प्रश्नकर्ता: सर, क्या किसी भी व्यक्ति की भावनाएँ गलत हो सकती हैं?
आचार्य प्रशांत: भावनाओं के अलावा और कुछ गलत होता ही नहीं!
भावना क्या है, इसको समझो।
जिसको तुम कहते हो कि अमुक व्यक्ति भावुक हो गया उसका अर्थ क्या है, इसको समझो। जब एक बच्चा पैदा होता है तो वो वृत्तियों का एक पिंड होता है, वृत्तियों का समूह; वृत्तियाँ ही पैदा होती हैं। उनमें जो मूल वृत्ति होती है, वो ‘अहम वृत्ति’ होती है। फिर बाहर से प्रभाव आते हैं। वो प्रभाव जब मन में ऊपर-ऊपर रहते हैं, सतह पर रहते हैं तो उनको कहते हैं–विचार। वही प्रभाव जब मन में गहरे प्रवेश कर जाते हैं, तो फिर वो वृत्तियों को जगा देते हैं और वृत्तियाँ मन के तहखाने में पड़ी होती हैं, उनमें बड़ी ऊर्जा होती है।
तुम ऐसे समझ लो कि अगर बाहर कुछ है, जिससे तुम्हें सिर्फ थोड़ी बहुत अड़चन हो रही है या ऊब हो रही है, तो मन में विचार उठेगा कि, 'ये सब क्या है?' थोड़ा सा क्लेश उठेगा, तुम सोचोगे कि, 'मैं इस जगह से दूर हट जाऊँ,' या तुम सोचोगे कि, 'मैं इस स्थिति को बदल दूँ, या इस व्यक्ति को यहाँ से हटा दूँ,' और ये सब कुछ मन में चलता रहेगा, और किसी और को पता भी नहीं लगेगा; तुम बैठे-बैठे सोचते रहो!
पर यदि बाहरी प्रभाव ताकतवर हो, और विचार गहरा होता जाए, तो वृत्ति जग जाएगी और अब तुम्हारे शरीर पर भी इस विचार का असर दिखाई देना शुरू हो जाएगा। पहले तुम सिर्फ सोच रहे थे, अब तुम पाओगे कि तुम्हें क्रोध आ रहा है, तुम्हारा चेहरा लाल हो रहा है, और अगर क्रोध बढ़ता ही जाए तो तुम्हारे हाथ-पाँव काँपने लगेंगे, मुठ्ठियाँ भिंच जाएँगी, और शरीर काँपने लगेगा–ये वृत्ति है। अब तुम कहोगे कि, ‘मैं भावुक हो गया।'
भावना कुछ नहीं है, भावना बस वृत्ति का प्रकट हो जाना है।
मन के तहखाने में जो वृत्तियाँ छिपी रहती हैं, साँप की तरह, जब वो प्रकट हो जाती हैं तो उन्हें भावना कहते हैं। तुम्हें कोई छोटा-मोटा दुख है तो तुम्हारे मन में दुखी विचार आते रहेंगे, लेकिन बाहर-बाहर से तुम शांत ही दिखाई दोगे। कह पाना मुश्किल होगा कि तुम दुखी हो, कोई दूर से देखे तो ऐसे ही लगेगा कि तुम शांत हो। लेकिन यही दुख के विचार जब जोर पकड़ लेंगे, तो इन्हें फिर वृत्तियों की ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है, ये मन में और गहरे प्रवेश कर जाते हैं, और अब तुम्हारे शरीर पर भी प्रभाव दिखाई देने लगेगा, तुम्हारी आँखों से आँसू गिरने लगेंगे, तुम सुबकने लगोगे और अब तुम कहोगे, 'मैं भावुक हो गया, भावनाएँ आ गईं।' ये भावना और कुछ नहीं है, ये दुनिया का ही प्रभाव है तुम्हारे ऊपर जिसे अब वृत्तियों का साथ मिल गया है।
बाहरी प्रभावों को जब वृत्तियों का साथ मिल जाता है तो उसको भावना कहते हैं।
भावनाओं को बहुत शुद्ध या पवित्र मत मान लेना। ठीक वैसे, जैसे विचार दुनिया से प्रभावित होते हैं, बिल्कुल उसी तरीके से भावनाएँ भी दुनिया के ही जोर से उठती हैं। विचारों को तो फिर भी काटा जा सकता है क्योंकि विचारों में जोर कम होता है, तुम विचारों को झिड़क करके दूर कर सकते हो पर तुमने देखा होगा कि यदि तुम भावुक हो गए तो अब बड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन चूँकि हम एक ऐसे माहौल में जीते हैं जिसमें समझ के लिए बहुत स्थान नहीं है तो इसीलिए हमने भावनाओं को बड़ा ऊँचा दर्जा दे दिया है।
कोई व्यक्ति तुम्हारे सामने आकर के कहे भर कि ये मेरे विचार हैं तो हो सकता है तुम उसको बहुत तवज्जो ना दो। लेकिन अगर तुम्हारे सामने कोई आए, और रोए, और चीखे, और चिल्लाए, और कहे कि 'ये मेरी विचार-धारा है, और मैं इसके लिए जान देने को तैयार हूँ' –तो तुम बड़े प्रभावित हो जाओगे। तुम कहोगे, 'ये असली आदमी है, देखो ये रो-रो कर अपनी बात कह रहा है, इसके आँसू इसके साफ दिल की गवाही दे रहे हैं।' जबकि तथ्य ये है कि विचार यदि दूषित होते हैं तो भावनाएँ महा-प्रदूषित होती हैं।
विचारों का तो एक बार फिर भी शुद्धिकरण संभव है; वृत्तियों का शोधन तो बड़ी लंबी प्रक्रिया है, बड़ी तपस्या लगती है उसमें। विचार उठते हैं मन के चैतन्य (कॉनशियस) तल से, और भावनाएँ उठती हैं मन के अर्ध-चैतन्य (सब-कॉनशियस) तल से; वो मन का तहखाना है जहाँ पर पता नहीं कितना-कितना पुराना कचरा पड़ा हुआ है। तुम्हें पता भी नहीं है वहाँ क्या-क्या पड़ा हुआ है, भावनाएँ वहाँ से उठती हैं। इसी कारण तुम अक्सर समझ नहीं पाओगे कि तुम्हारे भीतर कुछ भावनाएँ क्यों उठती हैं। तुम्हें बिल्कुल समझ में नहीं आएगा कि, 'मैं एक खास तरह के चेहरे को देखता हूँ तो मुझे क्रोध क्यों आ जाता है,' तुम्हें पता भी नहीं चलेगा।
भावनाओं का उद्गम कहाँ से है, ये पता करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उनका उद्गम स्थल तुम्हारे चित्त में बहुत-बहुत गहरा है, जैसे कूड़े की परत-दर-परत हो। जो व्यक्ति जितनी आसानी से भावुक हो जाता है, समझ लेना उसके चित्त में कूड़ा उतना ही ज़्यादा है–वो ख़तरनाक है।
भावुक लोगों से बचना!
और मन भावुकता का खूब इस्तमाल करना जानता है। भावुकता तो वृत्ति से निकलती है और वृत्तियाँ तो हैं ही ज़हर, घनीभूत भ्रम हैं वृत्तियाँ, उनका तो काम ही है दुख, कष्ट को बढ़ाए रखना। इसी कारण अक्सर देखोगे कि जो कोई भावनाओं का प्रदर्शन करता है, उसके काम ज़्यादा आसानी से हो जाते हैं। कोई तुमसे आकर के कहे कि 'मुझे दस रुपय दे दीजिए,' बड़े साधारण तरीके से कहे, तुम नहीं दोगे। लेकिन कोई तुमसे आकर के रो-रो कर कहे कि 'हज़ार दे दीजिए,' तुम चंदा कर के दोगे! देखो, स्वार्थ सिद्ध हो गया न! भावनाओं से स्वार्थों की खूब पूर्ति होती है।
जो भी कोई तुम्हें ग़ुलाम बनाना चाहेगा, एक बात पक्की मान लेना भावुकता का प्रदर्शन ज़रूर करेगा।
वो तुम्हारी वृत्तियों को हवा देगा, आग लगाएगा! कोई चाहता है कि तुम चलो और दंगे करो और मर मिटो, कभी देखा है जब लोग भाषण देते हैं तो वो क्या करते हैं? क्या वो भाषण ऐसा देते हैं कि चित्त शांत हो जाए या वो भाषण ऐसा देते हैं कि वृत्तियाँ उत्तेजित हो जाएँ? वो तुम्हें भावुक करते हैं, क्योंकि भावुक करके ही तुम पर कब्ज़ा किया जा सकता है। और दुनिया में जितने महा-पाप हैं, वो बिना तुम्हें भावुक किए नहीं किए जा सकते। लोग आते हैं अदालत में अपनी सफाई देने, कहते हैं, 'मैंने कत्ल नहीं किया, मैं भावुकता की रौ में बह गया था।' और वो गलत नहीं कह रहे हैं, वो ठीक कह रहे हैं, यही हुआ है, वो कत्ल हो ही नहीं सकता था बिना भावुकता के।
खासतौर पर भारत में भावनाओं को बहुत कीमत दी गई है क्योंकि भावनाओं को कभी समझा भी नहीं गया, और ये बड़े दुर्भाग्य की बात है क्योंकि भारत ही वो जगह है जहाँ पर मन को खूब समझा गया है। इससे बड़ी त्रासदी नहीं हो सकती कि आज भारतीयों को पूरी दुनिया भावुक लोगों की तरह जाने, 'भारतीय भावुक होते हैं,' क्योंकि ‘भावना क्या है,’ भूलना नहीं, भारत से ज़्यादा किसी ने नहीं समझा। मन का पूरा विज्ञान हमें सदा से स्पष्ट रहा है, उसके बाद भी आज हमारी ये स्थिति आ गई है कि भावनाओं में बहे जाते हैं।
भावनाओं में बहने का मतलब है वृत्तियों का दास होना।
लेकिन मतलब समझना इसका, मैं तुमसे निर्मम या कठोर होने को नहीं कह रहा हूँ। दो अलग-अलग शब्द हैं: एक है भावुकता (सेंटीमेंटालिटी) और दूसरा है संवेदनशीलता (सेंसिटिविटी)। मैं तुमसे कह रहा हूँ भावुक ना रहो, संवेदनशील रहो। संवेदनशीलता बहुत बड़ी बात है, संवेदनशीलता मन का सूक्ष्मतम गुण है। संवेदनशीलता का अर्थ होता है, मन का ऐसा हो जाना कि जैसे कोई बहुत महीन वाद्य यंत्र संगीत में, कि उसको ज़रा सा तुमने छुआ नहीं और वो झन-झना गया। थोड़ा-बहुत भी जो घट रहा है उसको वो पकड़ पा रहा है, ये संवेदनशीलता है। वो मृत नहीं है, वो जीवित है, हर छोटी घटना पर प्रत्युत्तर दे रहा है, चैतन्य है–ये संवेदनशीलता है।
भावुकता तो तुम्हें असंवेदन बना देती है, तुम्हारी संवेदनशीलता की हत्या कर देती है। कहा था न तुमसे कि अभी दिल्ली में एक माँ-बाप ने अपनी बेटी की हत्या करी और बाप ने बेटी के दोनों पाँव दबाए और माँ ने उसका गला घोंटा; बड़े भावुक माँ-बाप रहे होंगे! और छोटा भाई भी था उस लड़की का, वो उत्साह बढ़ा रहा था; और ये सब कुछ इसलिए हो रहा था क्योंकि उस लड़की ने किसी दूसरी जाति में शादी कर ली थी। तो बड़ी भावुकता में ये सब हो रहा होगा; लेकिन, संवेदनशीलता?
तुम्हारे हाथों किसी की आँखों की ज्योति ख़त्म हो रही है, संवेदनशीलता है तुममें? तुम देख भी पा रहे हो तुम क्या कर रहे हो? भावुकता खूब है! संवेदनशीलता ज़रा भी नहीं है। और यही एक भावुक आदमी की हालत हो जाती है, वो बड़ा हिंसक हो जाता है! भावुकता में बड़ी हिंसा है!
संवेदनशीलता अहिंसक है, संवेदशीलता में प्रेम है; संवेदना सीखो, भावुकता नहीं।