भजन का आनंद हमेशा साथ क्यों नहीं रहता? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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भजन का आनंद हमेशा साथ क्यों नहीं रहता? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भजन करते समय मन बहुत शांत हो जाता है पर भजन के समाप्त होते ही यह फिर अशांत होना शुरू हो जाता है। भजन हमेशा कैसे साथ रखूँ?

आचार्य प्रशांत: अंदर भोजन है न! मज़ाक भर की बात नहीं है। भोजन माने वही नहीं होता जो मुँह से लेते हो; जो नाक से लेते हो, जो कान से लेते हो, जो स्मृति से लेते हो, वो सब क्या है? भोजन है। जैसे शरीर भोजन शरीर के बाहर से भी लेता है और शरीर के भीतर से भी लेता है। तुम खाना न खाओ तो तुम्हें क्या लगता है तुम भूखे हो? तुम भूखे तब भी नहीं हो।

जब तुम खाना नहीं खा रहे तो भूखे तुम तब भी नहीं हो, तब शरीर ख़ुद को खाना शुरू कर देता है। तभी तो तुम्हारा वज़न कम हो जाता है। तुमने ग़ौर किया है तुम खाना नहीं खाते तो क्या होता है? वज़न कम हो गया। वो वज़न कहाँ गया? वो तुमने खा लिया।

तो हम निराहार तो कभी रहते ही नहीं, या तो बाहर से खाते हैं या फिर ख़ुद को खा लेते हैं। इसी तरीक़े से ये मन या तो बाहर से भोजन लेगा (इंद्रियाँ के द्वारा) या अपने भीतर से ले लेता है। भीतर से ले लेता है मतलब कहाँ से ले लेता है? स्मृतियों से ले लेता है। भोजन का ख़्याल करो, भजन अपनेआप हो जाएगा।

क्या सोचे जा रहे हो और क्या देखे जा रहे हो, किसकी संगत किए जा रहे हो। संगत से बड़ा दोष दूसरा नहीं और संगत से बड़ी औषधि दूसरी नहीं। सबकुछ संगत पर निर्भर करता है। संगत ही भोजन है। सही खाओ, सही पियो, सही सुनो, सही देखो। मुँह से भीतर क्या जा रहा है, इस पर बड़ी निगाह रखो। आँखों से भीतर क्या जा रहा है, कानों से भीतर क्या जा रहा है। और ये दिमाग़ भीतर से क्या उठा रहा है, क्योंकि ये दिमाग़ जब बाहर से नहीं पाता तो कहाँ से उठा लेता है? अपने भीतर से ही कल्पनाएँ उठाएगा, स्मृतियाँ उठाएगा।

संगत पर बहुत ग़ौर रखो। सही संगत है तो भजन चलता रहेगा, कोई नहीं रोक सकता भजन को। फिर वो भजन भी नहीं कहलाता, फिर वो अनहद कहलाता है। एक गूंज है, एक मौन है।

प्र: पर भजन हमेशा साथ नहीं रहता!

आचार्य: भजन आप चौबीस घंटे थोड़े ही सुन सकते हो। आप चौबीस घंटे में टीवी भी तो सुन लेते हो, पड़ोसन को भी तो सुन लेते हो, पचास तरह की ऊल-जुलूल बातें भी तो सोच लेते हो; मैं उस भोजन पर ध्यान देने को कह रहा हूँ।

आप कितना भजन कर लोगे, दिन में कितनी बार कर लोगे? बहुत होगा एक घंटा, चार घंटा, तुम बहुत बड़े भक्त हो तो आठ घंटा कर लोगे। पर दिन तो लंबा है, उम्र तो लंबी है, और ये जो तन है ये लगातार ग्रहण करे जा रहा है। ये ग्रहण करने वाली मशीन है। इसमें दस द्वार हैं, और वो दसों द्वार क्या कर रहे हैं? अंदर लो, अंदर लो! चाहिए, चाहिए, चाहिए।

इसमें सब प्रवेश ही करते रहते हैं। कुछ भीतर आ रहा है, कुछ उत्सर्जित हो रहा है, यही चल रहा है इसमें। इसी पर ध्यान रखो। सीसीटीवी लगाओ, गॉर्ड खड़ा करो, 'कौन है जो अंदर आ जाता है।' घर में चोर घुसने देते हो? तो मन में चोर क्यों घुसने देते हो?

आपके घर में पड़ोसी आकर रोज़ कचरा फेंके, और दिन में चार बार। दरवाज़ा खुला हुआ है, दरवाज़ा है ही नहीं। पहरेदार तो छोड़ दो दरवाज़ा भी नहीं है, और पड़ोसी रोज़ लेकर आता है एक टोकरी कचरा और फेंक जाता है। तो क्या करते हो उस पड़ोसी के साथ? झगड़ा हो जाता है। और दुनिया आकर के आपके मन में जो कचरा फेंकती रहती है, उस पर आप कभी झगड़ा नहीं करते।

टीवी खोलते हो, और उसने आकर तुम्हारे मन में कचरा फेंक दिया। उससे तुम कभी झगड़ा करते ही नहीं। उसको बल्कि और देखते हो, 'बहुत बढ़िया! और कचरा फेंक।' प्राइम टाइम, टीआरपी।

जानते हो न टीवी के सबसे बड़े उपभोक्ता कौन हैं? टीवी को सबसे ज़्यादा कौन भोक्ता है? गृहणियाँ। हाँ, पूरा जो टीवी है वो गृहणियों पर चल रहा है। पुरुष देखते नहीं, काम में लगे रहते हैं। और आज की जो नई पौध है, नई नस्ल, उसे टीवी में रुचि नहीं है। गृहणियाँ टीवी देखे जा रही हैं, देखे जा रही हैं, भोजन चल रहा है। यहाँ कढ़ाई में, उधर दूसरा भोजन चल रहा है।

दिन में चौबीस घंटे घर में टीवी चलता है, एफएम चलता है, टीवी चलता है, एफएम चलता है। और एफएम पर वो जिसको तुम जॉकी (रेडियो पर बोलने वाला वक्ता) बोलते हो, वो ऊल-जुलूल बके जा रहा है, तुम सुने जा रहे हो। बके जा रहा है, तुम सुने जा रहे हो। इतना ज़हर खाओगे तो बीमार नहीं पड़ोगे? और फिर तुम्हें ताज़्जुब है हम बीमार पड़े, खाना तो बिलकुल साफ़-सुथरा, निर्मल, पौष्टिक बनाया, फिर बीमार क्यों हूॅं? और कान से जो खाया!

इतनी सारी वेबसाइट्स पर जाकर ये तुम जो खा रहे हो तेल-मसाला, चटपटा, वो चलेगा क्या? उसमें व्हाट्सअप भी जुड़ गया है, सोशल मीडिया दुनिया भर का, और वहाँ सब कचरा-मल, दुनिया भर का मल वहीं मिल जाएगा तुमको। अब भजन में कैसे लगे रहोगे? टूट गया न भजन!

तो जो भजन की बात करे, मैं उसको बोलूँगा, 'भोजन'। भोजन पर ध्यान दो, भजन फिर अनवरत हो जाएगा। फिर नहीं टूटेगा।

प्र: और विज्ञापन भी कैसे-कैसे आते हैं। एक बनियान ब्रैंड है, वो बनियान पहनाकर तुम्हें योद्धा बना रहे हैं कि बस पहनो और एक बनियान से..।

आचार्य: बस, बनियान डालो, योद्धा हो गए। कच्छा डालो, सूरमा हो गए। कबीर व्यर्थ ही कह गए कि सूरमा बनने कि लिए ग़र्दन काटनी होती है, यहाँ तो कच्छा डाल के सूरमा हो जाता है आदमी। इतनी सस्ती सूरमायी बिक रही हो, तो कौन गर्दन कटाए? और शरीर से दुबला हो और मन से तिनका हो, पर कच्छा डाला है उसने उस कंपनी का, तो अब वो क्या कहलाएगा? वो सूरमा है। 'हम ही हैं!'

प्र: सीरियल्स भी वैसे ही डिज़ाइन होते हैं?

आचार्य: अरे, बाप रे बाप! सीरियल नहीं हैं, ये ज़हर हैं। सीधा-सीधा ज़हर है। बल्कि वो ज़हर जो तुम ज़बान से खाओ, उससे ज़्यादा ज़हरीले हैं।

प्र: एक बाइक का विज्ञापन मैंने पढ़ा था, 'अवेंजर्स: राइड लाइक गॉड'। (अवेंजर्स: भगवान की तरह सवारी करें)।

आचार्य: राइड लाइक गॉड! काहे की साधना, काहे की तपस्या; अवेंजर खरीदो, हो गया। राइड लाइक गॉड!

बहुत होते हैं, सबमें यही है। कोई उत्पाद होगा, उसके नीचे लिखा होगा- ‘द परफ़ेक्ट लाइफ़’। अब परफ़ेक्ट लाइफ़ (आदर्श जीवन) के लिए क्यों अध्यात्म चाहिए? क्यों ध्यान, क्यों योग चाहिए? वो जो भी चीज़ का विज्ञापन है वो खरीद लो, परफ़ेक्ट लाइफ़ आ गई। हो सकता है नाड़े का विज्ञापन हो। तुम्हारे जीवन में अगर नाड़ा है, तो बस परफ़ेक्ट लाइफ़!

'दंतमंजन: द परफ़ेक्ट लाइफ़!' अब मुँह में तुम मंजन भर के घूमो। और आ भी रहीं हैं ऐसी चीज़ें, घरों में भरी हुई हैं।

घरों का विज्ञापन होता है रीयल एस्टेट में, उनमें लिखा रहेगा- 'द गेटवे टू हेवन'। क्या बात है! दो बीएचके से स्वर्ग पहुँच गए, फिर तो ठीक ही है। कोई उत्पाद ऐसा नहीं है जो अपनेआप को परमात्मा का विकल्प न बताता हो। इसीलिए इतना कष्ट है दुनिया में। हर उत्पाद कहीं-न-कहीं तुमसे कह रहा है, 'सत्य की ज़रूरत नहीं हैं, मैं काफ़ी हूँ। तुम मेरे पास आओ।'

तुम देख लेना, जिस भी चीज़ को बिकना होता है, जिस भी विचार को बिकना होता है, जिस भी इंसान को बिकना होता है, वो तुम्हारे सामने यही कहता है कि मुझे ले लो, चैन मिल जाएगा। झूठ बोल रहा है, वो परमात्मा का प्रतिस्पर्धी बन रहा है।

चीज़, चीज़ है, उससे वो नहीं मिल सकता जो तुम्हें सत्य से मिलेगा। जितना आप इस चीज़ की गहराई को देखते जाएँगे, उतना फिर आपमें संकल्प दृढ़ होता जाएगा लोहा लेने का, बचने का। और जितना आपका संकल्प है इस गहरी माया से बचने का, उतना आपको आवश्यकता पड़ेगी समर्पण की। जहाँ देखेंगे, माया ही दिखेगी। अगर बचना है तो फिर सत्य का साथ करो। माया से बचने का संकल्प और सत्य के प्रति समर्पण, एक साथ चलते हैं। जिसमें वो संकल्प ही नहीं, वो सत्य के साथ जाए क्यों? जिसे माया से बचना ही नहीं, वो क्यों जाए सत्य के साथ? तो वो कहता है, 'चलेगा! जो है वही चलेगा। माया है तो माया ही चलेगी।'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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