भगवद गीता - कर्मयोग: अध्याय 3, श्लोक 9

Acharya Prashant

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भगवद गीता - कर्मयोग: अध्याय 3, श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ||3. 9||

अन्वय: यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र (यज्ञ के लिए किए कर्म के अलावा अन्य कर्म में) लोकोऽयं (लगा हुआ) कर्मबन्धनः (कर्मों के बन्धन में फँसता है) कौन्तेय (हे अर्जुन) मुक्तसङ्गः (आसक्ति छोड़कर) तत्-अर्थ (यज्ञ के लिए) कर्म (कर्म) समाचर (करो)

काव्यात्मक अर्थ: बाँधते वही कर्म है जो यज्ञ हेतु नहीं अनासक्त हो हे अर्जुन करो सदा यज्ञ ही

आचार्य जी : अध्याय का आरंभ हुआ था अर्जुन के संसय से, केशव यदि ज्ञान ही उतना श्रेष्ठ है जितनी आपने उसकी प्रशंसा करी है, तो ज्ञान पर्याप्त है ना? क्यों मुझे फिर घोर दुष्कर रक्तरंजित कर्म मे धकेल रहे हो? तो कृष्ण सर्वप्रथम समझाते हैं अर्जुन को कि कर्म तो अनिवार्य है, अर्जुन तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे पास विकल्प है कर्म और कर्महीनता के मध्य। ऐसा कोई विकल्प तुम्हारे पास सचमुच है ही नहीं। तुम जब तक देहधारी हो कर्म निश्चित है देह ही कर्म है। देह माने? कर्म। देह समय का उत्पाद है, देह प्रतिपल बदल रही है, जो देही है अगर वह परिवर्तित नहीं होगा, तो अस्तित्वहीन हो जाएगा, जो देही है उसका अस्तित्व ही परिवर्तन मात्र है, क्योंकि वह जैसा है, वह क्योंकि वह सत्य नहीं है इसीलिए स्थाई नहीं है। समझिएगा अच्छे से, देही माने कौन? मनुष्य हम आप।

हम अहम हैं ना, अहम ना होते तो बार-बार क्यों कहते कि मैं पढ़ा लिखा हूं, मैं अनपढ़ हूं, मैं अमीर हूं मैं गरीब हूं, मैं स्त्री हूं मैं पुरुष हूं, हम अहम ना होते तो हम क्यों कहते कि मैं असंतुष्ट हूं? जब हार मिली है तब जीत चाहिए, जब जीत मिली है तब जीत की सुरक्षा को लेकर व्यग्र है। मैं असंतुष्ट हूं। मैं सत्य नहीं हूं, इसलिए मैं स्थाई नहीं हो सकता, मैं स्थिर नहीं हो सकता, मैं अचल नहीं हो सकता। मुझे परिवर्तन करना पड़ेगा। वहां पर मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।

अर्जुन एक काल्पनिक लेकर खड़े हैं कि कर्म करूं ही ना तो? और वह विकल्प कहां से आ रहा है? वह विकल्प आ रहा है संसय से, मोह से। धर्म को लेकर उनमें भ्रम खड़ा हो गया, वहां से संसय आ रहा है वह कह रहे हैं ठीक है, ज्ञान पाए लेता हूं, सब समझ लेता हूं, वह करना क्यों जरूरी है जिस ओर कृष्ण आप इशारा कर रहे हैं, वह करूं ही क्यों? तो कृष्ण कह रहे हैं कि सुनो वत्स, न करने का विकल्प तो किसी के पास भी नहीं है, यह तो छोड़ दो कि तुम्हारे पास नहीं है मेरे पास भी नहीं है।

जो सगुण हो गया, वह कर्म के क्षेत्र में आ गया। इतना ही शौक था कि कुछ होना तो समय की धारा में प्रविष्ट क्यों हुए? जो समय की धारा में आ गया वह परिवर्तन करेगा, परिवर्तन करना पड़ेगा उसको क्योंकि वह जैसा है वैसे में वह संतुष्ट स्थाई रह नहीं सकता। हम जैसे हैं वैसा होना हमारी नियति नहीं है, तो हमें बदलना पड़ेगा। तो कर्म तो अनिवार्य है अर्जुन, वह तो हो ही रहा है। तो भूल जाओ कि वहां तुम्हारे पास ऐसा कोई अधिकार या विकल्प है कि कर्म करूंगा ही नहीं, तुम नहीं करोगे तो भी होगा तुम नहीं करोगे तो भी होगा।

अब यहां से हमको झलक मिल जाती है, संकेत मिलने लगता है,कि फिर विकल्प है कहां जीव के पास? पहली बात हमारे पास यह विकल्प नहीं है कि परिवर्तन न हो परिवर्तन तो होगा, ठीक! कर्म माने? परिवर्तन। कर्म माने? परिवर्तन। कोई आपका कर्म ऐसा नहीं होता, जो कुछ बदले नहीं या बदलते हुए को रोके नही, या तो बदलाव करोगे या जो बदल रहा होगा उससे रोकने की चेष्टा करोगे वह भी कर्म है, वह भी एक प्रकार का बदलाव ही है।

जैसे भौतिकी में हम कहते हैं कि inertia दो प्रकार का होता है, जो रुका है वह रुके रहना चाहता है और जो गतिमान है, वह चलता रहना चाहता है। ठीक है? तो जो रुका है उसको चलाना भी क्या हुआ? और जो चल पड़ा है उसको रोकने की चेष्टा भी क्या हुई? दोनों ही तो कर्म तो, और रुके हुए को भी तुम रुका रहने दो कि नहीं क्यों? क्योंकि तुम्हें उसने कहा चैन है, आनंद है, जो रुका हुआ है उसको कहते हो कायको रुका हुआ है चल नहीं रहा? और फिर जो चल पड़ा है, तुम उसको लेकर व्यग्र हो जाते हो, अरे चल पड़ा है या तो उसको रोको या दिशा बदलो, या कुछ और करो, समझ में आ रही बात? तो वहां तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है।

तो अर्जुन क्या करें? अर्जुन कहे कि फिर तो मैं तो प्रकृति का खिलौना सा हो गया, अस्तित्व में कठपुतली जैसा हो गया, जब मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं है तो? नहीं विकल्प है। विकल्प फिर क्या बताते हैं? नियत कर्म में हम आते हैं, 8 वें श्लोक के आसपास। उससे पहले छठवें सातवें श्लोक में क्या विकल्प बताते हैं? कौन सा कर्म करोगे? मिथ्याचरण या सदाचरण? कर्म तो करना ही है एक कर्म वह हो सकता है जहां वह करने लगो जिस दिशा को तुम्हारा जी कर रहा है, क्या? बाहर बाहर कुछ नहीं करेंगे भीतर भीतर इंद्रियगमन इंद्रिय चिंतन चल रहा है, वह इशारा अर्जुन की ओर ही है, कि अर्जुन तुम कह रहे हो बाहर बाहर कुछ नहीं करेंगे माने तीर नहीं चलाओगे यही कह रहे हो ना? और भीतर भीतर क्या रहेगा? जिन पर बाहर तीर नहीं चलाओगे, जिन पर कह रहे हो कि बाहर मैं इनसे तीरों के माध्यम से संबद्ध नहीं होना चाहता, तो यह तीर भी एक संबंध स्थापित करते हैं ना? कह रहे हो बाहर इन से संबद्ध नहीं होना चाहता, अंग्रेजी में बोले तो बाहर बाहर मैं इन्हें इंगेज नहीं करना चाहता ठीक है ना? जब आपके सामने कोई आता है युद्ध में और आप उससे भीड़ जाते हो, तो क्या होता है? इंगेजमेंट।

अर्जुन कह रहे हैं यहां पर तो यह सब लोग हैं मेरे भाई बंधु है, गुरु है, तो इनसे तो मैं युद्ध का संबंध नहीं बनाऊंगा, अच्छा बाहर संबंध नहीं बनाओगे और भीतर भीतर दिमाग में क्या है? उन्हीं के संबंध के कारण बाहर संबंध नहीं बनाओगे तो कृष्ण ने क्या कहा था इसको बोलते हैं? मिथ्याचरण, कि बाहर तो कह रहे हो कि मुझे विषय संबंध नहीं बनाना, और वही विषय जिसे बाहर से संबंध नहीं बना रहे हो, उन्हीं विषयों का भी यहां पर अर्जुन के संदर्भ में क्या नाम दे सकते हैं? मान लीजिए द्रोण भीष्म बाहर बाहर इन्हीं विषयों से संबंध नहीं बना रहे हैं ना? कि द्रोण से संबंध नहीं कर सकता, और भाई लोगों से नहीं कर सकता, भीतर उनसे संबंध है इसीलिए बाहर उनसे संबंध नहीं बना सकते, बाहर का संबंध इस समय इस कुरुक्षेत्र में क्यों नहीं बनाना चाहते अर्जुन? क्योंकि मोह को क्या बोलेंगे? भीतरी संबंध है ना? मन में संबंध रखे हुए हो इसलिए बाहरी संबंध नहीं बना रहे हो। और बाहरी संबंध बनाकर तुम बस अपने आपको और यह सब जो दूसरे लोग हैं इनको झांसा दे लोगे।

ऐसे दिखा दोगे कि मैंने तो कर्म त्याग कर दिया, कहां कर्म त्याग कर दिया? कर्म का अर्थ ही होता है, विषय से संबंध। जिस विषय का तुमने त्याग करा है उसका त्याग ही तुमने इसलिए करा है, क्योंकि उससे तुम्हारा संबंध है। यह कहां का त्याग हो गया अर्जुन? यह कोई त्याग नहीं है, ठीक है ना?

और फिर उन्होंने कहा था कौन होता है जो मिथ्याचारी नहीं होता? जो मिथ्याचारी नहीं होता उसके क्या लक्षण बताए थे? आप लोगों को पूरा टेबल बनवाया था, आत्मरस्थ होता है, तो उसका कर्म कहां से आता है? उसका कर्म आता है, सत्य से। और उसके मन में विषयों का जो चिंतन होता है, वह निष्काम होता है, विषयों का निष्काम चिंतन और साथ ही साथ उसकी दृष्टि सदा स्वयं पर रहती है।

तो उसके मन में सदा यह दो चीजें एक साथ चलती है जो सच्चा व्यक्ति होता है, उसके मन में यदि विषय खड़ा भी होगा तो विषय के साथ-साथ वह देख रहा होगा? विषयी को भी, वह दोनों को एक साथ देखता है। ठीक है? और विषय से कुछ पाना नहीं चाहता है। विषय को लेकर के उसकी काम वृत्ति नहीं होती है, जिसका परिणाम यह होता है कि वह बहुत सहज कर्म कर पाता है, जीवन में। वो खुलकर कर के जी पाता है। एक उन्मुक्ततता होती है उसके जीवन में, और जो मिथ्याचारी होता है उसके कर्म किस प्रकार के होते हैं? उसके कर्म में क्या था? असहज दमित कर्म। एक असहज सतही अनुशासन देखने मिलेगा। यह जो मिथ्याचारी होता है उसके जीवन में क्या मिलेगा एक असहज सतही अनुशासन, यह सब आप लिख चुके हैं, ठीक ह, हम दोहरा रहे हैं बस, यह कोई नई बात नहीं बोल रहा हूं। नया बोलूंगा तो यही मुझे फिर 2 घंटे बताना पड़ेगा। यह सब को स्मरण आ रहा है ना?

मिथ्याचारी की पहचान क्या है? ऊपर ऊपर वह विषय के साथ संबंध इंगेजमेंट नहीं बनाएगा, लेकिन मन में उसी विषय का? तो इसीलिए वह जो ऊपर से आचरण या कर्म करेगा, उसमें क्या होगी? असहजता होगी, जैसे कुछ फूट निकलने को तैयार है, और उसको बलपूर्वक रोका गया है। समझ में आ रही है बात? और जो सदाचारी होता है सदाचार शब्द का प्रयोग नहीं करा था, कृष्ण ने वह मैंने मिथ्याचार के विपरीत के रूप में खड़ा कर दिया था ताकि जो बात है वह और स्पष्ट हो पाए, तो जो सदाचारी होता है उसके कर्मों में आप क्या पातें हैं? एक गहरा आत्मविश्वास होता है, उसको पता होता है कि मैं आत्मस्थ हूं, मैं तो आत्मस्थ हूं, तो मैं बाहरी संयम क्या करूं? जो संयम करना था मैंने कर डाला।

मूल संयम इंद्रियों का नहीं होता, मन का भी नहीं होता, अहम का होता है। जो एकदम आधारभूत संयम है, वह कर्मेंद्रियों का नहीं होता ज्ञानेंद्रियों का नहीं होता, वह किसका होता है मन का भी नहीं होता, विचार का भी नहीं होता है यह तो नहीं होता है कि मैं क्या उठा कर के पी लूंगा, यह भी नहीं होता कि मैं किसको देखूंगा, किसको नहीं देखूंगा, यह भी नहीं होता मैं किसका विचार करूंगा, मैं विचार नहीं करूंगा, वास्तविक संयम किसका होता है? यह वेदांत है। पकड़ लीजिए अच्छे से।

वेदांत में यह सब भी बहुत बाद में आते हैं, दुनिया जहान जमाना यह तो है ही पीछे की बातें, वेदांत इतना निष्ठावान है सत्य को, कि उसमें कर्मेंद्रियां ज्ञानेंद्रियां, मन, विचार, भावना यह सब भी पीछे ही आते हैं। वेदांत इतना सरल है, इतना प्रकट है, इतना अनावृत है इतना नग्न है, प्रत्यक्ष बिल्कुल कि इतिहास उसको पूरी तरह स्वीकार्य हीं कर पाया वेदांत को स्वीकार किया भी गया, तो पीठ पीछे परोक्ष रूप से, स्वीकार कर भी लो, तो भी यह न बोलो कि हम वेदांत के शिष्य है कुछ और कह दो यह मानते हैं, वह मानते हैं, जबकि मूल बात यह है कि ज्ञान यदि होगा जहां भी होगा, जिस रूप में भी होगा, जिस धारा में भी होगा, मूलतः वह वेदांत ही होगा।

हम कह रहे हैं वेदांत एकदम सरल है, वेदांत सब कुछ हटा करके यह तीन आपके सामने रख देता है, आप, मुक्ति और बंधन इन तीन के अलावा कुछ होता ही नहीं है वेदांत में। आप हैं, आप माने आपकी तड़प का पूरा पिंड, अहम आप है एक तरफ आपके, और एक तरफ आपके? जो चाहो चुन लो, तुम जानो तुम्हारा काम जाने, यह वेदांत है। अब क्या तुमको बताएं विधियां और क्या तुमको बांचे बड़ा भारी ज्ञान? पूरा ज्ञान इन तीन में समा जाता है, इन तीन में भी जो दो है वह एक ही है उनमें खानदानी रिश्ता है, कौन से दो? अहम और प्रकृति, माने अहम और बंधन। हम पैदाइश किसकी है? बंधनों की। हमें जन्म बंधनो ने ही दिया है, वह दो भी है वह लगभग एक ही है।

वह दूसरा दिखता तब है जब प्रकृति अपने से अलग दिखती तब है जब सबसे पहले आत्मा से प्रेम हो जाता है, नहीं तो यह दोनों एक है। प्रकृति और अहम एक हैं, इनमें मां बेटे का रिश्ता है। यह एकदम अलग नहीं दिखते आम आदमी को, एकदम अलग नहीं दिखते कौन कहता है कि चेतना अलग है, शरीर अलग है? किसी को ऐसा दिखता है? कोई मिलता है ऐसा? तो आम आदमी को तो दोनों एक ही दिखते हैं। इनमें भी एक भेद है वह दिखना तब शुरू होता है जब वह वह उधर प्रकट होता है, कौन? वही जो सबको परेशान करके रखता है, जीने नहीं देता।

तो कुछ होते हैं अभागे जिनकी जिंदगी में वह आ जाता है, जब आ जाता है तो लगने लगता है यह मैं जिसके साथ हूं, ऐसे ऐसे एकदम चिपका हुआ साहब का है की कुछ ऐसा सा है "जिन पावों भुईं धरे, घूमे देश विदेश, जब प्रीत भई पिया से अंगना भया विदेश।। खोजो क्योंकि यह कुछ और है शब्द पर लगभग ऐसे हैं, खोजो, इसक मतलब समझ रहे हैं। इनको अपना मानते थे बिल्कुल, यह कौन है? यह कौन है? और प्रकृति माने? यह माने अहम और यह माने? प्रकृति और यह दोनों साथ साथ ही रहते हैं तो मां बेटे अपना, साथ साथ ही रहते हैं। यह दोनों हमेशा से साथ साथ रहे हैं हैं न? और इन्हीं के साथ रहे, इन्हीं में जन्म लिया, देश-विदेश इन्हीं से घूमे और फिर गुरुदेव समझाते हैं, लेकिन जब जीवन में वह आ गया, अंधेरे में थोड़ी सी रोशनी खिली तो अंगना भया विदेश। जो अपना आंगन रहा है आज तक, वही समझ में आने लगा कि वह तो विदेश है। वेदांत आपको बताता है प्रकृति पराई है। अंगना भया विदेश। प्रकृति पराई है समझ गए?

अंगना माने? जो आपको आज तक आपको अपना लगता था, जो आज तक अपना क्षेत्र था, जो अपना ही क्षेत्र था, वह विदेश लगने लग गया, मिला? लिखो कबीर साहब अंगना भया विदेश। उसका मर्म याद रह जाता है, अंगना भया विदेश इतना करो आ जाएगा। समझ में आ रही है बात? तो वेदांत में बस यही 3 है, मैं हूं, बंधन है बंधन माने? प्रकृति और दूसरी तरफ क्या है? मुक्ति है, मुक्ति माने? सत्य आत्मा बोध, जो बोलना है बोलो और व्यर्थ की जटिलताएं नहीं, इधर-उधर का प्रपंच नहीं, 50 बातें नहीं, कोई लेना देना नहीं, ठीक है समझ में बात आ रही है? यह स्पष्ट हो रहा है?

तो कर्मेंद्रियों का संयम पीछे की बात, ज्ञानेंद्रियों का संयम पीछे की बात, मन भावना विचार आदि का अनुशासन यह वह यह सब भी पीछे की बात ना उनसे इंकार नहीं करा जा रहा, आपको करना है तो कर लीजिए, पर वेदांत कहता है असली बात तो अहम है, असली संयम अहम का है, वह संयम कर लिया तो फिर जीवन में पूरी छूट मिल जाती है सहज आचरण करने की।

वास्तव में मिथ्याचारी का विपरीत सदाचारी होना भी नहीं चाहिए, सहजाचारी होना चाहिए। बहुत पते की बात है, मतलब समझिएगा क्योंकि सदाचारी से बहुत हम ऐसे समझ लेते हैं कि जिसका आचरण सामाजिक या नैतिक हो, उसको हम कहते हैं सदाचारी। सहजाचारी जिसका आचरण? सहज हो। सहज आचरण।

एक बार एक जेन मास्टर से किसी ने पूछा कि और जेन वेदांत की एक बड़ी परिष्कृत अभिव्यक्ति है, सब कुछ अब हटा दो इधर-उधर का दंद फंद, तो जो वेदांत का बस अमृत बचता है, एक बूंद वह जेन बन गई है्। तो एक जेन मास्टर से किसी ने पूछा कि गर्मी का सामना कैसे करें? और ठंड बहुत होती है तो ठंड का सामना कैसे करें? तो उन्होंने जवाब दिया ठंड में ठंडे हो जाओ गर्मी में गर्म हो जाओ, when it's cold be cold, when it's hot be hot, यह सहजाचारी है। यह सहज आचरण है, वह कह रहा है हमारे भीतर कोई बैठा है ऐसा, जो शीतलता से और ताप से बहुत आगे का है। तो हमें अब भीतरी तौर पर आत्मस्थ होने के कारण बाहर प्रकृतिस्थ होने में कोई बाधा रही नहीं है।

जब बाहर ठंड हो तो हम क्या हो जाते हैं? ठंडे, जब बाहर गर्मी हो तो हम क्या हो जाते हैं? यह बात उनको एकदम नहीं समझ में आएगी जो आध्यात्मिकता का संबंध विशिष्ट प्रकार के आचरणो से जोड़कर रखते हैं, वो कहेंगे कि अध्यात्म का तो मतलब ही यही होता है ना? बाहर कुछ भी हो, हमें तो एक अलग तरह का अनुशासन बनाकर रखना है, वह बात अच्छी है, पर वह बात छोटी है।

कृष्ण बहुत आगे के है, उस बात से बहुत आगे के हैं, याद है क्या कह रहे थे उस दिन? उस दिन कृष्ण कह रहे थे इतनी नदियां दुनिया भर की आकर के मिल जाती है सागर में, सागर का क्या बिगड़ता है? सागर न तो आतुर है उन नदियों का स्वागत करने को, ना आज तक सागर ने किसी नदी का मुंह रोका है, और नदियों में तरह तरह के जल होते हैं, जल माने कोई एक वस्तु नहीं होती, कितनी तरह की नदियां कैसे-कैसे जल, और यह नहीं कि वे प्राकृतिक तौर से ही अलग-अलग तरह के है, इंसान भी तो क्या-क्या करके रखता है।

सागर किसी को नहीं मना करता, और सागर सागर ही रहता है, तो कृष्ण कह रहे थे कि जो वास्तव में आत्मस्थ आदमी है उस सागर जैसा हो जाता है, जिसमें प्रकृति की तमाम नदियां करके बहते रहती है ना तो उनका आमंत्रण करने को आतुर है न विरोध करने की उसे चिंता है, वह अपनी जगह स्थिर है। सागर आत्मा है नदियां प्रकृति है, आत्मा को प्रकृति की परवाह नहीं करनी पड़ती। अहम जब आत्मस्थ हो जाता है तो सहजाचारी हो जाता है। अहम जब आत्मस्थ हो जाता है, तो सहजाचारी हो जाता है उसे परवाह नहीं करनी पड़ती।

कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा, कोई दिन फाकम फाका जी, सदा मगन मन रहना जी। कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा, कभी लड्डू मिल गया कभी खाजा मिल गया आहा क्या मजा आया, मना थोड़ी करने जाएंगे, हम तो संयमित लोग हैं हम लड्डू नहीं खाते, मिल गया तो? बेशक खाएंगे क्यों नहीं खाएंगे मिला है, मिला था खा लिए कोई पूछे क्यों खाया? क्या बोलोगे? मिला था तो खा लिया।

जैसे हवा बहती है, जैसे घास बढ़ती है, किसी ने पूछा था किसी से एक बार कि तुमने ऐसा क्यों किया, तो वह बोला exactly the way wind blows and the grass grows तुमने ऐसा क्यों किया? Just The way the wind blows and the grass grows, यह सहज आचरण है। और कोई दिन फाकम फाका जी, नहीं मिला तो? क्या है आज उपवास है? व्रत कर रहे हो? जरूर धार्मिक फास्टिंग चल रही है, नहीं भाई, आज मिला नहीं।

जब मिला था हमें तब भी अंतर नहीं पड़ा था कि मिल गया कि लड्डू है कि खाजा है, आज नहीं मिला हमें आज भी अंतर नहीं पड़ा, हम सागर हैं। और नदियां बहुत सारी मौसमी होती है, बहुत सारी नदियां होती है जिनमें बस बरसात से ही जल आता है, तो बरसात के दिनों में वह सागर में बहुत कुछ उलेझती है, और गर्मी में? कुछ नहीं देती वह सागर को, तो सागर यह थोड़ी कहता है भूखा हूं, भूखा हूं, जल्दी पानी लाओ कहता है कभी? क्या कुछ नहीं। और जब मानसून में वह एकदम बाढ़ पर आ जाती है और ले जाकर के कितना जल सागर में डालती है, तो सागर ऐसा कहता है कि अरे बस करो कितना पिलाओगी, कभी सुना है सागर को ऐसे कहते नहीं, नहीं दिया तो नहीं दिया। कोई दिन फाकम फाका जी। और खूब दिया तो पी लिया, कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा। सदा मगन में रहना जी। मन मगन रहे,मन माने? अलग, मगन माने? आत्म मग्न।

मग्नता का मतलब आत्म मग्नता, वह अपने में, आत्मता में खोया हुआ है, आत्म रस पी रहा है, उसकी खुराक आत्मा का रस है, बाकी सब चीजें आ गई तो ले ली नहीं आई तो नहीं ली, परवाह किसको करनी है? आती हुई चीज को ठुकराना भी उस चीज को महत्वपूर्ण बना देता है ना, कि नहीं? आप किसी चीज के अस्वीकार में खड़े हो जाए इससे भी यही सिद्ध होता है कि उस चीज का आपके लिए कुछ तो महत्व है, अस्वीकार भी नहीं। लेकिन यह बात बहुत ऊंची है, वेदांत जितनी ऊंची है कृष्ण जितनी ऊंची है, यह बात इसीलिए नहीं है कि जो लोग अभी निचले या मंझले तलों पर है वह भी ऐसा ही आचरण करने लगे, वह फिर सहजाचारी नहीं होते दुराचारी बन जाते हैं, जो सहज है उसको यह अधिकार है कि अब वह अनुशासन की जगह उन्मुक्तता का वरण कर ले, उसका हो ही जाता है।

लेकिन जिसने अभी आत्मा को ही नहीं चुना, वह उन्मुक्तता को कैसे चुन रहा है भाई यह बताना? मुक्ति उसके लिए है जिसने सबसे पहले किसको चुना हो? आत्मा को चुना हो हां या मुक्ति को चुना हो। जिसने अभी मुक्ति को चुना नहीं भीतरी तौर पर, वो बाहर अगर कहता है कि मैं आजादी को, स्वतंत्रता को, उन्मुक्तता को चुन रहा हूं, तो वह उन्मुक्क्ता नहीं है, वह उच्चछंकलता है। इन दोनों में बहुत अंतर है, इन दोनों तरह के लोगों से बचना। एक जो ऊपरी संयम पर चल रहे हैं और भीतर ही भीतर भोग में रथ है, और दूसरा उनसे जिन्होंने अध्यात्म की दो किताबें पढ़कर अपने आप को यह अनुमति दे दी है कि अब हम तो उन्मुक्ताचारी हो जाएंगे। वह उन्मुक्ताचारीनहीं होते हम कह रहे हैं वह व्यभिचारी हो जाते हैं, ऐसे मिलते हैं ना लोग? मांस खा रहे होंगे, पूछो क्यों खा रहे हो? बोले मिथ्या है। वेदांत की यही तो सीख है। जगत क्या है? माया है। तो मुर्गा भी क्या है? माया है।

माया माने वह जो है नहीं, बस प्रतीत होती है। तो मुर्गा था ही नहीं, हमने खाया कहां? ठीक है? जैसे मुर्गे का मांस मिथ्या है, तो तुम्हारा अपना भी तो मांस मिथ्या ही है, अपनी बांह ही क्यों नहीं खा जाते? नहीं हमारी बाह मिथ्या नहीं है, मुर्गा मिथ्या है बस। इसको मैं कह रहा हूं इससे बचना। यह मुक्ताचार नहीं है, यह सहजाचार नहीं है, यह क्या है? यह दुराचार है, यह व्यभिचार है। यह नहीं करना है। समझ में आ रही बात? तो एक वह होगा जो दुनिया को दिखाने के लिए कहता है कि देखो मैं मुर्गा नहीं खाता। लेकिन 10 और तरीकों से वह उस मुर्गे की कमी को पूरा करना चाहता है।मन में तो विषय चिंतन ही चल रहा है ना। यह कौन है? मिथ्याचारी। तो कहता है ऊपरी संयम तो करना ही है मुर्गा तो खा नहीं सकते, तो एक काम करते हैं दो चार और तरीके का भोग कर लेते हैं। एक तरह का स्वयं को मुआवजा दे देते हैं। मुर्गा नहीं खा सकते, तो दूसरी चीजें खूब सारी खाते हैं।

अब तो चिकन जैसे स्वाद देने वाले विकल्प आने लगे हैं, ना, यह वही है, या कि चलो अगर हम जिव्हा का रस नहीं ले सकते तो अन्य तरीके के रस लेते हैं, मैं कुछ तो अपने आप को मुआवजा दूं ना कि मैंने संयम रखा, बदले में मिला क्या? अच्छा यह नहीं कर सकता तो कहीं और जाकर कुछ और भोग कर लेता हूं, किसी दूसरे तरीके का भोग कर लेता हूं‌ शाकाहारी भोजन में हीं और ज्यादा रसीला और ज्यादा मसाला डालकर के जायकेदार बनवाता हूं। कुछ और कर लूंगा एक तो यह है मिथ्याचारी। दूसरा वह हुआ जिसकी अभी बात करी थी जगत माया है, यह वेदांत कि सीख है, जगतगुरु शंकराचार्य भी कुछ ऐसे ही फरमा गए थे, मुर्गा मार भी दिया तो क्या हुआ? दूसरी बात समय भी तो धोखा है, तो 1 दिन तो इस मुर्गे को मरना ही था और समय धोखा है, माने? काल मरे तो आज मर यह सब सुना हुआ मैंने, यह सब तर्क आए हुए हैं इन पर घंटे घंटे बोला हुआ है, वह सब अब जवाब छप भी गए, नहीं तो आप लोग वीडियो में ढूंढ लीजिएगा काल मरे तो आज मर। मैं इस मुर्गे को नही भी खाऊं तो इस मुर्गे को कल तो? मर ही जाना है।

मैंने कहा यह बात आपके बच्चे पर भी तो लागू होती है, वह आप अपना बच्चा बगल में ले कर के बैठे हो उसको भी हड्डी चुसा रहे हो, तो मरण धर्मा तो वह भी है, उसको क्यों नहीं आज ही मार देते? तो इन दोनों तरह के लोगों से बचना है, स्पष्ट समझ में आ रही है बात? सहज आचरण अभ्यास करके नहीं आता, सहजआचरण एक सहज, आकस्मिक अनायास फल होता है, आत्मा पर न्यौछावर हो जाने का, जो आत्मा पर न्यौछावर हो जाते हैं ना, वह भूल जाते हैं जगत के कायदे मान मर्यादा, भूल जाते हैं।

अभ्यास का अर्थ होता है लगातार याद करके रखना और सहजता का अर्थ होता है भूल जाना, दोनों बहुत अलग बातें हैं। जो बात आप अभ्यास से अपने जीवन में लाएंगे वह इसीलिए आएगी जीवन में क्योंकि आपने उसको लगातार याद रखा, लेकिन असली चीज वह होती है जो जीवन में आती है क्योंकि आप कुछ भूल गए। अध्यात्म याद रखने के बारे में नहीं है, अध्यात्मा भूलने के बारे में है।

उस तरह के अध्यात्म से बचाएगा जिसमें याद रखा जाता है, याद रखने का मतलब हुआ विषय संगति, याद रखने का मतलब हुआ संसार को अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण बना लेना, वह सांसारिक बात ही तो होगी जिसको याद रखोगे? जो बात याद रखी जाए वह संसारिक के अलावा हो भी क्या सकती है? आप बोल भी दो नहीं हम धार्मिक बातें याद रखते हैं अगर वह बात स्मरण को उपलब्ध है, तो हुई तो भौतिक ही ना? स्मृति आत्मा को तो याद नहीं रख सकती, स्मृति अगर किसी विषय को याद रख रही है तो विषय तो भौतिक ही है, स्मृति का तो निर्माण ही हुआ है भूतों के संरक्षण के लिए, भौतिक घटना ही याद रहती है। तो असली चीज होती है भूल जाना।

सहज आचरण में आप भूलते हो, आप याद नहीं रखते, ठीक है? वह होता है सदाचारी। तो अर्जुन विकल्प कहां उपलब्ध है आपको? विकल्प जहां उपलब्ध है, उस पर आज कृष्ण हमको लेकर जा रहे हैं। कर्म न करने का विकल्प तो उपलब्ध है ही नहीं, कर्म आप नहीं भी कर रहे, तो बिना आपके चाहे बिना आपके समझे, बिना आपके रजामंदी के हो तो फिर भी रहा है। तो आपको विकल्प क्या है?

वह भी हमको कृष्ण बता रहे हैं आज के 9 वें श्लोक में।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ||

एक बहुत विशेष शब्द हमारे सामने आता है बहुत-बहुत विशेष और बहुत दूर तक यह शब्द हमारे साथ चलेगा, आप लोग जो आज सत्र में साथ है कृष्ण की अनुकंपा है आज, विशेष शब्द है यज्ञ। ठीक है? और अब यह आगे चलेगा हमारे साथ, बहुत आगे तक चलेगा। कृष्ण कह रहे हैं तुम्हारे पास जो विकल्प है अर्जुन कि कैसा कर्म करूं और कैसा ना करूं, वह इसमें है, वह इसमें नहीं है कि कर्म करूं या ना करूं? तो दो तरह के कर्म है, जो तुम कर सकते हो और यहां पर तुम्हें अधिकार है चुनने का कि इस तरह का कर्म करना है या उस तरह का कर्म करना है।

देखिए अर्जुन को वह अभी यह नहीं बता पा रहे हैं कि अहम की दो ही स्थितियां होती है, जिनको तुम चुन सकते हो अर्जुन, कुल मिलाकर बात बहुत छोटी सी है, अर्जुन चुनाव तो बस इन्हीं दो ही चीजों में होता है, आत्मस्थ होना है, या प्राकृतिस्थ होना है। लेकिन वह चुनाव कर्ता करता है,अहम माने? कर्ता। अर्जुन को अभी उतनी सीधी बात कृष्ण नहीं बोल पा रहे हैं, या यह कहिए बोल चुके हैं, वह वह बात दूसरे अध्याय में सांख्य योग में बोल चुके हैं। अर्जुन में अभी वह पात्रता नहीं दर्शाई है कि सीधे-सीधे वह उस बात को ग्रहण कर पाए।

तो अभी कर्ता से उठकर, कर्म के तल पर बता रहे हैं जैसे कर्ता की दो स्थितियां होती है कि आत्मस्थ हो जाए या प्राकृतिस्थ हो जाए, मुक्ति को चुन ले या बंधन को चुन ले। उसी तरह कर्म भी दो ही प्रकार के होते हैं, और यहां पर अर्जुन तुम चुन सकते हो, अर्जुन आप सब हैं। आप सब भी जीवन में जो भी कर्मविषयक चुनाव करने जा रहे हो, आपके लिए आज का श्लोक है ठीक है, क्या है? कि यज्ञ को छोड़कर तुम जितने भी कर्म करते हो, वह लोक में बंधन का ही कारण बनते हैं। दो ही तरह के कर्म होते हैं, या तो यज्ञ या कह दो सकाम कर्म।

यज्ञ को छोड़कर जो भी काम करोगे, वह जगत में तुम्हें दुःख ही देगा, तो क्या करो अर्जुन? सिर्फ तुम तदर्थम कर्म यज्ञ हेतू ही कर्म करो, जो कर्म करो वह यज्ञ समान ही हो, और जब यज्ञ होता है जीवन में तो उसके साथ यह दो चीजें आती है पहला आप मुक्त संग हो जाते हैं, दूसरा समाचारी हो जाते हैं। यह लो यह एक और नया शब्द आ गया समाचरण से संबंधित, सम आचरण, हम कहते हैं सहज आचरण उसी सहज आचरण का एक पर्याय मिल गया क्या? समआचरण तो यह जो चार शब्द है इनको आप लिखिएगा, सबसे मूल में लिखिए यज्ञ, और यज्ञ के नीचे सबसे पहले लिखिए मुक्त संग, मुक्त संग के नीचे लिखे कर्म बंध और फिर सबसे नीचे लिखिए समाचरण। ठीक है।

यज्ञ क्या है? यज्ञ का जो भौतिक प्रतीक है, उसी से समझने का प्रयास करते हैं कि यज्ञ क्या है? यज्ञ का भौतिक प्रतिक क्या होता है? आप जिसको देखते हो ना और कहते हो होम, हवन आदि, वह वास्तव में यज्ञ का प्रतीक है यज्ञ का चिन्ह है, वह अपने आप में यज्ञ नहीं होता है, जो अग्निहोत्र होता है, जो अग्निहोत्र माने जहां पर? अग्नि प्रज्वलित करी जाती है, फिर आप उसमें आहुति देते हो, वह यज्ञ का क्या है?वह प्रतीक है, वह अपने आपमें यज्ञ नहीं होता, यह बात समझिएगा। वह प्रतीकात्मक है, वह अपने आपमें यज्ञ नहीं है।

कोई उम्मीदवार खड़ा होता है आपके क्षेत्र से कि चुनाव लड़ना है उसका एक चुनाव चिन्ह होता है,है ना? तो आप जाते हो, आप उस पर ठप्पा मारकर आते हो, या बटन दबाकर आते हो, तो वह थोड़े ही जाकर सांसद बन जाता है, मान लीजिए वह हाथ का है, पंजा है, कमल है, जो भी है साइकिल है वह जाकर के थोड़ी बैठ जाता है, कि आज से मैं तुम्हारा निर्वाचित संसद हूं, ऐसा होता है? ऐसा होता है क्या? कुर्सी पर कमल बैठता है, ऐसा तो नहीं होता है, वह क्या है,वह चिन्ह है, वह प्रतीक मात्र है। प्रतीक मात्र है।

इसी तरह से जो अग्निहोत्र है, वह यज्ञ का प्रतीक मात्र है।वह आपको कुछ बताने के लिए है कि यह अग्नि है, और अग्नि को माना गया है देवताओं और मनुष्यों के बीच में, यह ऋग्वेद से आता है, अग्नि देवता और मनुष्य के बीच में मध्यस्थ देव है। अग्नि कौन है? देवताओं और मनुष्य के बीच में मध्यस्थ देव। तो इसीलिए सबसे पहले जो पूजा है वह अग्नि की है, क्योंकि अग्नि ही अगर पूजित नहीं है, सहमत नहीं है तो आप जो कुछ भी करेंगे वह ऊपरी देवताओं तक पहुंचेगा ही नहीं, यहां किन देवताओं की बात हो रही है अभी हम समझेंगे।

तो यज्ञ से आशय होता है, नीची चीज को ऊंचे के लिए न्योछावर कर देना, यह यज्ञ की परिभाषा है यज्ञ की परिभाषा है, नीची चीज को ऊंची चीज पर न्योछावर कर देना, यह यज्ञ है। छोटे को छोड़ना बड़े की खातिर, यह यज्ञ है। और जो छोटे को छोड़ दे बड़े के खातिर, उसको आप बिल्कुल कह सकते हो कि यह यज्ञकर्ता है या यह अग्निहोत्री है।

यज्ञ तो पूरे जीवन को बनाना होता है, ऐसा बहुत बार हमको वेद भी बताते हैं गीता भी बताती है, तो निश्चित रूप से जो हम लकड़ी और संविधा आदि का अनुष्ठान करते हैं, उससे आगे बढ़ना पड़ेगा ना? क्योंकि वह काम तो आप जीवन भर तो कर नहीं सकते, प्रतिदिन भी नहीं कर सकते, 24 घंटे भी नहीं कर सकते, तो यज्ञ का वास्तविक अर्थ क्या है? यज्ञ का वास्तविक अर्थ है, उच्चतम को पाने के लिए जो उच्चतम से नीचे हैं उसका बलिदान, बड़े के लिए छोटे की आहुति। तो वह सहज बात है यज्ञ। वह तो करोगे ही ना, कि नहीं करोगे? बड़े के लिए छोटे को कौन नहीं भेंट कर देना चाहेगा, यह तो साधारण बुद्धि की भी बात है।

तो कर्म यज्ञ नुमा होना चाहिए, इससे फिर क्या आशय बैठा? कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि कर्म वही करो, जो यज्ञ जैसे हो, उसके अलावा जो भी काम करोगे वह कर्म बंध बनेंगे श्लोक में, तो तुम्हारे कर्म यज्ञ जैसे होने चाहिए इससे क्या आशय बैठा? कर्म माने क्या होता है? परिवर्तन। आज शुरुआत में क्या बोला था? कर्म माने क्या होता है? परिवर्तन। ठीक है, अच्छे से समझना, और चाहे तो इसको लिखते चले, कॉपी में बनाते चलिए। कौन बदलता है? साथ-साथ चलिए दिमाग पर जोर डालकर कौन बदलता है कर्ता यह जो कर्ता है वह क्या हम बदलते हैं ठीक है, हम बदलते हैं, ठीक है,हम बदलते हैं।

हमारी वर्तमान स्थिति क्या होती है? हम हैं, हम हैं हम हैं, जब भी और साथ में प्रकृति होती है, प्रकृति माने? कोई विषय है प्रकृति का ठीक है? हमने प्रकृति का कोई विषय पकड़ रखा है, प्रकृति में तमाम तरह के विषय होते हैं, हमारे देखे, हमारे लिए अपने आप उन विषयों में कोई लेवल नहीं लगा हुआ है कि कौन छोटा है, कि कौन बड़ा है? और हम जैसे होते हैं हमारे लिए उन विषयों में भिन्नता होती है ठीक है ना?

तो मैं कुछ हूं, मैं एक स्थिति पर हूं, मैं एक तल पर हूं। मैंने एक विषय पकड़ रखा है, और वह विषय पकड़ करके मैं चेतना के इस स्तर पर हूं, चेतना के इस स्तर पर होने का कारण ही यही है कि मैंने कोई एक विषय पकड़ रखा है, हम सब हैं, और जब हम कहते हैं कि हम हैं तो हम चेतना के एक स्तर पर है है ना? हम जिस भी स्तर पर होते हैं मुक्त तो नहीं होते हैं ना बाबा, कि मुक्त होते हैं? मुक्त नहीं है तो मतलब क्या हुआ हमने कुछ ना कुछ पकड़ रखा है, उसी को कहते हैं कि हम बंधन में हैं, हमने कुछ ना कुछ पकड़ रखा है, जिस चीज को हमने पकड़ रखा है, उसको पकड़ने के कारण हम चेतना की एक तल पर है, यह हमारा तल है। एक तल बना लीजिए। ठीक है,

हम चेतना के एक तल पर है। अब हम यहां कर्म करेंगे और कर्म माने परिवर्तन आप चेतना के जिस भी तल पर हैं, आप उस तल से आप कुछ कर्म करोगे, कर्म तो करोगे ना कर्म तो हमने क्या कहा? अनिवार्य है लगातार है, तो होता रहेगा, तो आपने कुछ पकड़ रखा है, माने आपके जीवन में कुछ चीजें हैं, मन में कुछ सामग्री है, तमाम तरह के संबंध है। यही रिश्ते नाते हैं, यह चीजें आपने पकड़ रखी है उसके कारण आप चेतना के स्तर पर जी रहे हो आप कर्म करोगे, कर्म से क्या आना है? परिवर्तन आना है।

तो यज्ञ का मतलब हुआ ऐसा कर्म करना कि आप हो। यह आपके द्वारा पकड़ा हुआ विषय है यज्ञ का मतलब है ऐसा कर्म करना जिसमें आप इस विषय को छोड़ कर के किसी उच्चतर विषय को प्राप्त कर सको। समझ में आ रही है बात? यज्ञ का मतलब हुआ ऐसा कर्म करना, जिसमें इस विषय का बलिदान देकर के आप किसी उच्चतर विषय को पा सको, और एक हाथ लड्डू दूजे हाथ जलेबी संभव नहीं हो पाएगा, यह नहीं हो पाएगा कि देखिए दो बगले होती है ना, तो एक तरफ वह जो पुराना विषय था वह पकड़े रहेंगे, और दूसरी तरफ नया वाला, ऊंचा वाला विषय भी पकड़ लेंगे, नहीं। एक टांग एक नाव मे, और दूजी टांग दूजी नाव में तो इतना ही होगा की पतलून फटेगी चर। काहे की इन दोनों नावों की दिशा है बहुत अलग है, बहुत अलग है। 1 को जाना है उस पार और एक नाव ऐसी है जिसको इधर ही लंगर डाले रहना है इसी पार तो तुम कैसे दो नों नावों की इकट्ठे सवारी कर लोगे? संभव नहीं है ना।

तो यह तो भूल जाओ कि यह तो मैंने पकड़ ही रखा है, अब गीता आ गई है इसके साथ में अब गीता को भी पकड़ लूंगा, नहीं, यह तो मामला थोड़ी exclusivity का होता है, यहां शर्तें लगती है, अहर्ता लगती है, बोली लगती है, दाम कौन चुकाएएगा, बताओ बताओ बताओ, ऐसे बोली लगती है, समझ में आ रही बात? तो ऐसा नहीं होता वहां कि सांप भी मर जाए, लाठी भी ना टूटे, दाम भी ना चुकाए और वस्तु भी मिल गई, ऐसा नहीं होता।

यहां से ऊपर जाना है तो यह आप बना रहे हैं, यहां से ऊपर जाना है तो इसको, यज्ञ का मतलब हुआ ऐसा चुनाव करना और अर्जुन चुनाव का ही विकल्प तुम्हारे पास है, है ना? चुनाव का विकल्प है, ऐसा चुनाव करो जिसमें इसका उपयोग करके, इसको त्याग करके, इसको क्या बोल कर के? स्वाहा, क्या बोलना? इसको स्वाहा बोल करके एक ऊंचे तल पर पहुंच जाओ, यह यज्ञ है। यह यज्ञ है।

जो चीज मेरे पास थी, यह मेरे पास थी इसको मैंने क्या बोला तू जा, स्वाहा कर दिया, इसको स्वाहा करके मैं एक ऊंचे तल पर पहुंच गया और वहां ऐसा नहीं है कि मुझे पूर्ण मुक्ति मिल गई है, वहां पर कुछ ऊंचा विषय मिला है बस, यज्ञ का अंतिम लक्ष्य होता है पूर्ण मुक्ति, यज्ञ का अंतिम लक्ष्य भी यह नहीं है कि आपने जो देवी देवता बना रखें, वह प्रसन्न हो जाए, वह भी बस एक माध्यमिक क्रिया, तात्कालिक लक्ष्य हो सकता है, कि साहब हम। वेद भी यही कहते हैं कि यज्ञ का अंतिम लक्ष्य तो मुक्ति ही है, समझ में आ रही बात ? या तो कर्म ऐसा करना है कि परिवर्तन आपको आत्मा के निकट पहुंचा दे, कर्म जब भी करोगे यह निश्चित रूप से होगा चाहे होश में करो कर्म चाहे बेहोशी में करो निष्काम करो सकाम करो यह तो हमेशा होगा कर्म के कारण कि एक विषय छूटेगा, और दूसरा विषय निकट आएगा।

आप अभी इस कक्ष में हो आप यहां से उठकर बाहर चले गये, यह आपने क्या किया? बताओ क्या हुआ इस कर्म से? सबसे पहले बताओ यह क्या हुआ इस स्तर पर बताओ डिफाइन करो, बताओ क्या हुआ? आप इस तल पर थे तो कौन सा विषय आपके पास था? जब आप यहां थे तो? यहां पर कुछ विषय थे आपके पास थे और कर्म करते ही आपके पास दूसरा विषय आ गया आ गया ना? चलिए आप पूरा जोर लगा लीजिए, मुझे एक उदाहरण बता दीजिए जहां आप कर्म कर भी ले और विषय परिवर्तन ना हो? क्या ऐसा हो सकता है? लगाइए पूरा जोर लगाइए, वहां कर्म कहां है? कर्ता ही वहां सुसुप्त पड़ा हुआ है कर्म कौन करेगा?

आप मुझे एक उदाहरण बता दीजिए जहां आप कुछ कर डाले कर्म, और विषय परिवर्तन ना हो, आप मुझे बताइए विषय को बचाए बचाए आप कौन सा कर्म कर सकते हो? बताओ, आपने खाना खाया यह क्या है? कर्म, बताइए विषय परिवर्तन क्या हुआ? अरे पहले पेट में खाना नहीं था खाना आ गया, इतना मत सोचा करो, पहले खाना नहीं था अब खाना आ गया, विषय परिवर्तन हो गया ना? कि नहीं हुआ, पहले पेट में खाना नहीं था लेकिन मन में खाने का? अब विषय परिवर्तन हो गया अब विषय क्या परिवर्तन हो गया? विषय परिवर्तन अब यह हो गया कि पेट में खाना आ गया, और अब मन में विचार आ रहा है कि वह जरा सा पचाने की गोली मिलेगी? पहले विषय क्या था, खाना कहां मिलेगा? अब क्या है पचाने की गोली कहां मिलेगी?

कोई कर्म बताइए जिसमें विषय परिवर्तन ना होता हो, बताइए? आपने आंख पलक जब नहीं झपकाईं मान लीजिए जब पलक ना झपकाए तो इन आंखों की क्या दशा हो जाती है? सूख जाती है है ना? आपने जैसे ही झपकाई क्या हुआ? इनको क्या मिल गया? पानी मिल गया ना, विषय मिल गया ना? विषय परिवर्तन हुआ कि नहीं हुआ? पहले पानी नहीं था, अब पानी आ गया? कोई कर्म बताइए जिसमें विषय परिवर्तन नहीं होता हो है? है कोई ऐसा कर्म? नहीं है ना? तो यज्ञ का मतलब हुआ कि विषय परिवर्तन आपको आत्मस्थ करने की दिशा में हो, विषय परिवर्तन आत्मा की अनुकूलता में हो, इसको ही यज्ञ कहते हैं, यह यज्ञ की और एक परिभाषा हो गई।

विषय तो बदल रहा है ऐसे बदले कि वह मुझे आत्मा की तरफ ले जाए, वह यज्ञ विषय तो बदल रहा है बदल ही रहा है, कोई नहीं रोक सकता उसको देह है तो विषय परिवर्तन होगा, लगातार होगा विषय ऐसे बदले कि मुझे आत्मा की ओर ले जाए, अब उदाहरण दीजिए यज्ञ के यज्ञ के उदाहरण दीजिए।

श्रोतागण-54:34-54:38 आवाज स्पष्ट सुनाई नहीं दे रही है कृपया इस बात का संज्ञान लेवे।

आचार्य जी-चलो यह तो फिर भी थोड़ा यह बात प्रत्यक्ष लगती है, कि गीता पर ही यहां मीमांसा है, तो आप बाहर से भीतर प्रवेश करते हैं और यज्ञ की ही बात हो रही है, तो आपका बाहर से अंदर आना भी यज्ञ ही हो गया। यह तो चलिए ठीक है, आप एक बहुत अच्छी मूवी देखने जाते हैं, बहुत लोग चौक रहे होंगे अब इस बात से, आप एक ऐसी फिल्म देखने जाते हो, वह भी एक कलाकृति होती है ना? ठीक है ना आप उच्च स्तर की एक कलाकृति देखने जा रहे हैं, उसको हम यज्ञ क्यों ना बोले? क्या विषय परिवर्तन उसमें आत्मा की अनुकूलता में नहीं? बोलिए है ना तो वह भी यज्ञ ही है? वह सब कुछ जो चेतना के स्तर को उठा दे उसको हम कह सकते हैं कि यज्ञ है, वह सब कुछ जो चेतना के स्तर को उठा दे उसे यज्ञ कहते हैं। और यह उठना गिरना क्या होता है? इनकी क्या परिभाषा होती है? कब माने उठे? कब माने गिरे?

चेतना जितना ज्यादा प्राकृतिक विषयों से संलिप्त है, आप उतने नीचे हो, यह ऊंचाई और निचाई का पैमाना है अच्छे से समझ लीजिए, लिख लीजिए चेतना जितना ज्यादा प्रकृति से आशा बांधे बैठी है आप उतने नीचे हो, जो दुनिया को जितना ज्यादा महत्व दे रहा है, और दुनिया को लेकर के ही आशाएं और अरमान संजोए हुए हैं, वह उतना नीचे है, बस यह ऊंचाई की पहचान नीचाई की पहचान है। तो निचाई माने क्या? यह कल्पना रखना की प्रकृति में ही आत्मा मिल जाएगी, यह निचाई है। क्योंकि चाहिए तो सबको? आत्मा ही, चाहिए तो सबको वही एक दैट, तद जिसके लिए आज भी बोल रहे हैं तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर वही तद यह वेदांत की खास बात है।

और महात्मा बुद्ध ने इसको और आगे बढ़ा दिया था वह that भी नहीं बोलते थे वह क्या करते थे? बोलते थे माफ करो, इस विषय में मैं कुछ नहीं बोलूंगा, यह बात मौन की है। समझ में आ रही बात? यह क्या बात लिखी आखरी? प्रकृति में आत्मा के आस रखना ही निचाई का द्योतक है। जो चीज मिल नहीं सकती स्थूलता में, उसको स्थूलता में खोजना, खंगालना, यही नीचाई का द्योतक है। क्योंकि प्रकृति से भी हम लिप्त यूं ही थोड़े ही होते हैं क्या होती है मन में? आशा। क्या आशा होती है? वह यहीं है, यहिंच यहिंच मिलेगा, जहां है नहीं वहां उसको तलाश रहे हैं यही निचाई की पहचान है। ठीक है?

अभी आप अगर अष्टावक्र मुनि को आमंत्रित कर ले तो वह इस बात को और आगे बढ़ा देंगे, वह कहेंगे जानते हो प्रकृति में सत्य को तलाशना कैसा है? प्रकृति में सत्य को तलाशना ऐसा ही है, जैसा आईने में अपने प्रतिबिंब को देखकर अपनी अनुपस्थिति को तलाशना। तुम वह चाहते हो जो तुमसे परे है, और प्रकृति क्या है? तुम्हारा प्रतिबिंब, तुम अपने ही प्रतिबिंब में अपनी अनुपस्थिति खोज रहे हो, कैसे मिलेगी बताओ? जो तुम्हारे ही जैसा है उसमें तुम स्वयं से कुछ अतीत खोज रहे हो, आगे का खोज रहे हो वह कैसे मिलेगा बताओ? कैसे मिलेगा?

जैसे कोई छोटा बच्चा हो, उसको स्कूल से वर्कशीट मिली हो, स्कूल से वर्कशीट मिली हो, और उसके पिता ने बोला जाना बेटा मेरी डॉक्टोरल थिसिस रखी हुई है उठा लाना पुरानी, यह बच्चा क्या करता है? यह जानता ही नहीं डॉक्टोरल थीसिस क्या होती है? इसने आज तक क्या देखी है अपनी? यह दूसरी क्लास में पढ़ता है, इसने दूसरी कक्षा की अपनी पाठ्यपुस्तकाएं देखी हैं,‌ वर्कशीट्स देखी है, होमवर्क की कॉपियां देखी है। तो यह डॉक्टोरल थिसिस जाके कहां तलाश रहा है? अपने बस्ते में। यह है प्रकृति में आत्मा की खोज। वह दूसरी क्लास का बच्चा है तो उसके बस्ते में जितना भी माल होगा, वह कैसा होगा? दूसरी क्लास जैसा होगा। और उसमें खोज क्या रहा है? उसमें खोज क्या रहा है? डॉक्टोरल थिसिस हमने यहां किसका प्रतीक बनाया है? आत्मा का। और दूसरी क्लास के बस्ते में जो कुछ भी होता है उसको हमने किसका प्रतीक बनाया है? जो हमारे देखे दुनिया के विषय हैं।

सबके लिए अलग-अलग विषय होते हैं ना, दूसरी क्लास के बच्चे के कुछ विषय होते हैं, वही बच्चा जब दसवीं में पहुंच जाता है तो उनके विषय बदल जाते हैं। लेकिन जिसके पास जो विषय होते हैं वह उन्हीं में खोज रहा होता है, इसी में मिलेगा, यही मिलेगा, यही निकालूंगा। और 6 घंटे से लगा हुआ है। क्या कर रहा है वह? वह कर रहा है जो उसकी हिंदी की किताब है, वह 80 पन्नों की है, वह उसके एक एक पन्ने के एक एक शब्द में आशा बांध के खोज रहा है क्या पता इस शब्द में डॉक्टोरल थिसिस मिल जाए, क्या पता यहां मिल जाए?

उस दूसरी के बच्चे के पास भी, पर्याप्त सामग्री है कि वह जीवन भर खोजता रह जाए, और निराश मरे। क्योंकि वह खोजेगा उसी क्षेत्र में जिससे वो परिचित है। जिस क्षेत्र से आप परिचित हो वही तो आपके लिए जगत है ना। वही आपके लिए प्रकृति है। प्रकृति अपने आप में कोई absolute चीज थोड़ी होती है बाबा। मैं बंदर से पूछूं प्रकृति माने क्या? तो वह यह थोड़ी बताएगा कि सागर के अंदर कोरल लीफ होती है। बंदर के लिए प्रकृति माने क्या? केला और पेड़, कोरल लीफ थोड़ी उसके लिए प्रकृति है कि है? है? मछली से पूछूं प्रकृति माने क्या? तो वह यह थोड़ी कहेगी बरगद का पेड़। क्या बोलेगी? जल।

तो प्रकृति माने वह चीज जो आपके लिए है। यह भूलिएगा नहीं, जो भी होता है वह किसी के, लिए होता है। तो इसीलिए प्रकृति भी सबके लिए अलग-अलग होती है। सब की दुनिया अलग अलग होती है। सब अपने अपने जगत में रहते हैं। सब इस पर निर्भर करता है आप क्या बने हुए हो? उसी अनुसार आपका जगत हो जाता है। तो दूसरी का बच्चा जो है वह क्या कर रहा है? वह अपने ही बस्ते में डॉक्टोरल थिसिस खोज रहा है।

खोज सकता है खोजने का अधिकार है, पाने का अधिकार नहीं है। पाओगे तो वही जो उसमे है। और उसमें वही है जो तुम हो, तुम अगर दूसरी के हो तो बस्ते में दूसरी की चीजें हैं, अष्टावक्र मुनि की देशना है, कि यह जो प्रकृति है ना बच्चे, यह बिल्कुल तुम्हारी तरह है। बस दिखता नहीं, लेकिन तुम जिन जिन चीजों से संपर्क रखे हो जो भी तुम्हारे मानस क्षेत्र में मौजूद है वह बिल्कुल तुम्हारे ही स्तर का है इसीलिए जब तुम बदलते हो तो तुम्हारे सारे विषय भी बदल जाते हैं क्योंकि तुम बदल गए ना। तो प्रकृति में आत्मा नहीं मिलनेगी, दूसरी के बच्चे के बस्ते में डॉक्टोरल थिसिस नहीं मिलनेगी। जो यह हरकत करें उसको हम बोलते हैं नीची चेतना। जो यह हरकत करें उसको हम क्या बोलते हैं?

नीची चेतना। तो ऊंची चेतना क्या हुई? ऊंची चेतना यह हुई कि वह स्वीकार कर ले कि यह जो दूसरी का बसता है इसके मत्थे पीएचडी नहीं होनेगी। तो क्या करें? फेंक दे उसको? बोले नहीं। इसी का इस्तेमाल करके तीसरी में पहुंच जाऊंगा। दूसरी का जो बच्चा दूसरी का बस्ता फेंक दें उसका क्या होगा अंजाम? क्या अंजाम होगा उसका? वह दूसरी में ही फेल हो जाएगा वहीं पड़ा रह जाएगा। तो दूसरी का जो बस्ता मिला है, जान जाओ की इससे तो आगे निकलना है। इससे तो आगे निकलना है। और यह बड़ी तलवार की धार की बात है आगे नहीं निकल पाओगे अगर बस्ते से प्यार नहीं करोगे। भारत ने इसीलिए प्रकृति को इतना पूजा है। दूसरी के बस्ते में जो माल रखा हुआ है उस माल में अगर डूबे नहीं, तो उस माल के अतीत कभी नहीं जा पाओगे। अतीत माने आगे, beyond.

Phd तो दूर की बात है तीसरी तक ही नहीं पहुंचोगे। पीएचडी क्या है? वहां है वहां, वह परमात्मा, हमें क्या पता? हमें तो यह पता है कि दूसरी के बाद तीसरी आती है। भई आप तीसरी में ही नहीं पहुंचोगे। काहे कि आप अध्यात्मिक ज्यादा हो गए हैं। आपने क्या पकड़ लिया कि ये जो दूसरी का बसता है, उसमें तो डॉक्टोरल थिसिस मिलती नहीं है तो इसको परित्याग करो, परित्याग करो। यह खूब हुआ है कि बता दिया गया है अध्यात्म माने तो त्याग।

अध्यात्म माने तो त्याग, अरे बाबा त्याग बिल्कुल लेकिन त्याग उसी तरीके से जैसे पथित पुल का त्याग करता है। पथित पुल का त्याग कैसे करता है? गाली देके, लालते भेज के, पुल में आग लगाके, कैसे करता है? पुल को पार करके। प्रणाम करके पुल पर प्रवेश करो और जब लांग जाओ तो फिर से एक बार प्रणाम करो। यह प्रकृति के प्रति रवैया रखना है।

तुम ना होती तो तुम से आगे कैसे बढ़ते। मां, और तुमको अगर मैं बाधा की तरह उपयुक्त कर रहा हूं तो गलती देखो तुम्हारी नहीं मेरी है। तुम तो पुल भी हो तुम अगर प्रवाह हो, तुम अगर मझदार हो तो तुम ही तो फिर नाव हो और पतवार हो। मैं डूब मरा गलती मेरी। तुमने तो कहा था चुन लो मझदार चाहिए कि पतवार चाहिए। तुमने तो कह दिया था मां कि चुन लो। मैं पगला तो इसीलिए माया शब्द के महीन अर्थ है। माया माने Satan नहीं होता। यह भी किसी ने एक बार प्रश्न पूछा था याद आया। कि जैसे अन्य धाराओं में Satan की अवधारणा है शैतान, तो क्या माया शैतान है नहीं बिल्कुल भी नहीं, माया शैतान नहीं है।

माया दोनों चीज है, एक मिलावे रामसे दूजी नरक ले जाए। माया 2 प्रकार की जो जाने सो खाए। एक मिलावे रामसे दूजी नरक ले जाए। माया ही है एक अकेली जो राम से मिला सकती है। वहीं चुनाव करने के लिए कृष्ण यहां पर अर्जुन को कह रहे हैं कि बेटा इस मायावी जगत में निरंतर परिवर्तन तो हो ही रहे हैं तुम वह परिवर्तन चुनो जो तुम्हें राम से मिलाएगा। नहीं तो जो दूसरा परिवर्तन है वह नरक में ही गिराएगा।

और नर्क माने कोई परलोक की बात नहीं कर रहे हम। नर्क माने उपनिषद क्या बताते हैं नर्क की क्या परिभाषा है? नर्क की क्या शास्त्रीय परिभाषा है? संसार में ही उल्टे पुल्टे विषयों की संगति नर्क कहलाती है। एक मिलावे राम से दूजी नरक ले जाए माने? घटिया चुनाव करो घटिया विषयों की संगति करने लग जाओ तो यही नर्क है और इसके अलावा कोई नहीं नर्क होता और घटिया की भी हमने परिभाषा देदी है। कुछ भी खुला नहीं छोड़ रहे हैं, और कुछ भी ऐसा नहीं छोड़ रहे हैं जिसमें अहम् अपने अनुसार कल्पना और परिभाषा रच डालें। हमने निचले की क्या परिभाषा दी थी, कौन बताएगा? कैसे कहें कि चेतना का एक तल ऊंचा है एक तल नीचा है? नीचे की परिभाषा क्या है? आप बताओ?

संलिप्तता तो ऊंचे तल में भी है, नीचे और ऊंचे में क्या अंतर है? प्रकृति से ऐसी संलिप्तता जो संलिप्तता को ही और बढ़ाएगी। और प्रकृति से ऐसा संबंध जो उस संबंध को शीण करके आपको मुक्त कर देगा वह स्वर्ग कहलाता है वही मुक्ति की दिशा कहलाती है। वही चेतना की उच्चतर अवस्था कहलाती है। यह स्पष्ट नहीं हुआ मुझे लग रहा है। एक होता है विषय ऐसी चीज समझ लो किसी का हाथ है। अभी हम ऐसे कर रहे थे ना, विषय जैसे किसी का हाथ पकड़ना। विषय, विषय माने वह चीज जिसको मैंने पकड़ रखी है। कोशिश कर रहा हूं जमीनी भाषा बोलने की। और विषय या विशेषयता किसे बोलते हैं? जिसने पकड़ रखी है। मैंने इसको पकड़ रखा है, तो विषय कौन है? Pen मैं कौन हूं? विषय। ठीक है। निचला स्तर क्या है चेतना का? इसको ऐसी चीज को पकड़ना इससे ऐसा संबंध बनाना, जिसमें इसको पकड़े रहना मेरे लिए और अनिवार्य हो जाए बल्कि इस को पकड़ने के कारण मुझे 70 चीजें और पकड़नी पढ़ें, ऐसे लिप्तता जो लिप्तता को और बढ़ाएगी वह हैं चेतना का निचला तल।

ऐसा रिश्ता बनाना जिसमें वह रिश्ता तुम्हारे लिए दुरनिवार हो जाए वह है चेतना का निचला तल। जैसे दलदल होती है ना दलदल में एक पाव रखा तो आगे क्या होता है फिर? और नीचे जाते हो। यह है घटिया रिश्ता जिसमें अगर जरा सा प्रवेश करोगे तो और उसमें 10 तरह की बाधाएं और बंधन आएंगे। यह है चेतना का निचला तल। समझ में आ रही है बात ये? ऊंचा तल क्या है? ऐसी चीज से रिश्ता बनाना जो ना सिर्फ तुम्हें दूसरी चीजों से भी मुक्त करें, जो ना सिर्फ तुम्हें दूसरी चीजों से भी मुक्त करें बल्कि अंत में आकर स्वयं से भी मुक्त कर दे। यह है चेतना का ऊंचा तल। तो हम कैसे पता करें कि हमारा कर्म हमें नीचे से ऊपर ले जा रहा है कि ऊपर से नीचे ले जा रहा है? हम कैसे पता करें कि हमारा कर्म नीचे से ऊपर ले जा रहा है या ऊपर से नीचे ले जा रहा है? लिप्तता बढ़ा रहा है तो नीचे को ले जा रहा है और अगर आश्रिता घटा रहा है तो ऊपर को। यह सिर्फ शब्द हैं या इनका जीवन में कुछ अर्थ भी है। या बस ऐसे ही हवाई फायर चल रहा है?

आपका कर्म अगर आपको प्रकृति पर और आश्रित कर देगा जमाने का और वह निर्भर बना देगा तो यह आप नीचे गिरे। और अगर आपका कर्म आपको विषयों पर निर्भरता से आजाद करता है तो यह आप ऊपर उठे। विषय माने दुनिया। विषय माने कोई टेक्निकल बात नहीं हो गई। ये आ रही है बात समझ में? यज्ञ क्या है फिर? यज्ञ क्या है? कब बनाना? अभी अभी तुमने बोला है स्वाहा। यह जो तुमने करा है ना वह यज्ञ था। अगर तुम मुझसे यह सवाल नहीं पूछते तो तुमने कौन सा विषय पकड़ रखा था? उसको बोलेंगे संशय। सवाल ना पूछना तो माने अपने पास क्या था?

श्रोता: संशय।

आचार्य जी: तो इनके पास ये बैठे हुए थे इनके पास एक विषय था। यह विषय था इनके पास। उस विषय का क्या नाम था? संशय। संशय और ऊपरी मौन कि भीतर संशय है और ऊपर होठों पर मौन है। यह इनके पास था, फिर इन्होंने कहा मैं यज्ञ करूंगा। वह क्या हुआ इनका एक? चुनाव हुआ। फिर इन्होंने कहा मैं यज्ञ करूंगा वह हुआ चुनाव। उस यज्ञ में इन्होंने किस चीज की आहुति दे दी?

श्रोता: संशय की।

आचार्य जी: यहां भीतर से संशय की आहुति दे दी। और होंठो से किसकी आहुति दी? ऊपरी मौन की। बोले ऊपरी मौन है इसकी भी आहुति दे रहा हूं। जा मौन गया, कभी सवाल पूछा तो मौन, इन्होंने मौन को बोला स्वाहा। और उन्होंने संशय को बोला, स्वाहा। और इन्होंने उन विषयों की जगह संशय और मौन की जगह और यहां पर हम वह आत्मा वगैरह के मौन की बात नहीं कर रहे हैं। यहां पर हम होंटो वाले मौन की बात कर रहे हैं। ठीक हैं न। इन्होंने उन विषयों की जगह कौन सा विषय पकड़ा? जिज्ञासा। ये यज्ञ कर दिया अभी-अभी यज्ञ कर दिया। यही यज्ञ था।

हो गया यज्ञ। तो यज्ञ मैंने पूछा तुमसे कब करना होता है? फिर से कर दिया। अरे बाबा जो तुम कर रहे हो इसीमे तो उत्तर ‌है। अभी भी तुम यज्ञ ही कर रही हो। ना प्रश्न पूछा इनके पास अभी भी क्या विकल्प था? इन्होंने फिर से यज्ञ किया। फिर से यज्ञ हुआ अभी। नहीं समझ में आ रही बात? क्योंकि कर्मक है तो यज्ञ भी होगा। अभी आपने प्रतिपल बोला ना। प्रतिबल ना बोलने का विकल्प आपके पास था न।

पर प्रतिपल बोलके आपने क्या किया? वह यज्ञ है उसे यज्ञ कहते हैं। अब आप यहां बैठे हो और भीतर आप पकड़े रहो संशय को। अंधेरे को और सुबह-सुबह आप जाओ और कहो कि साहब हम तो वेद सम्मत क्रिया से लकड़ी जलाएंगे। तो वो यज्ञ कहलाएगा क्या? वो यज्ञ नहीं हुआ ना। वो कहां हुआ यज्ञ? वह तो वही बात हुई कि आपने प्रतीक को पकड़ लिया। कि ऋषियों ने आपको ऐसे उंगली दिखाई थी आकाश में, वह कह रहे थे देखो देखो उंगली की दिशा मे देखो। और सुनने वाले ऐसे नालायक निकले, कि सब जा जा के उंगली पर लटक गए, अभी तक लटके हुए हैं। उंगली जिधर को इशारा कर रही थी उधर वो देख ही नहीं पाए। यज्ञ कर रहे हैं आप लोग कि नहीं कर रहे हैं?

कौन कौन कर रहा है? तो अभी यह जो चल रहा है इसको आप कह सकते हैं गीता महायज्ञ है। क्या है? गीता महायज्ञ। और यह हम नहीं कह रहे। यह बात स्वयं कृष्ण के शब्दों की है। यह गीता महायज्ञ है, गीता महायज्ञ क्यों हैं? आप यहां पर हो, ‌यह भी आपका एक चुनाव है ना? आप अभी वैकल्पिक रूप से अन्यत्र कहां हो सकते थे? बिस्तर पर हो सकते थे, घर में हो सकते थे, कोई खाना खा रहा है कोई टीवी देख रहा है, कुछ कर रहे हैं। उस की अपेक्षा आपने कहा उन चीजों को मैं बोल रहा हूं,और यहां आकर बैठ रहा हूं यह यज्ञ हैं।

यह यज्ञ किया है आपने, अभी यह यज्ञ का अनुष्ठान हो रहा है, ठीक इस जगह पर। यह यज्ञ है। समझ में आ रही है बात ये। यज्ञ आदि को लेकर के आगे कोई संशय, दुविधा तो नहीं आने वाली? क्योंकि यज्ञ शब्द से हमारा अब आगे लगातार वास्ता पड़ने वाला है। कोई प्रश्न अभी तक इसमें? बहुत लंबे चौड़े मत पूछिएगा अभी मुझे आगे बताना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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