प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, भारत में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है, इसमें दस-बारह साल के बच्चे को सोशल मीडिया पर गुरु बनाकर के बैठा दिया जाता है, और बहुत अजीब बात ये है कि देखने के लिए, उनकी रटी-रटाई बातें जानने के लिए खूब सारी भीड़ भी लग रही है। तो ये हमने गुरु शब्द के साथ कैसा खिलवाड़ किया है और यह सब हमारे समाज के बारे में क्या बताता है?
आचार्य प्रशांत: देखो, संजय कोई फ़ायदा नहीं है कि मैं इसपर कुछ बोलूँ, बेकार में विवाद इससे खड़ा होना है बस। ठीक है, जिन्हें मेरी बात, मेरी सीख समझ में आई हैं वे भली-भाँति जानते हैं कि बच्चों का खिलवाड़ है, उसको गंभीरता से नहीं लेते। जिनको उसमें बहुत धार्मिकता या गंभीरता दिखती है उनको देखने दो। हम अपनी ऊर्जा दूसरे सवालों के लिए बचाकर रखेंगे, पचास तरह कि नौटंकियाँ होती हैं दुनिया में, होने दो न। कहाँ तक उसमें घुसोगे?
मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि गीता समुदाय में ऐसे लोग नहीं होंगे जो यही काम अपने बच्चों के साथ कर रहे होंगे, आप अपने बच्चों को इस दिशा में न भेजना, इतना ही पर्याप्त है। मैं इसपर नहीं बोलने वाला। क्या बोलूँ मैं इसपर? बच्चे गुड्डे-गुडिया का खेल खेल रहे हैं, बड़े उसमें बहुत रस ले रहे हैं। मैं उसमें क्या बोलूँ जितनी बार मुझे इन मुद्दो पर बोलना पड़ता है न, थोड़ा मुझे भी नीचे गिरना पड़ता है, कितना नीचे गिरूँ? और भारत की स्थिति ऐसी होती जा रही है कि यही मुद्दे मेरे सामने लाए जाते हैं क्योंकि सचमुच यही है समाज में, कोई बड़ा ऊँचा मुद्दा है ही नहीं जिसकी बात हो।
यहाँ कौन आकर के मुझसे कह रहा है कि ये लीजिए फ़लाने ऊँचे प्रकरण ग्रंथ का ये श्लोक है, इसके बारे में कुछ समझा दीजिए। कोई नहीं कह रहा है, क्योंकि उन ऊँचे ग्रंथों को पढ़ने वाला ही कोई नहीं बचा है। कौन आकर के मुझसे पूछ रहा है कि क्या एग्ज़िस्टेन्शिएलिज़्म (अस्तित्ववाद) की तार्किक निष्पत्ति अद्वैत वेदांत में है। ये प्रश्न ही किसी का नहीं है। क्योंकि ऐसा है कौन जो अद्वैत भी जानता हो और अस्तित्वाद भी जानता हो। कोई ये सवाल लेकर नहीं आ रहा।
मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा हूँ, तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं। तुम वही पूछ रहे हो जो दुनिया में चल रहा है। पर मैं भी थक गया हूँ और मैं कितना गिरूँ कि मैं इन मुद्दो को संबोधित करता रहूँ। पर मुझे इन बातों पर, इन बातों को गंभीरता से लेना भी एक तरह अपने गरिमा को खोने की बात है।
अभी नवरात्रि चल रही है, मैं देख रहा हूँ वो लोगों ने एआइ का इस्तेमाल करके बना रखा है कि चार साल की देवी। पूरा-का-पूरा एक वीडियो था कि देवी है, और वो पता नहीं कहाँ से एक फ़्लाइट आई है, और चार साल की देवी उससे उतरी हैं, और एक छोटा सा उनका बाघ भी है बाकु, और एक उनकी ट्रॉली है और देवी वहाँ से उतर रहीं हैं और आ रहीं हैं और उसके बाद वो जा रहीं हैं और मंदिर में बैठेंगी। हर चीज़ को हम इन्फ़ैन्टालाइज़ (किसी व्यक्ति के साथ उसकी असल उम्र से कम उम्र का मानकर व्यवहार करना) कर रहे हैं। तुम दस-ग्यारह साल के बच्चों की बात कर रहे हो यहाँ तो हर देवी को भी बना रहे हैं चार साल की लड़की।
पहले हमने कृष्ण को इन्फ़ैन्टालाइज़ करा, इस साल हमने देवी को भी इन्फ़ैन्टालाइज़ कर दिया, क्योंकि हम बड़े नहीं होना चाहते न, तो हम अपने अराध्यों को भी छोटा बना लेते हैं। हमारे अराध्य इसलिए है कि हम बड़े हो पाएँ, और हमें नहीं बड़ा होना। हम ऐसा घातक हमारा अहंकार है, हम कहते है, ‘हमें नहीं बड़ा होना, मैं अपनी देवी को अपने अराध्य को, अपने देवता को, अपने कृष्ण को भी छोटा बना दूँगा।’ तुम गौर करना कि हमारे जितने आराध्य हैं उन सबके बाल रूपों को ही और ज़्यादा विस्तार देते जा रहे हैं। राम हों, कृष्ण हों और अब चाहे देवी हों। क्योंकि उनका जो विकसित, व्यस्क रूप है वो हमारे छुटपन को और हमारी क्षुद्रता को चुनौती देता है न, वो हमारे सामने हमारे अपमान करता है।
हम इतने छोटे से रह गए हैं और हमारे सामने आ जाएँ बिलकुल कि जैसे सचमुच थे राम और जो सचमुच रौद्र रूप है दुर्गा का तो बात हमें अपमान की लगती है कि ये तो इतने बड़े, हम इतने छोटे तो क्या करते हैं? हम उनको ही छोटा बना देते हैं ताकि वो हमारे हाथ का खिलवाड़ बन जाएँ, हमारे हाथ का खिलौना बन जाएँ। लोग छोटी-छोटी देवी लेकर घुम रहे हैं इस बार। यहाँ हमारी देवी वो हैं, जो महिषासुर पर चढ बैठी कि चंड-मुंड को काटने में जिनको समय नहीं लगा। जब उनका वर्णन आता है तो वर्णन ऐसे किया जाता है कि उन्होंने पहाड़ जैसा रूप अपना बना लिया। देवी ने अट्टहास करके कहा, ‘ले।’ और पहाड़ को ही ध्वस्त कर दिया। ये देवी हैं कि पहाड़ से भी बड़ी पहाड़, और हम उनको क्या बना रहे हैं? तो यही है ताकि सबकुछ हमारे खिलौने जैसा हो पाए। क्योंकि धर्म को ही हमने अपना खिलौना बना लिया है, “लोगन राम खिलौना जाना।”
माला तिलक पहरि मन माना, लोगन राम खिलौना जाना।
ऐसे होते हैं भविष्यदृष्टा ऋषि, उन्होंने तब बता दिया था कि एक समय ऐसा आएगा जब तुम अपने सब देवी-देवताओं को खिलौना बना लोगे। शिव-पार्वती को भी बना लिया है, नन्हु-नन्हु! बिलकुल बना लिया है। किसी को हम नहीं छोड़ रहे हैं, हमारे गंदे हाथों का स्पर्श हमारे सब आराध्यों को गंदा किए दे रहा है। और गणपति की कोई बात ही नहीं, उनके साथ तो जो हमने मज़ाक करा है, उसकी तो कोई इंतहा ही नहीं।
कहीं बाहर वालों ने आकर मज़ाक नहीं करा, खुद हम करते हैं। हर साल करते हैं और वो मज़ाक हर बीतते साल बढ़ता जा रहा है। लोकधर्म का मतलब ही यही है — धर्म जो अहंकार की कठपुतली हो, उसको कहते हैं लोकधर्म। निन्यानवे-दशमलव-नौ-नौ-प्रतिशत लोग जिस धर्म का पालन करते हैं वो लोकधर्म है, धर्म नहीं हैं, वो ऐसा धर्म है जो लोगों की आदतों और संस्कृति के वशीभूत है। उसको कहते हैं लोकधर्म।
लोग कहते हैं, ‘जो मेरी आदत है, उसी आदत के पीछे-पीछे मेरे धर्म को चलना होगा। जो मेरा अहंकार है, जो मेरी कामना है, जो मेरी धारणा है उसी के पीछे-पीछे धर्म को चलना होगा।’ ये लोकधर्म है, ये लोकधर्म वास्तविक धर्म का कोई विकृत रूप नहीं हैं, ये वास्तविक धर्म का विपरीत है। ये ऐसा नहीं हैं कि वास्तविक धर्म में कोई छोटा-मोटा विकार आ गया तो लोकधर्म बन गया। वास्तविक धर्म को जो चीज़ जड़ से खत्म कर देना चाहती है, उसको बोलते हैं लोकधर्म। लोकधर्म ऐसा नहीं होता कि शुरूआत हुई है तो अभी अपरिपक्व धर्म है, उसे लोकधर्म बोलेंगे। न-न-न। लोकधर्म ऐसी नहीं चीज़ है कि अभी पौधा है, आगे चलकर पेड़ बनेगा। न-न-न!
लोग कहते हैं कि देखो साधारण संसार ही तो लोकधर्म का पालन करता है, और वही संसारी, वही गृहस्थ जब आगे चल जाता है और संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है या वानप्रस्थ तो फिर वो वास्तविक धर्म को पाता है। तो वो ऐसा दिखाना चाहते हैं कि जैसे ये मामला क्रमिक है, सिक्वेंशियल है। वो दिखाना चाहते हैं कि जो गृहस्थ होता है साधारण वो लोकधर्म पर चलता है, और वही गृहस्थ जब पचास और पिचहत्तर पार करने लग जाता है तो वो वास्तविक धर्म को पा जाता है। बिलकुल गलत बात बोल रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं हैं। ऐसा नहीं हैं कि लोकधर्म वो पौधा है जो आगे चलकर वास्तविक धर्म का वृक्ष बनेगा, बिलकुल नहीं हैं ऐसा ।
लोकधर्म वास्तविक धर्मों के वृक्ष की जड़ों में डाला गया विष है, ये है असली संबंध। लोकधर्म वास्तविक धर्म के वृक्ष की जड़ों में डाला गया विष है। जहाँ लोकधर्म है वहाँ वास्तविक धर्म होगा ही नहीं कभी। लोकधर्म का उद्देश्य ही यही है कि वास्तविक धर्म को जड़ से मिटा दो। अहंकार को कितना अच्छा लगता है न कि मैं बड़ा हूँ, मैं पुरुष हूँ, और मैं ऐसे छोटी ऊँगली थामकर के रामलला को लेकर जा रहा हूँ। बड़ा अच्छा लगता है, या कि छोटे से कृष्ण हैं और मैं अपने ऐसे (गोद में लेने का संकेत करते हुए) लेकर जा रहा हूँ, या छोटी सी देवी हैं और उनको गोद में मैंने ले रखा है। बड़ा अच्छा लगता है। ‘मैं बड़ा हूँ, मेरे आराध्य छोटे हैं।’ अहंकार बड़ा है, सत्य छोटा है।
गीता के कृष्ण नहीं चाहिए क्योंकि उनके आगे अहंकार के पसीने छूट जाते हैं। गीता के कृष्ण धीरे-धीरे बिलकुल पृष्ठभूमि में अदृश्य होते जा रहे हैं। जो बिलकुल किसी के पकड़ में न आने वाले देव हैं, महादेव, हमने उनको तक नहीं छोड़ा, कि उनको तो ये भी नहीं है कि वो समाज के बीच बसते हों। मथुरा, वृंदावन, द्वारका, अयोध्या, कुछ नहीं। वो कहाँ जाकर बैठे हैं? वो वहाँ कैलाश पर ऊपर जाकर बैठे हैं जहाँ कोई उनको छू ही न पाए, पहुँच ही न पाए, हमने उनको भी सामाजिक बना दिया है। जिनका रौद्र रूप ऐसा है कि तांडव कर दें तो प्रलय आ जाए, हमने उनको भी अपने हाथ का खिलौना बना दिया। सब खिलौना-ही-खिलौना है, खेलो, मनोरंजन!
विशेषकर नवरात्रि में तो एक-एक सोसाइटी में, गली में, मोहल्ले में, शॉपिंग मॉल में ऐसा मस्त धमाल चल रहा है अभी कि जिन लोगों का धर्म से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं वो भी धार्मिक हुए जा रहे हैं धमाल की खातिर। गज़ब म्यूज़िक, गज़ब पोशाकें, गज़ब नाच, गज़ब खाना-पीना। ये खाने-पीने वाला धर्म!
तीन-तीन महीने पहले से, छः-छः महीने पहले से महिलाएँ तैयारी कर रही हैं और सीख रही हैं कि डाँडिया ऐसे। और ये कौन हैं? जिसे धर्म से कोई मतलब नहीं। पर इन्हें मनोरंजन करना है, इन्हें सैल्फ़ी खींचनी है, इन्हें अपने वीडियो डालनेहैं, लड़कियों को लड़को को रिझाना है, लड़को को आँखे सेंकनी है।
ये सब चल रहा है धर्म के नाम पर, और हम कितना पाखंड करेंगे अगर हम इस बात को स्वीकार नहीं करना चाहते तो! मैं बोल रहा होऊँगा बहुत लोगों को मॉरल आउटरेज (नैतिक आक्रोश) हो रही होगी कि अरे, ये क्या बोल दिया! तुम्हें कब तक पाखंड करना है? सबसे बड़ा पाखंडी तो आम आदमी खुद होता है, सामने की सच्चाई को स्वीकार नहीं कर रहा।
तुम दस-बारह साल के बच्चों की बात कर रहे हो, यहाँ चार-चार साल के बच्चे बनकर घूम रहे हैं, बाल कथावाचक, बालगुरु, किसी को बाल अवतार भी बना दिया होगा, मुझे मालूम नहीं है। तीन-तीन साल वाले भी हैं। बारह साल तो तुमने कहा, बारह साल तो बहुत बड़ा होता है। बड़ा अच्छा लगता है, तुतलाते हुए बोल रहा है।
एक-से-एक गुरुजी घूम रहे हैं, उन्होंने अपने बारे में प्रचारित कर रखा है, ‘मैं तीन साल का था, मैने सारे वेद कंठस्त कर लिए थे। मैं पाँच साल का था, मुझे गीता ते लगभग साढ़े-सात-सौ श्लोक याद थे।’ वो कहते हैं, ‘बिलकुल! देखो, साढ़े-सात-सौ! गीता में तो साढ़े-सात-सौ में रुक गए थे, सप्तशती में तो पौने-आठ-सौ।’ कोई वजह है न कि भारत तरक्की नहीं कर पा रहा। कोई वजह है न। प्रतिव्यक्ति आय में हम आज भी विश्व के आखिरी देशों में आते हैं, कोई वजह है न। हमारी ही जितनी जनसंख्या वाला चीन हमारे ऊपर बिलकुल चढ़कर खड़ा हुआ है, हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। कोई वजह है न। वो वजह यही है — धर्म की विकृति।
जब तक भारत का लोकधर्म भारत की संस्कृति के पीछे-पीछे चलेगा, समस्या बनी रहेगी। क्योंकि संस्कृति आप जिसको बोलते हो वो बस आपकी बिगड़ी हुई आदतों का दूसरा नाम है। किसी वजह से आप जो व्यवहार करना शुरू कर देते हो उसको आप संस्कृति का नाम दे देते हो, ऐसी संस्कृति जो हर सौ-पचास साल में और हर पचास किलोमीटर पर बदलती रहती है। और आप कहते हो, जो आपकी आदत, जो आपकी संस्कृति वही धर्म है। मीट-मच्छी खाना अच्छा लगता है तो धर्म के नाम पर कतल शुरू कर देते हो।
मेरी संस्कृति ये है कि मतलब मेरी आदत ये है कि मुझे तो बहुत अच्छा लगता है मछली खाना, बकरा खाना, तो त्यौहार आया नहीं कि कटना शुरू, रामनवमी — काट दिया, नवदुर्गा — काट दिया, दशहरा — काट दिया। ‘आदत मेरी पहले आती है, स्वाद मेरा पहले आता है, धर्म पीछे आता है। भारत धार्मिक देश है।’ ठीक? ऐसा ही बोलते हैं न हम?
तो जब तक ये लोकधर्म नहीं सुधरेगा तब तक भारत भी नहीं सुधर सकता। या तो ऐसा होता की भारत को धर्म से कोई लेना-देना ही न होता और भारत को धर्म से सरोकार है, जो कि अच्छी बात भी हो सकती थी अगर हमारा धर्म वास्तविक धर्म होता, पर हमने वास्तविक धर्म को एक तरफ़ रख दिया है, और न जाने धर्म के नाम पर क्या चला रहे हैं। फिर इसीलिए सारा हमारा पिछड़ापन है। और तुर्रा ये है कि हम तथ्यों की अनदेखी करने में अब बिलकुल शीर्ष स्थान पकड़ने जा रहे हैं।
मैं बोल रहा हूँ कि हम दुनिया में पिछड़े हुए लोग है, न जाने कितने लोगों को इससे आपत्ति हो रही होगी, ‘अरे! ये कुछ नहीं जानता, अनपढ़ है क्या ये? कुछ जानता ही नहीं है। हम तो दुनिया में सबसे आगे निकल चुके हैं।’ अभी मैने सुना, किसी ने भेजा, वो बोल रहा था कि ये आइंस्टीन ने इ-इज़-ईक्वल-टू-एमसीस्क्वायर (E=mc2) वेदों से चुराया है। ये वो आदमी होगा जिसको न स्पेशल थ्योरी पता होगी, न जनरल थ्योरी पता होगी। छोड़ो, इससे पूछ दो रिलेटिविटि क्या होती है, इसे ये भी नहीं पता। इसे साफ़ कह दो, ‘तू समझा रिलेटिविटि माने क्या? तू समझा यूनिवर्स का जो मॉडल दिया है आइंस्टीन ने वो क्या है? बता दे।’
पर अब हम इस चीज़ में दुनिया में नंबर एक हो रहे हैं कि हम तो पहले से ही सबसे ठीक है, हम तो पिछड़े हुए थोड़े ही हैं। सबकुछ तो हमारे शास्त्रों में पहले ही लिखा है तो हम कोई चीज़ ले के आते हैं तो शास्त्रों में लिखा हुआ था। बताओ कि पश्चिम कितना आगे है तुमसे, बोलो, ‘हमसे चुराकर ले गए थे।’ एक तो तुम पिछड़े हुए हो, और दूसरे तुम झुठे हो। तुम अपने पिछड़ेपन को स्वीकार भी नहीं कर रहे। तुम अपने पिछड़ेपन को ही गौरवान्वित कर रहे हो, और तुम्हारे सारे पिछड़ेपन का मूल है जो तुमने धर्म के साथ बद्तमीज़ी करी है।
धर्म वो ताकत होती है जो इंसान को उठाती है, तुमने उस ताकत को ही अपाहिज कर दिया, तुम उठोगे कैसे? कोई नहीं धार्मिक है, सबकी मान्यताएँ है, सबकी कल्पनाएँ है, सबका स्वार्थ है उसी को धर्म का नाम दे रहे हो, कोई नहीं धार्मिक बैठा है यहाँ पर। धर्म के नाम पर अपनी-अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं सब और कुछ नहीं है।
दूसरे इंसान को दबाकर रखना हो, उससे बिना बात के कम पैसे की मेहनत-मज़दूरी करानी हो, तो बोल दो, ‘हमारे धर्म में ऐसा लिखा है कि तुझे ये करना पड़ेगा, तू छोटे वर्ण का है।’ स्त्री को दबाकर रखना हो, उससे अपनी सारी कामना-वासना पूरी करनी हो तो बोल दो, ‘शास्त्रों में लिखा है कि तेरे लिए पति के चरणों में ही स्वर्ग है।’ तुम्हें अपनी कामनाएँ-वासनाएँ पूरी करनी है इसीलिए तुम धर्म का सहारा लेते हो, ये धर्म कोई धर्म थोड़े ही है। वास्तविक धर्म से तुम्हें कोई लेना-देना नहीं। मैं तुमसे गीता, वेदांत, उपनिषद् की बात करूँ तो तुम चिहुँक जाते हो। अपनी रीतियों को तुम धर्म का नाम देते हो।
इन मुद्दों पर बोल-बोलकर भी मैं थक सा रहा हूँ। धर्म जो उच्चतम चीज़ होना चाहिए था, ऐसा कि इंसान ऐसे देखे (ऊपर की ओर देखते हुए) तो धर्म ऐसे दिखाई दे, ज़िंदगी की सबसे ऊँची बात जो हमारी हस्ती को ऊँचाई दे-दे, धर्म वो चीज़ होना चाहिए था, और हमने धर्म को बिलकुल गँवारों की चीज़ बना दिया है। अभी हालत ये है कि सभ्य लोग, शिक्षित लोग जहाँ कहीं कुछ धार्मिक चल रहा होता है वहाँ से बिलकुल दो-किलोमीटर दूरी बचाकर निकल जाते हैं, कहते हैं, ‘यहाँ गँवरई चल रही होगी, बचकर रहना ज़रा।’ बुरा लग रहा है न सुनने में? मुझे भी बहुत बुरा लग रहा है कि ऐसा हो रहा है।