भीड़, नासमझी और सच्चाई || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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भीड़, नासमझी और सच्चाई || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सत्य के लिए उपलब्ध रहो, इसका अर्थ क्या है?

आचार्य: देखो, सच्चाई अपना एहसास कराती रहती है। हम उसको दरकिनार कर देते हैं, उसकी ओर पीठ कर देते हैं, उसके प्रति अनुपलब्ध हो जाते हैं। ईमानदारी इसमें नहीं है कि मुझे सच्चाई पता है। तुम्हें क्या पता सच्चाई ख़ुद आती है अपनेआप को जताने। सच्चाई क्या? जो है। जो है वो तो अपनी अनुभूति ख़ुद ही कराएगा न। ईमानदारी है, ‘एक बात जान गया, फिर पीछे नहीं मुड़ता। एक बार दिख गया, फिर अनदेखा नहीं करता। आँखों देखी मक्खी नहीं निगलता। हक़ीक़त जान ली, तो अब दुबारा अपनी झूठ की ज़िंदगी में वापस नहीं जाऊँगा।

जब तक नहीं जानते थे, भ्रम में थे, तबतक चल गया काम। अब जब जान लिया है तब पुराना ढर्रा नहीं चलने देंगें ये ईमानदारी होती है। ईमान माने– ‘धर्म’। और धर्म का यही मतलब होता है कि मेरी गति हमेशा सदा सत्य की ओर रहे। धर्म माने– ‘दिशा’। धर्म माने– ‘मुझे करना क्या है, कौन दिशा जाना है?’ मुझे लगातार सच्चाई की दिशा जाना है मेरी अपनी कोई दिशा नहीं – न दाएँ, न बाएँ। जिधर को सच दिखाएगा उधर को चल देंगें, ये धर्म है, ये ईमानदारी है।

प्र: आचार्य जी, भीड़ से दूर रहने का क्या मतलब है?

आचार्य : बेटा! यहाँ तक ठीक समझे हो कि भीड़ से दूर रहना शारीरिक दूरी से कम और मानसिक दूरी से ज़्यादा प्रयोजन रखता है। लेकिन उसमें एक बात और समझना। अपने मन की हालत देखो, अभी-अभी ये हुआ न कि तुम्हारे बगल में बैठा था। और शरीर ही था जो तुम्हारे बगल में बैठा था। तुम्हारे बगल में जो बैठा था उसके कारण तुमपर आफ़त आई। अभी–अभी ऐसा हुआ न? हुआ कि नहीं हुआ? तुम्हारे मन की हालत कुछ ऐसी है कि हम जिसके साथ रहते हैं उसी के जैसे हो जाते हैं।

हमारे भीतर अपनी आत्म की उपलब्धि तो हमने करी नहीं न। तो बगल में, बाहर, ऊपर, नीचे जो भी कोई होता है, हम उसी के बहकावे में आ जाते हैं, उसी के दिशा में चल देते हैं। तो ऐसे में फिर ज़रूरी हो जाता है कि तुम इस बात का भी ख़याल रखो कि तुम किन लोगों के साथ मिल-जुल रहे हो, उठ–बैठ रहे हो। बिलकुल ज़रूरी है। हालाँकि सत्संगति का ये आख़िरी अर्थ नहीं हैं कि बस ये देख लो किससे मिल-जुल रहे हो। सत्संगति का आखिरी अर्थ ये होता है कि तुम्हारे विचार कैसे हैं। ठीक है न? कि तुम किन विचारों के साथ जी रहे हो। लेकिन विचारों की बात ही बाद में आती है। तुमलोगों में से ज़्यादातर की हालत ये है कि तुम तो इसी बात पर ध्यान दो कि किन लोगों के साथ मिलना-जुलना है?

तो अगर सेशन में आनेवाले कहते हैं। कि कुछ लोग ये कहते है कि भाई! हमें ज़रा लोगों से दूर रहना है, तो शायद ठीक ही करते हैं। क्योंकि एक बार वो पहुँचे दस लोगों के बीच तो उन्हीं दस लोगों के जैसे ही हो जाना है। जब तुम्हारे भीतर वो सामर्थ्य आ जाये कि भले ही मैं दस लोगों के बीच हूँ।, पर उनके जैसा नहीं हो गया। तब तुम मौज़ से किसी के साथ उठना-बैठना, तब कोई दिक्क़त नहीं है। तब तुम्हारा और उनका ‘तेल और पानी का रिश्ता’ होगा कि साथ-साथ हो पर फिर भी अलग हो। तब जाना जहाँ जाना हो। पर अभी तो देखा ही क्या होता है? अभी तो तुम पूरा ख़यालरखो कि किसके साथ उठ–बैठ रहे हो? टीवी पर, इंटरनेट पर क्या देख रहे हो? अभी तो बिलकुल इन नियमों का पालन करो।

प्र: आचार्य जी, नासमझ माने क्या?

आचार्य : नासमझ का मतलब है– ‘जिसके दिमाग में सवाल चलते हैं।’ नासमझ का मतलब है– ‘जिसको अभी संदेह हैं।’ नासमझ का मतलब है– ’जो परेशान है।’ समझदार कौन है? वो नहीं जिसके पास जवाब है। समझदार वो है– ‘जिसके पास सवाल ही नहीं है।’ समझदार वो है– जो चुप, मौन, खाली, शांत। नासमझी माने– मेरे पास बहुत सारे शक और सवाल हैं। इसी नासमझी को दुनियादारी की भाषा में ‘होशियारी’ कहा जाता है। दुनिया में होशियार कौन है? इस टेबल के देख कर पता चल रहा है कि इसपर कोई था? (श्रोतागण हँसते हैं…)

अब इसके पास सवाल है। दुनिया की भाषा में ये क्या हुआ? होशियार। देखो,, टेबल देख कर बता दिया कि यहाँ कोई था। और सच्चाई की भाषा में इसे– ‘नासमझी कहते हैं।’ क्योंकि इसका दिमाग चल रहा है। जिसकी खोपड़ी चल रही है, वही नासमझ है। आ रही है बात समझ में (सभी श्रोतागण से पूछते हुए..)

तो जब मैं पूछूँ– “आ रही है बात समझ में, तो मतलब क्या हुआ?” (सभी श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं….)

इसका मतलब ये होता है कि सोच तो नहीं रहे न! चुप हो? मौन हो? शांति? बस इतना ही पूछा जा रहा है। ये नहीं पूछा जा रहा है कि याद है क्या बोला। न। याद हो न हो, शांति है कि नहीं है? है शांति, तो ठीक है। और कुछ नहीं चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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