भीतरी युद्ध की शुरुआत का पता कैसे चलेगा? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2017)

Acharya Prashant

21 min
178 reads
भीतरी युद्ध की शुरुआत का पता कैसे चलेगा? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2017)

प्रश्नकर्ता: युद्ध की शुरुआत की पहचान कैसे हो? वो जो कुरुक्षेत्र में हो रहा है, वहाँ तो शंखनाद हुआ, जिससे पता चला कि युद्ध शुरू हुआ। पर जो जीवन में युद्ध हैं, उनमें किसी एक युद्ध पर अगर ध्यान है, उसकी शुरुआत का पता कैसे चले?

आचार्य प्रशांत: असल में अर्जुन के लिए युद्ध है, श्रीकृष्ण के लिए युद्ध है ही नहीं, श्रीकृष्ण के लिए खेल है।

सवाल ये है कि जीवन में जो युद्ध चल रहा है उसकी पहचान कैसे करें, वो कहाँ से शुरू हो रहा है, कहाँ को जा रहा है, कैसे पता करें।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कह ज़रूर रहे हैं बार-बार कि युद्ध कर, पर श्रीकृष्ण के लिए वो युद्ध नहीं है, श्रीकृष्ण के लिए तो क्रीड़ा है। और अर्जुन जब तक अर्जुन है, वो सामने घट रही घटना को, कुरुक्षेत्र में हो रही गतिविधि को युद्ध ही मानता चलेगा। और जहाँ उसने ‘युद्ध’ शब्द का प्रयोग किया, तहाँ वो डरा, तहाँ तामाम नैतिकता उसकी अड़चन बनी। अर्जुन, युद्ध, नैतिकता, भ्रम, संशय, हिंसा — ये सब एक तल के शब्द हैं। अर्जुन है तो युद्ध मानेगा, युद्ध मानेगा तो उलझनों में पड़ेगा। उलझन में इसलिए पड़ रहा है क्योंकि उसे लगता है हिंसा हो रही है।

आप भी अगर गीता से प्रेरित होकर के जीवन को युद्ध की तरह देखने लगें, तो एक चूक हो जाएगी, चूक ये होगी कि आप अर्जुन रह जाएँगी। क्योंकि युद्ध किसके लिए है सिर्फ़? अर्जुन के लिए है। श्रीकृष्ण थोड़े ही कहते हैं कि बड़ा भारी युद्ध होने जा रहा है! श्रीकृष्ण से पूछिए तो श्रीकृष्ण कहेंगे, 'जो यहाँ हो रहा है वो सदा से ही होता रहा है, ये खेल कब नहीं खेला जा रहा था!' श्रीकृष्ण से पूछिए तो वो कहेंगे, 'प्रकृति के तीन गुण हैं, उनकी आपसी गतिविधि, क्रियाकलाप हैं। ये तो हमेशा से ही चलते रहे हैं, इनमें नया क्या है!' तो श्रीकृष्ण के देखे इसमें कोई बड़ी बात है ही नहीं।

हम जब कहते हैं ‘युद्ध’, तो हमारी भौंहें तन जाती हैं। हम जब कहते हैं ‘युद्ध’, तो हमें डर भी लग जाता है। हम जब कहते हैं ‘युद्ध’, तो हमारी भावना ऐसी होती है जैसे कि जीवन में बहुत ऊँचे मूल्य की कोई घटना घटने जा रही है। कहते हैं न, ‘ज़िन्दगी और मौत की बात है!’ ‘ज़िन्दगी-मौत की बात’ हम जब कहते हैं, तो उससे यही आशय होता है न कि बहुत बड़ी, बहुत महत्वपूर्ण बात है? हम जब कहते हैं 'युद्ध‘, तो हमारे लिए बात ख़ास हो जाती है; ख़ास ही नहीं हो जाती है, फिर उसमें हमारे लिए तमाम नियम-क़ायदे लग जाते हैं।

‘युद्ध’ मत कहिएगा। ‘युद्ध’ कहते ही आप अपने हारने का इन्तज़ाम कर देंगी। ‘युद्ध’ कहते ही आप अर्जुन होकर के ठिठकने, जकड़ने, बँध जाने का इन्तज़ाम कर लेंगी। खेल है।

समझ रहे हैं?

एक साधारण सी घटना घट रही हो — बछड़ा गाय के पीछे दौड़ता हो, उसके शरीर में अपना मुँह मारता हो — कोई नासमझ हो, वो इसको भी तो हिंसा ही कह सकता है, कह सकता है कि नहीं? वो कहेगा, ‘ये दो पशु हैं और इनमें से एक पशु, वो जो छोटा वाला है, वो बड़े पशु पर निरन्तर आघात कर रहा है।‘ उसके देखे हिंसा है। हिंसा फिर कहाँ है — घटना में, या देखने वाली दृष्टि में?

प्र: देखने वाली दृष्टि में।

आचार्य: हिंसा की हमेशा यही बात है — आपमें होती है हिंसा, घटना में नहीं होती, अस्तित्व में नहीं होती।

आप समझ रहे हैं?

तो नासमझ देखे तो गाय-बछड़े के खेल में भी उसे हिंसा दिख सकती है और श्रीकृष्ण देखें तो खून की धाराएँ बह रही हों, योद्धाओं के सिर कट-कटकर गिर रहे हों, तो भी हिंसा नहीं है, वैसा ही खेल है जैसे गाय और बछड़े का?

प्र: खेल है।

आचार्य: खेल है बस। उसको आप कोई भी अगर नाम देने लग गये, तो उस नाम की कहीं-न-कहीं सीमा आ जाएगी, उसके आगे आप फँस जाएँगे।

ख़ुद ही सोचिए न, आपको कोई कहे कि तैयार हो जाओ, अब तुम्हें एक युद्ध में शामिल होने जाना है, तो पहले से ही आपकी भावना क्या हो जाएगी, पहले से ही आपका विचार क्या हो जाना है?

प्र: भाला और कवच के साथ आप पहले ही तैयार हो जाओगे।

आचार्य: आप पहले ही तैयार हो जाओगे। अब आप ज़िन्दगी को क्या देखोगे, क्या उसका स्वागत करोगे, आपने तो पहले ही घोषित कर दिया है कि भई, हमने पढ़ा है कर्मयोग, और कर्मयोग में था कि जीवन युद्ध है, जीवन संग्राम है। ‘युद्ध’ कहकर, ‘संग्राम’ कहकर आपने अपनेआप को उत्तेजित कर लिया है, आपने अपनेआप को और डरा लिया है, आपने अपने प्रतिरक्षा तन्त्र को और ऊर्जा दे दी है।

भूलिएगा नहीं कि अर्जुन के लिए विभीषिका है युद्ध, श्रीकृष्ण के लिए नहीं है। श्रीकृष्ण तो कह रहे हैं, ‘अरे! मरने-मारने की बात ही नहीं है। यहाँ कौन ज़िन्दा है, कौन मरा हुआ है! जिसका जो हश्र है, वो बहुत पहले से वैसा ही है। और इन्हें तुम क्या मारोगे, इन्हें तो मैं बहुत पहले मार चुका हूँ।‘

समझ रहे हैं आप?

ये एक बड़ी आम भूल है जो हो जाती है गीता के पाठ के बाद, श्रीकृष्ण के सम्पर्क में आकर कि जीवन युद्धक्षेत्र है और हमारा काम है लड़े जाना। ये कुछ नहीं किया है, ये आपने अपनेआप को कड़ा कर दिया, ये आप डंडे की तरह तन गये। अब आप जिसके पास भी जाओगे, उसको डंडे की तरह ही पड़ोगे। अब आपके जीवन से कोमलता और स्नेह चला जाएगा, प्रेम चला जाएगा। तो इस भावना में मत पड़ जाइएगा कि कुरुक्षेत्र है जहाँ पर सगे-सम्बन्धियों की हत्या इत्यादि करनी है, तो माह भर के पूरे कार्यक्रम के बाद ये सीखकर आये, क्या? ‘जितने भाई-बन्धु हों, सबको ख़त्म कर दो।‘ ये नहीं आशय है।

युद्ध से श्रीकृष्ण का अर्थ है वो गतिविधि जो लगातार आपके चारों ओर चल ही रही है, उस गतिविधि को नाम दिया है युद्ध का अर्जुन ने। अर्जुन के लिए वो युद्ध है, क्योंकि अर्जुन को दिखाई देता है विरोध, श्रीकृष्ण को कहीं कोई विरोध नहीं दिखाई देता। युद्ध तो तभी है न, जब संघर्ष हो, घर्षण हो, विरोध हो?

प्र: आचार्य जी, आपने एक जगह कहा है कि सबकुछ बस घटनाएँ हैं। ये वही हैं जिसको श्रीकृष्ण घटनाएँ कह रहे हैं?

आचार्य: हाँ, हाँ। श्रीकृष्ण के लिए सिर्फ़ क्रियाओं का एक जाल है — ये हुआ, फिर ये हुआ, फिर ये हुआ, फिर ये हुआ, फिर ये हुआ — एक ऐसा कार्यक्रम जिसमें कार्य को करने वाला कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है। घटनाएँ घट रही हैं, उन घटनाओं के पीछे कोई नहीं है।

जब घटनाओं के पीछे कोई नहीं होता, तो उसी स्थिति को कहा जाता है कि परमात्मा कर रहा है। कोई एक विशिष्ट ताक़त नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है इन घटनाओं के पीछे जिसे नाम दे सकें, जिसकी पहचान कर सकें, तब कह दिया जाता है कि इस पूरी, समूची व्यवस्था को चलाने वाले स्वयं श्रीकृष्ण हैं, परमात्मा हैं।

समझ में आ रही है बात?

तो 'युद्ध को होने दो' से आशय है कि जो कुछ घट रहा है उसको घटने दो। वो अपने तल पर है, वो एक ऐसे तल पर है जहाँ तुम्हारा कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है। तो तुम व्यर्थ ही उत्तेजित मत हो जाना, तुम ये मत मान लेना कि वहाँ जो हो रहा है वो तुम्हारे लिए कोई व्यक्तिगत घटना है, कि उसमें तुम्हारा कोई व्यक्तिगत नफ़ा या नुक़सान है।

ऐसी सी बात है कि जैसे आप यहाँ बैठे हुए हों और छत पर कबूतरों का एक झुंड हो, वो किल्लोले कर रहा हो, और गेहूँ बिखरा है, खा रहा है। कुछ नर कबूतर हैं, कुछ बच्चे कबूतर हैं, कुछ मादा कबूतर हैं, कुछ वृद्ध कबूतर हैं। वहाँ जन्म का भी खेल चल रहा है, वहाँ मृत्यु का भी खेल चल रहा है। आप यहाँ नीचे बैठे हुए हैं, आप अलग हैं। आपको ये मानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ऊपर जो कुछ हो रहा है उसमें आपका कोई काम है, आपका कोई दायित्व है, आपको कोई प्रलोभन है, आपको कोई भय है।

ऊपर जितने कबूतर हैं, इनको आप प्रकृति जानिएगा। उन कबूतरों के माध्यम से जिसका नृत्य है, उन्हें प्रकृति के गुण जानिएगा। वो सब खेल रहे हैं आपस में। ऊपर गेहूँ है, धूप है, हवा है, आवाज़ें हैं, दृश्य हैं। कहीं-कहीं बीच में कुछ कबूतर चोंचें भी लड़ा लेते हैं — कभी आकर्षण में, कभी विकर्षण में। कभी बैठते हैं, कभी उड़ जाते हैं, कुछ चले जाते हैं, कुछ नये आ जाते हैं। ये सब चल रहा है, ये ऊपर छत पर चल रहा है, ये जीवन का खेल है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, ‘भाई, वो खेल तुझसे पहले भी चल रहा था, तेरे बाद भी चलेगा। तू उसमें दख़ल न दे तो तेरी अनुपस्थिति में भी चलेगा। तू उस खेल में अपना कोई निजी हित, स्वार्थ या नुक़सान देख कैसे सकता है, ये मूर्खता है!’

तो युद्ध करना नहीं है। युद्ध करने का अर्थ ये नहीं है कि आप स्वयं भी कबूतर बनकर ऊपर शामिल हो गये। युद्ध करने का अर्थ है कि ऊपर जो खेल चल रहा है, उसे चलने दो। श्रीकृष्ण बार-बार दोहराते हैं, ‘अर्जुन, तू युद्ध कर।‘ भ्रमित मत हो जाइएगा। श्रीकृष्ण का आशय ये है कि अर्जुन, ऊपर जो क्रीड़ा चल रही है, ऊपर जो गतिविधि चल रही है, वो तो चल ही रही है न, तू उसको लेकर के क्यों मन छोटा करता है। ‘तू उसको लेकर के क्यों फूला नहीं अघाता है, तू उसको लेकर के क्यों उत्तेजित हो जाता है, तू उसको लेकर के क्यों अवसादग्रस्त हो जाता है?’

युद्ध क्या है, समझ में आ रहा है? ये कबूतरों की गुटरगूँ, ये युद्ध है। अब इसमें युद्ध जैसा क्या है! लेकिन आपका अगर किसी एक कबूतर से मोह लग जाए, और कोई उस कबूतर का दाना खींचने लगे, तो ऊपर जो कुछ हो रहा है वो आपके लिए युद्ध हो गया, अन्यथा युद्ध जैसा कुछ नहीं है।

जब श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि अर्जुन बाण चला, तो वो अर्जुन को याद दिला रहे हैं कि अर्जुन, ये जो गांडीव है, ये जो बाण हैं, ये जो प्रत्यंचा है, प्रत्यंचा को खींचने वाले ये जो हाथ हैं — ये सब कबूतर हैं, इन्हें इनका काम करने दे। ‘तू यहाँ बैठ मेरे पास, तू तो श्रीकृष्ण के सानिध्य में विश्राम कर।‘

धनुष क्या हुआ?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: बाण क्या हुआ?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: तीर क्या हुए?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: तरकश क्या हुआ?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अर्जुन की उँगलियाँ, जो खींचें प्रत्यंचा, वो क्या हैं?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अर्जुन के बाज़ू क्या हैं?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: ‘सब कबूतर, और सब अपना खेल रहे हैं, और सब जानते हैं उन्हें क्या करना है। अब तू क्यों इसमें पगलाया जाता है, तेरा इसमें क्या है? कबूतर-कबूतर का खेल है, और कबूतर अपना खेल खेलना जानते हैं।‘

अर्जुन की देह?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अर्जुन का मन?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अर्जुन की बुद्धि?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अर्जुन की स्मृति?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: जो कुछ भी दृश्यगत हो सके, वो सब?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: और सारे कबूतर खेल रहे हैं।

सेना के घोड़े?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: सेना के हाथी?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: द्रौपदी?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: अभिमन्यु?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: दुर्योधन?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: भीष्म?

श्रोता: कबूतर।

आचार्य: सब कबूतर-ही-कबूतर, और सब कबूतर जानते हैं कि उन्हें कहाँ गुटरगूँ करनी है, कैसे गुटरगूँ करनी है। आपने कभी कबूतरों को दुविधा और संशय में देखा है? आपने कोई कबूतर देखा है जो अपना एक पंख उठाकर के मुँह पर रखे हुए हो, कि क्या करें समझ में नहीं आता? देखा है कभी? आपने कोई कबूतर देखा है जो मनोचिकित्सक के यहाँ कतार में खड़ा हो? कोई कबूतर जिसे नींद न आती हो? सब कबूतर भलीभाँति जानते हैं उन्हें क्या करना है।

प्रकृति के पीछे प्रकृति के मालिक की मंशा है, इसीलिए तो प्रकृति को सोचना नहीं पड़ता। प्रकृति में जो आपको एक सहज, सरल बहाव दिखता है, वो इसीलिए है क्योंकि प्रकृति अपने मालिक की गोद से सीधे निकलकर के बहती है, अब उसे सोचना क्या है! मालिक की आज्ञा पर बह रही है, जैसे गंगा शिव की मस्तक से निकलकर के बहती हो, उसे सोचना क्या है! उसके पीछे अगर बुद्धि है तो किसकी है? किसके मस्तक से निकली है वो? शिव के। तो बुद्धि किसकी है? शिव की।

अब गंगा क्या सोचेगी, गंगा को तो बहना है। अब कबूतरों को क्या सोचना है, कबूतरों को तो गुटरगूँ करनी है, खेलना है, और एक दिन उड़ जाना है। उन्हें सोचना नहीं है, उन्हें व्यथित नहीं होना है, उन्हें अर्जुन की तरह संशयग्रस्त नहीं होना है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं — ‘कबूतरों, खेलते रहो।‘ अर्जुन पूरा-का-पूरा कबूतर ही है। अहम् आड़े आ जाता है, अहम् ज़रा विशेष प्रकार का कबूतर है। अहम् को भी कबूतरों से अलग कुछ मत समझिएगा, अहम् भी प्रकृति ही है। ज़रा आगे चलेंगे तो श्रीकृष्ण कहेंगे कि ये पुरुष-पुरुष क्या लगा रखा है, पुरुष भी कुछ नहीं है, प्रकृति ही है। कहते हैं, ‘दो तरह की प्रकृति होती है — साधारण प्रकृति और पराप्रकृति।‘ कहते हैं, ‘अपराप्रकृति होती है और पराप्रकृति होती है। तो पुरुष किसको कहते हो! पुरुष कुछ नहीं है।‘

पुरुष से तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई हो जो बड़ा जानकार हो, जो बड़ा ज्ञानी हो, जो प्रकृति का साक्षी हो। कहते हैं, ‘न! साक्षी इत्यादि कुछ होता ही नहीं। हे अर्जुन, बस मैं हूँ, श्रीकृष्ण, और बाक़ी सब प्रकृति है। कोई और पुरुष नहीं, मात्र मैं।‘ तो ‘पुरुष’ की भी जो बात है, श्रीकृष्ण उसको झुठला देते हैं। कहते हैं, ‘कोई पुरुष नहीं है। प्रकृति के ही दो हिस्से हैं, एक देखता है, एक नाचता है। जो नाचे वो अपराप्रकृति, जो देखे वो पराप्रकृति। हैं दोनों प्रकृति ही — देखने वाली आँख भी प्रकृति, और देखा जाने वाला दृश्य भी प्रकृति।‘

लेकिन ये जो देखने और जानने वाली आँख होती है, इस आँख के पीछे जो अहम् बैठा होता है, वो ज़रा ख़ास तरह की प्रकृति है, वो अकेली है जिसको भूलने की बीमारी लगी हुई है। श्रीकृष्ण बात उसी से कर रहे हैं। वो अपनेआप को प्रकृति से अलग समझने लग जाती है। वो विशिष्ट प्रकृति है न, तो उसको ये लगने लग जाता है कि मैं प्रकृति हूँ ही नहीं। उसको ये भ्रम हो जाता है कि मैं तो पुरुष हूँ, मैं तो कुछ और हूँ, मैं तो संचालक हूँ, मैं कर्ता हूँ।

कुछ नहीं है। जैसे सबकुछ बहता है, वैसे ही अहंता को भी बहते रहना चाहिए, अहंता भी प्रकृति मात्र है। कोई उसको और ज़्यादा गौरवशाली नाम देने की ज़रूरत नहीं है, उसे और गरिमा प्रदान करने की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए इतनी ही गरिमा काफ़ी है कि वो श्रीकृष्ण का सेवक है, और इससे ज़्यादा बड़ी गरिमा की बात कुछ और हो भी नहीं सकती। प्रकृति कौन है? श्रीकृष्ण की दासी है। और इससे ज़्यादा बड़ा सम्मान प्रकृति का क्या होगा, किसी का भी क्या होगा, बस इतना कह दिया जाए अगर कि वो श्रीकृष्ण की दासी है! इससे ऊँची पदवी आपको और कौनसी मिलने वाली है?

‘अर्जुन, जो हो रहा है, मेरे निरीक्षण में हो रहा है। अर्जुन, तू बुद्धि को क्यों इतना परेशान करता है? बुद्धि का जन्मदाता कौन है? मैं स्वयं हूँ। अर्जुन! मैने बुद्धि को वो ताक़त दी है कि वो स्वयं जान जाएगी, स्वयं विश्लेषित कर लेगी, वो स्वयं खुले-अनखुले तथ्यों को जोड़ लेगी, उनसे निष्कर्ष निकाल लेगी। तू क्यों परेशान हुआ जाता है?’ युद्ध करने से क्या अर्थ हुआ? फिर आख़िरी बार — 'क्रीड़ा होने दो।‘

'युद्ध करो' — इसमें 'युद्ध' को स्थानान्तरित करिए 'क्रीड़ा' से, और 'करो' को स्थानान्तरित करिए 'होने दो' से। अन्यथा गीता आपके लिए बहुत बड़ा बोझ बन जानी है अगर आप ‘युद्ध करो’ को पकड़कर बैठ गये, जो कि पारम्परिक रूप से कई बार समझ लिया जाता है। अगर आप ‘युद्ध करो’ को पकड़कर के बैठ गये, तो दो दुर्घटनाएँ घटेंगी। पहला, जीवन आपके लिए युद्ध बन जाएगा। दूसरा, उस युद्ध को लड़ने की ज़िम्मेदारी आपकी अपनी व्यक्तिगत हो जाएगी, क्योंकि कह दिया गया है ‘करो‘।

आपको दोनों से बचना है — पहली बात, युद्ध है नहीं; दूसरी बात, जो भी है वो आपको नहीं करना है, वो उन सब कबूतरों को करना है जो अपना काम बखूबी पहले ही जानते हैं।

तो ‘युद्ध करो’ को क्या पढ़ना है?

'क्रीड़ा होने दो।‘

(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) ‘युद्ध’ हुआ ‘क्रीड़ा’, तो आप डरिएगा मत। ‘युद्ध’ कहती हैं तो ऐसी हो जाती हैं — ‘युद्ध करो!’ बिलकुल तैयार, हाथ में पिस्तौल है, घोड़ा दबाने की देर है। तो ‘युद्ध’ नहीं, ‘क्रीड़ा’। दूसरा? करना नहीं है, आपकी कोई निजी ज़िम्मेदारी नहीं है कुछ करने की। होने दो, बाधा मत बनो बस।

होता है न, खेल रहे होते हैं बच्चे — सब कबूतर खेल रहे हैं, कबूतरों को बच्चा मानिए — अब एक चिढ़ा बैठा है, उसका एक ही काम है, वो आकर लँगड़ी लड़ा रहा है, उसका यही काम है कि जो खेल रहे हों उनको गिरा दो। तो पूरी गीता सिर्फ़ ये बताने के लिए है कि लँगड़ी मत लगाओ। भाई, बच्चे खेल रहे हैं, उन्हें खेलने दो, खेल ख़राब मत करो, डोंट स्पॉयल द फ़न, फ़ॉर योरसेल्फ़ (मज़ा ख़राब मत करो, अपने लिए)।

प्र: आचार्य जी, इससे एक बात याद आयी अभी। मेरा एक छोटा बच्चा है, आनन्द, उसके हाथ में एक कटोरी थी। वो एक दूसरे बच्चे के पास गया। दोनों ने एक-दूसरे से बिना बोले कुछ कहा, और अचानक वो बच्चा आनन्द के हाथों से कटोरी छीनने लगा। और मैं देख रही थी, मैंने कुछ किया नहीं, बस देख रही थी।

तो हुआ क्या कि आनन्द भागा ताकि वो बच्चा कटोरी छीन न पाये। फिर मैंने आनन्द को देखा, उसके चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान थी, और वो इसे दोबारा करना चाहता था।

और मैं सोच रही थी कि वो बच्चा कटोरी क्यों छीनने लगा। तो मैं युद्ध के लिए तैयार थी, और वो दोबारा क्रीड़ा के लिए बिलकुल तैयार था।

आचार्य: देखिए, हमें जहाँ लगता भी है न कि बड़ी हिंसा हो रही है, बड़ी लड़ाई है, बड़ा ग़लत हो रहा है, खून बह रहा है, चोट है, घाव है, यहाँ तक कि मृत्यु है, अस्तित्व हमसे कहीं बेहतर जानता है।

आप अगर सड़क पर कुछ कुत्तों को खेलते हुए देखेंगे और आप ग़ौर से न देखें, तो आपको निश्चित यही लगेगा कि उनका खेल नहीं है, लड़ाई है। क्योंकि वो काट ही रहे होते हैं एक-दूसरे को, और एक-दूसरे पर लोट रहे होंगे, एक गिर गया होगा। और आवाज़ें भी कुछ ऐसी आ रही होंगी कि हमारे कानों को तो यही लगेगा कि लड़ाई हो रही है। वो खेल है। हर वो चीज़ जो हमको लड़ाई लगती है, अस्तित्व की नज़र में खेल ही है।

आपको अपने पौधे से बहुत प्यार है, उस पर एक पत्ता लगा है, पत्ता गिर जाता है, आपके लिए दुख की घटना हो गयी। पत्ता मिट्टी पर गिरता है, पत्ता खाद बन जाता है, उस खाद से पुनः उन्हीं जड़ों को पोषण मिलने लग जाता है, एक नया पत्ता आ जाता है। ये हम नहीं देख पाएँगे कि अस्तित्व के लिए तो ये सबकुछ एक अनवरत प्रक्रिया है जिसमें न जीवन है, न मृत्यु है।

खंड को देखो तो ऐसा लग सकता है कि कोई मर गया, और खंड को देखो तो ऐसा लग सकता है कि कुछ नया है जो जी आया। पूर्ण को देखो तो उसके भीतर तो सब तमाम धाराएँ हैं। सागर के भीतर लहरें हैं जो उठ रही हैं, गिर रही हैं, लहरों की मृत्यु हो रही है, लहरों का जन्म हो रहा है। सागर न जन्म ले रहा है, न उसकी मृत्यु है।

छोटे पर ध्यान केन्द्रित करोगे, अपनी छोटी नज़र से देखोगे, तो ये लगेगा कि बड़ी लड़ाई है, बड़ी विभीषिका है। पुराने शहर दब जाते हैं, उनके ऊपर नये शहर खड़े हो जाते हैं। जो कुछ भी जीर्ण-शीर्ण है, जो कुछ भी अपनी आयु पूरी कर चुका, वो चला जाता है। उसके स्थान पर कुछ नया, सुन्दर, नवनीत, कोमल अंकुरित हो जाता है। पुराने से अगर आपका नाता था, तो आपको यही लगेगा कि बड़ी त्रासदी हो गयी, आप शोक मनाएँगे। और अगर आप नये को पुराने में नहीं देख पाये, तो जब नये का जन्म होगा तो आप हर्षाएँगे।

आप जब किसी नये के जन्म पर हर्षा रहे होते हैं, तो श्रीकृष्ण आपसे बस ये पूछते हैं, अपनी उसी मुस्कुराहट के साथ, ‘ये बता दो कि जिसे तुम कह रहे हो कि आज आया, अभी जन्म हुआ, ये था कब नहीं?' तुम्हारी आँखों को नहीं दिखता था। ये जिसके तुम जन्म का हर्ष मना रहे हो, ये तो बड़ा बूढ़ा है, ये तो उतना ही पुराना है जितना समय। हाँ, तुम्हें आज दिखा।

और जिसकी मृत्यु पर तुम रो रहे होते हो, श्रीकृष्ण कहेंगे, ‘ये चला कहाँ गया है? वो जिसके पैदा होने पर तुम हँस रहे हो, वो यही तो है जो मर गया था; दोनों एक हैं। ये मरता नहीं तो वो जन्म कैसे लेता? इसकी मृत्यु और उसका जन्म एक ही तो है। फिर क्यों शोर मचाते हो, फिर क्यों उत्तेजना के नये-नये बहाने ढूँढ लेते हो?’

कभी इस बात की उत्तेजना कि कोई चला गया, कभी इस बात की उत्तेजना कि कोई आ गया — हम दोनों ही मौक़ों पर यूँ व्यवहार करते हैं कि जैसे कुछ विशिष्ट हो गया हो।

प्रकृति के लिए कभी कुछ विशिष्ट घटता नहीं। आज हो सकता है कोई बहुत विशालकाय पिंड आये, आपकी धरती से टकराये, और धरती से जीवन का नामोनिशान मिट जाए। हमारे लिए वो महा, परम त्रासदी होगी। प्रकृति को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई त्रासदी नहीं हो गयी, क्योंकि बहुत समय है उसके पास, और अनन्त ब्रह्मांड हैं उसके पास। ये धूल-बराबर पृथ्वी मिट भी गयी, तो कहीं और जीवन अंकुरित हो रहा होगा, और अभी न हो रहा हो तो अरबों वर्षों बाद होगा। प्रकृति के लिए अरबों वर्ष पलक झपकाने जितने हैं। हाँ, हमें ये लगेगा कि बहुत बड़ी दुर्घटना घट गयी। प्रकृति कहेगी, ‘दुर्घटना क्या है!’

समुन्दर किनारे तुमने घरौन्दा बनाया था। अरे, अनगिनत शताब्दियों से घरौन्दे बनते रहे हैं और बिगड़ते रहे हैं। तुम रोते हो, कि तुम्हारा घर तबाह हो गया, प्रकृति कहती है, ‘खेल है।‘ बालू की भी कोई कमी नहीं है, और लहरों की भी कोई कमी नहीं है, और उन हाथों की और उस व्यवस्था, उस कल्पना, उस बुद्धि की भी कोई कमी नहीं है जो घरौन्दा बनाएगी। सारे तत्व मौजूद हैं, सारे कबूतर मौजूद हैं।

जब तक रेत है, जब तक हाथ हैं, जब तक कल्पना है, जब तक बचपना है, जब तक तीनों गुण हैं, तब तक घरौन्दे बनते ही रहेंगे। और जब तक सागर है, और जब तक लहरें हैं, तब तक घरौन्दे टूटते ही रहेंगे। अब इसमें क्या उल्लास मनाना, और क्या शोक! इसको तो खेलो! जहाँ उल्लास और शोक होते हैं, वहाँ आनन्द कहीं पीछे छुप जाता है, होते हुए भी मालूम नहीं पड़ता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories