सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेषः योऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥
अर्थ: सृष्टि के आरंभ में ही ब्रह्मा ने कहा था कि यज्ञ के द्वारा ही वृद्धि को प्राप्त करोगे। यह यज्ञ ही तुम लोगों को अभीष्ट फल देगा और कामधेनुतुल्य सर्वाभीष्टप्रद होगा।
काव्यात्मक अर्थ:
सगुण हो बंधन चुना जब कामना की बात से यज्ञ मुक्ति मार्ग है अस्तित्व की शुरुआत से
आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, 10वा श्लोक।
तो, शुरू हो रही है श्रृंखला, अर्जुन के संशय से, संशय पूर्ण आग्रह से। क्या? नहीं करूंगा कर्म, ज्ञान आपने बता तो दिया, कर्म नहीं करूंगा। फिर कृष्णा अर्जुन को ले आते हैं, सर्वप्रथम कर्म की अनिवार्यता पर। तुम प्रकृति के पुतले खड़े होकर कह रहे हो, कर्म नहीं करूंगा जबकि प्रकृति स्वयं ही कर्म है। कर्मा माने गति और प्रकृति माने भी गति। तो अर्जुन, तुम जो मेरे सामने खड़े हो जीव हो न, हार्ड मास के पिंड हो न।
बाहर तन है भीतर मन हैं, और मन माने लगातार समय, विचार, गति, यही सब है ना। प्रकृति माने ही होता है समय, गति, कर्म, और तुम कह रहे हो कर्म नहीं करूंगा। कर कर्म नहीं करना था तो पैदा नहीं होते। जो पैदा हो गया कर्म की उसकी श्रंखला शुरू हो गई। तो कर्म से तो नहीं बच सकते ठीक है। फिर कर्म के बारे में आगे बढ़ें हैं और छठे-सातवें श्लोक में कहा है कि क्रम दो केंद्रों से आ सकते हैं। कौन से दो केंद्र से आ सकते हैं कर्म? है ना यह तो कर्म के दो प्रकार हो गए। कर्म को ही आचरण मान लीजिए। तो जब कोई बोले आचरण माने क्या? तो कर्म। तो मिथ्याचरण जो उठता है ब्रह्म और प्रकृति के केंद्र से।
और समाचारी या सदाचारी या सहजाचारी, जिसका कर्म आता है आत्मा के केंद्र से और यही दोनों विकल्प होते हैं सदा अहम्् के पास, या तो इधर चले जाओ या इधर चले जाओ। इधर हम कहते हैं बार-बार आत्मा है और दूसरी तरफ कौन है? एक तरफ आत्मा है एक तरफ मां है। माॅं माने? प्रकृति। तो आत्मा के केंद्र से आता है तो सहद कर्म होता है, और समाचारी या सदाचारी हो जाता है। और प्रकृति के केंद्र से आता है तो, हां।
नई प्रकृति के केंद्र से आए तो आवश्यक नहीं है कि मिथ्याचारी होगा। प्रकृति के केंद्र से आए तो उसको बस हमको कहना पड़ेगा कि वह प्रकृति में आचरण कर रहा है मिथ्याचरण प्रकृति के केंद्र का भी एक प्रकार का विकृत हो जाना है। जैसे पशु पूरी तरह प्रकृति के केंद्र से चलते हैं तो हम उन्हें मिथ्याचारी बोलते हैं क्या? तू सिर्फ इसलिए कि कोई प्रकृति के केंद्र से संचालित है वह मिथ्याचारी नहीं हो गया।
सिर्फ इसलिए कि कोई प्रकृति के केंद्र से, बच्चा छोटा, छोटा बच्चा होता है वह पूरी तरह प्रकृति से ही चलता है, तो हम बोलते हैं क्या मिथ्याचारी है, दुराचारी है ऐसा तो कुछ नहीं बोलते है ना। तुम मिथ्याचारी होने के लिए 2 शर्ते हैं, पहली तो यह यही कि प्रकृति से चले, और दूसरी शर्त यह भी है कि नाटक करें, स्वांग, प्रपंच, धोखा, प्रदर्शन। ऊपरी संयम रखें किसलिए? या तो स्वयं को दिखाने के लिए यह ज्यादा संभावना है कि समाज को दूसरों को दिखाने के लिए। तो एक तो चल रहा है प्रकृति के केंद्र से और दूसरा ऊपरी संयम भी रख रहा है, प्रकृति के केंद्र से भी नहीं चल रहा है और वह ऊपरी संयम भी नहीं रख रहा है तो हम उसको क्या बोलेंगे? पशु मात्र है। वो पशु है।
वह पशु है वह मिथ्याचारी नहीं है। और जो मनुष्य होकर के भी पशु का केंद्र चुन रहा है उसको क्या बोलेंगे? पशु अगर प्रकृति के केंद्र से चल रहा है तो हम बोलेंगे हांजी पशु है वह तो अपना काम कर रहा है। जो मनुष्य होकर भी पशु का केंद्र चुन रहा है और प्रदर्शन भर के लिए भी संयम नहीं कर रहा है उसको फिर क्या बोलते है? हां बढ़िया, भ्रष्टाचारी बोल दो, दुराचारी बोल दो, फिर जो भी बोलना है बोल दो। अच्छा ज्यादा बुरा किसको मानोगे दुराचारी को मिथ्याचारी को? समझाना पड़ेगा ज्यादा बुरा कौन है दुराचारी कि मिथ्याचारी? सब दुराचारियों के पक्ष धर है। क्यों मिथ्याचारी क्यों बुरा है?
वो सक्रिय रूप से धोखा देना चाहता है। दुराचारी वैसा है जैसे संतों ने कहा है कि तनमन एक ही रंग। तासों तो कौआ भला तनमन एक ही रंग। अगर वो अंदर से काला है तो वो बाहर से भी काला ही है। तो कम से कम ये दिखा तो नहीं रहा कि मैं बाहर से बड़ा बगुले जैसा सफ़ेद हूँ जैसा है भीतर से अगर वो गड़बड़ है तो वो बाहर भी उसकी गड़बड़ी दिख ही रही है। उसके भीतर अगर हिंसा है या इर्शा है द्वेष है तो वो चीज स्पष्टता उसके स्थूल कर्मों में भी परिलक्षित हो रही है, उसकी वाणी में दिखाई देगा कि हिंसा है उसके कर्मों में हाथ पाँव उसके जैसे चल रहा है दिख रहा होगा कि इसके भीतर नफरत भरी हुई है। तो ये हो गया हमारा दुराचारी, मिथ्याचारी ज्यादा बुरा है।
मिथ्याचारी कौन हो गया? मुँह में राम बगल में छुरी। दिखाने के दांत और खाने के दांत और। कुछ पता नहीं चलता उसका। जानते हो मिथ्याचारी के साथ बड़ी खतरनाक बात क्या है? कौन बताएगा? मिथ्याचार के साथ सबसे खतरनाक बात क्या होती है? मिथ्याचार आप करते हो दूसरे को धोखा देने के लिए है न? जो मिथ्याचारी का प्रचार होता है उसमें वो स्वयं भी विश्वास करना शुरू कर देता है। जो प्रचार उसने शुरू करा होता है दूसरों को धोखा देने के लिए, इतने समय तक वो प्रचार करता है कि उसे भी लगने लग जाता है कि क्या पता यही सच हो।
तो बहुत पुरानी कहानी है मेरे खयाल से, मुल्ला नसरूदीन की कहानी है वो, सूफी दिशा से आती है, उन्हीं की है तो बच्चे थे, गाँव के वो मुल्ला नसरूदीन को बहुत परेशान किया करते थे। क्यूंकि वो पागलों जैसी हरकत करता था तो उसको छेड़ते थे उसके कपड़े खींचते थे कभी कुछ करे कभी कुछ शरारत तो एक दिन ऐसे ही उसको परेशान कर रहे थे तो वो बोलता है अरे उधर जाओ उधर जाओ शहर की तरफ जाओ उधर को भागो तो बच्चे बोले काहे को अरे वहाँ बड़ी दावत है आज और वहाँ जाओगे तो खाना ही नहीं और भी चीजें मुफ्त मिल रही है भागो उधर सारे बच्चों जाओ।
तो सारे बच्चे फिर मुल्ला को परेशान करना छोड़ के किधर को भागे? शहर की ओर भागे। मुल्ला बहुत खुश हो गया है। थोड़ी देर में लोगों ने देखा मुल्ला खुद भी शहर की ओर भाग रहा है। लोगों ने पूछा क्या मुल्ला? बोलता है क्या पता दावत हो ही। ये समस्या होती है मिथ्याचार के साथ। जो झूठ आपने दूसरों को बोला होता है कुछ समय बाद आपको स्वयं भी उसमें विश्वास आ जाता है। क्यों आ जाता है बताओ? कारण गहरा है समझो इसको। देखो अध्यात्म मनोविज्ञान का शिखर होता है। ठीक है। कहीं पर कोई आध्यात्मिक सुक्ति अटक रही हो तो मन में प्रवेश करो। मन किन नियमों, सिद्धांतों पर चलता है उनका अवलोकन करो फिर समझ में आएगा किसी श्लोक का या किसी कहानी किसी दोहे कहावत इत्यादि का अर्थ क्या है।
जो कोई दूसरों को धोखा दे रहा है वो दूसरों को धोखा क्यों दे रहा है? अगर मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसके लिए जरूरी है कि वो दूसरों को धोखा देकर दूसरों की दृष्टि में सम्माननीय बने इससे मेरे बारे में क्या पता चलता है? मुझे इस बात से फर्क पड़ता है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते है ठीक। अगर मुझे कोई फर्क ही न पड़ता कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं तो मुझे दूसरों को धोखा देकर इज्जतदार बनने की भी कोई जरूरत नहीं रहती न। मुझे फर्क पड़ता है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसका क्या मतलब है? कि दूसरे मेरे बारे में जो सोचते हैं मैं उससे प्रभावित हो जाता हूँ।
माने दूसरे मेरे बारे में जो सोचते हैं मैं उसको सच मानने लगता हूँ। माने कि मैं दूसरों की सोच को सच मानने लगता हूँ तो मुल्ला ने बच्चों को क्या सोच दे दी? दावत है लेकिन जो दूसरों को धोखा दे रहा है दूसरों को धोखा दे ही इसीलिए रहा है क्यूँकि दूसरे जिस चीज को मानते है वो खुद भी उसी चीज को मानने लगता है दोनों बातों को मिला दो। तो जैसे ही दुनिया ने कुछ मानना शुरू किया मुल्ला ने भी उसी बात को मान लिया देखिये आप जो दूसरों से झूठ बोलेंगे, उस झूठ में आपका भी यकीन आ जाएगा। और अगर आप कहें कि नहीं मैं दूसरों को झूठ बोल रहा हूँ मैं क्यों उसमें यकीन करूंगा साहब। अगर आप ऐसे होते कि दूसरों की सोच पर विश्वास नहीं करते तो दूसरों को धोखा देने की भी आपको आवश्यकता नहीं पड़ती। जो दूसरों को धोखा दे रहा है वो दूसरों के माध्यम से फिर बूमरैंग कर रहा है स्वयं को धोखा दे रहा है।
समझ में आरही है बात? ये सम्भव नहीं है कि तुम दूसरों को धोखा दो और बचे रह जाओ। ये नियम जैसी बात है गणित का जैसे नियम है इसका आप कोई अपवाद नहीं खोज पाओगे। तो जो मिथ्याचारी होता है वो आत्मघाती होता है। वो दूसरों को ही कुछ मिथ्या नहीं पिला या चटा रहा होता है। उस मिथ्यत्व में उसका अपना विश्वास आ जाता है। और जितना आपका अपने बारे में किसी झूठ में विश्वास आता जाएगा, उतना आप अपने सत्य से दूर होते जाएंगे।
दूसरों को झूठ बोलोगे तुम स्वयं अपनी सच्चाई से दूर होते जाओगे। दूसरों को धोखा देने में यह बहुत बहुत बड़ा खतरा है खतरा नहीं है निश्चित है बात। हानि की सम्भावना भर नहीं है हानि मैं कह रहा हूँ सुनिश्चित है। जिसने दूसरों को धोखा दिया वो गया बर्बाद हो गया। धोखा दुधारी तलवार है, ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो सिर्फ एक तरफ़ काट करें। जिस क्षण आप किसी से झूठ बोल रहे हैं या किसी के प्रति मिथ्या आचरण प्रदर्शन कर रहे हैं उस क्षण आपने अपने आप को भी सच्चाई से बांट दिया, काट दिया समझ में आ रही है बात।
इसलिए आपने इस तरह की कहानियाँ पढ़ी होंगी कि जिन लोगों ने सीधे-सीधे अवतारों से युद्ध वगैरह कर लिए जब उनकी मृत्यु होने लगती है तो तर जाते हैं। पढ़ा है नहीं पढा है? पौराणिक कहानिया है अब ये। तो ये कथाएं क्या बताती है? बहुत बार आप देखोगे कि फलाना राक्षस आ गया, देवी से युद्ध करने परन्तु देवी के हाथों मृत्यु को पा कर के वो फिर तर गया। या रावण ये रावण को पूरी बुद्धि है, रामायण प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से कई बार बताती है कि रावण को पता तो लग गया था कि दाल गलनी है नहीं आध्यात्मिक दृष्टि से न पता लगा हो तो सामरिक दृष्टि से तो समझ ही गया था रावण एक बार में तो उसके सब सेनानी मरे नहीं थे 1-1 करके गए थे।
पूरी एक श्रृंखला चली थी जिसके अंत में रावण का वध था। तो रावण को दिख तो रहा था कि ये सब जा रहे हैं सब जा रहे हैं सब जा रहे हैं। मेघनाथ पचीस- 30 वर्ष का तो रहा ही होगा इन्द्रजीत। अगर वो था तो रावण कम से कम 50 वर्ष का है युद्ध के समय। तो शूरता में मेघनाथ रावण से थोड़ा आगे का ही रहा होगा पीछे का तो नहीं। तो दिख रहा है कि मेघनाद नहीं बचा लेकिन रावण माना नहीं। और कहने वाले कहते हैं कि इसलिए नहीं माना क्योंकि मृत्यु चाहिए थी। विवश हो गया था कह रहा था स्वयं को मैं वो मृत्यु दे ही नहीं पा रहा हूँ तो चलो राम से ही ले लेते हैं और राम भी मृत्यु मुझे देंगे नहीं जब तक कि जा कर के एकदम कोई में अपराध ही न कर दू। कोई भारी कुकर्म करना पड़ेगा नहीं तो वो तो माफ कर देते हैं कुछ बहुत भारी काम करना पड़ेगा कि वो मुझे मौत देते यही कर लेता हूँ सीता को ही ले आता हूं। तो दुराचारी तर जाता है मिथ्याचारी नहीं तरता।
दुराचारी दुष्ट है, मिथ्याचारी कपटी है। जीवन के लिए एक सूत्र समझ लीजिये, दुष्टता कपट से नीचे का अपराध होती है। दुष्ट की माफी है कपटी की नहीं है। आपको दो लोग मिले एक हो दुष्ट और एक हो कपटी। है तो वही एक तरफ सांपनाथ एक तरफ नागनाथ किसको चुनना है? दुष्ट को चुन लीजिएगा। कपटी को मत चुनिएगा। दुष्ट का जैसा भी है प्रकट है और दुष्ट कम से कम समाज से दबा हुआ नहीं है। उसने अपने ऊपर यह बांधता नहीं रखी है कि समाज के सामने तो मुझे शालीन मुखौटा पहनना है वो कह रहा है मैं शालीन हूँ ही नहीं मैं तो दुष्ट हूँ।
और तुम लोगों को मैं इतनी भी हैसियत इतना भी अधिकार या सम्मान नहीं देता हूँ कि तुम्हारे सामने मैं सज्जन शालीन बनकर आऊँ। मैं दुष्ट हूँ तो तुम्हारे सामने दुष्ट ही बनकर रहूँगा। ये बुरा है बहुत बुरा है बहुत गलत है दुष्ट होना लेकिन दुष्टता से भी ज्यादा बुरा है कपटी होना। 2.11.46 (इसको बंद कर सकते हो ठंड लग रही है।) समझ में आ रही है बात। ले दे करके कर्म विषयक हम जितनी बातें कर रहे हैं इनका सम्बन्ध है कर्ता के विगलन से। तो जो दुराचारी है दुराचारी माने जो दुष्टता के कर्म करता है। आचरण माने कर्म। जो दुष्टता के कर्म करता है उसका कतृत्व विगलित होना आसान पड़ेगा। बस इसलिए हम कह रहे हैं कि दुष्टता भली है अपेक्षतया कपट से।
देखिये भलाई या बुराई अध्यात्म में सिर्फ किस बात से निर्धारित होती है? मूल सिद्धांतों से कभी दूर मत जाया करिए। भला क्या है बुरा क्या है? प्रश्न आना चाहिए किसके लिए? भला क्या है बुरा क्या है चलो पूछो? एक ही होता है जिसके लिए सब कुछ होता है 5-7 होते हैं क्या? एक ही तो होता है जिसके लिए कुछ भी होता है कौन होता है वो? उसके अलावा तो कुछ होता ही नहीं जिसके लिए कुछ भी हो। सारे अनुभव सारा संसार सारे विषय किसके लिए होते हैं? अहम् के लिए। तो भला या बुरा हम जब भी तय करेंगे तो हम किसके भले या किसके बुरे की बात कर रहे होंगे?
अहम् के तो अहम् की तो एक ही भलाई होती है। एक ही होता है जिसके लिए कुछ अच्छा होता है कुछ बुरा होता है, अहम्। और उसकी भलाई भी कुल एक होती है और उसकी बुराई भी कुल एक होती है सारी बात एकदम सरल करके चलिए तब तो जीवन में सरलता आएगी। नहीं तो अध्यात्म को भी आप गणित की तरह जटिल बना लेंगे जीवन में इतने ही अन्य जटिलताएं हैं आप अध्यात्म को अपने लिए एक और जटिल बोझ बना लेंगे। एकदम सरल करके चलिए सीधे 1 और 1 दो बराबर, इतना सरल करके चलिए।
अध्यात्म के लिए एक ही भलाई होती है क्या? अहम् के लिए एक ही भलाई होती है क्या? उसका आत्मा से मिलन। बिल्कुल ठीक। तो हम कह रहे हैं कि जो दुष्ट हैं जो दुष्ट कर्म करने वाला है जो दुराचारी है उसके अहम् के लिए फिर भी सिर्फ तुलनात्मक रूप से अपेक्षतया आसान होगा आत्मा से मिल जाना। बोलो क्यों? क्योंकि वो हथियार लेकर आत्मा के सामने खड़ा हो गया तुझे मारूँगा। हाँ बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया, अंगुलीमाल जैसा। अब आपने बुद्ध की बात कर दी है तो महावीर की बात भी कर लेते है। जब महावीर को केवलए पद प्राप्त हुआ तो एक सांप निकल आया कहीं से।
किसने सुनी है ये कथा? तो एक सांप निकल आया वो पहला ही था। अभी अभी उनको बात समझ में आई है, बैठे थे दुनिया को देख रहे थे, ध्यान कर रहे थे। तो सांप निकल आया और आ करके उसने और क्या करेगा वो गाना गायेगा? उसने आ कर के डस लिया। जब डस लिया तो उसको देखने लगे बोले तू यही करेगा? अब उन्होंने ऐसा बोला नहीं था माने कुछ मुझे भी तो अधिकार है ना उसको बोलते है तू यही करेगा? बोले तुझे कुछ पता भी है तू कब से यही कर रहा है? जिस दिन से सृष्टि है समय है उस दिन से तू यही कर रहा है तू बस डस रहा है और तूने मुझे भी डस लिया। तूने मुझे भी डस लिया। और मुझे डसने का तुझे फल ये मिलेगा कि तू आगे भी लोगो को बस डसता रहेगा। यही करना है? सांप सांप था आदमी जितना मूर्ख तो था नहीं। उसका बल्ब जल गया। उसको बात समझ में आ गयी। उसको बात समझ में आगई।
इस सांप को माना गया कि यह महावीर स्वामी का पहला शिष्य हुआ। अब ये देखो कथा है प्रतीकात्मक कथा है पौराणिक कथाओं की तरह है लेकिन मतलब समझिए खुली दुष्टता आपको तार देती है। उसने खुली दुष्टता कर दी न। क्या करा उसने ठीक जैसे अंगलिमाल खड़ा हो गया था बुद्ध को मारूंगा इसने भी खुली दुष्टता कर डाली। इसने दस ही लिया। इसने डस लिया फिर कहानी कहती है जब उन्होंने बोला तू यही करता रहेगा तो उसने अपना जो सर्पत्व था वो त्याग दिया। मानो वो मर गया। सर्प अगर अपना सर्पत्व त्याग दे तो क्या बचेगा? कुछ नहीं मर गया। फिर आगे कहते हैं कि वो इंसान बन गया वो फिर इंसान बन गया। ये प्रतीक कथाएँ हैं इनका मतलब समझिएगा। बहुत दूर के और बड़े ऊँचे इशारे है। समझ में आ रही बात? उसने क्या करी थी खुली दुष्टता। आमने- सामने आकर पीठ पीछे वाला काम नहीं था उसका। सामने से आके जैसे रावण की तरह जैसे अंगुलीमाल की तरह। जो सामने आ के कर लेता है वो तर जाता है क्योंकी अहम् हथियार लेकर के खड़ा हो गया है पर सामने तो आ गया न।
इतना ही बहुत होता है। तो हथियार लेके ही आओ तुम जहर लेके ही आओ तुम बंदूक लेकर के आओ, तुम गालियां लेकर आओ। पर सामने तो आओ, जो सामने आ जाएगा वो तर जाएगा। जो सामने आएगा ही नहीं वो व्यर्थ ही मरेगा। समझ में आ रही है बात? तो इसलिए फिर बहुत बार ऐसा हुआ है कि जगत के जो हितैषी रहे हैं, उन्होंने जान बूझ कर के कुछ ऐसी स्थितियां पैदा करी है कि जो लोग उनके प्रति उदासीन रहे हैं वो उदासीनता छोड़ दे।
उन्होंने कहा कि देखो दुनिया ऐसी है इस वक्त स्थितियां संयोग ऐसे हैं, कि लोग हमारी बात सुन नहीं रहे। लोग हमारे प्रति क्या हो रहे हैं? उदासीन। उदासीन माने इन डिफ्रेंट। लोग हमारी उपेक्षा कर रहे हैं हम कुछ बताना चाह रहे हैं वो सुन ही नहीं रहे कहे कि उनके पास और धंधे हैं, मनोरंजन है ,ये हैं काम हैं वो अपना लगे पड़े हैं उसमें। हमारी सुन नही रहे है। तो उन्होंने फिर ऐसी स्थितियां पैदा करी है कि लोग उनसे घृणा ही करे। कहते घृणा भी करोगे तो कम से कम सामने तो आओगे। पत्थर ले के आओ सामने पर सामने तो आओ। इसलिए दुराचारी जल्दी तर जाता है। पत्थर ही लेकर सामने आओ। पर आओ तो सामने।
और ऐसा बहुत होता है घृणा की दृष्टि से ही फिर लोग सामने आते हैं या द्वेश लेकर के और फिर तर जाते हैं चाहे सांप हो चाहे अंगुलीमाल हो। और आप देखोगे आप कहोगे ऐसा क्यूँ कर रहे है कि ये तो साफ़ साफ़ ऐसा काम है कि ये काम ये करेंगे तो समाज इनसे नफरत ही करेगा। वो एक विधि रही है। वो एक प्रकार की तरकीब होती है क्या और तो कोई तरीका है नहीं तुम् हमारी सुनो। तो हम तुम को परेशान करेंगे फिर तो आओगे न हमें मारने। अब जीसस को यातना ना दी होती मृत्यु ना दी होती अपनी ओर से, तो इसाईयत कभी शुरू भी नहीं होती न। तो मानने वाले मानते हैं कि यह उनका अपना एक आयोजन था इसके बिना मेरी सुनेंगे नहीं।
वो दिन भर वहाँ घूमते रहते थे। जीसस ऑफ नज़रत और उनके कुल मिला के एक दर्जन साथ साथ जने चल रहे हैं और एक दर्जन भी ऐसे कि उसमें से एक ऐसा निकला था जो उनको बेच आया था। तुम्हें क्या लग रहा है ये बस अभी होता है। यही होता है ये तब से चल रहा है और कुछ नहीं था वो कुछ, छोटा-मोटा उसको लालच मिला वो जा करके बेच ही आया। तो उन्होंने भी खोपड़ी पकड़ी होगी बोले ऐसे तो कुछ बात बनेगी नहीं, रिच नहीं बढ़ रही। उन्होंने कहा कुछ करते है तो उन्होंने कहा यही करते हैं लेओ। अब पूरी मानवता हज़ारों साल तक रोएगी कि हाय हाय ये हमसे क्या हो गया? ईसायत में Sin, Suffering, Repentence ये बड़े केंद्रीय तत्व हैं।
"He suffered for us, he suffered for entire humanity, the sin is upon us and hence lets repent all our life." तो वो जो फिर कर्तव्य छोड़ गए सारे ईसाइयों के लिए। ईसाई आज तक वो कर्तव्य निभा रहे हैं। कभी कभी, मतलब समझ रहे हो? किसी भी तरीके से उसको सामने तो लेकर आओ भले ही वो सामने आ कर के तुम्हारा वध ही क्यों न कर दे। पर सामने तो आए। छुपा रहना स्वीकार नहीं है क्यूँकी अहंकार के लिए जो सबसे बड़ी ढाल होती है वो होती है पीठ, सत्य को पीठ दिखा देना। अहंकार के पास सत्य के समुख कोई ढाल नहीं होती वो सामने खड़ा हो गया तो गिर जाएगा। उसकी ढाल ये होती है कि सामने आए ही नहीं, मैं आऊँगा ही नहीं, मैं सुनूंगा ही नहीं, मैं गायब हो जाऊंगा, मैं सामने बैठूंगा ही नहीं। ये नहीं होने देना चाहता कोई भी मुक्त पुरुष, शिक्षक, गुरु ये नहीं होने देना चाहता।
यहीं पर हारता है, जो गुरु है यही पर हारता है, उसकी एक ही हार हो सकती है गुरु की क्या? कि शिष्य सामने ही नहीं आया। तो वो ये नहीं होने देना चाहता कभी कि सामने ही न पड़े। और ये जो जगत है इसकी गहरी से गहरी इच्छा यही होती है कि इसको उपेक्षा से मार डालो। "किल हिम थ्रू इन डिफ्रेंस।"
काहे कि भारत जैसी विशेषकर अगर जगह हो तो यहाँ संस्कृती रही है कि जो लोग धर्म की और मुक्ति की बातें करते हों उनको कम से कम प्रताड़ित तो मत ही करो मारो नहीं। माने उन्हें स्थूल मृत्यु तो मत ही दो उन्हें पत्थर मत मारो, उनको हथियार से मत मारो, तो फिर उन्हें सुक्षम मृत्यु दी जाती है। सूक्षम मृत्यु कैसे दी जाती है? उपेक्षा करके कि वो कुछ बताना चाहता है, वो कुछ करना चाहता है, तुम उसको सुनो ही नहीं।
उसको न सुनना उसकी मौत के बराबर है। क्यूंकि वो देह के लिए तो जी नहीं रहा वो तो धर्म के लिए जी रहा है। वो तो जी इसलिए रहा है कि रौशनी फैले और आप अपना अँधेरा ही पकड़े रहो तो उसको मौत मिल गयी न। उसके लिए जीवन तभी है जब रोशनी फैल रही हो और आप कहो रोशनी को मैं स्वयं तक पहुँचने नहीं दूंगा। मैं अपने अँधेरे बिल में खुद को छुपा लूंगा तो उसको मौत मिल गई। तो उस मौत से बेहतर वो कई बार समझता है शारीरिक मौत को। कहता है शरीर को मौत देने के लिए तुम सामने तो निकलोगे। समझ में आ रही है बात?
तो अहम् आत्मा के सम्मुख पड़ जाए, जिस भी विधि से, नतीजा शुभ ही निकलेगा। ऊपर ऊपर से भले ही ऐसा लग जाए कि किसी की मौत हो गयी किसी को कष्ट दे दिया, किसी को प्रताडित कर दिया, कोई बात नहीं, उसका नतीजा शुभ हैं। अशुभ बस होता है छुपे बैठे रहना, अशुभ बस होता है नजरें न मिलना। बाकी आप जो भी कर लो सामने पड़ जाओ। एक होता है कि सामने पढ़े किसी टेढ़े तरीके से क्या करके? तलवार लेके, एक होता है कि कभी सामने पड़े किसी टेढ़े तरीके से क्या करके? आरोप ले कर के। ये सब शुभ है चलेगा। अशुभ बस क्या है? सामने पढ़ना ही नहीं। सामने पढ़ने का एक टेढ़ा तरीका और होता है "अपनी छव बनाई के, जो मैं पी के पास गई।" कि सामने तो पढ़ गए हैं पर उसको सुनने के लिए नहीं उसको रिझाने के लिए। वो भी ठीक होता है तुम किसी भी तरीके से सामने तो आओ रिझाने के लिए ही सामने आओ।
वो रिझाने के लिए भी सामने आती है तो "जो छवि देखी पीहू की, मैं अपनी भूल गयी।" लेओ चेकमेट हो गया। ये काय के लिए आई थी? और वो अपनी छवि भी बना के आई थी। सुनने थोड़ी आई थी। वो काय के लिए आई थी? इनको भी रिझा लेंगे, तो उन्होंने कहा ठीक है तुम हमे रिझाओ, वो उल्टा हो गया। कृष्ण मोहन कहलाते है वो मोहित करने आई थी और वो खुद मोहित हो गयी। कृष्ण का काम ही है कि उन्हें जो मोहित करने आये, वो पलट के उसको मोहित कर देते हैं। उल्टा पड़ गया सब। "जो छवि देखी पीहू की, मैं अपनी भूल गयी।" छाप तिलक क्या हो गया? खुसरो नहीं पसंद। रे मोसे नैना मिलाएके, नजर मिला लो काम हो जाता है।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके। अहम् एक बार नजरें मिला ले आत्मा से, काम हो जाता है। तो वो सारी कोशिश यह करता है कि ऐसे मुंह छुपा के बैठेगा, इधर करेगा, उधर करेगा, उधर उधर कहीं पे कोने वाली कुर्सी पकड़ लेगा एकदम। आ भी गए हैं और कुछ पता भी न चले कि क्या हैं कैसे। उधर पीछे जाके वह नीचे जमीन पर बैठा होगा देखना कोई न कोई होगा उधर। कौन है? कोई नहीं है आज। ह तो कुर्सी के नीचे देखो कोई न कोई। ये मिथ्याचार है।
मिथ्याचार माने? ऊपर ऊपर दिखा भी दिया कि आये हैं और आ कर के नजरें भी नहीं मिलाई। यह मिथ्याचार है, यह मिथ्याचार है। आई आई टी गोहाटी में था, वहाँ बीच में मैंने सत्र रोक दिया। स्टेज से, मैं खड़ा हो गया मैंने कहा या तो वो जितने पीछे बैठे या तो वो आगे आये या बाहर जाए। एक आद जगह और भी ऐसे ही करा था कहीं पर। दिल्ली में करा था, भूल गया किसी कॉलेज में, और वहा का आई. आई. टी का कार्यक्रम, अच्छे से 10 मिनट के लिए रुक गया। वो भी बड़े हठी, वो आगे ही नहीं आ रहे बोल रहे हमारी फ्रीडम ऑफ़ लोकेशन है। तुम्हारी फ्रीडम ऑफ लोकेशन, मैने कहा ठीक है, मेरे पास भी तो मेरी फ्रीडम ऑफ वोकेशन है ना। मैं कहता हूँ मैं जो काम करूँगा वो अपने तरीके से करूँगा। देखते हैं तुम्हारी लोकेशन जीतेगी या मेरी वोकेशन जीतेगी।
10 मिनट तक ऐसे ही चलता रहा। फिर किसी तरीके से, मन मार के मुँह बिचकाते हुए वो सब आगे आकर बैठे। उन्हें पता ही नहीं है, वो जो कर रहे हैं वो अहम की बड़ी पुरातन युक्ति है। उसने हमेशा से यही करा है क्या करा है? नजरें चुराई है। वो तब भी नजरें चुरा रहा था, वो आज भी नजरें चुरा रहा है। उसे सामने नहीं पड़ना, तुम अंगुलीमाल हो जाओ कहीं बेहतर है। तुम तय करके आओ कि आज इसकी भी मुंडमाल बनायेंगे कोई दिक्कत नहीं है, खोपड़ा हाजिर है। तुम छुप जाओ तो गुरु भी फिर बेबस हो जाता है बिलबिला उठता है क्योंकी इस, इस कृत्य की कोई काट किसी गुरु के पास नहीं होती है।
यहाँ पर गुरु भी विवश हो जाता है, तुम सामने ही नहीं आ रहे ना, यहाँ पर कुछ नहीं कर पाएगा। तो इस एक चीज से गुरु घबराता है। कहता है ये नही ये नही, इसके इलावा कुछ भी। तुम गोली लेकर बंदूक लेकर आ जाओ वो खुश हो जाएगा चलो आ गया। किसी भी वजह से आया, आ गया। मारने के लिए ही आया, आ गया। वो है न वो, गुलाम अली गजल है, बड़ी बहुत दिनों से नहीं सुनी। "रंजीश ही सही दिल दुखाने को", अरे तू रंजीश में ही आ, तू दिल दुखाने के लिए ही आ, तू आ तो सही। तू रूठ के जाने के लिए आ, मानने के लिए थोड़ी। क्या है? किसी वजह से आ, एक बार आ बस इसलिए कि दिल तोड़ कर के तू वापस चला जायेगा। इसलिए ही आ लेकिन आ। समझ में आ रही है बात?
मिथ्याचारी क्या करता है? वो अहम की ओर, आत्मा की ओर पीठ करके खड़ा हो गया है। कर रखी है पीठ और सिर के पीछे मुखौटा पहन रखा है ताकि दुनिया को लगे कि आत्मा की ओर देख रहा है जबकि उसने आत्मा की ओर कर क्या रही है? पीठ। यह मिथ्याचारी है। हम इन तीन में अंतर समझना चाहते हैं- पशु, मिथ्याचारी और दुराचारी। पशु कौन है? वो प्रकृति का पूत है, उसे आत्मा से कोई लेना ही देना नही। तो पशु को कभी कोई अपराध नहीं चढ़ता, उसे कभी कोई पाप नहीं लगता। तुम कभी भी कहोगे ये पापी सांड हैं।
तुम्हारे सामने कोई अजगर किसी हिरण को समूचा निगल जाए, तुम कभी नही कहोगे ना कि दुष्ट अजगर? नहीं कहोगे। ठीक जब अजगर हिरण को निगल भी रहा होता है, ठीक इस वक्त भी उसमे एक मासूमियत होती है। कुछ और कर ही नहीं सकता। उसको हम हिंसा भी नहीं कह सकते कि उसने हिंसा की है। उसे और कुछ आता ही नहीं है। वो ये करेगा ही करेगा। जैसे एक मशीन वही करती है जो उसे करना होता है। घास काटने वाली मशीन है वो क्या करेगी? उसमे से खिलौने निकलेंगे? घास काटने वाली मशीन है, वो खिलौने पैदा करेगी क्या? या संगीत उठेगा उसमे से? वो क्या करेगी? तो अजगर क्या करेगा?
वो हिरण खाने वाली मशीन है तो हिरण खाता है। पशु को पाप नहीं लगता। पशु वो है जिसे आत्मा से लेना देना नहीं वो बस प्रकृति की गोद में खेल रहा है लगातार। ये सब अपनी माँ के बच्चे हैं। ये वहीं खेलते रहते हैं। इन्हें दूर जाना ही नहीं है। इन्हें कोई मतलब नहीं है मुक्ति क्या होती है? बोध क्या होता है? दुनिया चांद तारे ये लोग वो लोग इन्हें कोई लेना ही देना नहीं। ये जहाँ पैदा हुए हैं इन्हें जिंदगी भर वहीं रहना है। ये कहाँ पैदा होते हैं? ये मम्मी की गोद में पैदा होते हैं इन्हें जिंदगी भर मम्मी की गोद में ही खेलना है।
पूरा जो मनुष्य के अतिरिक्त जो प्राकृतिक जगत है वो ऐसे ही है। मम्मी ने पैदा किया और उन्हें मम्मी के आँचल में ही पूरी जिंदगी बिता देनी है और वहीं पर मर भी जाना है। उन्हें कोई पाप वाप नहीं लगता ना उनका कोई पुण्य होता है। तो पशु ये हो गया जो लगातार प्रकृति के तरफ भी क्या देख रहा और प्रकृति के साथ है मिथ्याचारी कौन हो गया वो देख प्रकृति की और राय लेकिन प्रदर्शित यह कर रहा है कि देख रहा है, प्रकृति के साथ हैं। मिथ्याचारी कौन हो गया? वो देख प्रकृति की ओर रहा है लेकिन, प्रदर्शित ये कर रहा है कि देख आत्म की ओर रहा हैं। मानो वो जानता है कि देखना कहाँ चाहिए। लेकिन बड़ा कुटिल है उसे पता है उसे क्या करना चाहिए लेकिन फिर भी नहीं कर रहा। ऐसो की कोई माफी नहीं होती। तो देख इधर को रहा है और यहाँ पर मुखौटा लगाये है जिससे दूसरो को लगे कि उधर को देख रहा है।
यहाँ पर मुंह जैसा मुखौटा कि लगे की उधर को देख रहा है। ये कौन हो गया? मिथ्याचारी। दुराचारी कौन है? वो खुले में आत्मा की ओर देख रहा है और कह रहा है कि दूर रह मार दूंगा। वो ऐसा प्रदर्शित करने की भी जरुरत नहीं समझता कि उसे आत्मा से प्रेम है। वो आत्मा की ओर मुँह करके खड़ा है और प्रेम पूर्ण मुंह करके नहीं खड़ा है ये जो मुखौटा है इस पर क्या भाव है? जो मिथ्याचारी ने मुखौटा पहना उसपर क्या भाव है? प्रेम का सम्मान का भाव है। हे हे हे, आत्मा महान है, हे हे हे। उसके आगे हम क्या कर रहे है? मुस्कुरा रहे हैं। दुराचारी का उल्टा, दुराचारी मुह कर के खड़ा है किसकी और? आत्मा की ओर। और कह रहा है मैं प्रकृति का प्रतिनिधि हूँ और प्रकृति की ओर से आत्मा मैं तेरा वध करने आया हूँ। मैं तेरा वध करने आया हूँ। यह दुराचारी फिर भी तर जाएगा। आपको कोई सलाह नहीं दे रहा हूँ दुराचार की। कइयों के चेहरे पर मुझे कुछ, हाँ देखिये, हंसी देखिये। तीनों का अंतर समझ में आ गया?
कर्म की जब भी बात हो तो वास्तव में किस की बात करनी है? कर्ता की। और कर्ता माने? अहम। हर बात को एकदम उन्हीं 3 पे ले जाकर के रोकना है। उससे पहले रुक गए तो फंसोगे। और जहाँ फँसने की सबसे कम सम्भावना है वो ग्रंथ है मेरी दृष्टि में अष्टावक्र गीता और रिभु गीता वहाँ आप चाह के भी फँस नहीं सकते।
उसके बाद आते हैं उपनिषद, उपनिषद भी बहुत है उनमे कुछ उपनिषद ऐसे हैं जिनमें अष्टावक्र गीता जितनी ही स्पष्टता, सरलता, निर्मलता है वहाँ भी आप फंसोगे नहीं लेकिन कुछ उपनिशद् ऐसे है जैसे बृहदारण्यक, जैसे छांदोग्य जिनमें सम्भावना है कि आप खो जाओ। फिर गीता है गीता में और भी ज्यादा संभावना है कि आप खो जाओ क्योंकि यहाँ भाती भाती के शब्द आते है जैसे यज्ञ शब्द आ गया आप खो सकते हो। अष्टावक्र आपको कहीं नहीं कहते है कि यज्ञ करो कहीं भी नहीं कहते गीता कहती है यज्ञ करो अब यज्ञ का आप हो सकता है बहुत स्थूल अर्थ निकाल कर के उसमे खो जाओ।
तो आप नहीं खोओ इसके लिए मैं आपको क्या सूत्र दे रहा हूँ? जो भी शब्द सामने आए उसको कहाँ लेकर आना है? उन्ही 3 पर लेकर आना अगर ये कर लिया तो बच जाओगे। नहीं तो वही होगा जो गीता के तमाम भाष्यों के साथ हुआ है। कुछ का कुछ अर्थ कर लिया गया है। कसौटी क्या है? मैं जो भी अर्थ कर रहा हूँ उसमे इन 3 के अलावा कोई चौथा तो नहीं आ गया? चौथा आया नहीं कि माने आपने जो अर्थ किया है वो गलत है। आपने जो अर्थ किया है वो गलत है। समझ में आ रही है बात? अब आज जो हमारे सामने श्लोक है इसमें बहुत सारे ऐसे शब्द आएंगे जो आत्मा अहम् प्रकृति से भिन्न है। तो आज काम थोड़ा रोमांचक रहेगा, उन सब शब्दों को हमें कहाँ लेकर के आना है? उन्ही 3 पर तो हम प्रयास करेंगे देखेंगे सफल हो पाते हैं कि नहीं ठीक है।
श्लोक स्वालो तीसरा अध्याय, सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। क्या क्या आ गया? प्रजा आ गई यह प्रजा कहाँ से आई? प्रजा माने क्या? सृष्टि आ गई, प्रजापति आ गए। ये सब कौन है? अभी देखते हैं, अनेन प्रसविष्यध्वमेषः योऽस्त्विष्टकामधुक्।
श्लोक कह रहा है कि एकदम सृष्टि के आरम्भ में ही जब प्रजापति माने ब्रह्मा क्योंकी उन्होंने सबका निर्माण किया न जितने लोग हैं तो उन्हें प्रजापति, प्रजा उन्होंने बनाई तो उन्हें प्रजापति बोलते है। सृष्टि के आरम्भ में ही जब प्रजापति ने सबको बनाया तो सब के साथ साथ में यज्ञ को भी बनाया।
अच्छा यज्ञ की बात क्यों आ गई है? अभी जो पिछला श्लोक था नौवा उसमे क्या कहा था कृष्ण ने अर्जुन को? कि देखो कर्म जब भी चुनना हो तो यह देख लेना कि वो कर्म यज्ञ है कि नहीं अगर यज्ञ है तो ठीक है यज्ञ नहीं है तो गड़बड़ है। तो यहाँ यज्ञ का आरम्भ होता है। यज्ञ का प्रवेश होता है यहाँ पर। कर्म का स्तर सुनिश्चित करने के लिए यज्ञ कसौटी है और यज्ञ माने क्या होता है? यज्ञ माने निष्काम कर्म, निष्काम कर्म। निष्काम नहीं बोलना चाहते तो ऐसे बोल सकते हो छोटी कामना की आहुति देना बड़ी कामना के लिए। छोटी वस्तु का त्याग करना बड़ी वस्तु हेतु। अगर निष्कामता की दृष्टि से देखोगे तो कहोगे जो काम अपने लिए नहीं करा जा रहा वो यज्ञ है ऐसे भी कह सकते हो और सकामता की तरफ से आओ तो ऐसे भी कह सकते हो कि छोटी चीज छोड़ देना ताकि बड़ी चीज उपलब्ध हो पाए। बड़े पर छोटे को न्योछावर कर देना यज्ञ है दोनों ही तरीकों से कहना ठीक है।
सकाम दृष्टि से कहना हमारे लिए ज्यादा उपयोगी है क्योंकि हम सब सकामी लोग है। तो यज्ञ से हमारा एक आरंभिक परिचय पिछले श्लोक में हो चुका है। अब उसी बात को कृष्ण आगे बढ़ा के कह रहे हैं कि जब प्रजापति ने पूरी सृष्टि का निर्माण किया, तो प्रजाओं के साथ ही यज्ञ का निर्माण कर दिया था। यज्ञ इतनी जबर्दस्त चीज है। और ये कहा था कि हे जीवों, हे प्रजाओं तुम्हे जो वृद्धि मिलेगी वो इस यज्ञ के द्वारा ही मिलेगी। विशेषकर आप मनुष्य के लिए समझ सकते हैं कि आपको जो वृद्धि मिलनी है वो यज्ञ के द्वारा ही प्राप्त होनी है।
जो कुछ भी आपका इष्ट है शब्द आ रहा है इष्ट जो भी आपकी कामना है कामना समझिए आपकी जो ऊंची कामना है, उसकी प्राप्ति आपको यज्ञ से ही होगी। तो लोगों को बनाया और लोगों को जब बनाया उसी समय उनको यज्ञ भी थमा दिया कि लो ये यज्ञ ले लो तुम्हारा इष्ट तुम्हारा अभीष्ट यज्ञ के द्वारा ही संपन्न होगा। अब यहाँ बहुत कुछ ऐसा आ गया है जो हमारे लिए थोड़ा नया है तो उसको हम समझेंगे लिखिये कुछ शब्द सबसे पहले तो ये प्रजापति माने ब्रह्मा कौन है? प्रजापति माने ब्रह्मा। ये कहाँ से आ गए? कौन है ये दूसरा, श्लोक में सृष्टि, सृष्टि क्या चीज होती है भाई? ये सृष्टि क्या है?
तीसरा यह आरम्भ क्या होता है सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों के साथ यज्ञ की भी उत्पत्ति हुई तो ये आरम्भ क्या चीज होती है? आरम्भ लिखिये। फिर यज्ञ क्या होता है यह लिखिए? खैर उसकी बात पहले कर चुके हैं फिर भी लिखिए। यह वृद्धि क्या चीज होती है? कि प्रजापति ने कहा कि मनुष्यों तुमको यज्ञ के माध्यम से वृद्धि प्राप्त होगी। वृद्धि माने क्या? हर चीज को वहीं लेकर के आना है, जैसे की लंबी चौड़ी आपके पास टर्मस हो, बहुत लम्बी चौड़ी और आपका काम है उन सब टर्म्सस को Ax + By + Czप् में रिड्यूस करना। जिसने कर लिया उसको 10 बटा 10 जिसने नहीं किया वो खुस फस। ठीक है। और इष्ट क्या है? प्रजापति कह रहे हैं कि मनुष्यों तुमको यज्ञ के द्वारा ही इष्ट प्राप्त होंगे। इष्ट क्या चीज होती है? चलिए, ब्रह्मा माने क्या? ब्रह्मा माने क्या? सगुण ब्रह्म को ब्रह्मा कहते हैं। लिख लीजिये।
अब ब्रह्म तो निर्गुण होता है सगुण ब्रह्म क्या आ गया? ये क्या चीज है? सगुण ब्रह्म क्या होता है? ब्रह्म तो माने ही जो निर्गुण निराकार हैं, सगुण क्या? तो वेदांत सबसे पहले पूछेगा फिर किसके लिए? ब्रह्म निर्गुण है किस के लिए? ब्रह्म के लिए। और ब्रह्म सगुण है किस के लिए? यह बात। ब्रह्म के देखे ब्रह्म माने ब्रह्म सत्य आत्मा एक ही है, ठीक है ना। अहम् ब्रह्मास्मि, तो ब्रहम अहम् हैं और अयम् आत्मा ब्रह्म तो आत्मा ब्रह्म है। तो दोनो को मिला कर के क्या बना? कि सत्य और आत्मा और ब्रह्म ये तीनों एक ही है। तो सगुण ब्रह्म अपने आप में कुछ नहीं होता। सत्य नहीं है सगुण ब्रह्म। लेकिन झूठ के लिए तो हो सकता है न सगुण ब्रह्म। सत्य के लिए तो सत्य ही होगा पर झूठ के लिए तो झूठ हो सकता है न। अहम् क्या है? झूठ। तो अहम् के लिए सगुण ब्रह्म सम्भव है उसको बोलते हैं ब्रह्मा।
सगुण ब्रह्म, ब्रह्मा। तात्विक दृष्टि से सगुण ब्रह्म सिर्फ एक मिथ्या बात। और अहम स्वयं कौन सा तात्विक है? वो खुद एक कल्पना है। सगुण ब्रह्म, ब्रह्मा। फिर प्रश्न उठना चाहिए कि फिर त्रिमूर्ति चलती है- ब्रह्मा, विष्णु, महेश। सगुण ब्रह्म ब्रह्मा है, तो विष्णु और महेश क्या है? वो क्या है, वो भी सगुण ब्रह्म ही है। प्रकृति का मतलब क्या होता है? गति, गति माने क्या? कोई चीज उठेगी, चलेगी और फिर लीन हो जाएगी। तो सगुण माने प्रकृति के साथ गुण सब प्रकृति के ही होते है न। तो अगर प्रकृति का वो रूप लिया जिसमें आरम्भ होता है कोई चीज उठ रही है तो सगुण ब्रह्म माने हो जाएगा ब्रह्मा। क्योंकि वो रचैता कहलाते हैं। प्रकृति में रचना होती है, तो अगर आप रचना काल की बात कर रहे हैं तो उस समय सगुण ब्रह्म माने ब्रह्मा।
अगर आप स्थिर काल की बात कर रहे हैं, तो सगुण ब्रह्म माने विष्णु। और अगर आप प्रलय काल की बात कर रहे है तो उस समय सगुण ब्रह्म माने- महेश। ठीक है, समझ में आगया। अभी इस श्लोक में किस काल की बात हुई है? अरंभ की तो इस समय सगुण ब्रह्म माने? ब्रह्मा। तो यह स्पष्ट हो गया ब्रह्मा, विष्णु, महेश कौन है ये बात स्पष्ट हो गई। ठीक है न। तो ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में, ये सृष्टि क्या चीज होती है? ये क्या आ गया? देखिये, अपनी कॉमन सेंस पर निर्भर नहीं रहना कि सृष्टि माने ये सब ऐसे नहीं। अध्यात में आपकी जो साधारण मान्यताएँ हैं कॉमन सेंस वो नहीं चलते जो मूल सिद्धांत हैं उन से चिपक कर चलना होता है। तो सृष्टि माने क्या?
अहम् के अनुभवों के विषय। 3 ही होते हैं न। तो सृष्टि माने वो जिसका अहम अनुभव करता है। तो सृष्टि माने प्रकृति। सृष्टि माने प्रकृति। तो जब कहे कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो कहा क्या जा रहा है सचमुच? क्या कहा जा रहा है? बहुत सोच के बताना यह गुंड़ बात है।
आचार्य प्रशांत: और बोलो, खोल के बोलो पास जा रहे हो बोलो, बढ़िया। जब कहा जा रहा है ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो इसमें सचमुच क्या कहा जा रहा है?
बहुत बढ़िया। बहुत सुन्दर। अहम् ने ब्रह्मा और प्रकृति की रचना की। क्योंकि पैदा तो बस एक ही हुआ है उसका नाम है अहम्। और वो जैसे पैदा हुआ है उस पर रिषी लोगो ने बड़ी चुटकी ली है। वो बोलते वो ऐसे ही पैदा हुआ है। हा, हां जैसे वर्ण संकर, वर्ण संकर नहीं बोलते हैं। बोलते हैं जैसे बंध्या पुत्र, बंध्या माने? बंध्या माने? बांझ माने जिसको बच्चा हो ही नहीं सकता। तो कहते है अहम् बंध्या पुत्र हैं। मतलब क्या हुआ? वो है ही नहीं। वो है ही नहीं। वो बंध्या पुत्र है वो हो ही नहीं सकता। तो पैदा बस एक ही होता है हमेशा और उसका नाम अहम है।
और जब वो पैदा होता है तो वो अपने पैदा होने के बारे में कहानियां कहने को बहुत उत्सुक रहता है क्योंकि डरा होता है क्योंकि उसको पता होता है कि वो है नहीं। तो वो फिर कहानिया बनाता है। उन कहानियों में दो चीजें होती हैं, एक वो जगत जिसमे अब वो खेलेगा कूदेगा। दूसरा वो जगह जहाँ से वो आया है। तो जिस जगत में वो खेलेगा कूदेगा उसको क्या नाम देता है? प्रकृति और जिस जगह से वो आया उसको क्या नाम देता है? ब्रह्मा। तो ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की। इसको सचमुच कैसे पढ़ना है? मजा आ रहा है? तो ब्रह्मा ने। तो अब प्रश्न उठेगा तो श्री कृष्ण ने या वेद व्यास ने सीधे ही क्यों नहीं कह दिया कि अहम ने इधर ब्रह्मा और उधर प्रकृति की रचना कर रखी है। सीधे ही क्यों नहीं कह दिया? फिर वेदांत के प्रश्न पर वापस जाइए।
कृष्ण ये अगर बोलते तो किससे बोलते अर्जुन से बोलते और अर्जुन तो अभी द्वैत के ही मसलों में उलझे हुए हैं अर्जुन को नहीं समझ में आता कि यह सब कुछ बस मानसिक है प्रक्षेपित है। अर्जुन के लिए द्वैत सत्य है। द्वैत माने? वो जो सामने पितामाह खड़े हैं वो भी सत्य है और मैं भी सत्य हूँ। और जो पूरी प्रकृति में इतने सारे तत्व बिखरे हुए हैं ये सब भी सत्य है। बोलेंगे मैंने थोड़ी खड़े कर दिए अर्जुन तो अभी मोहित है न। जो मोहित है जो भ्रमित है उसको आप बोल दोगे कि ये जितने हैं न ये है नहीं। बस तुम्हें लग रहे हैं तुम्हें अनुभव हो रहे हैं, प्रतीत हो रहे हैं पर हैं नहीं। वो बौखला जाएगा वो कहेगा ये पागल हो गए हैं। ऐसा थोड़ी होता है। मुझे आमंत्रित करा था एक मीडिया हाउस ने बड़ा है वो। भारत में काफी बड़े हैं वो। उनका चैनल वगैरह चलता है। वेबसाइट चलती है। तो उन्होंने अद्वैत के बारे में सवाल पूछे उन को बताया देखिये न तो ये सवाल है न आप हैं न मैं हूँ। तो उत्तर का तो कोई प्रश्न पैदा ही नहीं होता।
तो सब वहाँ पत्रकार लोग ही थे। बहुत सारे, 20-40 थे वो घेर के वहाँ पर उनकी ऐसी परंपरा है वैसे ही वो इंटरव्यू लेते हैं। वो यही जानने को आतुर थे कि ये अद्वैत होता क्या है, मैंने कहा अद्वैत का मतलब ये है कि प्रश्न पूछना ही बेकार हैं। तो उनमे से कुछ को थोड़ा बहुत समझ में आया कुछ को अच्छा लगा। कुछ बिदग गए। तो उसके 2-4 दिन बाद कोई मैच हुआ क्रिकेट का उसमें भारत की टीम हार गई तो फिर वो लोग बैठ के ट्वीट करने लगे बोले आचार्य प्रशांत का ही तरीका ठीक है बोल दो ये मैच हुआ ही नहीं। मतलब अद्वैतवाद का मतलब ही यही हैं जो चीजें पसंद ना आ रही हो उनको बोल दो मिथ्या, है ही नहीं। तो ये मैच हम हार गए इसका मतलब यह मैच हुआ ही नहीं। यह दशा होती है आम संसारी की जब उसके सामने अद्वैत सत्य आता है। वो बिदग जाता है उसका दिमाग खराब हो जाता है।
अर्जुन अभी इस स्थिति में नहीं है कृष्ण उनसे सीधे बोल दे कि ये सब कुछ जो देख रहे हो यह है ही नहीं। तो इसलिए इस भाषा में बोलना पड़ता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करी। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करी। ठीक है। फिर अरे सृष्टि के आरम्भ में ही ब्रह्मा ने मनुष्यों को कोई बात बोली थी। आरम्भ क्या चीज है? आरम्भ बस पढना है समय। और कुछ नहीं। आरम्भ माने समय।
नई, वो लगातार है न। समय माने? जो है ही है। तो आरम्भ भी लगातार है ही है।
अहम।
श्रोता: अहम सृष्टि की रचना कर ही रहा हैं।
आचार्य प्रशांत: हाॅं, लगातार। क्योंकि जिस सृष्टि को अहम रचता है वो होती तो है नहीं। तो बेचारे को फिर से रचनी पड़ती है। एक सृष्टि में अहम् को चैन कहाँ आता है? वो जो सृष्टि रचता है उससे असंतुष्ट ही रहता है। तो फिर अगले ही पल उसे क्या करना पड़ता है? सृष्टि को भी बदलना पड़ता है और स्वयं को भी बदलना पड़ता है। तो आरम्भ कब है? आरम्भ माने समय। अगर तुम कहो समय है तो आरम्भ है। यही बात अंत पर भी लागू होती है। अंत माने भी समय। समय का मतलब ही है निरंतर आरम्भ और निरंतर अंत। ठीक है?
फिर, फिर यहाँ पर शब्द आ रहा है यज्ञ। यज्ञ की बात हम कर चुके हैं ना? या दोहराए? यज्ञ माने क्या? यज्ञ माने क्या? आगे बहुत बार आएगा यज्ञ तो उसमें भूलना बहकना नहीं है बिल्कुल। यज्ञ माने सिर्फ निष्काम कर्म और कुछ नहीं, ठीक हैं। वृद्धि, हाँ। तो प्रजाओं मनुष्यों तुम यज्ञ के माध्यम से वृद्धि को प्राप्त होंगे। वृद्धि माने क्या? वृद्धि माने क्या? अहम की आत्मा की ओर यात्रा को वृद्धि कहते हैं। भाई कुछ भी बोला जाएगा वृद्धि बोला जाए चाहे हानि बोला जाए वो होगी किसके लिए अहम के लिए है ना और तो किसी की वृद्धि हो नहीं सकती। तो अहम के लिए वृद्धि क्या होगी सिर्फ आत्मा की ओर बढ़ना यही वृद्धि। ठीक हैं। इष्ट और तुम जब यज्ञ करोगे तो तुम्हें तुम्हारी इष्ट वस्तु प्राप्त होगी। इष्ट कामधुक, इष्ट वस्तु प्राप्त होगी। इष्ट माने? अहम के लिए एक ही इष्ट वस्तु हो सकती है क्या? हां आत्मा तो इष्ट है आत्मा। तो कुल मिला कर के इस श्लोक में कहा क्या गया है? देखिये इस श्लोक के मर्म का अनर्थ करना बड़ा आसान है ना। ये ब्रह्मा जी बैठे हैं, शुरुआत ऐसे होती है बह्माजी बैठे हुए हैं। बह्माजी काहे में बैठे हुए है? काहे में बैठे हुए है? कमल के फूल में बैठे हुए हैं।
और वो पृथ्वी वगैरह बना रहे हैं। और वो फिर मनुष्यों की और पेड़-पौधे, पशुओं की रचना कर रहे हैं। उसके बाद वो विशेषकर मनुष्यों को क्या आदेश देते हैं? कि ये पेड़ मैंने इसलिए बनाया है ताकि इनकी काट करके लकड़ियों को तुम जा कर के यज्ञ हवन करो और जब वो करोगे तो तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति होगी और कौन सी कामनाओं की पूर्ति होगी कि तुमको, हाँ तुमको अच्छा सुख मिलेगा, अच्छा पुत्र, मिलेगा, अच्छी गायें, मिलेंगी, अच्छी स्त्रियां मिलेंगी और तुम्हारे सब शत्रुओं का नाश हो जाएगा। इस श्लोक का बिल्कुल ये अर्थ करा जा सकता है और चौंकने के लिए तैयार रहिये इस श्लोक का ऐसा अर्थ बहुत किया गया है। ये करा है हमने गीता के साथ। एक ब्रह्मा जी हैं, जय ब्रह्माजी की। लाओ रे, जल्दी से मिठाई लेके आओ चंदू हलवाई के यहां से। ढाई सौ ग्राम बेसन के लड्डू, जल्दी ब्रह्माजी को चढ़ाओ ये वाले ब्रह्मा जी। और ब्रह्मा जी ने क्या करा एक दिन? बोले हम बनायेंगे तो उन्होंने बनाई और जड पदार्थ के निर्माण भर से संतुष्ट नहीं हुए तो बोले हम और भी बनायेंगे तो उन्होंने क्या बनाए? मनुष्य बनाए, बोले अब मनुष्य खाली बंजर रेगिस्तान रहेगा तो उसमें ऊब जाएगा तो उन्होंने उसमें नदियाँ बना दी, पेड़ बना दिए, जानवर वगैरह बना दिए और और मनुष्य के लिए एक स्त्री भी बना दी।
काहे कि अकेला बेचारा, तो ये सब किया। अब ये जो मनुष्य बनाया यह अपने आस पास की दुनिया को देखता तो इसे लगता कि ये अच्छी बढ़िया बढ़िया चीजें हमें भी चाहिए। तो फिर ब्रह्मा जी ने उसके लिए उपाय दिया बोले ये सब तुम्हे जिंदगी मैं जितनी भी अच्छी-अच्छी चीजें चाहिए वो तुमको सब मिलेंगी। और उन चीजों के लिए मैं तुमको एक हथियार दे रहा हूँ। वो हथियार क्या है? कुल्हाड़ी। उस कुल्हाड़ी से करना क्या है? लकड़ी काटनी है और उसका क्या करना है फिर?
आचार्य प्रशांत: और वो करने से क्या होगा? अरे देवता तो हम भूल ही गये। ब्रह्मा जी ने जब रचना की थी तो उसमें सब और देवता भी तो उनके ही सब है। तो देवता लोग क्या हो जायेंगे? प्रसन्न। और जब प्रसन्न हो जायेंगे तुमने जो मांगा है, वो मिल जाएगा। तो इस श्लोक का ऐसा अर्थ भी खूब हुआ है। मैंने हो सकता है अभी जो बोला है बताने में थोड़ी अतिशयोक्ति कर दी हो। पर इसके जो बहुत सारे अर्थ हुए हैं वो लगभग इसी तरह के रहे हैं।
अतिशयोक्ति मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि जब बात नाटकीय हो जाती है तो कई बार ज्यादा सुग्राहए हो जाती है।
हमारा ऐसा स्वार्थ है कि हम कहानियों में उलझना पसंद करते हैं, ऐसा भी नहीं की बस बेबसी होती है। मैंने खूब देखा है, उलझे हुए को बाहर निकालो तो विरोध करता है, हिंसक हो जाता है, बहुत सारे लोग जो अपने आप को गीताविज्ञ बोलते होंगे, अगर वो अभी इस कक्ष में मौजूद होते, मैं जो आपसे बातें कह रहा हूँ उनका पुरजोर विरोध करते, कहते नहीं नहीं नहीं इस श्लोक का यह अर्थ थोड़े है, आपने तो उल्टी गंगा बहा दी, ब्रह्माजी ने बनाया न इंसान को, आपने तो कह दिया कि हमने बना दिया ब्रह्मा जी को, ये क्या कर दिया आपने? ऐसे थोड़ी होता है, और सृष्टि का आपने अर्थ बना दिया? वो जो तुमने प्रक्षेपित करी है, माने अपने सृष्टि का अर्थ दे दिया? व्यक्तिगत अस्तित्व। जबकि हम सृष्टि को हमेशा क्या मानते है? वो जो मुझसे बाहर है, वो मुझसे द्वैतात्मक अर्थ हुआ न?
अद्वैत मे सृष्टि का मतलब हुआ मेरा होना ही सृष्टि है। मैंने अपना सृजन करा नहीं कि मैंने सृष्टि की सृष्टि कर दी, तो सृष्टि माने वो नहीं जो मुझसे बाहर है, मैं ही सृष्टि हूँ, क्योंकि मैं हो ही नहीं सकता, इन सब के बिन तो मैं आया नहीं कि ये सब आ गए, तो बताओ सृष्टि माने क्या? मैं। मैं ही सृष्टि हूँ, ये सृष्टि का अद्वैत अर्थ है, मैं ही सृष्टि हूँ, ये क्या बोल रहे हैं आप? सृष्टि माने वो सब ना जो ब्रह्मा जी ने बनाया था, ताल पोखरे नदियाँ पहाड़ बादल चांद सूरज तारे ब्रह्माण्ड यह सब सृष्टि है न? नहीं वो सब सृष्टि नहीं है, अहम ही स्रष्टा है, और अहम ही सृष्टि है।
ब्रह्माजी ने कुछ नहीं करा?तुम जानो और अभी तो आप बोल रहे थे कि ब्रह्माजी सगुण ब्रह्म हैं हम यह भी तो बोल रहे थे न कि ब्रह्म सगुण हो ही नहीं सकते, तो सगुण ब्रह्म का अर्थ हो जाता है वो ब्रह्म जिसको अहम देख रहा है। और हम सदा किसको देखता है? अहम सदा किसको देखता है? अहम सदा किसको देखता है? अहम सदा किसको देखता है? खुद को। तो सगुण ब्रह्म वो ब्रह्म है, जिसको अहम देख रहा है। तो सगुण ब्रह्म क्या हो गया? अरे अहम सदा किसको देखता है? और सगुण ब्रह्म वो जिसको हम देख रहा है, तो सगुण ब्रह्म माने? बात इतनी खतरनाक है कि बोली नहीं जा रही सगुण ब्रह्म माने? अहम ये क्या बोल दिया आचार्य जी ने?
अहम ने अपने अलावा कभी किसी को देखा है? वो तो बस अपने आप को देखता है, और अपना मुँह उसे कैसा लगता है? पसंद आता नहीं तभी तो इतना मेकअप करता है वो। अहम अपनी पूरी जिंदगी काहे में बिता देता है? मेकअप में इसी मेकअप के लिए क्या शब्द है? मिथ्याचार। मिथ्याचार माने? मेकअप। दिखाना कि हम ऐसे हैं,ऐसे हो नहीं पर दिखा रहे हो।
आत्मा की समस्या क्या है? वो अदृश्य अगोचर होती है, माने वो? अलक्ष्य होती है माने वो दिखती नहीं है, तो अहम को दिखता क्या है हमेशा? बस अपनी सूरत, आत्मा है पर वो दिखती नहीं है, ये बेचारे अहम की समस्या है, जो दिखता है वो सच नहीं। जो सच है वो दिखता नहीं, जिए तो जिए कैसे? मरे तो मरे कैसे? जो दिखता है उससे प्यार नहीं, और जिससे प्यार है वो दिखता नहीं। जिए कैसे? ये अहम की समस्या है, कुछ आ रही है बात समझ में? तो बेचारे ने 1 तरकीब निकाली, बोले ऐसा करते हैं, प्यारे ब्रह्म से मिलने के लिए अहम तो निर्गुण हो नहीं पा रहे, ब्रह्म को सगुण बना देते है।
चुहिया से बोला गया तुझे इश्क हो गया हाथी से चल तेरे को जंगल लेकर चलते हैं, चुहिया है चिंकी चुहिया उसका नाम है, उसे आशीकि किससे हो गई? हाथी से,तो उसको बोला गया चल भई वहाँ चलते हैं, जहाँ हाथी रहता है चुहिया मानती नहीं, वो क्या बोलती है? हाथी तो रहता है वहाँ पे, लेकिन साथ साथ सांप भी रहता है। और भेड़िये भी रहते हैं, गीदड़ भी रहते हैं, चील भी रहती है, न जाने और कितने तरीके के हिंसक, तो हाथी तो रहता है पर हाथी के लिए जाऊँगी, पेट में किसी और के पहुँच जाऊंगी तो मैं तो नहीं जा रही, बहुत समझाया जाता है देख भाई प्रेम में इतना खतरा इतना रिस्क उठाना पड़ता है न, अब प्यार भी तूने किससे किया है? हाथी से, जंगल तो जाना पड़ेगा न? कहती है चुहिया मैं तो न जा रही।
तो फिर चुहिया अपने लिए बनाती है सगुण ब्रह्म। वो क्या करती है? वह हाथी के चूहे बराबर 1 पुतला बनाती है। और उसको अपने बिल के अन्दर ले आती है, जे रहा हाथी, और पूरी जिंदगी वो अपने हाथी के साथ बिता देती है खुश हो करके, बिल के अन्दर कितना बड़ा हाथी आयेगा, जितनी बड़ी चुहिया। उतना बड़ा चुहिया का दिल। जितना बड़ा चुहिया का दिल। उतना ही बड़ा चुहिया का बिल, और जितना बड़ा चुहिया का बिल, उतना ही बड़ा चुहिया का? हाथी। ये है आम आदमी की स्थिति।
खुद तो निकल के जंगल जाऊंगा नहीं, जंगल के हाथी को अपने? बिल में ले आऊँगा। समझ में आ रही है बात? और खूब किससे बनाऊँगा। वो जो हाथी है उसका जो पुतला बनाया है चुहिया ने, वो पुतला बिलकुल चूहे जैसा लगता है। काहे कि चुहिया ने बनाया है तो चूहे जैसा लगेगा। चुहिया के लिए तो हाथी, अगम अगोचर अदृश्य ही है न?काहे कि वह कहाँ रहता है? चुहिया तो कभी जंगल गई नहीं, तो उसने तो कभी हाथी देखा नहीं, लेकिन दूर से कुछ आहट आती थी, हाथी की, चुहिया को प्यार हो गया, मस्त हाथी मजा आ गया।
जो कमी मुझमे है, उसका ठीक विपरीत वो हाथी है, मुझमें क्या कमी है? मैं इतनी सी और वो जो आहट आती है, जो उसकी आवाजें आती है, उससे ये लगता है की मस्त कोई मैं हर वक्त डरी रहती हूँ। और वो कैसा रहता है? गजराज, तो चुहिया को प्रेम तो बहुत हो गया था पर हाथी को उसने कभी? देखा नहीं, तो चुहिया के लिए वो हाथी तो निर्गुण निराकार ही है, काहे कि कभी देखा तो है नहीं, तो जब वो हाथी की प्रतिमा बनाएगी, तो क्या वो प्रतिमा हाथी जैसी होगी? हाथी तो उसने कभी देखा ही नहीं। वो प्रतिमा किसके जैसी होगी? वो चूहे जैसी होगी चूहे जैसा बना करके, उसको रख लिए उसी को अपना चूमती रहती है, कि यही तो है मेरा हाथी। समझ में आ रही है बात?
हमारा किसी तरीके से कोई जेनेटिक म्यूटेशन हो जाए, विकास की प्रक्रिया इवॉलूशन तो लगातार चल ही रहा है न और हम 1 से बढ़कर 1 करतूतें भी करते रहते हैं, जंगल में घुस करके वहाँ के वायरस उठा लाते हैं। जेनेटिक मेडिसिन हमने तैयार कर लिया है जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स हम खाते रहते हैं सब हम करते ही रहते हैं। इतने सारे काम हम रेडियोएक्टिव मटीरियल के साथ करते हैं, और ये हम जानते है की रेडियो एक्टिविटी से? जो आपकी सेल्स है वो विक्षिप्त हो कर के पता नहीं कौन से तरीके से बदलना और बढ़ना शुरू कर सकती है, तो मान लीजिये आपका किसी तरीके का म्यूटेशन हो जाए, पूरी मानवता का और आपके 2 की जगह 4 आँखें हो जाए, तो उसके बाद फिर आप जो कथाएँ कहोगे उसमें चरित्रों की कितनी आँखें होंगी? समझ में आ गई न कुल बात? यह है।
आपके 4 आँखें हो तो आपकी कथाओं के चरित्र की भी 4 आँखें हो जाती है। काहे की वो जो हाथी है वो किसके लिए है? चुहिया के लिए, जैसी चुहिया वैसा हाथी, जैसा मानुष वैसी मूर्ति। समझ में आ रही है?
तो इसको ऐसे मत ले लेना कि कोई प्रजापति बैठे हुए हैं, और वो सृष्टि की रचना आदि कर रहे हैं, बस यह कहा जा रहा है, कि प्रतिपल अगर कुछ ऐसा है सृष्टि के आरम्भ से, माने? समय में लगातार यदि कुछ ऐसा है जो तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक, तुम्हारे अंत तक, तुम्हारे इष्ट तक पहुँचा सकता है तो वो यज्ञ मात्र है, निष्काम कर्म और निष्काम कर्म तभी संभव है, जब तुम पहले थोड़ा सा आँखें पलट करके, आत्मावलोकन करके, कर्ता को देख लो, जो कर्ता को देखेगा वही निष्कामता को पाएगा, नहीं तो सकामता तो अहम के लिए बिल्कुल प्राकृतिक है।
बच्चा निष्काम पैदा नहीं होता, आप सकाम ही कृत्य करोगे सारे, सकामता तभी रुकेगी जब सकामता का स्रोत देख लो और कहो ये कौन है मैं तो हूँ नहीं, मैं हूँ नहीं तो मैं इसकी कामना क्यूँ पूरी करूँ? सारी कामनाएं जिसकी है, मैं वो हूँ नहीं, कामनाएं उसकी है तो मैं उसको पूरा काहे करूं? जैसे ही ये समझ में आता है, वैसे ही कामना के पीछे भागना थम जाता है, मैं वो हूँ ही नहीं जिसको कामना उठी है। मेरी आवश्यकताएँ कुछ और है, तो मैं क्यों पूरी करूँ उसकी कामना? क्यों पूरी करूँ?
ये जो भेद दिखाई देता है न मेरी कामना और किसी और की कामना यह वास्तव में भेद है अहम और प्रकृति का। यह बड़ा विचित्र भेद है।अहम प्रकृति से ही आ रहा है अहम प्रकृति ही होते है लेकिन मुक्ति के लिए उसको प्रकृति से भेद देखना पड़ेगा, इस समय आपकी कामना होगी सुनने की। आपकी पीठ की क्या कामना हो रही है? लेटने की, घंटा डेढ़ घंटा हो गया ऐसे तन के बैठे हो, पीठ क्या बोल रही है? अरे थोड़ा पीठ सीधी कर ले, लेट ले, और अहम चेतना ये क्या बोल रहे हैं? सुन ले। कामनायें अलग अलग है न?
आत्मवलोकन में आप दूसरे की कामना पूरी करना छोड देते हो, दूसरे की कामना पूरी नहीं करनी है, 1 मैं है जो मैं हूँ, और 1 मैं है जो मैं नहीं हूँ, तो अभी जो मैं मैं बोल रहा है मैं उससे पूछूंगा मैं कौन हूँ? 1 मैं है, जो मैं हूँ, और 1 मैं है जो मैं नहीं हूं, अभी भीतर से 1 बोल रहा है मै मै मै तो उस मैं से मैं पूछूंगा कि मैं कौन हूँ? मैं वन कि मैं टू, आई वन कि आई टू, तू कौन सा वाला मैं है? आत्मा वाला मैं कि बकरी वाला मैं?वो दोनो मै होते है आत्मा बोलती है? और जो पशु है भीतर का प्रकृति बकरी वो भी क्या बोलती है? मैं, तो जब भी बोलो मैं समझ मे आ रही है बात?
1 होता गोट, और 1 और भी होता है गोट, पूछो? कौनसा वाला गोट बोला? 1 गोट माने? बकरी। दूसरा गोट माने? कालाधिपति काल का बाप, द ग्रेटेस्ट ऑफ ऑल टाइम, तो कौनसा गोट है ये?ले देकर वो होगा तो वो गोट ही, पर कौन सा वाला गोट? समझ में आ रही है बात ये? श्लोक कुल क्या बोल रहा है? निष्काम कर्म के अलावा कोई तरीका नहीं है कामना पूरी करने का, क्या बात बोल दी, कामना पूरी करनी है तो कामना भूल जाओ, जो अपनी कामनाएं भूल जायेगा उसकी सारी कामनाएं पूरी हो जाएंगी। सारी नहीं पूरी होगी, जो अपनी सारी कामनाएं भूल जायेगा उसकी केन्द्रीय कामना पूरी हो जाएगी।
जब तुम वो सब भूल जाओगे, जो तुम चाहते हो तो तुम्हे वो मिल जाता है, जो तुम सचमुच चाहते हो, तो फिर तुम सचमुच माने क्या चाहते हो? तुम शायद सचमुच यही चाहते हो कि तुम वो सब भूल जाओ, जो तुम चाहते हो। हम क्या चाहते हैं? कि हम भूल जाएं कि हम क्या चाहते हैं, इसका मतलब याद रखना कि हम क्या चाहते हैं कुछ सुख की स्थिति नहीं होती, अन्यथा हम क्यों चाहते कि हम भूल जाएं कि हम क्या चाहते हैं? हम अपनी कामना को भुलाना चाहते हैं इससे आशय क्या? कामना ही दुःख है, कामना दुःख न होती तो हम कामना को भुलाने की कामना क्यों करते?
यही वजह है कि जब बुद्ध बोलते हैं कि जीवन दुःख है, तो वो उस दुःख से मुक्ति के लिए जो अस्टांग मार्ग बताते हैं, उसमें यही आता है अंत में कामना से मुक्ति ही दुःख से मुक्ति है, स्पष्ट हो रही है बात?
कड़ी है धारा राम की, काचा टीके न कोय। सिर सौंपे पर सीधा लड़े, सुरा कहिए सोय।।
अब इनको भी सुनना है, तो कैसे सुनेंगे कांचा टिके न कोय चलिए 3 में बताइए, कांचा टिके न कोय 3 में बताइए, कच्चा माने? सबसे पहले तो बात किसकी हो रही है, कच्चा माने कौन? किसकी बात हो रही है अहम की बात हो रही है कच्चा अहम कौन सा अहम हो गया? उसे कच्चा क्यों बोल रहे हैं? कच्चे होने और पके होने में भेद कैसे? यही क्यों उपाधि चुने यह कच्चा होना? ठीक ठीक ठीक तो वो ये ये हम कहाँ पाते हैं ऐसा होना कि पकने पर गिर जाता है? ये हम पाते हैं उन सब चीजों में जो पैदा होती है।
जैसे बच्चा भी जब छोटा होता है, छोटे को बोलते हैं ना कच्चा है अभी, अभी पका नहीं परिपक्व नहीं हुआ, पकना पको, परिपक्क तो बच्चा भी जब छोटा होता है, तो क्या करता है? चिपक के रहता है किससे? माँ से, और माँ कौन है? पक्का होने का मतलब क्या हुआ? यही मेच्योरिटी या परिपक्कता की निशानी है, आप किसी को मेच्योर बोल ही कब सकते हैं? जब वो प्रकृति से दूर होने लगे, फिर तब कहिए कि वो मैच्योर हुआ नहीं तो नहीं। इसी तरीके से पेड़ के पत्ते के लिए हम कहते है, कि जब तक अभी वो कच्चा है, तो क्या करेगा? पकड़ के रखेगा।
यही बात हम आम के लिए कहते है, जब कच्चा आम होता है तो क्या करता है? पकड़ के रखता है किसको? पेड़ को और पकते ही आम क्या करता है? छोड़ देता है। तो पके हुए होने की निशानी क्या है, छोड़ देना, त्याग देना, किसको? जहाँ से आये हो, कहाँ से आये हो? प्रकृति से, जहाँ से आये हो प्राकृतिक तौर पर जो उसको छोड़ दे वो पका हो गया, जो न छोड़े वो कच्चा हो गया।
साहब क्या बोल रहे रहे कड़ी है धारा राम की कांचा टिके न कोय, जो अभी कच्चा है माने जो अभी प्रकृति से ही चिपका हुआ है, वो राम के लायक नहीं है, ये ऐसे सुनना है इसको, जो अभी प्रकृति से ही चिपका हुआ है, वो आत्मा के लायक नहीं है। इनको ऐसे सुनना है, समझ में आ रही बात? तो वो कान तैयार कर लीजिए जो कुछ भी सुने तो उसमें बस ? 3 को सुने, इन 3 की लेकिन, कीर्ति कुछ ऐसी है,कि दुनिया भर की बातें आप कर सकते हो, इन 3 के इर्द-गिर्द।
तो आप अगर संत कबीर को लेंगे, तो उन्होंने कोई ऐसी चीज नहीं छोड़ी है, जो सीख की प्रक्रिया में उपयोगी न मिली हो उनको। खम्भा छत, दीवार, चक्की, घड़ा, रस्सी, कपड़ा, कपड़ा और बाजार, फुल, पेड़, पत्ता, सड़क, राजा, प्रजा, कुत्ता, लड़ाई, हथियार, दुश्मन, दोस्त। दुनिया में यही सब होता है न? उन्होंने दुनिया में जितने विषय पाये जाते है, सबका उपयोग करके जो सीख थी वो दे डाली। और वो जितनी भी बातें बोल रहे है वो सब आ करके 3 में बैठ जाते हैं, तो इन 3 में स्थापित होने का फिर लाभ यह मिलता है की आप पूरी दुनिया में खेल सकते हो, आप चक्की से खेल सकते हो, अगर आप इन 3 बैठे हो। फिर चक्की के 2 पाट भी इन्हीं तीनों के प्रतिनिधि बन जायेंगे, अब कोई दिक्कत नहीं।
आम आदमी चक्की चलाएगा तो वहाँ क्या दिखाई देगा उसको? पत्थर और गेहूँ और आटा। आम आदमी चक्की चलाएगा तो उसको क्या दिखाई देगा? पत्थर गेहूं आटा, फँस गया, फँस गया, क्योकि पत्थर गेहूं आटे में तो कोई फंस ही सकता है, गडबड़ हो गई ये तो सांसारिक विषय है, लेकिन इन 3 में स्थापित होके जब आप चक्की चलाओगे, तो आप नहीं फंसोगे।
फिर आप बहुत ऊँचे साहित्य का सर्जन कर लोगे। आप चक्की चला रहे हो तो आपको वहाँ दिख कुछ और रहा है, आम आदमी सोचेगा कोई ऐसे दृष्टा बगल मे क्या सोचेगा कि आप क्या कर रहे हो? चक्की चला रहे हो, आप जानते हो आप चक्की नहीं चला रहे हो, आपके लिए चक्की है ही नहीं, आपके लिए दुनिया की सब चीजें क्या है? 3 में आ जाती है, तो आप चक्की भी चला रहे हो तो, आप इन्ही 3 की ही मिमांसा कर रहे हो, इन 3 में भी आप जब चक्की भी चला रहे हो, तो आप 1 का ही ध्यान कर रहे हो। चक्की भी चल रही है तो 1 का ही ध्यान हो रहा है।
कपड़ा बुन रहे है, झीनी झीनी बीनी चदरिया, झीनी रे, झीनी, कोई और सोच रहा है देख रहा है जुलाहा है, चादर बुन रहा है, अभी जाएगा बेच के आएगा रूपया पायेगा फिर रोटी पकाएगा, उसे थोड़ी पता है कि वो वहाँ क्या देख रहे है? तुम्हे पता ही नही चलेगा क्या देख रहे हैं? तुम सोच रहे हो क्या? ताना बाना ताना बाना कर रहे हैं, ताना बाना कुछ नहीं है, तुमको दिख रहा है तानाबाना कर रहे हैं, कुछ और कर रहे हैं, यह सिद्ध पुरुष का आंतरिक जगत होता है। तुमको लगेगा कि वो कोई साधारण काम कर रहा है, कुछ भी कर रहा है, तुमको लगेगा वो सड़क पर चल रहा है, वो सड़क पर चल ही नहीं रहा है।
तुमको लगेगा कि वो वहीं पर खड़ा है, जहाँ तुम हो कि तुम्हारे सामने तो उसका शरीर खड़ा है नहीं,नही। तुम मृत्यु लोक मे खड़े हो, वो अमरपुर में खड़ा है, खड़ा है भले दोनो आमने सामने खड़े हो, दोनो बगल बगल चल रहे होंगें, साथ साथ चल रहे होंगे, बात करते हुए लेकिन तुम जमीन पर चल रहे हो, वो आसमानो में चल रहा है, जमीन माने? प्रकृति, आसमान माने? आत्मा। ये स्थापित होने का अंतर होता है।
स्थापित इन 3 में स्थापित होने से दुनिया आपके लिए रुक नहीं जाती, बंद नहीं हो जाती, वर्जित नहीं हो जाती। इन 3 में स्थापित होने से दुनिया आपके लिए खुल जाती है। अब आप कुछ भी करोगे, आपको कोई हानि नहीं हो सकती, चक्की में भी वही है, रस्सी में भी वही है, कपड़े में भी वही है, तलवार में भी वही है, और तो और जब आप सूफियों की ओर जाते हो तो जाम में भी वही है। लो ये क्या कर दिए, ये जो हल्का हल्का सुरूर है,वो तेरी नजर का कुसूर है। खून की धार में भी वही है, युद्ध की ललकार में भी वही है, घुंघरू की झंकार में भी वही है। समझ में आ रही है बात? फिर वहाँ से जो अभिव्यक्तियाँ होती हैं, वो कालजई हो जाती है। फिर इंसान कभी उसको भुला नहीं पाता, न कभी समझ पाता है कि बात कह कैसे दी इन्होंने? यह कहां से सूझ गया? आ रही है बात समझ में?
अब चलते होंगे लोग गाय अपने पाले हुए हैं और कोई गाय बछड़ा जन रही होगी गगन मंडल में गौ बियानी, आम आदमी के लिए तो गाय है बस, गाय बियायी हैं गाय गाय ने बछड़ा जना है बछिया, वो कह रहे हैं, गगन मंडल में गौ बियानी भोई पे दही जमाया, वो सोच रहे है साधारण दूध दही की बात चल रही है ये न जाने कौन से दही की बात कर रहे हैं, भोई पे दही जमाया। माखन माखन संतों ने खाया जगत बुपरानी, गजब हो गया।
फिर कहीं जा रहे हैं वहाँ पर बैठ करके वो क्या कर रहा है? वो मथ रहा है, उसकी मथनी को देखते है, और मथनी को लेकर तो न जाने कितनी बातें बोली है, आपको लगेगा मथनी को देख रहे हैं इतने गौर से, समझ रहे हैं कि क्या हो रहा है? तो फिर बोलते हैं ध्यान मथनी है, और राम मक्खन है। ध्यान क्या है? मथनी है, और राम? मक्खनहै। समझ में आ रही है बात? और कहीं जा रहे हैं पहले देखा वो अपनी गाय का दूध दुह रहे थे।
आगे गये तो माली है वो कुछ कर रहा है, पानी डाल रहा है, खाद डाल रहा है, या फूल बिन रहा है, माली आवत देखके कलियन करी पुकार, फूले फूले चुन लिए, काल हमारी बार। माली को भी समझ मे नही आया मुझे देख के इनको क्या समझ में आ गया? माली बोल रहा है but I m साधारण माली, मैं तो अदद 1 छोटा सा माली हूँ गार्डनर हूँ, बोले नहीं बेटा, तुम कुछ और हो, कुछ और नहीं हमें दिख रहा है, तुम कुछ और हो। और कलियाँ भी तुम जो सोच रहे हो, है ही नहीं, अरे क्या बोल रहे हो माली कलियन करे पुकार कलियाँ कुछ नहीं बोलती, बोलती है, हमने सुना है।
माली आवत देख के कलियन करें पुकार, कह रहे हैं माली भी हैरान है, बोलते जब भी आते मुझे लेकर कुछ और ही बोल देते हैं, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय और कुछ नहीं है ऐसे टहलते हुए जा रहे थे, माली पानी डाल रहा है, डाल रहा है अभी रितु आई नहीं है कहाँ से अभी उसमें फूल फल कुछ होगा? माली के लिए यह साधारण बात है। वो जो देख रहे हैं, वो 3 में स्थापित है। उनके लिए जितनी भी बातें हैं, बस वही है। और उनके अलावा और कोई बात होती ही नहीं । ये 1 तरह की ज़िद है इसको इसको धृत बोल लो, इसको प्रेम बोल लो, डिवाइन ओपसेशन है ये एक, "ये मेरा दीवाना पन है अरे यार मूड खराब कर देते हो, आगे बढ़ाओ न, वो आगे है या मुहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने तो है ये तेरी नजरों का कुसूर।"
तुम नहीं जान पाओ कि हमारे साथ क्या हो रहा है तो तुम जानो तुम्हारा कुसूर है, हम पर लगातार मदहोशी दीवानगी सी छाई रहती है। और वो इन्ही 3 की बरकत है। इन्होंने वो दिया है कि हम कुछ भी देखते हैं वो घड़ी देख रहे वो काटों को देख रहे हैं, तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि 12 बज रहे हैं, हमें कुछ और दिखाई पड़ रहा है, देखो क्या हो रहा उधर पीछे देखो समय देखो देखो देखो देखो क्या हुआ हुआ? हुआ तीसरा भी चढ़ गया गया और ये 3 हो गए, तीनों 1 हो गए। समझ में आ रही है बात, वो इतने में वो देखेंगे कि 3 कांटे 1 के ऊपर 1 गए। उतने में उनको, समाधि हो जाती है।
रामकृष्ण के साथ ऐसे हुआ करता था, कहीं जा रहे होते थे, साधारण चीज दिखती थी, वो उतने में ही एकदम मगन हो जाते थे। कभी गाने लगे, नाचने लगे, कई बार कहते हैं बेहोश ही हो जाते थे। कुछ दिख गया उनको पता नही क्या दिख गया? वो मस्त हो गये बिल्कुल गए, लीन औरों को पता न चले फिर, चलते चलते क्या हुआ था? हुआ कुछ नहीं, गंगा के पास से गुजर रहे थे। वहां 1 नाव थी, उन्होंने नाव को देखा नदी को देखा, मल्लाह को देखा, उतने में बस।
पता नहीं उन्हें क्या समझ में आ गया, समझ में रही है बात, इसलिए जब कोई ऐसा मिल जाए दीवाना तो उसके साथ थोड़ी संवेदनशीलता रखनी चाहिए, उसका आंतरिक जगत बड़ा सूक्ष्म और इसलिए बड़ा नाजुक होता है, वहाँ पता नहीं क्या चल रहा होता है, तुम्हे नहीं पता चलेगा तुम्हें लगेगा कि जैसे हम नदी किनारे चल रहे है जैसे यह भी नदी किनारे चल रहे हैं, वहाँ कुछ और चल रहा है अन्दर, उसको धक्का मत दो। उसको छेड़ो मत, उसको तोड़ो मत। उसे उसकी दुनिया में रहने दो।
वो भीतर ही भीतर अपनी समाधी में है लगातार उसको भीतर से खींच कर क्यो बाहर लाते हो? और बाहर की दुनिया में ऐसे कौन से बड़े मसले हैं, जिनकी खातिर तुम भीतर उसकी जो आश्रय स्थली है, भीतर जो उसका असली घर है जहाँ वो बार बार जा करके छुप जाना चाहता है, बैठ जाना चाहता है सो जाना चाहता है, मर जाना चाहता है अपने भीतर ही। वहाँ से तुम उसको जगा करके, बार बार खींच कर के बाहर लेकर आते हो। 2 कौड़ी की चीज है बाहर, उन बाहर की चीजों के लिए क्यों उसको भीतर से बाहर खींचते हो, समझ में आ रही है बात?
तो इसलिए भारत ने इस बात का बड़ा सम्मान किया कि कोई ध्यानी, कोई मौनी, कोई साधु बैठा हो, तो उसके आस पास शोर मत करो। जा करके उसके मौन में विघ्न मत डालो। और उसके मौन में बड़ी ताकत होती है जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही बली होता है, तो फिर हमारे पास कथाएँ हैं, कि तपस्वी ध्यान में बैठे हैं देवता दहल गए, देवताओं ने कहा इनका मौन भंग करो, नहीं तो न जाने यह कौन सी शक्ति प्राप्त कर लेंगे, तो फिर देवताओं ने जाकर के तमाम तरह के प्रयास करे कि इनकी समाधि टूटे, और वो जो ध्यान है, जो मौन है आंतरिकता उसका महत्व इतना होता है कि फिर कथाएं आगे बढ़कर के कहती हैं कि जब ऋषि को झंझोड़ के जगा दिया गया तो उन्होंने श्राप दे दिया।
श्राप से आशय क्या है? ये भी समझिए श्राप से आशय यह है कि कोई बहुत गलत काम हुआ है जिसकी सजा मिलेगी, जो अपने भीतर रहना शुरू कर दे। अगर तुम उसको भीतर से खींच कर बाहर लाओगे तो तुम बहुत गलत काम कर रहे हो, तुम्हें इसकी सजा मिलेगी यही श्राप है, इससे गन्दा घिनौना काम नहीं हो सकता, कि तुम बार बार ऐसी स्थितियां पैदा करो जान के अनजाने में जैसे भी, जो शांत और मौन और आत्मस्थ रहना चाहता है, उसको तुम जगत में, प्रकृति में घसीट लाओ, ये गलत बात है। इसकी सजा मिलती है।
तो फिर पुरानी कथाएं हैं कि ऋषि बैठे थे और किसी ने आकर उनको छेड़ दिया, शोर मचा दिया तो उन्होंने अचकचा के आँखें खोली और श्राप दे दिया, और श्राप के बाद फिर कथा आगे कहती है श्राप देते जिसने गड़बड़ करी थी वह भस्म हो गया बस हो गया, बस में हो गया मानो या नहीं कि स्थूल शरीर उसका राख हो गया, बात जो है वो इशारा है। कुछ और कहना चाहती है।