भारतीय चित्त: कामना अपराध है

Acharya Prashant

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भारतीय चित्त: कामना अपराध है
भारतीय चित्त बहुत हद तक ऐसा हो गया कि हमें कुछ नहीं चाहिए, कुछ नहीं करना। नींद आ रही? नहीं आ रही। खाओगे? नहीं खाएँगे। कपड़ा चाहिए? नहीं चाहिए। पैसा चाहिए? नहीं चाहिए। तू जी ही क्यों रहा है फिर, जब तुझे कुछ नहीं चाहिए तो? भीतर कामना भरी हुई है और बाहर से संस्कारी दिखना है। जो खुल के नहीं बता सकता कि उसकी कामना क्या है, उसके पास छुपी हुई बहुत बड़ी कामना है। सरल हो जाओ। प्रकृति ने पैदा किया है। प्रकृति को ही हम महा-माँ बोलते हैं। जैसे भी हो, वैसे हो, पैदा ही ऐसे हुए हो, शर्माने-लजाने की क्या बात है इसमें? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा सवाल हमारे भारत देश को लेकर है। आचार्य जी, इस विषय में हमारे भारत पर काफ़ी इल्ज़ाम लगाए जाते हैं कि जो सामाजिक कुरीतियाँ रही हैं या फिर विज्ञान में बहुत तरक्क़ी नहीं मिल पाई है, तो इसका कारण बहुत ज़्यादा धर्म को बताया जाता है। लेकिन इसी देश में उपनिषद् हैं, जो सिखाते हैं कि विद्या और अविद्या दोनों का ही महत्त्व है। तो कई मामलों में जो भारत पिछड़ा रहा है, तो क्या इसका कारण सही में धर्म हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: देखो, बाहर बदलो, बाहर पूजा-पाठ करो, बाहर मत बदलो, बाहर मत पूजा-पाठ करो, ये सब क्या हो गए? कर्म हैं न ये तो, ये करो, ये न करो। और गीता बार-बार खींचकर कहाँ ले जाती है आपको?

प्रश्नकर्ता: कर्ता पर।

आचार्य प्रशांत: कर्ता पर ले जाती है न। अगर कर्ता भाव विलुप्त हो चुका है, अहंकार एकदम तृप्त हो चुका है और उसके बाद अजगर बनना चाहते हो, कुछ नहीं करना, तो स्वागत है, पड़े रहो, अगर ऐसे हो जाओ तो। ऐसा आमतौर पर देखा नहीं गया है, ज़्यादा संभावना यही है कि जब अहम् मुक्त हो जाओगे तो कर्म तुम्हारा और घोर हो जाएगा, क्योंकि अब बचाने को कुछ बचा नहीं न।

कर्म से, युद्ध से, संघर्ष से हम थोड़ा-सा पीछे हटते हैं, बच-बच के खेलते हैं क्योंकि हमारे पास बचाने को कुछ होता है। जिसके पास बचाने को कुछ नहीं होता, वो तो नंगा फ़क़ीर हो गया है, वो तो बिना कवच का योद्धा हो गया है, वो तो खुला खेलता है, तो उसका कर्म और घनघोर हो जाता है। लेकिन अगर मैं कह रहा हूँ, ऐसा भी हो जाए कि आपका अहम् शून्य हो गया और उसके बाद आप कह रहे हो, मुझे कुछ नहीं करना, अजगर गीता — कुछ नहीं करना। अष्टावक्र भी, हम आगे चलेंगे तो एक जगह पर आगे कहते हैं कि ज्ञानी ऐसा हो जाता है कि जाओ कुछ नहीं करते। अगर वैसा भी हो जाए, कोई बात नहीं, क्योंकि हमारी जो दृष्टि है वो तो कर्ता पर है। कर्ता को शून्य होना चाहिए, उसके बाद वो कर्म करे घनघोर, अच्छी बात। और कुछ न करे, तो और अच्छी बात।

दूसरी ओर अहंकार पूरे तरीक़े से है, ठोस है, साबुत है और उसके बाद तुम कह रहे हो, “नहीं-नहीं, मुझे दुनिया में कुछ नहीं करना, बस पूजा-पाठ करना है। न मुझे विज्ञान करना, न संघर्ष करना, न अभियान करना, न अन्वेषण करना, न अनुसंधान करना, कुछ नहीं करना,” तो ये क्या गड़बड़ बात है! ये तो तुम कुछ न करके बचा रहे हो अपने अहंकार को, क्योंकि कुछ करोगे तो अहंकार टूटेगा।

इतना ही नहीं होता, आपने एक धार्मिक किस्म का अहंकार पाल रखा होगा। आप प्रयोग करके देख लीजिएगा, जो बहुत-बहुत-बहुत ज़्यादा रूढ़िवादी धार्मिक लोग होते हैं, और भारत में धर्म का अर्थ रूढ़ि ही बन गया, इनको आप कोई नई जगह दिखाने ले जाओ, ये जाने से मना कर देंगे। क्योंकि वहाँ जाने भर से इनके अहम् पर चोट लगेगी, इनकी मान्यता पर चोट लगेगी। इन्होंने कोई बात मान रखी है, उस मान्यता पर प्रकाश डालती हुई कोई डॉक्यूमेंट्री हो, आप दिखाना चाहो, ये देखेंगे नहीं। अब ये तो कुछ न करने का उदाहरण है न! लेकिन ये कुछ न करना अकर्तृत्व से नहीं आ रहा है, ये कुछ न करना घोर अहंकार से आ रहा है। अहंकार इतना ज़्यादा है कि ये न डॉक्यूमेंट्री देखना चाहते, आप बोलो इनको कि आओ चलो तुमको विदेश घुमाएँगे, मना कर देंगे। क्योंकि विदेश घूम लिया तो इन्हें पता चल जाएगा कि बाहर की संस्कृतियों में भी बहुत दम है, तो ये मना कर देंगे।

तो तुम ये क्यों मान रहे हो कि अगर भारतीय चित्त बहुत हद तक ऐसा हो गया कि हमें कुछ नहीं चाहिए, कुछ नहीं करना “अरे, क्या करना है खोज के कि अफ्रीका के जंगलों में क्या रखा है।” भारतीय नहीं गए अफ्रीका में कुछ खोजने, उन काले घने जंगलों में। वो खोज, खुदाई का सारा काम गोरे आदमी ने किया। भारतीय नहीं गए अमेरिका की खोज में, भारतीय बस यहीं। भारतीय तो रूस भी नहीं गए, चीनी भी पहले भारत आए, फिर कुछ भारतीय चीन गए। जापान भी नहीं गए भारतीय।

इसका अर्थ ये थोड़ी है कि वो बिल्कुल जीवनमुक्त हो गए थे तो बोले, “यहीं पर बैठो, कहीं जाकर क्या करना है। सारा ब्रह्मांड तो चित्त के आकाश में है, तो कहीं जाना क्या है,” ऐसा थोड़ी हुआ था। ये तो तमस है, ये तो तमोगुण है – कहीं नहीं जाना, बैठे रहो आराम से, क्या करना है। और कहीं जाओ तो ख़तरा और रहता है, ऐसी बातें पता चल जाएँगी जिनसे रूढ़ि टूटेगी, तो अच्छा है, कोई बात पता ही न लगे।

कहीं नहीं जाना, कुछ नहीं करना, विज्ञान में प्रयोग करोगे तो तमाम तरह की धारणाएँ टूटेंगी, तो कोई प्रयोग करो ही मत।

प्रयोगशाला ही नहीं होनी चाहिए। अब आप तो मान के बैठ गए हो कि जल एक तत्व होता है। प्रयोग करने बैठ जाओगे तो पता चलेगा उसके भीतर तो दो घुसे हुए थे। और आगे जाओगे तो पता चलेगा उन दोनों के भीतर तीन-तीन और घुसे थे। और आगे जाओगे तो पता चलेगा उन तीनों के भीतर छह-छह और घुसे थे। अब क्या करोगे?

पुराने महान लोग थे, बता गए कि पाँच ही होते हैं तत्व (एलिमेंट्स), जिसमें से एक क्या है? जल। एक बता दिया कि वायु। अब अगर प्रयोग कर लिया तो पता चलेगा कि वायु तो पता नहीं कितने होते हैं उसमें, वायु मानें ज़्यादा नहीं तो कम से कम बीस तो गैस वहाँ पर मौजूद हैं, तीन-चार तो एकदम प्रमुख गैस हैं जो उसमें बैठी हुई हैं। तो वायु माने क्या? वायु कोई एक चीज़ है ही नहीं। वायु माने तो बहुत कुछ होता है और एक जगह जो वायु है, दूसरी जगह की वायु से बहुत अलग होती है। और तत्व तो बदल नहीं सकते, तो वायु कैसे बदल गई? तो प्रयोग करो ही मत।

विदेश जाओगे तो वहाँ पता नहीं क्या पता लग जाए, तो बोल दो, विदेश यात्रा पाप होती है। ये भारत में संस्कृति में रहा है कि जो समुद्र पार करता है, उसको महापाप लगता है। तो तुमने नहीं समुद्र पार किया, उन्होंने कर लिया न पार, और हमें पार कर दिया उन्होंने फिर। हमने नहीं समुद्र पार किया, वो आ गए वहाँ से यूरोप से समुद्र पार करके, और फिर ढाई सौ साल तक भुगता हमने। इससे अच्छा हम ही ने पार कर लिया होता।

ये जो भारत में संतुष्टि का सिद्धांत रहा, ये बहुत ख़तरनाक रहा है। संतुष्ट होने का अधिकार तो बस पूर्ण को होता है, मैं पूर्ण हूँ तो संतुष्ट हूँ अब और क्या करना है। तुम अपूर्णता में संतुष्ट हो गए और ये अपराध है। हो अपूर्ण और संतुष्टि का नाटक, ताकि अपूर्णता बची रहे। और नाटक ऊपर-ऊपर का है, भीतर ही भीतर लालच भी बचा हुआ है, सब बचा हुआ है। कौन सा वहाँ पर तुम सचमुच ही संतुष्टि का जीवन बिता रहे थे। दूसरे का गला काटना, नोचना, खसोटना ये सब तो चल ही रहा था, पर वो भी चल रहा था एक बिल्कुल ही चिंदी चोरी के स्तर पर, किसी का दो रुपया, किसी का एक रुपया।

कुएँ में देवता रहते, “चलो रे, सब लोग सिक्का डाल दो और शाम होते ही वो देवता भूत बन जाते हैं। तो अब यहाँ से भूत निकलेंगे रात को, चलो शाम हो गई, सब घर भागो, घर भागो, देवता भूत बन जाएँगे!” जब सब घर भाग गए, तो ये बाल्टी लेकर आए और सिक्के निकाले। अब क्या ये एक-एक, दो-दो सिक्का, इससे अच्छा कोई साहसिक अभियान कर लिया होता। रुपया ही चाहिए था तो लाखों-करोड़ों कमा सकते थे, ये एक-दो रुपए की क्या चोरी है ये?

असंतुष्टि होना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि असंतुष्टि ही तो यथार्थ है न। ज़बरदस्ती का असंतुष्ट बनने को आपको नहीं कह रहा हूँ, असंतुष्ट तो आप हो ही। मैं आपसे कह रहा हूँ, ईमानदारी से अपनी स्थिति का स्वीकार तो करो। आप जब असंतुष्ट हो, तो फिर अपनी असंतुष्टि को जानो, ये असंतुष्टि चीज़ क्या है? क्यों आती है? कैसे बढ़ती है? कैसे घटती है? दुख क्यों देती है? फिर पता चलेगा कि इससे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। उसकी असंतुष्टि या अपूर्णता या दुख कैसे हटेगा, जो है तो भीतर से खोखला, पर बाहर से क्या दिखा रहा है...? (संतुष्ट हूँ।)

आग अगर हो, तो फिर वैसा नहीं होना चाहिए कि बस ज़िंदगी भर थोड़ा-थोड़ा धुआँ मार रहे हो, फिर लपट दिखनी चाहिए।

बिरहिन ओदी लाकड़ी, सिसके और धुधुआए। छूट पड़े या विरह से, जो सगली जली जाय।।

~ संत कबीर

ओदी लकड़ी मत बनो, ओदी लकड़ी माने गीली लकड़ी। हम गीली लकड़ी की तरह हो गए भारतीय सारे। न तो ये हुआ कि शांत पड़ गए हों, और शीतल हो गए हों, और अग्नि बुझ गई हो, ऐसा तो हुआ नहीं। जलन तो मची ही रही, भीतर आग तो लगी ही रही, पर वैसी आग जैसी ओदी लकड़ी (गीली लकड़ी) में होती है कि पूरी तरह प्रज्वलित भी नहीं हो पा रहे, बस धुधुआ रहे हैं, धुधुआ रहे हैं, धुधुआ रहे हैं।

तो ज्ञानियों ने कहा है, इससे तो कहीं अच्छा है कि तुम पूरे ही जल जाओ, “छूट पड़े या विरह से जो सगली जली जाय।” ये नहीं चलेगा कि सिमरिंग, आग चाहिए समूचा विस्फोट चाहिए। भीतर से अगर खोखले हो, पता चल जाए पूरी दुनिया को “हाँ, खोखला हूँ और अब बाहर निकल आया हूँ।” बुद्ध कोई अपना सम्मान बचा के थोड़ी बैठे थे कि दुनिया क्या कहेगी कि “इतना बड़ा युवराज, और पत्नी, और इसका ज्ञान और उसके बाद भी जंगल चला गया।” लोगों ने तो बड़ी फब्तियाँ भी कसी होंगी। बोले, “अब सबको पता चलता है तो चल जाए, दुनिया लानत भेजती हो भेजे।” लोग आज तक कह रहे हैं, “बुद्ध ने बड़ा बुरा किया, पत्नी को छोड़ आए।” ये जितने गृहस्थ और संस्कृति-वादी हैं, ये बुद्ध को इसी नाते बुरा मानते हैं, ये कहते, “छी-छी, पत्नि को कोई ऐसे छोड़ता है!”

बुद्ध ने कहा, “तुम्हें मुझे जो बोलना है, बोलो। अब तो पूरी दुनिया को पता लगने दो। जिसको पता लगता है, लगे, लेकिन जो मेरी हालत है, उसको अब मैं दबा-छुपा के नहीं चल सकता। ये राजमहल में, इस रत्नजटित शयनकक्ष में नहीं मुझे चैन है तो नहीं चैन है, बाबा। क्या मैं दिखाऊँ ज़बरदस्ती? आग लगी है तो अब लगे, सब जले।”

बड़े अभियान पर निकलो न तो कम से कम छुद्रता से मुक्त हो जाते हो, जो दो कौड़ी की लंपटगिरी होती है, उससे आज़ाद हो जाते हो। फिर ये नहीं होता कि किसी का दो रुपया-चार रुपया लूट रहे हो। फिर अगर लूट भी करते हो तो थोड़ा बड़ी लूट तो करो, हमारे यहाँ तो हर आदमी दूसरे का दो रुपया लूटने में लगा हुआ है। अब नहीं होता पहले होता था, जब वो वाले घर होते थे, जहाँ पर एक घर में कुछ बना तो पड़ोस के घर को दिया गया। आज से तीस-चालीस साल पहले का ले लो, तो वहाँ इसी बात को लेकर के बड़ी गर्मागर्मी रहती थी, निंदा, चर्चा, गॉसिप, आलोचना। क्या? “अरे, इनके यहाँ पर भेजा था मैंने, हमारे यहाँ पर ये बना था सारे बर्तन वापस आ गए, एक चमचा नहीं आया वापस।” अब ये छुप-छुप कर के फुसफुसा करके पूरे मोहल्ले को बताया जा रहा है कि “वो है न वो वर्मा की वर्माइन, एक चमची चुरा ली उसने।” अरे, तुम्हें चुराना भी है तो फिर तुम थोड़ा बड़ा ही चुरा लो।

जो तुम संतुष्टि का स्वांग करते हो, उसमें संतुष्टि कहीं नहीं है, बस चिंदी चोरी है। चमचियाँ चुरा रहे हो, स्कूल में बच्चे एक-दूसरे की पेंसिलें चुरा रहे हैं। पेंसिल में भी वो जो इतना बड़ा उसका बचता है, स्टब। तो एक का इतना-सा (थोड़ा) बचा था, वो उसके आगे भी नहीं आ रहा था, उसको किसी तरह घिस रहा था, दूसरे ने नीचे से पार कर दिया। फलाने की जेब में फलाने के कंचे निकले। ये कोई बहुत पीछे की बात है, ये सब तो होता रहा है। कौन-सा भारतीय होने के नाते हम ऐसे हो गए कि वाह, कुछ नहीं करना है? हाँ, ये है, कुछ बड़ा नहीं करना है।

वो जो हमारी असंतुष्टियाँ थीं, वो अपने छुद्र रूपों में तो हज़ार तरीक़े से अभिव्यक्त होती ही रहीं। बड़ा आदमी बड़ा दहेज लेता रहा, छोटा आदमी छोटा दहेज लेता रहा। बड़ा अफ़सर बड़ी घूस लेता रहा, और वहीं पर एक चपरासी है, तुम्हें क्या लगता है वो नहीं लेता रहा? कद्दू कटेगा तो सबमें बटेगा। उसमें मिलता है, चपरासी को भी मिलता है। तभी तो सरकारी नौकरी, ग्रुप डी के लिए भी लोग लाखों की घूस देने को तैयार रहते हैं, चपरासी होना कोई मामूली बात है? आप चपरासी होकर देखो, ये क्या आई.आई.टी. वग़ैरह सब भूल जाओगे, मज़ाक नहीं कर रहा हूँ।

क्लर्क, पियोन पद इन सब की भर्ती निकलती है तो बड़े-बड़े पीएचडी उसमें आवेदन करते हैं। दक्षिण में न करते हों, पर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश में अभी भी ये चल रहा है, राजस्थान। चल रहा है न? कोई इसलिए कि वो तुम्हारी ड्रीम जॉब है? नहीं, इसलिए कि वहाँ चिंदी चोरी करने को पा जाओगे थोड़ा-सा। क्यों भाई?

अपनी असंतुष्टि के साथ जियो, वो कोई शर्म की बात नहीं है। जवान आदमी के लिए वो जवानी का ताज है, मेरी बेबसी, मेरी उदासी, मेरा अकेलापन।

मैं जब आई.आई.एम. से निकला, उन्हीं दिनों एक गाना आया, तो मुझे लगता था जैसे ये मेरे लिए लिखा गया है। मैं कोई ये थोड़ी बोलता था कि मैं आध्यात्मिक आदमी हूँ, तो ये मैं कैसे कह दूँ कि मुझ पर गाना जचता है। वो था “आवारापन-बंजारापन,” सुना है? सुना ही नहीं होगा, तुम्हारे जन्म से पहले का होगा, बहुत नए लोग हो। वो बिल्कुल बेबसी का है लेकिन उसमें ठसक है, है तो है, गा रहे हैं उसी बात को। तुम्हें वो शर्म की बात लगती होगी।

है बंजारापन भाई, ज़िंदगी है, बंजर ही है ज़िंदगी, और बंजर ज़िंदगी में हम बंजारे हैं। है संतुष्टि, है अपूर्णता। छुपाए क्यों? छुपाने से हट जाती है? कोई गुप्त रोग है कि दुनिया से छुपाए बैठे हो, और कौन-सा वो जवान आदमी है, दिखाना मुझे, मुझे उसकी जवानी पर शक़ है जिसकी ज़िंदगी में आवारापन न हो। आवारापन नहीं हो, तो क्या हो? पालतू हो तुम? शू! और सांड तो आवारा ही होता है, बैल होते हैं, उनका पौरुष काट दिया जाता है, तो वो आवारा नहीं होते। "आवारा बैल" नहीं सुना होगा। बैल तो वो जुते होते खेत में, लगे पड़े हैं। जैसे हम सांड थे आवारा, वैसे ही वो गीत था, "आवारा," बड़ा अच्छा लगता था। और ये भी था उसमें, “एक हला है सीने में” दर्द है, कष्ट है।

हमने झूठी संतुष्टि को सम्मान दे दिया। कोई आए, आप उससे पूछिए, अच्छा जी, आइए, भूख लगी होगी? "अरे, ना-ना, लगी ही नहीं है भूख।" और मुझे ऐसों पर बहुत गुस्सा आता है। मैं किसी के साथ रेस्टोरेंट में बैठूँ और वो बोल दे कि "मेरे लिए कुछ मत मंगाना," मुझे पक्का है कि अब ये मेरी थाली से खाएगा। मैं ऐसे को बैठने ही नहीं देता, मैं कहता हूँ, या तो तू अपना मंगा, नहीं तो यहाँ से भाग। क्योंकि मेरा पक्का अनुभव रहा है कि जिन्होंने भी कहा है कि उन्हें भूख नहीं लगी है, उन्होंने मुझसे ज़्यादा खाया है और मेरी थाली से खाया है।

मेरा आ गया वहाँ बैठेंगे, फिर कहेंगे "थोड़ा-सा," या कि मैं ही थोड़ा औपचारिकता के नाते बोल दूँगा, लो भाई, एक टुकड़ा ले लो ज़रा डोसे का। वो कहेंगे फिर, “लाना यार एक प्लेट देना खाली," और उसमें वो उसको फिर। क्यों करना है भाई? भूख लगी है मंगा ले ना, इसमें शर्माने की क्या बात है? तुमने कोई गुनाह कर दिया क्या? प्रकृति ने पेट देकर भेजा है, पेट को भूख लगी है, एक डोसा अपने लिए भी मंगा ले। पर बहुत ऐसे होते हैं, उनको बड़ी लाज आती है कि हम भोगी कहलाएँगे। उन्हें कुछ भी पूछो, "चाहिए क्या?" उनसे ये भी पूछ दो, "जीना है क्या?" वो कहें, “ना!” एकदम। और ये धार्मिकता का बड़ा सबूत होता है। उससे कुछ भी पूछो, चाहिए? "नहीं।"

गाड़ी में बोलो सीट चाहिए? “नहीं,” और फिर सबसे आगे बैठता है पूरी जगह घेर के। मैं ऐसी गाड़ी में बैठने से मना कर देता हूँ, जिसमें कोई ऐसा बैठा होगा जिसको सीट नहीं चाहिए, ये सब कुछ करेगा, सोएगा ये अंदर। या तो ये डिक्की में डले, नहीं तो मैं बैठूँगा नहीं। वैसे ही अब संस्था चलाने का भी अब मेरा बीस साल का अनुभव हो रहा है, ये कोई पहली थोड़ी है। जो आए और उससे पूछो, हाँ भाई, तनख़्वाह कितनी लेगा? "चाहिए ही नहीं"। जान लो ये लूट के जाएगा यहाँ से। सबसे भले वो लोग होते हैं जो साफ़ बोल दें कि "भैया, ये रहा,” ये ठीक है। ये जितने होते हैं न कि "हाँ, कुछ नहीं, कुछ नहीं,” साफ़ कर दो न। प्रेम में भी यही है, किसी से रिश्ता बैठ रहा है उसे पूछो, कुछ बात है, कुछ चीज़ है बतानी है? "नहीं, कुछ नहीं।" जो भी हो, अभी बता दो सुन लेंगे, "नहीं, कुछ नहीं।" अब ये ज़िंदगी भर सुनाने वाला है तुमको।

जो खुल के नहीं बता सकता कि उसकी कामना क्या है, उसके पास छुपी हुई बहुत बड़ी कामना है।

भले लोग वो होते, मैंने एक बार कहा था — सरल काम— जो अपनी कामना के प्रति भी सरल हो जाते हैं, उनको जो चाहिए वो बता देते हैं। जो चाहिए, बोल दे ना। लुका-छिप्पी क्या चला रखी है तेरी, पाप थोड़ी कर दिया तूने, अगर तुझे कुछ खाना चाहिए, पैसा चाहिए, जो भी तुझे चाहिए। कामना कोई पाप थोड़ी हो गई, तेरी थोड़ी है प्रकृति की है। तू काहे को अपने आप को अपराधी मान रहा है।

अब पता नहीं होता है कि नहीं होता है, बीस-पच्चीस साल पहले तक तो ये भी होता था। तब वैलेंटाइंस डे इतना नहीं मनता था, तब लोग राखी का फायदा उठाते थे, जो लड़कियाँ बात नहीं करती थीं, उनसे बात शुरू करने के लिए कलाई लेकर आते थे। अब कामना कुछ और है, बन रहे हैं भैया। यहाँ तक राखी बाँध के आए हैं (पूरे हाथ में), उनको हम बोलते थे "जगत भैया।" और ये जितनों से इसने राखी बनवाई है, अगले दो महीनों में उनमें से किसी एक-दो के साथ ये घूमता ना नज़र आए, ऐसा हो नहीं सकता था। सरल काम हो जाओ ना, कोई पसंद आ गई है, जा के उससे मुँह पर बोल दो "आ जा, बैठ ले, बात कर ले, जो भी है, चाय पी लेते हैं।" जैसा भी, जो भी चाहता है, बोल दे ना। ये राखी-वाखी का क्या खेल खेल रहा है? कौन-सी इसमें धार्मिकता है? कौन-सा इसमें सच्चाई है? कौन-सी इसमें सरलता है?

दो घंटे में आना होगा, बताएँगे नहीं दो घंटे में आना है, कहेंगे "बस दस मिनट में आया" दस मिनट में पूछो, कब? "बस पंद्रह मिनट में आया," पंद्रह मिनट में पूछो कब? "बस बीस मिनट।" तो एक बार में बोल देता, "दो घंटे में आने वाला है"।

ये विदेशी नहीं करते ऐसा, ये भारत में ज़्यादा होता है। तूने पहले ही इरादा कर रखा है कि तू रात में बारह बजे तक करेगा, बता दे ना। काहे को, सात बजे पूछता हूँ तो बोलता है "साढ़े सात तक हो जाएगा," फिर बोलता है "नौ तक कर दूँगा।" करना तुझे रात में बारह बजे तक, ये धार्मिक आदमी है। भारत में धार्मिकता का यही मतलब बना है, बिना बात के झूठ बोलना। जो बात है सीधे बोलो, कौन तुम्हारा गला पकड़ रहा है? तुम्हें काम नहीं करना, तुम ये भी बोल दो "आज नहीं करना।" ठीक है, अच्छी बात। पर ये तुमसे बोला भी जा नहीं जाता कि "नहीं करना है।" कामना को पाप बना लिया है, कामना पाप कैसे होगी जब भीतर पूर्णता बैठी है, बता तो दो?

भीतर की अपूर्णता की ही छाया होती है जगत के प्रति कामना।

जब तक भीतर अहंकार है, जगत के प्रति कामना तो होगी ही होगी, और वही कामना एक दिन मुमुक्षा बनेगी। जवान आदमी में अगर कामना नहीं है, तो वो जिएगा कैसे? कामना अपराध कैसे हो गई? कामना की तो आग तुम्हें एक दिन आज़ाद कराती है न। और ऐसे बन जाते हो न, "कामना तो है ही नहीं कुछ।" कल इसका (एक श्रोता को इंगित करते हुए) जन्मदिन था, ये सबको लेकर गया "चलो, आज बाहर कुछ खाएँगे-पीएँगे।" एक हमारा महर्षि है बोला, "मैं नहीं जाता।" और उसका रिकॉर्ड ये है कि एक बार पहुँच जाता है, फिर वापस नहीं आता है, फिर घसीट के लाया जाता है। भीतर कामना लपलपा के दहक रही है और बाहर से स्वांग क्या करना है? क्योंकि मैं कौन? (अपने हाथ जोड़ते हुए) मैं तो महर्षि हूँ!

सरल काम हो जाओ, सरल काम हो जाओ ना, तो कामना की आग अपने-आप थोड़ी कम हो जाती है। कामना कोई अपराध नहीं होती, भाई।

मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ कि कामना कोई बहुत गौरव की बात होती है, सम्मान की बात होती है। मैं कह रहा हूँ, जब तुम्हारी प्राकृतिक अवस्था ये है कि तुम अहम् हो और अहम् माने क्या होता है? अपूर्णता। तो कामना तो होगी ना, होगी। भीतर अहम् है बाहर कामना नहीं है, ये बात बड़ी खतरनाक है। भीतर अहम् है और बाहर कह रहे हो "कामना नहीं है" तो ये तो बहुत ख़तरे की घंटी हो गई। कामना को तुम प्रकट करो तो उसको एक सही दिशा दी जा सकती है ताकि अपूर्णता पूर्ण हो सके। पर कामना तुम प्रकट ही ना करो, तो उसको कोई दिशा क्या देगा? बार-बार, हर चीज़ में नाटक, स्वांग, झूठ।

नींद आ रही? "नहीं आ रही।"

खाओगे? "नहीं खाएँगे।"

कपड़ा चाहिए? "नहीं चाहिए।"

पैसा चाहिए? "नहीं चाहिए।"

तू जी ही क्यों रहा है फिर, जब तुझे कुछ नहीं चाहिए तो। या तो बोल दे कि तू मुक्त पुरुष है, अब तुझे कुछ नहीं चाहिए। साहब तो बोल गए, “जिनको कछु नहीं चाहिए, वे शाहन के शाह।” या तो घोषित कर दे कि तू ही बादशाह है या फिर इंसान बन जा। अभी तक लजाना है, भारत की जवानी आज तक लज्जित है, सब लजाए हुए हैं। कामना है कुछ भीतर, बोलते ही ज़बान ऐंठ जाती है, बोलने कुछ जाते, कुछ और बोल जाते हैं।

अब तुम्हारी पीढ़ी आगे निकल गई हो, तो पता नहीं। मेरे समय में तो लोगों को दो-दो महीने अभ्यास करना पड़ता था किसी से बस इतना बोलने में कि "तुम प्यारी लगती हो।" कुछ और ही बोल आते थे, "तुम जलेबी लगती हो।" दो-दो महीने अभ्यास के बाद ये हालत थी। ये धार्मिकता का परिणाम है भाई, कि एक सीधी-सी बात नहीं बोली जा रही। अरे, युवा हो गए हो, तो युवती नहीं प्यारी लगेगी तो क्या गधी प्यारी लगेगी? उसको बोल ही तो रहे हो, कोई उठा के थोड़ी ले जा रहे हो।

कई तो बेहोश हो जाते थे, पूरी तैयारी के साथ गए हैं, लाव-लश्कर लेकर गए हैं, आठ-दस यार झाड़ी-वाड़ी में छुपा दिए हैं और उसके बाद अब हुआ कि अब बोलने का क्षण आ रहा है, “आ रही है, आ रही है, आ रही है,” और बोलने गए, वहीं चक्कर खा के गिर गया। ये धार्मिक अभ्यास है हमारा, पाखंड का, पाखंड और किसको बोलते हैं? भीतर कामना भरी हुई है और बाहर से संस्कारी दिखना है।

कितने तो लोग मारे जाते हैं, अस्पतालों में। डॉक्टर कोई बात पूछेगा, बताएँगे ही नहीं, काहे कि बताने में लगता है कि इज़्ज़त घट रही है, हम तो धार्मिक आदमी हैं, कैसे बता दें। नहीं बताते, और कितनी बीमारियाँ होती हैं। जहाँ तुम्हें सब कुछ क़ुबूलना पड़ेगा चिकित्सक के सामने, तभी इलाज हो पाएगा। क़ुबूल ही नहीं रहे उसको, बता ही नहीं रहे क्या बात है, अब मरो। और नहीं क़ुबूलोगे तो वो डायग्नोसिस कुछ का कुछ कर देगा, क्योंकि डॉक्टर तो कॉज़–इफ़ेक्ट बैठाना चाहता है ना। वो पूछता है, ये हो रहा है, क्या ऐसा होता है? क्या ये करते हो? क्या वहाँ गए थे? कुछ ऐसा किया? तुम स्वीकार ही नहीं कर रहे, तो वो फिर कोई और रिश्ता निकाल लेगा, उसी हिसाब से इलाज कर देगा, अब मरो।

ये हमारी धार्मिकता रही है, धार्मिकता माने क्या? झूठ, फ़रेब, पाखंड। असली धार्मिकता जो गीता में है, जो वेदांत में, उपनिषदों में है, उससे हमारा कोई लेना-देना नहीं। धार्मिक चित्त का अर्थ होना चाहिए — सरल चित्त, एकदम सरल। उसकी जगह भारत में धार्मिक चित्त का अर्थ हो गया है — जटिल चित्त, उलझा हुआ।

कैंपस की बात है, दिल्ली में सर्दी ज़बरदस्त पड़ती है बहुत, और उस क्षेत्र में हौज़ख़ास में आई.आई.टी. में उधर और ज़्यादा ठंडा रहता है। अब तो वहाँ पर आबादी भी घनी हो गई, चीज़ें बन गईं, वरना पहले, पर अभी भी आई.आई.टी. कैंपस के अंदर अभी भी बहुत रहता है। तो एक को मैं जानता था, मैंने देखा गुमसुम बैठा हुआ है। पूछा, क्या बात है?

तो तब पीसीओ (पब्लिक कॉल ऑफिस) होते थे, पीसीओ से कॉल होती थी। तो बोला, वहाँ वो पीसीओ था एक लाइब्रेरी के नीचे, सेंट्रल लाइब्रेरी के नीचे, वहाँ पर एक लड़का काम करता था। तो जाड़े के दिन थे, रजिस्ट्रेशन हमारा हुआ करता था 27 दिसंबर को, जो इवन सेमेस्टर होते थे एकदम पीक जो सर्दी है। तो यहाँ आ गया होगा कैंपस, घर वालों को सूचित करने के लिए पीसीओ में गया, एकदम कड़कड़ाती हुई ठंड वहाँ से आया हुआ था, तो एकदम ऐसे बैठा हुआ था गुमसुम।

मैंने कहा, क्या हो गया? बोलता, “वो लड़का था पीसीओ वाले के यहाँ पर,” उन्होने रखा होगा साफ़-सफ़ाई, तो टीशर्ट में था। मैंने कहा, तो? बोल रहा, “मुझे स्वेटर देना था उसको। लड़का अच्छा था ये और मुझे स्वेटर देना था।” मैंने कहा तो दिया क्यों नहीं, दे देता। अच्छे घर से था, बिजनेस फैमिली थी पैसा बढ़िया इसके पास। मैंने कहा, दे देता स्वेटर। बोलता, “वहाँ लोग बहुत थे।” हमें देने में भी शर्म आती है, हम कुछ भी सरल होकर नहीं कर पाते। किसी को लूटने में शर्म आए तो समझ में आता है, हमें देने में भी शर्म आती है।

इसको लगा, कितना अनकूल है ना ये कि मैं तो बिल्कुल सिद्धार्थ गौतम हो गया और मैंने अपना वस्त्र उतार के दे दिया किसी को। ये दे नहीं पाया और बाद में आके पछता रहा है, बोल रहा है, वो दिसंबर की समाप्ति, एकदम बढ़िया ठंड, और वो लड़का था पीसीओ में, उस टीशर्ट में था। मुझे स्वेटर देना था, मैं सोच रहा हूँ दूँ, दूँ, लेकिन वहाँ कॉल करने के लिए कम से कम 20-40 लोग जमा थे। सबको घर कॉल करनी थी वहाँ जमा थे, तो अनकूल हो जाता। सबको लगता कि “ये देखो ये तो भैया, ये क्या।” हम कुछ भी सरल होकर नहीं कर पाते, दिल क्या दोगे तुम किसी को स्वेटर नहीं दे पाते खुलकर।

भारत में जो जाति-प्रथा इतनी बनी रह गई, उसका एक बहुत बड़ा कारण प्रेम का अभाव है। प्रेम हो जाता है तो जाति-वाति सब उड़ जाती है हवा में तिनके की तरह। यहाँ प्रेम ही नहीं होता किसी को, तो जाति बनी हुई है। प्रेम हो जाए तो जाति 10 साल में ख़त्म। कौन-सी जाति? यहाँ प्रेम किसी को होता ही नहीं। और धार्मिक चित्त तो वो होता है न, जो सिर्फ़ प्रेम में जिए। और जब जीवन में तुम्हारे सब तरफ़ को प्रेम रहेगा, गरीबों के प्रति प्रेम है, सत्य के प्रति प्रेम है, पशु-प्राणी के प्रति प्रेम है, तो तुम विवाह भी तो फिर प्रेम में ही करोगे ना।

पर भारत में प्रेम होता नहीं किसी को, तो जाति-प्रथा बची हुई है। भारत में क्यों किसी को प्रेम नहीं होता, क्योंकि हम धार्मिक लोग हैं, भाई।

धार्मिक आदमी प्रेम थोड़ी करता है, हम तो संस्कारी लोग हैं। और प्रेम कोई ऐसी चीज़ थोड़ी होती है जो आदमी-औरत, लड़के-लड़की के ही मध्य होता है। हमें पशु-प्राणियों से भी कहाँ प्रेम है, पर्यावरण हो, चाहे कुछ हो, जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य हो, हम प्रेम कहाँ दिखा पाते हैं।

सरल हो जाओ — होना गुनाह नहीं है, छुपाकर के ज़बरदस्ती गुनहगार बन जाते हो। जैसे भी हो, माँ के बेटे हो, प्रकृति ने पैदा करा है। प्रकृति को ही हम महादेवी, महामाया बोलते हैं, महा-माँ बोलते हैं। जैसे भी हो वैसे हो, पैदा ही ऐसे हुए हो यार, शर्माने-लजाने की क्या बात है इसमें। और एक बार जान गए कि ऐसा हूँ, अपूर्ण हूँ, फिर कहो कि अपूर्ण पैदा हुआ, अपूर्ण मरूँगा नहीं। अपूर्ण पैदा हुआ माँ की मर्ज़ी, लेकिन अब मैं चैतन्य हूँ, अब मेरी मर्ज़ी। ये जो अपूर्णता है, इसको अच्छी तरह जानूँगा, समझूँगा। भीतर जो भी मेरे खोखलापन है, भीतर जो भी रिक्तता है, जो सालती रहती है, उसको अच्छी तरह जान करके आगे बढ़ जाऊँगा। उसी को मुक्ति कहते हैं, वही मोक्ष है, वही निर्वाण।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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