प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! मेरे जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है, मैं जो सोचती हूँ, मेरे कार्य तथा शब्दों में पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाती हूँ। हमेशा लगता है कि भविष्य के लिए तैयारी कर रही हूँ लेकिन जीवन तो प्रतिपल ख़त्म ही हो जा रहा है, जीवन बहुत ही संकुचित रूप में व्यतीत कर रही हूँ। आचार्य जी, कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: किनका है? सवाल बदल गया। कहाँ थे आज आज तक? लग ही नहीं रहा ये कल ही वाले व्यक्ति का सवाल है। फिर से पढ़िए। प्र.: आचार्य जी प्रणाम! मेरे जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है मैं जो सोचती हूँ, मेरे कार्य तथा शब्दों में पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाती हूँ। हमेशा लगता है कि भविष्य के लिए तैयारी कर रही हूँ, लेकिन जीवन तो प्रतिपल ख़त्म होता जा रहा है। जीवन बहुत ही संकुचित रूप से व्यतीत हो रहा है, दीजिए।
आचार्य: भविष्य की चिन्ता, परेशान ही तब करती है जब वर्तमान बिलकुल सूना, बेरंग बैठा हो। और वर्तमान किस चीज़ से भरना है, इसका कोई एक सीधा–साधा उत्तर नहीं हो सकता। क्यों नहीं हो सकता? क्योंकि आप जो व्यक्ति हैं, वो इनसे अलग हैं, इनसे अलग हैं, इतना ही नहीं, आप आज जो व्यक्ति हैं, वो उस व्यक्ति से अलग है जो आप दो साल पहले थे, दो साल बाद होएँगे। सब लोग अलग अलग अलग–अलग है लेकिन सबकी केन्द्रीय अभीप्सा एक ही होती है और बात बहुत स्पष्ट है सब देखते हैं, सबके अनुभव की है। परेशान कोई नहीं रहना चाहता। ठीक? सारा अध्यात्म इस सीधे से वाक्य से उठता है।
हम परेशान नहीं रहना चाहते, किसको पसन्द है सिरदर्द? यहाँ (मस्तिष्क के पार्श्व भाग की ओर इशारा करके) बज रहा है, ऐसा लग रहा है धीरे-धीरे टन–टन–टन–टन होता है ना भारी–भारी सा है, किसको पसंद है? किसी को नहीं होता। यहीं से अध्यात्म की शुरुआत होती है। सब लोगों की मौलिक और साझी चाह है शान्ति। कोई ऐसा नहीं होता जो अशान्त, परेशान रहना चाहे, उसी शान्ति को अलग–अलग नामों से कह दिया जाता है अलग–अलग सन्दर्भों में। कभी उसको सत्य कह देते हैं, कभी सरलता कह देते हैं, कभी बोध कह देते हैं, कभी कह दिया जाता है कि सत्य से प्रेम करो, कभी कह दिया जाता है शुद्ध होने के लिए साधना करो। ये सारे इशारे बिलकुल एक ही चीज़ की ओर है कोई अंतर अन्तर नहीं है। वो जो चीज़ है, वह हम सब में साझी है।
तो हमने दो बातें कहीं जितने लोग यहाँ बैठे हैं, सब अलग-अलग हैं और अलग-अलग परिस्थितियों में ठीक जो आपकी स्थिति है उनकी स्थिति नहीं है और आपकी जो आज स्थिति है वो कल नहीं होगी और इसी के साथ हम कह रहे हैं कि कितनी भी स्थितियां स्थितियाँ अलग - अलग अलग–अलग हों; एक चाह सबकी साझी है, दिमाग में धड़धड़ नहीं चलती रहनी चाहिए।, दिमाग वैसा रहे जैसा मौन के समय रहता है या जैसा सोते समय रहता है चुप, रिक्त। तो आप जहाँ भी हैं और जो भी कुछ कर रहे हैं, आपको यही प्रश्न अपने आप अपनेआप से पूछना है क्या इसमें शान्त हूँ मैं? और नहीं अगर शान्त हूँ तो अब मुझे वो करना है जो मुझे अशान्ति से मुक्ति दिलाएगा।
तो हमने जितने शब्द बोले थे फिर सत्य, शान्ति, सरलता, बोध, प्रेम उन सबसे बड़ा शब्द हमें फिर मिल जाता है। क्या है वो शब्द? मुक्ति। क्योंकि सत्य को पाने जैसा कुछ होता ही नहीं, झूठ छोड़ना होता है। तो सत्य को पाने से ज़्यादा ऊँची बात है — झूठ से मुक्ति। सिर हमारा इसलिए नहीं बज रहा कि इसमें सच नहीं है, सिर हमारा बजता रहता है क्योंकि इसमें झूठ बहुत है तो सच से भी ऊँची बात क्या हुई, ऊँची इस अर्थ में कि उपयोगी। सच से भी ज़्यादा उपयोगी बात क्या हुई? मुक्ति।
तो आप पूछे कि क्या करूँ? देखो कि क्या है जो तुमको भीतर से लगातार दलता रहता है; जान लगाकर कोशिश करो उससे मुक्ति पाने की। बस ऐसे ही जीना होता है और कोई तरीका नहीं है, मैं कोई लच्छेदार बातें नहीं सुनाना चाहता आपको। कि अध्यात्म माने स्वर्ग तुल्य अनुभव, अध्यात्म माने प्रेम की बंसी। अध्यात्म का मतलब होता है संघर्ष, साधना कुछ तो ऐसा तुमने पकड़ रखा है न जिसके कारण तुम्हें अध्यात्म की जरूरत है। अध्यात्म कोई अनिवार्यता, कोई व्यवस्था नहीं है। मुक्त पुरुष को अध्यात्म चाहिए ही क्यों, उसे अध्यात्म की कोई ज़रूरत नहीं, उस पर कोई नियम भी नहीं लागू होते साधना के। हमें अध्यात्म चाहिए, हमें क्यों चाहिए? क्योंकि हम बंधे हुए हैं, परेशान हैं, हम कैद में हैं तो भिड़ना पड़ेगा, लड़ना पड़ेगा, कोई विकल्प नहीं है भाई।
कैद में रहो तुम और वहाँ बैठकर तुम रूमानी गाने सुनो और नाचो खेलो, शृंगार करो, आभूषण पहनो, भविष्य के सुन्दर सपने लो, एक–दूसरे से गोलमोल बातें करो ये शोभा नहीं देता न, बड़ी मूर्खता की चीज़ हो गयी न? कि नहीं?
कि जैसे कसाई के पिंजड़े के भीतर दो–चार मुर्गे, एकाध मुर्गियाँ और वो वहाँ बैठकर के राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं। कह रहे हैं, 'अगली सरकार किसकी बननी चाहिए?' किसी की सरकार बने, तुम पर क्या असर पड़ेगा, तुम पिंजड़े के मुर्गे हो, तुम सरकार और राजनीति की बातों में रुचि रखते सिर्फ़ इसलिए हो ताकि तुम्हारी जो वर्तमान हालत है, उससे तुम्हारा ध्यान हट जाए। सोचो न। कसाई के पिंजड़े देखे हैं न? उसमें कुक्कड़ मुर्गा और गुटरी मुर्गी बैठ कर चर्चा कर रहे हैं कि क्या महाराष्ट्र का हाल भी कर्नाटक जैसा होगा? और थोड़ी देर पहले उन्होंने देखा है कि पिंजड़े में एक हाथ भीतर आया था, एक को उठाया था वहाँ ले जाकर के पत्थर पर रखा था और खच्च! सब देखा है पर अपनेआप को धोखा देने की हमारी पुरानी आदत। या मुर्गा–मुर्गी बैठ कर के कहीं की माता का व्रत रखते हैं क्या होगा रे? आरती गाते हैं, वहाँ अन्दर एक ज्योतिषी भी है, वो कहता है मैं पंजे देखता हूँ वो सबको उनके पिछले जन्म और अगले जन्म का हाल बता रहा है। क्या करोगे ये सब जानकर? तुम्हारे लिए इनकी कोई प्रासंगिकता? कुछ मिलेगा? थोड़ा बड़ा पिंजड़ा है, उसके भीतर भूरी मुर्गी ने ब्यूटी पार्लर भी खोल रखा है। वहाँ चार–पाँच लाइन लगाकर खडी खड़ी हुई है, 'अरे! मेरे पंख वगैरह, थोड़ा चमका दो अच्छे से।' अब ये नोचे जाएँगे! वहाँ पंख चमकाने के लिए खड़ी है, कह रही है, ' नाख़ुन अच्छे से क्लिप कर देना।' अभी इन्हें कुत्ते खा रहे होंगे सड़क के।
होश का मतलब यही होता है — अपनी वर्तमान हालत के प्रति ईमानदारी। असल में जानना भी नहीं; सिर्फ़ ईमानदारी, क्योंकि भाई जानते तो हम है ही, कौन है जो नहीं जानता। हमें ज्ञान की नहीं, ईमानदारी की कमी है, हमें होश की नहीं, साहस की कमी है। सब जानते हैं पर भीतर इतनी तामसिकता भरी हुई है कि कौन संघर्ष करे इस कैद, इस पिंजड़े, इस कसाई के ख़िलाफ़, तो अपनेआप को ऐसा जताओ, अपने ही प्रति ऐसा अभिनय करो जैसे सब ठीक चल रहा है, सब ठीक ही तो चल रहा है। सुबह–सुबह कुक्कड़ उठकर बोलता है, 'गुड मॉर्निंग।' गुड मॉर्निंग! गुड मॉर्निंग, तेरे लिए गुड मॉर्निंग, तेरे लिए कैसे है ये गुड मॉर्निंग?
वो कहे कि देखिए मैं कितना निर्बल हूँ और ये लोहे की सलाख़ें हैं और वो अब्दुल कसाई है, उसकी बाँहें देखिए मज़बूत। मेरी हैसियत क्या है? वहाँ वो चाकू है, उसकी धार देखिए, मेरी औकात क्या है। तो भाई तू एक काम कर तू मुक्त होने की कोशिश में इन तीलियों से, इन सलाख़ों से लड़कर मर जा। वो मौत भली होगी न? कम–से–कम उस मौत में कुछ रस तो होगा, कुछ दम होगा, कुछ ईमानदारी होगी। और तू अपनी ओर से पूरी कोशिश तो कर, क्या पता कहीं से सहारा आ जाए, कौन जाने कहीं से सहारा आ जाए। मैं इन्दिरापुरम की ओर से निकल रहा था, तीन–चार साल पहले की बात है। अचानक मेरी गाड़ी के सामने दौड़ता हुआ एक मुर्गा आ गया, मैंने ब्रेक मारा वो बच गया। पीछे से उसका कसाई आया उसने उसको उठा लिया और ले गया। मैं गाड़ी लेकर थोड़ा आगे बढ़ा, फिर मैंने कहा नहीं लौटना पड़ेगा। मैं लौटा, जितनी देर में मैं लौटा उतनी देर में वो दुकान ही बंद कर गया था अपनी। उसके बगल की दुकान खुली थी, वहाँ लाइन से तीन चार दुकाने थी इसी की। मैंने कहा, 'ये दुकान वाला कहाँ गया? मुझे कुछ चाहिए।' बोला, 'अभी बुला लाते हैं भाई को।' उसकी बिक्री हो रही है, तो वो गया, वो कहीं पास में ही रहता था उसको बुला लाया। मैंने कहा, 'वो मुर्गा चाहिए मुझे जो अभी सड़क पर दौड़ा था।' थोड़ा उसको ताज्जुब हुआ मुझे देखकर, बोला, 'आप भी!' मैंने कहा, 'नहीं, चाहिए; लिया।' बोलता है, 'बड़ा गड़बड़ मुर्गा है। मैं दुकान बन्द कर रहा था और जितने बचे हुए मुर्गे थे आज के उनको सबको एक में डाल रहा था इतने में वो हाथ से झिटककर भाग गया, निकल ही जाता, बड़ा नुकसान करा देता। वो ऐसा ही करता है।' मैने कहा, 'नहीं वही वाला चाहिए।' तो ले आया, दिया। मेरा पहला अनुभव था किसी मुर्गे को छूने का। वो था भी ख़तरनाक, इधर–उधर, ऐसे–ऐसे देखे, चोंच मारे, आवाज़े करे, सब करता था, उद्दण्ड, विद्रोही मुर्गा। फिर मैंने उसको गाड़ी में बगल वाली सीट पर रखा और उसको बोध स्थल ले आया। रहा वो, डेढ़–दो–ढाई साल करीब रहा। बढ़िया मस्त मुर्गा हो गया वो , आठ–दस किलो का। जो यहाँ संस्था से पुराने लोग बैठे हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं है जिसको उसने दौड़ाया न हो। आपको अगर बोध–स्थल में प्रवेश करना होता था तो पहले उससे पार पाना होता था, खुल्ला घूमता था पूरे में और नये आदमी को देखकर के बिलकुल अनुमति नहीं देता था, तुम हो कौन? आ कैसे गये? फोटो हैं, वीडियो है, जहाँ वो लोगों को दौड़ा रहा है।
उसी दिन कट गया होता, नहीं बचना था उसको, पर उसने कुछ ऐसा करा जो ज़रा अलग था। जितनी भी उसमें जान थी, उसने वो जान दिखाई और फिर कहीं से मदद आ गई, मिल गया सहारा। तुम बहुत ज़्यादा नहीं कर सकते, पर जितना कर सकते हो उतनी तो हिम्मत दिखाओ न, हिम्मत–ए–मुर्गा, मदद–ए–ख़ुदा!
तुमने इतनी उतनी भी हिम्मत दिखाई जितना एक मुर्गा दिखा सकता है। वो छूटकर भागा, सड़क की तरफ़ आ गया कि गाडी गाड़ी से कुचल कर मर जाऊँगा तो मर जाऊँगा, पर इसके साथ रहना मंज़ूर नहीं है। गाड़ी हो सकता है, उसे कुचल ही देती, हो सकता है मेरे ही टायर के नीचे आ जाता, पर नहीं आया। मदद मिलती है, सहारे आते हैं, चमत्कार होते हैं थोड़ा भरोसा तो रखो। और नहीं होंगे चमत्कार तो अधिक–से–अधिक क्या होगा? मर ही तो जाओगे, मर तो वैसे भी रहे थे वहाँ। एक रात वो और जी लेता तो क्या होता, अगले दिन कटता। और याद रखना, मैंने भी वहाँ उससे नहीं कहा कि ये तेरे पास जितने मुर्गे हैं, सब मेरी गाड़ी में डाल दे। एक ही बचा? कौन सा बचा? जिसने हिम्मत दिखाई। वो जितना कर सकता था उसने किया, उसके आगे का काम ख़ुदा का।
बात समझ में आ रही है?
इसमें ज़्यादा तुक और तर्क नहीं लगाए जाते, बैठकर के बहुत व्यावहारिक ज्ञान नहीं बघारा जाता कि मैं तो मुर्गा हूँ, मेरी हैसियत क्या? मैं तो फँस गया हूँ, बाहर जाकर होगा क्या? क्या होगा, क्या नहीं होगा, हमें नहीं पता दौड़ पड़े। सोचो वो बड़ी व्यस्त सड़क है और नौ–साढ़े–नौ का वक्त था करीब, व्यस्त सड़क पर एक मुर्गा दौड़ा जा रहा है।
जीतू नाम रखा था हमने उसका। असल में उसका नाम जीतू नहीं था, जीटू था, जीटू (G2) (अंग्रेज़ी वर्णमाला के 'जी' तथा '2' का इशारा करके) और जीटू माने जीजी (GG), जीजी माने? वो मैं वायटी ज्वॉइन (यूट्यूब ज्वॉइन) पर बताऊँगा। स्ट्रिक्टली ओनली फॉर मेंबर्स ( सख़्ती से केवल सदस्यों के लिए )।
भाई जीतू की शान के ख़िलाफ़ है कि यूँही उसके बारे में कोई बात उड़ा दी जाए। जो लोग थोड़ा अपनापन दिखाएँ, जुड़ना चाहें, उन तक ही उसकी बात पहुँचनी चाहिए न? तो मुर्गे की मदद भी ख़ुदा तभी करता है? जब वो पंख फड़फड़ा कर, जान लगाकर कसाई के हाथों से छिटक करके सड़क पर दौड़ पड़ता है और कहता है होगा जो होगा देखा जाएगा। जो भी होगा, अभी जो हालत है उससे बेहतर होगा।
आयी बात समझ में?
फिर भविष्य नहीं सोचा जाता और आपके तो प्रश्न में ही सबसे ऊपर भविष्य बैठा है। मेरा भविष्य क्या होगा? जीतू ने अपना भविष्य सोचा था, जीतू ने अपना भविष्य सोचा था क्या? तो भविष्य की नहीं सोचनी है, वर्तमान के खिलाफ ख़िलाफ़ विद्रोह करना है। जो भविष्य की सोचते हैं, उनका वर्तमान वैसा ही चलता रहता है जैसा चल रहा है।
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