भगवान बचाने नहीं आएँगे, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकारो || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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भगवान बचाने नहीं आएँगे, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकारो || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: अगर पृथ्वी बनाने से पहले भगवान आपसे पूछते कि मैं बनाऊँ, आपको ये दृश्य सारा सब दिखा देते, जो समुद्र में हो रहा है, गाय के साथ हुआ है, आप हामी भरते?

आचार्य प्रशांत: नहीं! देखिए, थोड़ा–सा मैं इसमें मुझे अनुमति दीजिएगा, मैं इसमें विस्तार से बोल सकूँ। ये जो मॉडल है न! भीतर का कि भगवान ने दुनिया बनायी हैं, ये थोड़ा ख़तरनाक है। क्योंकि इसके साथ–साथ, आपने दूसरी दिशा में पूछा है — लेकिन मुझे इसके माध्यम से कुछ और बोलने दीजिएगा — क्योंकि इसी के साथ–साथ फिर ये भावना आ जाती है कि भगवान ने दुनिया बनायी है और उस दुनिया में इंसान को नम्बर एक का दर्जा दिया है और कहा है कि दुनिया में बाक़ी सब जो चीज़ें हैं, बेटा वो तुम्हारी सेवा या सर्विस के लिए हैं।

तो ये मानना हमें थोड़ा छोड़ना पड़ेगा कि भगवान ने दुनिया बनायी हैं, क्योंकि लोग यही तर्क देते हैं। भगवान ने दुनिया बनायी हैं! और भगवान ने ही तुम्हारे दाँत ऐसे बनाये हैं कि वो माँस चबा सकते हैं, तो फिर जानवरों को मारो!

तो भगवान ने दुनिया बनायी है और भगवान ने तुम्हारी आँतें और भीतर का पाचन तन्त्र ऐसा बनाया है कि वो माँस पचा सकता है, तो जानवरों को मारो! क्योंकि ये तो भगवान की मर्ज़ी है कि तुम जानवरों को मारो!

लोग कहते हैं कि भगवान ने दुनिया बनायी हैं और हमारे पुराने ग्रन्थों में लिखा है कि फ़लाने–फ़लाने जानवर को मारना तुमको स्वीकृत है, अनुमति है, हलाल है, तो तुम जानवरों को मारो!

तो ये चीज़ मानना कि किसी ने दुनिया बनायी है और उसने आपको ऐसे बना दिया (हाथ से संकेत करते हुए), आपको ऐसे बना दिया, आपको ऐसे बना दिया; बहुत ख़तरनाक है। हमें ये समझना पड़ेगा कि हम एक दिन में नहीं पैदा हो गये। बात बहुत सीधी है कि हम एक जंगल से ही निकल कर आ रहे हैं,‌ तो जंगल से हम शारीरिक तौर पर निकल गये हैं, मानसिक तौर पर अभी जंगल से निकलने के लिए हमें बहुत लम्बी यात्रा करनी बाक़ी है। चूँकि अभी वो यात्रा बाक़ी है इसलिए उस तरह के सारे हमको कुकृत्य देखने पड़ रहे हैं, जो अभी हमें दिखाई पड़ रहे हैं।

इंसान को पूरी तरीके से इंसान बनने के लिए अभी बहुत दूर जाना पड़ेगा और इस पूरे रास्ते में ये ज़रूर होगा कि कुछ असाधारण, एक्स्ट्राऑर्डीनरी लोग होंगे, जो कि अतीत में भी हुए हैं, आगे भी होते रहेंगे, जो ज्यादा तेज़ी से अपनी यात्रा पूरी कर लेंगे। ठीक है? उनकी हम बात नहीं करेंगे।

हम यहाँ अभी कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की बात नहीं कर रहे हैं, उनकी यात्राएँ तो पूरी हो गयी। अभी हम आम आदमी की बात कर रहे हैं। जो आम आदमी है उसको अभी बहुत लम्बी यात्रा आन्तरिक विकास की पूरी करनी है और वो ज़िम्मेदारी अपने ऊपर है ठीक होने की। हम अगर ये कह देंगे कि दुनिया भगवान ने बनायी है, तो फिर हमें ये भी मानना पड़ेगा कि दुनिया चलाना ही भगवान का काम है। फिर हमें ये भी मानना पड़ेगा कि जो कुछ भी हो रहा है, भगवान की मर्ज़ी से ही होता है। तो अगर स्लॉटरहाउस (क़साईख़ाना) चल रहे हैं, तो भगवान ही तो चला रहा है, चलने दो!

तो फिर वो बात गड़बड़ हो जाती है न! मैं ये इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि इन तर्कों का सामना मैं रोज़ करता हूँ कि साहब, आप भगवान के काम में खलल डालने वाले कौन होते हैं? ‘अगर शाकाहारी अच्छी चीज़ होती, तो हमको फिर माँस पचना ही नहीं चाहिए था न! पर हम तो रोज़ माँस खाते हैं और रोज़ पच जाता है! इसलिए भगवान ही चाहता है कि हम माँस खाएँ’, ये बड़ा ख़तरनाक तर्क है।

प्र: अगर आपके पास एक विकल्प रख दें कि पृथ्वी हो या फिर एक और चाँद बन जाए, तो आप कौनसा विकल्प चुनते?

आचार्य: अभी जैसी पृथ्वी है, उसको मैं देख रहा हूँ और उसको ठीक करना मेरी ज़िम्मेदारी है क्योंकि उसका बाशिंदा मैं हूँ। वो मेरे अनुभव की चीज़ है, पृथ्वी अभी जैसी है, तो उसको, उसमें जो कुछ भी हो रहा है, जैसा भी हो रहा है, मैं अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं हट सकता। बस यही।

प्र: बहुत-बहुत धन्यवाद!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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