आमतौर पर होते नहीं। पर मान लो की हो गये हैं। वृक्षों के बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ खड़े हो गये हैं। तो क्या तब भी यही उपदेश दिया जाता कि नहीं-नहीं, इनको अभी पड़ा रहने दो? तब कहा जाता, तत्काल हटा दो इनको। क्योंकि हमारे आम कैसे हैं? उनका तना मज़बूत है। नीचे की धरती में थोड़ी थरथराहट भी होगी, कुछ उखाड़ा जाएगा, कुछ निकाला जाएगा तो मेरे आमों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन पर कुछ फ़र्क पड़ना नहीं है। तब जो उपदेश दिया जाता वो दूसरा होता। एक भेद होता। अभी बात नन्हे गेहूँ की हो रही है, इसीलिए जो सलाह दी गयी है, वो अलग है।
स्पष्ट हो रही है बात?
एक के लिए जो सलाह बहुत उपयुक्त होगी, वो दूसरे के लिए घातक हो सकती है। इसीलिए स्वयं ही अपना इलाज करने से बचा करें। एक बात जो मैंने एक से बोली, ज़रूरी नहीं है कि दूसरे के लिए फायदेमन्द हो। इसीलिए आमने-सामने अपनी बात पूछने का लाभ ही कुछ और होता है। इसीलिए जानने वालों ने कहा कि कोई सामने बैठा हो हाड़-माँस में जीवित, उसकी उपयोगिता सब धर्मग्रन्थों से ज़्यादा होती है। धर्मग्रन्थ ऊँची-से-ऊँची बात कहते हैं। पर वो बात अब बस शब्दों के ही तौर पर तो पहुँच रही है न आपके साथ। आप धर्मग्रन्थ को पढ़ रहे हैं, धर्मग्रन्थ आपको नहीं पढ़ पा रहा। और जो जीवित है गुरु, वो आपको पढ़ पा रहा है। अन्तर समझ रहे हो?
तुम कौन हो? जो परेशान इसीलिए है क्योंकि उसकी दृष्टि धुन्धली है। धर्मग्रन्थ निसन्देह उच्चतम बात कहते हैं आपसे, पर उस धर्मग्रन्थ को पढ़ भी कौन रहा है? तुम। और तुम्हारी दृष्टि कैसी है? तुम्हारी समस्या ही यही है कि तुम्हारी दृष्टि धुन्धली है। उसी धुन्धली दृष्टि से तुम बोधग्रन्थ को भी पढ़ोगे। काफ़ी सम्भावना है कि तुम कुछ का, कुछ अर्थ कर लो। लेकिन जब तुम किसी जीवित चिकित्सक के सामने आते हो, तो तुम चिकित्सक को नहीं पढ़ते। जैसे तुम धर्मग्रन्थ को पढ़ते हो न, उस तरह तुम चिकित्सक को नहीं पढ़ते। अब चिकित्सक तुम को पढ़ता है। अब लाभ होने की सम्भावना थोड़ी ज़्यादा है।