आचार्य प्रशांत: तो शंखनाद होता है दोनों सेनाओं की ओर से। और संजय बताते हैं कि शंखनाद ने विशेषतया धृतराष्ट्र के पुत्रों के, कौरवों के हृदय में हलचल कर दी। मन उनके कम्पित हो गये, हृदय विदीर्ण हो गया। ये सुनने के बाद अब आते हैं दूसरे पक्ष पर। अर्जुन की ओर क्या चल रहा है।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुघमे।।(२०)
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते। सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।(२१)
संजय कह रहे हैं, ‘हे! राजन, उसके अनन्तर, उसके बाद कपिध्वज — अर्जुन के ध्वज पर कपि चिह्न था — तो कपिध्वज पाण्डव (माने अर्जुन ने) धृतराष्ट्र के पुत्रों को युद्ध के लिए अवस्थित देखकर और अस्त्र संचालन करने के लिए उद्यत होकर, धनुष उठाकर ऋषिकेश कृष्ण से कहा। क्या कहा अर्जुन ने? ‘हे! अच्युत, उभय(माने दोनों) सेनाओं के मध्य में मेरा रथ स्थापित करो।‘
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २०-२१)
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमें श्रीकृष्ण के कई नाम सुनने को मिलेंगे। तो केशव, ऋषिकेश और अभी यहाँ पर कहा ‘अच्युत’— अच्युत माने जो बँटा हुआ नहीं है, जो खंडित नहीं है।
नामों की बड़ी महत्ता है, अनाम यूँही नहीं होते। नाम सिर्फ़ किसी व्यक्ति विशेष की ओर संकेत करने को नहीं होता। नाम उस व्यक्ति को, और नाम लेने वाले को ये स्मरण कराने के लिए भी होता है, कि जिस व्यक्ति का वो नाम है, वो सिर्फ़ व्यक्ति नहीं है।
आप बैठे हैं देहधारी होकर के, सिर्फ़ इंगित करना है यदि तो ये भी कहा जा सकता है कि ‘क’, ‘क’ पर्याप्त है। या कोई अर्थहीन-सी ध्वनि, ‘अहर’, जिसका कदाचित कोई अर्थ न हो, पर एक निश्चित ध्वनि है, तो उससे निश्चित हो जाएगा, पता चल जाएगा कि किसकी ओर इशारा है।
लेकिन नहीं, नाम बड़ी समझ-बूझ से दिये जाते हैं। बाक़ी नामों की तो बात बाद में है, जो सबसे प्रचलित नाम है ‘कृष्ण’, वह भी कितना सुन्दर और सांकेतिक है — ‘कृष्ण’ माने वो जिसकी ओर आये बिना आप रह नहीं पाएँगे, चैन नहीं मिलेगा।
ये कहना आवश्यक ही इसीलिए हो जाता है, क्योंकि सदा से ज्ञात है कि वृत्तियाँ हमारी ऐसी ही हैं जो कृष्ण की ओर आने का करेंगी तो विरोध ही। हम ऐसे ही हैं, इसीलिए उनका नाम है ‘कृष्ण’— जिसमें कर्षण है, जिसमें एक खींच है, खींच। फिर उसी से शब्द आता है आगे ‘आकर्षण’।
वो खींचते हैं। खींचने की ज़रूरत क्या पड़े यदि कोई विरोधी बल न हो। कुछ न हो जो विरोध करता हो, और आप खींचें, तो खींचना अर्थहीन हो जाएगा, हास्यास्पद! कृष्ण नाम ही इसीलिए दिया गया है, क्योंकि अहम्, आत्मा की ओर बढ़ने का पुरज़ोर विरोध करता है, यद्यपि अहम् की गहरी, अन्तिम, किन्तु प्रछन्न इच्छा भी यही होती है कि वो आत्मस्थ हो जाये।
यही जो दोहरी चाल है अहंकार की, इससे संसार में सारी गतियाँ देखने को मिलती हैं। संसार एक शाश्वत गतिशीलता है। और गति तभी हो सकती है, जब एक बल को रोकने वाला दूसरा बल मौजूद हो। इन दो बलों के आपसी संयोग और संघर्ष से गति उत्पन्न होती है।
आप बात समझ रहे हैं?
आप एक रॉकेट को आकाश की ओर भेजना चाहते हैं। जानते हैं उसके लिए क्या आवश्यक है? उसके लिए रॉकेट में वज़न होना आवश्यक है। आप कहेंगे, ‘ये कैसी बात है?’ जी, हाँ।
और वज़न का अर्थ ही होता है, कि रॉकेट को ऊपर उठाने वाला बल जिस दिशा में काम करेगा, वज़न के कारण गुरुत्वाकर्षण उसकी विरोधी दिशा में काम करेगा। यदि शून्य भार का हो रॉकेट, तो आप कैसे उसे उठा लेंगे, बताइए मुझे?
कोई वस्तु है जिसका कोई भार ही नहीं, उसके साथ कुछ भी किया जा सकता है क्या? और यदि भार होगा तो विरोध होगा। सारा संसार इसी तरह दो परस्पर विरोधी ताकतों के आपसी नृत्य से परिणीत होता है, इसको आप डायलेक्टिक्स (द्वन्द्ववाद) बोल सकते हैं।
आप चल रहे हों ज़मीन पर, आप चल नहीं सकते यदि घर्षण न हो। आप आगे बढ़ पाएँ इसके लिए आवश्यक है कि आपको पीछे धकेलने वाली एक ताकत मौजूद हो। और यदि पीछे धकेलने वाली ताकत शून्य हो जाए तो आप आगे नहीं बढ़ पाएँगे, आप वहीं पर गिर जाएँगे। ये जो दो ताकतें हैं, ये मूलतः आत्मा और अहंकार की ही प्रतिनिधि है, क्योंकि मूल विरोध वहीं पर है।
और उसी मूल विरोध से संसार उत्पन्न हुआ है। अहंकार आत्मा का मूल रूप से विरोध न करता हो तो संसार ही नहीं आएगा। और संसार का ही अर्थ होता है ‘गति’, तो फिर कोई गति भी नहीं आएगी, यदि अहम्, आत्मा का विरोध न करता हो। और यदि अहम् आत्मा का ऐसा विरोध कर पाए कि जीत ही ले आत्मा को, आछन्न ही कर ले आत्मा को, निगल ही जाए आत्मा को, तो भी फिर संसार अस्तित्व में नहीं बचेगा। इन दोनों का बने रहना ज़रूरी है संसार की हस्ती के लिए।
इसी को कई बार आप अच्छाई और बुराई के परस्पर संघर्ष के रूप में भी देखते हो। सत्य यदि पूरी तरह जीत गया तो दुनिया मिट जाएगी। असत्य भी यदि पूरी तरह जीत गया तो भी दुनिया मिट जाएगी। ये संसार चल ही रहा है एक तरह की रसाकशी में।
समझ में आ रही है बात?
गीता कहाँ से आती यदि सामने दुर्योधन की सेना न खड़ी होती, दुर्योधन सदा रहेंगे। दो पक्ष सदा रहेंगे, जिसमें एक पक्ष सदा दुर्योधन का होगा — आत्मा होगी, अहंकार होगा, एक पक्ष सदा अहंकार का होगा। ऐसे ही इस संसार को चलना है।
पर आप संसार की बात छोड़िए, आप अपनी बात करिए। आपको तो आपके संसार, और आपके जीवन से प्रयोजन है न, तो इस द्वन्द में आपको चुनना है कि आप उधर खड़े हैं या इधर। कृष्ण माने आकर्षण, कृष्ण तो खींच रहे हैं, बुला रहे हैं, आपको खिंचना है या नहीं खिंचना है? कृष्ण खड़े हैं, अर्जुन खिंच आये, जिन्हें नहीं खींचना था वो विरोध में ही रहे। जिन्हें नहीं खिंचना था, उन्होंने तो कृष्ण को ही मारने का षडयंत्र किया।
‘अच्युत’ — जो सब तरीके के विभाजनों के पार है, जिसके लिए अब ये द्वन्द समाप्त हो चुका है, वो अच्युत है। जो द्वैत का झूला नहीं झूल रहा अब, कि कभी इस तरफ़, कभी उस तरफ़। जिसके प्रभाव में जब आ गया, तब उसी का हो गया, जिसकी ऐसी अवस्था नहीं रही अब, वो अच्छुत। जिसका निर्णय हो चुका है वो अच्युत, जिसके लिए अब कोई संशय बाकी नहीं, वो अच्युत। जिसको अब और विचार नहीं करना है कि मैं कौन और जीवन कैसे जीना है, वो अच्युत। जो टिक गया, जो थम गया, जिसकी संशय की यात्रा पूर्ण हो गयी, वो अच्युत। जिसको दूसरा पक्ष अब खींच सकता ही नहीं, वो अच्युत। जो अब स्वयं ऐसा हो गया है कि दूसरे पक्ष को खींच लाएगा, या कम-से-कम उस पर अपने आकर्षण का प्रभाव डालेगा, वो अच्युत। जिसको अब आप डिगा नहीं सकते, वो अच्युत।
‘तो अर्जुन कह रहे हैं, “हे! अच्युत, दोनों सेनाओं के मध्य मेरा रथ स्थापित करो।‘अर्जुन का ये अनुरोध मेरे मन के बड़ा निकट रहा है सदा से। दो बातें हैं यहाँ पर अर्जुन के विषय में — दोनों ही पूरे तरीके से अभी व्यस्क नहीं, पल्लवित नहीं, परिपक्व नहीं। लेकिन दोनों के बीज बिलकुल आरम्भ में ही अर्जुन में दिखाई दे जा रहे हैं।
पहला, अर्जुन को अवलोकन करना है — माने अर्जुन को ज्ञान चाहिए। दूसरा, अर्जुन जिनको देख रहा है, उनको कम-से-कम धन-धान्य, सत्ता-राज्य, इनसे ऊपर का स्थान दे रहा है। साधारण सांसारिक भोग से अधिक प्रिय कुछ और उसको पता चल रहा है — ‘प्रेम’, विशुद्ध प्रेम नहीं है, मोह ज़्यादा है, पर बीज है प्रेम का।
वो बीज नहीं होता तो गीता भी अर्जुन को समझ नहीं आती — ‘तो होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’ अर्जुन अलग हैं, विलक्षण हैं, और वो विलक्षणता आरम्भ में ही दृष्टिगोचर हो जाती है। एक तरफ़ दुर्योधन व्यथित हैं कि कैसे हरा दें जल्दी-से-जल्दी — सारी गणना ये है कि किसकी सेना बड़ी है, किसकी छोटी है, कैसे अपनी सेनापति की रक्षा कर लें। दूसरी ओर अर्जुन, अन्तर देखिए।
नहीं गिन रहे कितने योद्धा उधर है, कितने इधर है। दुर्योधन ने नाम गिना दिये — हमारी ओर के प्रमुख सेनानी ये हैं, उधर के प्रमुख योद्धा वो हैं इत्यादि-इत्यादि। अर्जुन को इन बातों से कोई प्रयोजन नहीं, एक तरह का वैराग्य। अर्जुन की उत्सुकता दूसरी दिशा में है, अर्जुन को जानना है।
‘हे! केशव, दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ स्थापित करो’— ये मध्यता बड़ी विलक्षण चीज़ है, हम ये नहीं कर पाते। ‘मध्यता’ का मतलब समझिएगा — हम जिधर होते हैं, हम उधर के ही होते हैं। मैं अगर पांडव पक्ष में हूँ तो मैं पांडवों का हूँ, मुझे पांडवों से दूर जाकर के पांडवों को क्यों देखना है, मुझे बीच में जाकर के पांडवों को क्यों देखना है? और अगर मैं कौरवों के विरोध में हूँ तो मैं उनसे खूब दूरी रखूँगा न, मुझे उनके निकट जाकर के उनको क्यों देखना है?
मध्य में जाने का मतलब समझो — अहंकार जिस चीज़ से परिचित होता है, जिसका अभिमान, और तादात्म्य में रखता है जिससे, उसको छोड़ना वो चाहता ही नहीं। वो कहता है, ‘मैं जहाँ पर हूँ, वही सत्य है। दूसरी तरफ़ जो है वो तो असत्य है ही। और जो असत्य है, मैं उसके निकट क्यों जाऊँ? हाँ, मैं उसे नष्ट ज़रूर कर सकता हूँ, उसके निकट जाने की कोई आवश्यकता नहीं। निकट जाऊँगा तो नष्ट करने में असुविधा भी हो सकती है। तो दूर रहकर ठीक है, यहाँ से ही नष्ट कर दूँगा।’
निकट जाने में अहंकार डरता है, क्योंकि निकट जाने में जो प्रतिपक्ष है, जो शत्रु पक्ष है, उसको लेकर के जो मान्यताएँ हैं उसके पास, वो नष्ट होती हैं, उन पर चुनौती आती है। दूसरे को शत्रु मानने के लिए दूसरे के विषय में बहुत सारी कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं। दूसरे के निकट जाएँगे तो कल्पनाओं के ध्वस्त होने का ख़तरा है।
तो कौन बीच में जाकर के शत्रु पक्ष को निकटता से देखे, और कौन अपने पक्ष को भी क्षण भर के लिए ही सही, त्याग करके अपने पक्ष से दूर जाए और अपने पक्ष को भी निष्पक्ष दृष्टि से देखे। बीच में जाकर के अर्जुन निष्पक्ष-निरपेक्ष हो गये हैं थोड़ी देर के लिए ही सही, ऐसा उन्होंने विचार नहीं किया होगा। इतनी स्पष्टता के साथ शायद उन्हें आभास न हो कि वो क्या कर रहे हैं। पर जैसा मैंने कहा, एक बीज मौजूद है।
अवलोकन की ये मंशा अद्भुत है, सब में नहीं आती। आपको ऐसे कितने युद्ध पता हैं जहाँ पर जो प्रमुख, बल्कि प्रमुखतम योद्धा है, उसने कहा हो कि मैं अपनी सेना से किंचित दूर जाकर के अपनी ही सेना का अवलोकन करना चाहता हूँ, ऐसा कभी आपने देखा है? ऐसा आपको कौनसा सेनानी मिला है, जो कहता है, बीच में रहूँगा, एक तरफ़ नहीं, बीच में रहूँगा? ये बहुत आवश्यक है, और अहंकार के लिए बहुत मुश्किल।
कोई कारण है कि कृष्ण निर्णय करते हैं ‘गीता जैसा उपदेश’ अर्जुन को देने की। ये साधारण बात नहीं है। गीता शास्त्र के अन्त में कृष्ण स्वयं ही अर्जुन को कहते हैं कि जो भी लोग मुझमें श्रद्धा न रखते हों, अर्जुन, भूलकर भी उनसे गीता न कहना। जो बात वो अर्जुन को सिखा रहे हैं, वो बात निश्चित ही अपने ऊपर भी लागू करेंगे।
अर्जुन को कहीं-न-कहीं उन्होंने सुपात्र पाया है। मेरी दृष्टि कहती है कि विषाद योग में अर्जुन की दशा ही अर्जुन की पात्रता का प्रमाण बनी। यूँही नहीं गीता बरस गयी अर्जुन के ऊपर। कृष्ण बड़े पारखी हैं, साफ़-साफ़ देख रहे हैं। अर्जुन को बहुत लम्बे समय से जानते हैं, और इस क्षण भी वो छोटी-छोटी बात पकड़ रहे हैं।
कौरव पक्ष में क्या हलचल है, ये भी देख रहे हैं, और अर्जुन की क्या प्रतिक्रिया है, ये भी। तो अर्जुन को जानना है। अर्जुन को लड़ना भर नहीं है, अर्जुन को पाना भर नहीं है, अर्जुन को जानना है। जानें बिना ही टूट पड़ना — ये पाशविक अहंकार का काम है।
सामने चाहे शत्रु की सेना हो, चाहे कोई आकर्षक सांसारिक लक्ष्य, अहंकार तो चाहता है कि उस पर टूट पड़े, यदि वो बुलाता है तो, लुभाता है तो। पशु ऐसा ही करते हैं। मनुष्य आप तब होते हैं जब आप टूट पड़ने से पहले जानने का प्रयास करो। वो टूट पड़ना शत्रुता में भी हो सकता है, लोभ में भी हो सकता है, साधारण सांसारिक प्रेम में भी हो सकता है।
सामने कुछ दिख रहा था, बड़ा मीठा, बड़ा लुभावना, हम टूट पड़े उस पर। आम व्यक्ति लगभग पशु की तरह ही जीता है, बस टूट पड़ता है, जैसे अभी दुर्योधन टूट पड़ने को तैयार है। अर्जुन ने पशुता से ऊपर की किसी चीज़ का अभी संकेत दिया है, प्रमाण दिया है, ये कहकर कि बीच में ले चलिए मुझे, अवलोकन करना है, मैं जानना चाहता हूँ।
आपको जो भी कुछ चाहिए जीवन में — चाहे पाने के लिए, चाहे मिटाने के लिए — आप उसको जानते भी हैं, या बस टूट पड़ना चाहते हैं? आप सामने की दिशा में भाग रहे हैं — चाहे मित्र से मिलने के लिए, चाहे शत्रु को मिटाने के लिए — आप मित्र को जानते हो, जिसकी ओर जाने की इतनी उत्सुकता? आप शत्रु को जानते हो जिसको मिटाने का इतना आग्रह? नहीं, आपको बस टूट पड़ना है।
अर्जुन ने कहा, मुझे जानना है, मुझे जानना है। ये क्यों हुआ? अर्जुन के साथ ही ऐसा क्यों हुआ? कुछ कह नहीं सकते, पर एक बात लगती है — कृष्ण की संगत का असर होगा ज़रूर। बगल में ही धर्मराज युधिष्ठर थे, उन्होंने भी ये नहीं कहा कि मुझे जानना है, वो तो शायद पहले से ही सब कुछ जानते थे। सब स्पष्ट था उनको, ‘धर्मराज’ हैं भाई!
अर्जुन ने कहा, मुझे अभी जानना है। ये नहीं कहा, मैं जानता हूँ। मुझे जानना है, अभी जानना है। कैसे तीर चला दूँ, या कैसे पुष्प चढ़ा दूँ, जब जानता ही नहीं कि सामने जो अभी है मेरे, वो वस्तु है क्या। मैं बार-बार कहता हूँ, गीता हमारे लिए तभी उपयोगी है, जब हम अर्जुन हों। और अर्जुन हम सब हैं ही, क्योंकि हम सब के सामने एक लक्ष्य है। ठीक वैसे, जैसे अर्जुन के तीरों के सामने लक्ष्य था न!
कोई है यहाँ ऐसा, जिसके पास कोई लक्ष्य न हो? जिसके पास भी कोई लक्ष्य है, वो अर्जुन है। हाँ, साधारण व्यक्ति और अर्जुन में अन्तर ये है कि साधारण व्यक्ति बिलकुल अन्धेरे और अन्धेपन में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है, जैसा हमने कहा, चाहे उसे पाने के लिए, चाहे मिटाने के लिए। अर्जुन को प्रकाश चाहिए था।
अर्जुन ने कहा, तीर तो अब बरसेंगे ही, उससे पहले कुछ समझ लूँ, कुछ समझ तो लेने दीजिए। काश! कि हम देख पाते कि कृष्ण कैसे मुस्कुराये होंगे उस पल! कृष्ण की भी आस रही होगी, कि कोई मिले सुयोग्य, जिस पर गीता की कृपा की जा सके। और युद्धस्थल के मध्य ही सही, उन्हें मिल गया। उन्हें वो शिष्य, वो श्रोता, वो कृपा पात्र मिल गया, जिस तक गीता पहुँच सकती है।
देखने की अगर आपकी दृष्टि हो तो आप ये तक कह सकते हैं, कि ये पूरा युद्ध तो एक तैयारी मात्र है, एक रंगमंच मात्र है, एक पृष्ठभूमि मात्र है, बस गीता को घटना था, गीता को उतरना था, इसलिए इतनी तैयारी करनी पड़ी। इतनी तैयारी करनी पड़ी? हाँ, इतनी तैयारी नहीं होती, तो अर्जुन की तैयारी नहीं होती।
ऐसे सेनाएँ न खड़ी होतीं आमने-सामने, तो अर्जुन का मन वैसे कैसे स्पन्दित होता जैसे अभी हुआ! और ऐसा स्पन्दन न होता, अर्जुन में इतना क्रन्दन न होता, तो गीता बेअसर चली जाती, उतरती भी तो निष्प्रभावी हो जाती। तो इसीलिए योद्धाओं के लिए है गीता, जिनके सामने बहुत बड़ा लक्ष्य हो, उनके लिए है गीता, जो जीवन में विकट स्थितियों में फँसे हुए हों, जिन्होंने किसी बड़े काम का बीड़ा उठाया हो, जिनमें बड़ी चुनौतियाँ उठाने का दम हो, उनके लिए है गीता।
सोचिए तो, कृष्ण-अर्जुन सदा साथ हैं, गीता का उपदेश पहले क्यों नहीं दे दिया? पहली बार नहीं मिल रहे। अरे, युद्ध से ही अगर सम्बन्धित था गीता का उपदेश, तो भी युद्ध से दो घंटे पहले तो दिया जा सकता था, युद्ध से एक रात पहले दिया जा सकता था, ऐन मौके पर, बीच रणभूमि पर। ये बात क्या है! बात यही है।
गीता आपके लिए सार्थक सिर्फ़ उस पल होगी, जब आप धर्मयुद्ध में मृत्यु का वरण करने को भी तैयार खड़े होंगे। नहीं तो गीता आपके किसी काम नहीं आएगी।और यही वजह है कि इतिहास में मुट्ठीभर ही लोग हुए हैं, गीता जिनके काम आयी है। गीता सिर्फ़ अर्जुन के ही काम आ सकती है। गीता सिर्फ़ उसके काम आ सकती है, जो कौरवों की बड़ी भारी सेना का मुकाबला करने के लिए तैयार खड़ा हो, और डगमग भी हो रहा हो तो इसलिए नहीं कि सामने की सेना बड़ी है और मृत्यु का भय है हमें। वो विचलित, कम्पित भी हो रहा है तो इसलिए कि मारूँगा कैसे! इस विचलन में भी शूरता है।
देखिए, अर्जुन का डर समझिएगा। अर्जुन को डर ये नहीं है कि द्रोण और भीष्म, और कर्ण मिलकर मुझे मार डालेंगे। अर्जुन को इतना आत्मविश्वास है, कि ये तो कुछ हानि मेरी कर सकते नहीं, अर्जुन को पता है। अर्जुन की शूरता ऐसी है कि अर्जुन को ऐसा संशय, ऐसा विचार उठ भी नहीं रहा कि ‘हाय! मेरा क्या होगा!’ एक अग्रिम आश्वस्ति है, कि युद्ध यदि होगा, तो पताका तो मेरी ही फहरनी है। और चूँकि आश्वस्ति है, फिर इसीलिए कम्पन है। क्या कम्पन है? जब जीतना मुझे ही है, तो माने मरना उन्हें ही है, हाय! कैसे मार दूँ उनको!
दो व्यक्ति आमने-सामने लड़ने को खड़े हों, और उनमें से एक व्यक्ति यही सोचकर के व्यथित हुआ जाता हो कि मैं इसकी हत्या कैसे कर दूँ, तो इससे आपको क्या पता चलता है? उस व्यक्ति को पूरी आश्वस्ति है कि यदि युद्ध हुआ, तो मरेगा तो ये सामने वाला ही, तभी तो उसको इतनी व्यथा है।
अर्जुन एक बार भी ये नहीं कहते, कि यदि मैं मर गया तो मेरे भाइयों का क्या होगा, मेरे पुत्रों का क्या होगा, मेरी माता, मेरी पत्नी का क्या होगा, अर्जुन को ऐसा कोई भय नहीं। जैसे की पता हो कि ये तो होने का नहीं, ये अर्जुन की शूरता है। ऐसा जो होता है, गीता उस पर उतरती है। जो यदि डर भी रहा है तो अपने लिए नहीं, जो यदि कमज़ोर भी हो रहा है तो अपने लिए नहीं।
अभी आगे कहेंगे, अर्जुन, पाँव काँप रहे हैं, शरीर जल रहा है, बलहीन हो रहा हूँ, धनुष पकड़ा नहीं जाता! ये बलहीनता भी बल की अधिकता के कारण हैं, ऐसे हृदय वाला प्रार्थी चाहिए।
समझ रहे हैं?
हाथ इसलिए नहीं काँप रहा है, कि अरे! महायोद्धा है सामने द्रोण, इनके सामने मैं कैसे टिकूँगा! धनुष इसलिए काँप रहा है, क्योंकि पता है कि द्रोण से आमना-सामना होगा, तो मृत्यु तो द्रोण की ही होगी, कैसे मार दूँ द्रोण को!
जो इतना बली होते हुए भी, जो अपेक्षतया निर्बल हैं, उनके लिए भाव रखता हो, सिर्फ़ उस पर उतर सकती है गीता। महान बल है, पर अपने बल का प्रयोग करने से कतरा रहे हैं अर्जुन। चाहें तो एक पल में सब ध्वस्त कर दें, पर भावुक हो रहे हैं। और वो भाव प्रधानता गीता के बाद भी पूरी तरह मिटती नहीं है।
भीष्म जब सामने पड़ते हैं तो पुराने सम्बन्ध और स्मृतियाँ फिर जाग्रत हो जाते हैं। भीष्म से डटकर, पैना, तीखा घोर-युद्ध कर ही नहीं पाते अर्जुन। तीर यूँ चलाते हैं जैसे फ़ूल बरसा रहे हों, ऐसा योद्धा चाहिए, तब गीता काम आती है, कमज़ोर लोगों के लिए नहीं है। महाबली लेकिन फिर भी भाव रखने वाले। महाबली, लेकिन अपने बल का उपयोग बस अपनी सत्ता, अपने हितों, अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु न करने वाले। जब ऐसा मन होता है, तब उसको और ऊँचाई पर ले जाने के लिए गीता उपयुक्त होती है।
दुर्योधन के काम की नहीं है गीता, गीता दुर्योधन के काम की नहीं। और बराबर की बात ये है कि दुर्योधन को भी गीता में कोई रुचि नहीं। नहीं तो साक्षात कृष्ण ही सामने थे, और रक्त सम्बन्ध तो दुर्योधन का भी कुछ था कृष्ण के साथ। हाथ जोड़ करके ज्ञान माँगने जाता, तो कृष्ण ठुकराते नहीं।
समझ में आ रही है बात?
‘मुझे समझना है, और मेरे हृदय में कोमलता है। मैं विशाल, अति विशाल हूँ, मैं अति सामर्थ्यवान हूँ, लेकिन फिर भी भाव मुझमें कुछ ऐसा है कि दुष्टों को मारने में भी सकुचा रहा हूँ। लग रहा है, क्यों किसी का प्राण हर लूँ। बल मुझमें पूरा है, और अधिकार भी मुझे पूरा है, कि दुष्टों को घोर दंड दूँ, लेकिन जो दुष्ट है, मैं उसे भी दंड नहीं दे पा रहा। लगता है इसको दंड देकर के मुझे क्या मिल जाएगा’ — जिसकी ऐसी स्थिति हो उसके लिए है गीता।
जो स्वयं को दुर्बल बनाये घूमता हो, अभी गीता उसके लिए नहीं है। जिसको कृष्ण से कोई नाता ही न रखना हो, गीता उसके लिए नहीं है। जिसके लिए धन, स्वार्थ, सत्ता ही सबकुछ हों, गीता उनके लिए नहीं है।
आरम्भ में ही अर्जुन ठुकराते हैं सिंहासन को, कहते हैं, ‘क्या करूँगा ऐसा सिंहासन लेकर के?’ जो सिंहासन से ऊपर किसी और चीज़ को वरीयता देता हो, उसके लिए है गीता। कृष्ण कहते है, ‘ठीक, अद्भुत व्यक्ति है ये, सिंहासन छोड़ने को तैयार है। बस एक ग़लती कर रहा है, सिंहासन मोह के लिए छोड़ने को तैयार है। मैं तुम्हें सिखाऊँगा, अर्जुन, कि सिंहासन किसके लिए छोड़ना चाहिए। सिंहासन निश्चित रूप से त्याज्य है, निश्चित रूप से सिंहासन से बहुत ऊँचा स्थान किसी और का है, मैं तुम्हें सिखाऊँगा सिंहासन से ऊपर का स्थान किसका है। तुम सोच रहे हो सिंहासन से ऊपर भावनाएँ आती हैं, मोह आते हैं, रक्त सम्बन्ध आते हैं, अतीत की स्मृतियाँ आती हैं, नहीं। सिंहासन निश्चित रूप से नीचे है, पर किससे नीचे है सिंहासन, वो मैं तुम्हे सिखाऊँगा अर्जुन।’
जो अभी सिंहासन को नीचे ही न मानता हो, उसको कृष्ण कुछ नहीं सिखा पाएँगे। और उस समय का सबसे बड़ा और सबसे समृद्ध राज्य था हस्तिनापुर। हस्तिनापुर के सिंहासन को त्यागने के लिए जो तैयार बैठा हो, वो फिर वेदान्त के उच्चतम ज्ञान का अधिकारी हो जाता है। और याद रखिये वो त्याग रहा है, भय के कारण नहीं, भाव के कारण। भय के कारण तो न जाने कितने लोग, कितनी चीज़ों को छोड़कर भाग जाते हैं, ऐसों की कोई गिनती नहीं।
समझ में आ रही है बात?
दो विशेषताएँ हमने कौनसी कहीं अर्जुन की? पहली, अर्जुन को जानना है, दूसरा, अर्जुन सिंहासन से ऊपर भाव को प्रधानता दे रहे हैं। और ये बात प्रेम के कुछ निकट की है, क्योंकि प्रेम में भी आप संसार से ऊपर रखते हो सत्य को। अर्जुन सांसारिक उपलब्धि से ऊपर रख रहे हैं भाव को, संसार स्थूल है, भाव सूक्ष्म है।
तो अर्जुन ने इतना तो सीख ही लिया है कि स्थूल संसार से ऊपर होता है स्थान किसी सूक्ष्म चीज़ का। बस अर्जुन को ऐसा लग रहा है, कि जो सूक्ष्म चीज़ इस स्थूल संसार से ऊपर की है, उसका नाम है ‘भाव या मोह।’ कृष्ण अर्जुन को सिखाएँगे कि ‘बिलकुल ठीक कहा, अर्जुन, संसार स्थूल है। और जो सूक्ष्मतम हो, वो स्थूल जगत से कहीं ऊपर का है। पर सूक्ष्मतम है क्या, अब मैं तुमको बताऊँगा।’ भाव अपेक्षतया सूक्ष्म है, लेकिन भाव से भी कहीं ज़्यादा सूक्ष्म है ‘सत्य’। जो तुम्हारा भाव है, उस पर मोह की छाया है, मैं तुमको सिखाऊँगा प्रेम और प्रेम का विषय मात्र सत्य ही हो सकता है।
जब गीता पाठ करें तो जल्दी-जल्दी आगे न भाग जाएँ। एक-एक श्लोक चिन्तन माँगता है, गहरा विचार माँगता है।
समझ में आ रही है बात?
एक बली चाहिए कठोर, बलिष्ठ भुजाओं वाला और कोमल हृदय वाला। बलिष्ठ भुजाएँ और कोमल हृदय, ऐसे के लिए है गीता। युद्ध में जिसे तुम जीत न सको, पर जो प्रेम में हारा हुआ है, ऐसे के लिए है गीता। कहाँ अर्जुन को जीत सकते हैं, कर्ण, विकर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म, दुर्योधन, दुशासन, कहाँ जीत सकते हैं! उनकी क्या गति हुई, हमने क्या देखा नहीं?
जिस अर्जुन को कोई जीत नहीं सकता, वो अर्जुन अपने आँसुओं से विह्वल है, अपनी भावनाओं से विवश है। जिसमें कोई कमज़ोरी नहीं, वो अपनी भावुकता के हाथों कमज़ोर बना हुआ है। जिसे कोई हरा नहीं सकता, वो अपने ही हाथों हारा हुआ है। जिसकी ऐसी दशा हो उसके लिए है गीता, प्रेम होना चाहिए।
एक मन जो प्रकाश की ओर बढ़ता है, उसे ज्ञान चाहिए। एक मन जो आर्द्र है, गीला है, उसे प्रेम चाहिए, दुर्लभ है ऐसा संगम। बहुत मिल जाएँगे जिन्हें प्रकाश चाहिए, वो अपनेआप को ज्ञानमार्गी बोलते हैं। बहुत मिल जाएँगे जिन्हें प्रेम चाहिए, वो अपनेआप को प्रेममार्गी, भक्तिमार्गी इत्यादि बोलते हैं। ऐसा मिलना दुर्लभ है, जिसे प्रकाश और प्रेम दोनों चाहिए, जो दोनों के लिए तैयार है। इसीलिए गीता का वर्गीकरण करना बड़ा मुश्किल है। आप नहीं कह पाएँगे कि गीता ज्ञान-मार्ग का ही ग्रन्थ है या भक्ति-मार्ग का ग्रन्थ है, गीता सबकुछ है।
गीता को कोई एक नाम देना अपने ही अहंकार की अभिव्यक्ति होगी, अपने ही अज्ञान का सूचक होगा।
समझ में आ रही है बात?
अर्जुन में एक नायकत्व है, एक *हिरोइज़्म है। बौनों के लिए, वामनों के लिए गीता नहीं है। जिसके रथ पर कृष्ण हों और ध्वजा में हनुमान, उसके लिये है गीता। जिसका शौर्य ऐसा हो कि चारों दिशाओं को जीत सके, लेकिन जिसकी कोमलता ऐसी हो कि सम्बन्धों की खातिर सब कुछ छोड़कर पलायन करने को तैयार हो जाए, उसके लिए है गीता। कठोरता और कोमलता का ऐसा अद्भुत संगम जहाँ हो, वहाँ है गीता। वो अद्भुत संगम होता है, वो बहुत पाया जाता है, पर उल्टे तरीके से पाया जाता है।
दुनिया में आपको लोग मिलेंगे, जो मन से अति कठोर होंगे और बाहर से अति कोमल — कोमल माने दुर्बल। बाहर उनकी हालत ऐसी होगी कि धक्का मार दो तो अभी गिर जाएँ, या स्थितियों का आघात लग जाए तो भी गिर जाएँ। कोई उनमें शूरता नहीं, कोई साहस नहीं, और साथ-ही-साथ उनका दिल पत्थर का — पाषाण हृदय, भीतर कठोर, बाहर दुर्बल।
दुनिया उलटी है। बाहर बल नहीं, भीतर प्रेम नहीं, दुनिया उल्टी है। अर्जुन विरल हैं — बाहर अति बलिष्ठ, भीतर सुकोमल। कौन हाथ आया राज्य जाने देता है? कौन प्रतिपक्षी की ही मृत्यु पर फूट-फूट कर रोता है? कौन मारने की अपेक्षा मर जाने का चयन करने को तैयार हो जाता है? कौन अपने शत्रु को भी क्षमा करके स्वयं संन्यस्त हो जाना चाहता है? दुर्योधन को तो सिंहासन लगभग सौंप ही दिया था अर्जुन ने, कि कोई बात नहीं, तुम रख लो।
समझ में आ रही है बात?
गीता कोई पुस्तक नहीं है कि आप उठाकर के पढ़ लेंगे उसको। गीता एक उपलब्धि है, जो बड़े श्रम के बाद मिलती है, सबको मिल ही नहीं सकती वो। पुस्तक को तो कोई भी उठा सकता है, उपलब्धियाँ क्या सबको होती हैं? गीता को पढ़ा नहीं जाता, गीता को पाया जाता है, गीता के लायक बना जाता है।
रणक्षेत्र में हम सभी हैं, पैदा हम सब संघर्षों में ही होते हैं। कोई नहीं है जो धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में न पैदा होता हो। पर सब अर्जुन नहीं हैं कुरुक्षेत्र के मैदान पर, या सब हैं? जो एक अर्जुन है, उसके लिए गीता है, बाकियों के लिए कुछ नहीं। लाखों नहीं तो हज़ारों वहाँ पर योद्धा खड़े हुए हैं, गीता सिर्फ़ एक के लिए है। ठीक जैसे जगत में इतने लोग हैं, गीता कुछ चुनिन्दा लोगों के लिए ही है। गीता के लायक बनना पड़ता है, तब गीता आपकी होती है।
कृष्ण की समीपता टेढ़ी खीर है, बड़ा मूल्य माँगती है। यहाँ पर तो कृष्ण सारथी हैं, फिर गुरु होकर के अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। पर यकायक थोड़े ही उतर आये हैं कृष्ण, अर्जुन के जीवन में। अर्जुन ने वर्षों तक, दशकों तक कृष्ण को अपने जीवन में बड़ी श्रेष्ठता दी है। जैसा कहा है कृष्ण ने, अर्जुन ने चुपचाप करा है — कोई आध्यात्मिक जीवन भर में नहीं, अपने व्यक्तिगत जीवन में भी। अपनी हर छोटी-बड़ी बात उन्होंने कृष्ण के सामने रखी है। अर्जुन के सब निर्णयों पर कृष्ण की सलाह का प्रकाश है।
जब ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध अर्जुन ने दशकों तक पनपाया है, उस पौधे को दशकों तक खाद-पानी दिया है, तब जाकर के आज उस वृक्ष पर गीता का फ़ल लगा है, अचानक कुछ नहीं हो जाता। और कृष्ण के समीप रहना हल्की बात नहीं है। कृष्ण का तो काम है अर्जुन को बस अर्जुन न रहने देना, कुछ और बना देना। कृष्ण के समीप रहने का अर्थ होता है, टूटते चलना।
और समीपता का मतलब वैसी समीपता नहीं होता, जैसी समीपता भीम की है या युधिष्ठिर की है। एक सीमा तक तो दुर्योधन भी समीप है, वैसी समीपता नहीं। उतनी निकटता चाहिए होती है कि जिसमें हाथ ही पकड़ लें वो तुम्हारा, उतने निकट नहीं हो तो अपनेआप को फ़ुसलाकर मत रखो कि निकट हो।
मैंने बहुत साल पहले एक ट्वीट कराया था, जिसमें लिखा था कि ‘यू मस्ट बी विद इन स्लैपिंग डिस्टेंस ऑफ द टीचर' (आपको आपके गुरु के पास मात्र एक हाथ की दूरी पर होना चाहिए)। अगर जानना चाहते हो कि तुम निकट हो या नहीं हो, तो ये पूछ लो अपनेआप से कि ‘आर यू विद इन स्लैपिंग डिस्टेंस और स्लैपिंग डिस्टेंस?’ (क्या आप गुरु के पास थप्पड़ मारने की दूरी पर हो) और स्लैपिंग डिस्टेंस (थप्पड़ मारने की दूरी) से ज़रा सा भी अगर तुम अधिक दूर हो, तो पास नहीं हो फिर तुम।
आप कहेंगे, ‘कैसी हिंसक बात है, गुरु शिष्य का ये रिश्ता होता है?’ यही होता है, बिलकुल ऐसा ही होता है। सारथी और रथी में कितनी दूरी होती है? बस उससे ज़्यादा दूरी स्वीकार नहीं है। कृष्ण वक्ता हैं, अर्जुन श्रोता हैं, वक्ता और श्रोता में कितनी दूरी हो सकती है? उससे अधिक दूरी स्वीकार नहीं है, उससे अधिक, उससे ज़रा सी भी अधिक हो गयी दूरी, तो समझ लो कि अनन्त हो गयी दूरी।
यावदेतान्निरीक्षेहं योद्धकामानवस्थितान्। कैमर्या सह योद्धव्यस्मिन्रणसमुघमे।।
तो कह रहे हैं अर्जुन, “मैं इन सब युद्ध करने की कामना से अवस्थित योद्धाओं को देखूँ, कि किन वीरों के साथ मुझे युद्ध करना होगा।”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २२)
क्या जानते नहीं अर्जुन, किनके साथ युद्ध करना होगा? अचानक नींद से जगकर के स्वयं को युद्धस्थल पर पा रहे हैं? नहीं, यहाँ देखने का अर्थ गहरा है — मैं उनको समझूँ, मैं उनको क्या समझूँ, मैं अपनी स्थिति को समझूँ। मैं किसके विरुद्ध खड़ा हूँ।
“हे! कृष्ण, बीचों-बीच ले चलिए मेरा रथ, मैं इन सबको देखना चाहता हूँ, जिनके साथ मुझे युद्ध करना होगा।”
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियाचिकीर्षवः।।
“जब तक मैं इन सब युद्ध करने की कामना से अवस्थित योद्धाओं को देखूँ कि किन वीरों के साथ मुझे युद्ध करना होगा। इस युद्ध में दुष्ट बुद्धिवाले धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन का प्रिय कार्य करने के इच्छुक जो राजा लोग यहाँ उपस्थित हैं, उन युद्धार्थियों को मैं देख तो लूँ।”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २३)
सब पता है कि ये दुष्ट बुद्धि है, लेकिन फिर भी उसे मारने का मन नहीं है — क्षमा, उदारता, एक आर्द्रता, एक कोमलता। बहुत दुष्ट है, इसे गहरा दंड मिलना चाहिए। इसको नष्ट ही कर दूँ मैं, पर बार-बार छोड़ता रहता हूँ। ये पहली बार नहीं हो रहा है कि दुर्योधन को छोड़ देने की बात। पहले भी कम-से-कम दो अवसरों पर अर्जुन ने कौरवों को क्षमा दान दिया। एक बार तो यहाँ तक हुआ कि कौरव फँसे हुए थे, तो पांडवों ने जाकर के उनकी जान बचायी। ऐसा आप तभी कर सकते हो, जब आपके लिए बदले, प्रतिशोध से ऊपर कुछ हो। और बस इसी बात का कृष्ण को आसरा है।
वो कह रहे हैं, आम आदमी के लिए ये सब चीज़ें बहुत बड़ी होती हैं, जैसे पशुओं के लिए ये सब बहुत बड़ी बातें होती हैं। स्वार्थ, सत्ता, सुख, प्रतिशोध — ये सब पशुओं के लिए बड़ी बातें होती हैं। कोई ऐसा मिला है जिसके लिए प्रतिशोध से बड़ा कुछ है, ये व्यक्ति थोड़ी सम्भावना दिखा रहा है। इसके साथ कुछ आशा बँध रही है कि फिर जो सबसे बड़ा है, ये उस तक भी पहुँच सकता है, कम-से-कम ये ज़मीन से थोड़ा तो उठा।
आप ज़मीन पर बीज डाल दें बहुत सारे, और वो बीज ऐसे वृक्ष के हैं, जो न जाने कितने मीटर ऊपर जाता है — दस मीटर, बीस मीटर, बहुत ऊँचा हो जाता है — और उनमें से किसी बीज से बस कुछ सेंटीमीटर का एक अंकुर आपको फ़ूटता दिखाई दे, एक सेंटीमीटर, तो यही क्या बहुत बड़ी आशा की बात नहीं है? अगर एक सेंटीमीटर भी वो ज़मीन से ऊपर उठ आया तो दस मीटर भी ऊपर जा सकता है। दस मीटर की तुलना में वो कहीं पर भी नहीं है। जीवनमुक्त की तुलना में अर्जुन का आध्यात्मिक स्तर कुछ भी नहीं अभी, लेकिन अर्जुन ने एक सम्भावना दर्शा दी है। भूमि के स्तर से थोड़ा ऊपर उठ आये हैं, अर्जुन।
आम मन और आम जीवन के स्तर से थोड़ा ऊपर उठे हैं, अर्जुन। तो कृष्ण कह रहे हैं, अगर ये इतना ऊपर उठ सकते हैं तो पूरा भी ऊपर उठ सकते हैं। आप थोड़ा सा तो ऊपर उठिए, फिर कृष्ण का हाथ मिलेगा।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा स्थोत्तमम्।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति।।
संजय बोले — हे! धृतराष्ट्र, अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और अन्य समस्त राजाओं के सम्मुख रथ को खड़ा करके कहा, “हे! पार्थ, इन सारे एकत्रित कौरवों को देखो।“
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २४-२५)
जो चाहते हो, अर्जुन, मैंने कर दिया। कृष्ण मना कर सकते थे, कोई भी अन्य सारथि मना कर देता। सारथी का काम घोड़े हाँकना भर नहीं होता, सारथी का बड़ा महत्वपूर्ण पात्र होता है। सारथी लगातार सलाह देता चलता है। सारथी को बात करने का, राय देने का परम्परागत अधिकार होता था।
कर्ण की हार में शल्य का कोई छोटा-मोटा योगदान नहीं था। कहने वालों ने कहा है कि कर्ण और अर्जुन में अन्तर शल्य और कृष्ण का था। अन्यथा दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं था। कृष्ण ने मना नहीं करा। अर्जुन को खतरा भी हो सकता था। दुर्योधन की छवि कोई धार्मिक व्यक्ति की तो है नहीं। कुख्यात है दुर्योधन, धार्मिकता और नैतिकता को अपने स्वार्थ तले पद दलित कर देने के लिए। जीवनभर दुर्योधन ने ऐसा ही करा — स्वार्थ सर्वोपरि।
शंखनाद हो चुका है, तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी हैं, और तीर तरकश से। अपनी सेनाओं की सुरक्षा त्यागकर के अर्जुन कह रहे हैं, बीच में ले चलो। कृष्ण मना नहीं भी करते, तो भी राय प्रकट कर सकते थे, कि खतरा है इसमें, सोच-समझकर बीच में जाओ पार्थ। जैसा तुम कह रहे हो, दुर्योधन दुष्टबुद्धि है और डरा हुआ है। और डरा हुआ आदमी अधार्मिक, अनैतिक ही नहीं, अति हिंसक भी हो जाता है। और भलीभाँति पता है दुर्योधन को, कि पांडवों के खेमे में तुम्हारा क्या स्थान है। तुमको गिराते ही दुर्योधन को लगेगा कि आधा युद्ध जीत गया। ये जो तुम कर रहे हो इस पर पुनर्विचार करो। ऐसा कुछ नहीं कहते कृष्ण।
क्योंकि अर्जुन के ऊपर आते खतरे से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण और सुन्दर कुछ और आने को है। उस सौन्दर्य और सत्य के लिए ये खतरा झेला जा सकता है, मृत्यु तो सभी को आनी है। और कृष्ण कहते हैं, ‘जो मर सकता है उसको मरा ही जानो। और जो अमर है उसको मारेगा कौन?’ तो जो मर सकता है, उसको बचाने की खातिर कृष्ण उसे दाँव पर नहीं लगाएँगे, जो अमरता का वाहक है, ‘श्रीमद्भगवतगीता।‘
कुछ बहुत सुन्दर, बहुत अद्भुत होने जा रहा है। कृष्ण उसको बाधित नहीं करेंगे, कृष्ण तो सहयोग देंगे। अर्जुन कहते हैं, ‘बीचों-बीच ले चलिए।’ कृष्ण कहते हैं, ‘ठीक, चलते हैं।’ जो तुम्हारे साथ हो रहा है, अर्जुन, वो इतना विराट है और इतना अमूल्य है कि उसके लिए प्राणों का भी मूल्य यदि चुकाना पड़े तो बात छोटी है।
आओ, चलो, चलते हैं। बीच में ले गये, बोले, ‘हे! पृथापुत्र, लो देखो, यही चाहते थे न, तो देखो सबको।’ और ठीक जब कृष्ण कह रहे होंगे कि अर्जुन देखो दोनों ओर, कृष्ण सजग होंगे। कहीं से प्रत्यंचा के कसने कि सूक्ष्म ध्वनि तो सुनाई नहीं दे रही, किसी का तीर निशाना लेता तो नहीं दिखाई दे रहा — पारब्रह्म हैं, पर अभी तो मनुष्य हैं। अवतार लिया है तो उनके पास भी मनुष्योचित भावनाएँ हैं — एक आँख से देख रहे होंगे, किसी का भाला, किसी की तलवार तैयार तो नहीं हो रही, अर्जुन अभी भाव में है, अर्जुन अभी तैयार नहीं, अर्जुन अभी असुरक्षित है। इस पल कोई घात करता है तो अनर्थ हो सकता है। धर्म और नियम तो यही कहते हैं कि घात होना नहीं चाहिए। पर धर्म और नियम पर ही यदि चले होते तो ये युद्ध क्यों खड़ा होता! यदि इस युद्ध की स्थिति बन सकती है, तो अपघात, माने धोखे की भी स्थिति बन सकती है। कुछ भी हो सकता है, और जो कुछ भी हो सकता है उसका सामना करना ही उचित है। अर्जुन के यदि प्राण भी चले जाएँ तो भी वो छोटी बात है, उस घटना के सामने जो अब सम्भावित रूप से घटने वाली है।
युगों में कोई होता है जिसके सामने एक जीवन्त शास्त्र खड़ा होता है। शास्त्र एकबार उतर आया, उसके बाद तो वो पुस्तकबद्ध हो जाता है। फिर तो कोई भी उस पर हाथ रख सकता है। पर महत् घटना तब खड़ी होती है, जब शास्त्र का जन्म ही होता है, जब शास्त्र का मौलिक अवतरण होता है। और ऐसी घटना युगों, कल्पों में एक बार घटती है — कि जब शिष्य ऐसी स्थिति में पहुँच गया हो, कि गुरु उसको बैठा करके आमने-सामने, मौलिक ज्ञान दे — वैसी घटना घटने जा रही है। कृष्ण उस घटना को बाधित नहीं होने देंगे।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान्। आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।
‘वहाँ अर्जुन ने दोनों सेना दलों में अवस्थित अपने चाचाओं, दादाओं आचार्यों, मामाओं भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, बन्धुओं, ससुरों और मित्रों को देखा।’
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २६)
जैसे अर्जुन को पहले ही नहीं पता था, अर्जुन को सब पता है। युद्धकला में अर्जुन मंझे हुए खिलाड़ी है, व्यूह रचना में सिद्धस्थ हैं। भलीभाँति जानते हैं वहाँ कौन-कौन मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद है, और किस कारण से उसको किस जगह पर स्थापित किया गया है, सब जानते हैं अर्जुन। पूरा जीवन ही युद्धों में बिताया है। पर अर्जुन ने देखा — यहाँ से नहीं(आँखों की ओर इशारा करते हुए), दर्शन, जानना, समझना — सिर्फ़ शरीर को नहीं देख रहे हैं, पूरी घटना को समझ रहे हैं। ये क्या हो रहा है। पूरी तरह नहीं भी समझ पा रहे, तो जानने का प्रयास है। ये क्या हो रहा है, ये क्या हो रहा है।
अर्जुन की दृष्टि अपने गुरुजनों और सम्बन्धियों को देख रही है, और कृष्ण की दृष्टि अर्जुन की दृष्टि को देख रही है। क्या अर्जुन के देखने में गहराई है? गहराई है यदि, तो आज ही बात बन जाएगी। इस तरह की लड़ाइयाँ तो बहुत होती रही हैं इतिहास में, आगे भी होंगी। पर अभी कुछ ऐसा हो जाएगा — अगर अर्जुन के देखने में गहराई है — जो बात इतिहास की नहीं है, जो बात समय के पार की है। महाभारत बड़ी लड़ाई थी, पर ऐसी बड़ी लड़ाइयाँ दुनिया में बहुत हुई हैं। महाभारत के पहले भी, महाभारत के बाद भी, भारत के भीतर भी, भारत के बाहर भी। इंसान का काम है लड़ना, हम तो लड़ते ही रहे हैं। गीता बार-बार नहीं आयी है। गीता महाभारत के युद्ध से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। गीता पूरे महाभारत ग्रन्थ से कहीं ज़्यादा बड़ी है। हाँ, श्लोक संख्या के आधार पर आप ये कह सकते हैं कि गीता तो महाभारत का एक छोटा-सा अंश है,नहीं, वो अंश नहीं है। गीता में सहस्रों महाभारतें समा जाती हैं।
समझ में आ रही है बात?
स्थूल दृष्टि श्लोकों की संख्या गिनती है। सूक्ष्म दृष्टि श्लोकों का महत्व देखती है। वेदान्त का पूरा अमृत समाया हुआ है गीता में। इतनी बड़ी है गीता। मुझे तो प्रतीत होता है कि कृष्ण की धड़कनें भी तेज़ हो गयी होंगी। महाभारत के युद्ध से कहीं ज़्यादा बड़ी कोई चीज़ होने जा रही है।
कृपया पस्याऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत। दष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। वेपथुश्र्व शरीरे मे सेमहर्षश्र्व जायते।।
अर्जुन कहते हैं — हे! कृष्ण, इन युद्धाभिलाषी अवस्थित स्वजनों को देखकर मेरे सारे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, शरीर में कम्पन और रोमांच हो रहे हैं, हाथ से गांडीव-धनुष गिर रहा है, अंग जल रहे हैं।
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक २८-३०)
ये यकायक नहीं हो गया, अचानक नहीं हो गया, अर्जुन ऐसे हैं ही। ये होना ही था, इसीलिए अर्जुन ने कहा था बीचों बीच ले चलो। अर्जुन को भी पता था ये होना है, कृष्ण को भी पता था ये होना है, दोनों ने होने दिया।
ऐसी आफ़तों, ऐसी आपदाओं का स्वागत करते हैं। पता है दिक्कत खड़ी होने जा रही है, होने दो। पता है अब फँसेंगे, फँसने दो। पता है वहाँ पहुँच गए अगर तो मुँह सूखेगा-ही-सूखेगा, धनुष छूटेगा-ही-छूटेगा, छूटने दो। कुछ भी हो जाए वो होना ज़रूरी है, सब आपदाएँ और विपत्तियाँ स्वीकार हैं। दिख भी रहा हो कि आ रहीं हैं, तो भी उन्हें रोक मत देना। गीता सुख और सुविधा पर सवार होकर नहीं आती।
आपके जीवन में गीता जब भी आएगी, विपत्तियों, आपदाओं, युद्ध, संघर्ष, रक्तधार के साथ आएगी। इन सब से यदि आपको भय लगता हो, तो गीता फिर आपके लिए नहीं है। गीता न तो किसी निर्जन वन में किसी वटवृक्ष की शान्त छाया में बोली गयी है, न किसी राजमहल में सब सुख-सुविधाओं के मध्य उतरी है। गीता तो मौत के खतरे, युद्ध के तुमुलनाद के बीचों-बीच ही उतरती है।
जो जीवन में निष्कंटक शान्ति के इच्छुक हों, गीता उनके लिए नहीं है। उनके लिए और पुस्तकें हैं। किसी आश्रम से नहीं उठी है गीता, हिमालय की गंगा तट की शान्ति से नहीं उठी है गीता, न ही किसी बड़े राजा और उसके राजगुरु का महल की सभा में संवाद है गीता। गीता उसके लिए है जिसे अगले ही पल अपने जीवन का भी पता न हो। गीता उसके लिए है जिसे ये समझ ही न आ रहा हो कि मर जाना ज़्यादा बुरा है या मार देना।
गीता समागम के दौरान मैं आपको लगातार याद दिलाता रहूँगा, आपको गीता के योग्य बनना होगा। गीता कोई मिठाई नहीं कि जो चाहे मूल्य चुकाए और खा ले। गीता आहुति माँगती है, दो रुपये की चीज़ नहीं है। कोई पुस्तक नहीं है कि आप बाज़ार गये, कुछ रुपये दिये और खरीदकर घर ले आये। ज्ञान भर नहीं है कि पढ़ लिया, स्मृतिस्थ, कंठस्थ कर लिया और आप सुविज्ञ हो जाएँगे। जीवन के आतप-अन्धड़ जिन्होंने नहीं झेले, वो क्या समझेंगे अभी क्या चल रहा है अर्जुन के साथ — न वनवास झेला, न अज्ञातवास झेला, न द्यूत, न लाक्षाग्रह।
युद्धों से सदा कतराते रहे, अब क्या समझोगे गीता को। जो साधारण मानवीय कमज़ोरियों से ऊपर वरीयता देता हो किसी और चीज़ को, उसके लिए कुछ आशा है। जो जीवन भर पशुवत नौचता-खसोटता ही रहा है, कभी ये पाने, कभी वो कमाने के लिए इधर-उधर भागता रह है, डर और लालच के सामने घुटने टेकता रहा है, प्रेम का जिसको कुछ पता नहीं, उसके लिए नहीं है गीता।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्तवक्वैच परिदह्यते। न च शवनोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
“हे! केशव, मैं तो खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। मेरा मन घूम-सा रहा है, और मैं न जाने कितने विपरीत लक्षण माने अपशकुन आदि देख रहा हूँ।”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३०-३१)
जीवन का आधार ही हिल रहा है। हमारे जीवन का आधार हिलता ही नहीं, हम बड़े ढीठ लोग हैं। न जाने किस ईंट-पत्थर से बना है हमारे अहंकार का किला ढहना तो दूर है, वो कभी काँपता नहीं। स्थितियाँ हो, संयोग हो, गुरु हो, ज्ञान हो, कोई कितना भी चोट कर ले हमारे अहंकार पर, हमारे अज्ञान की इमारत काँपती तक नहीं, हम खडे़ रहते हैं ढिठाई से।
अर्जुन काँप रहे हैं, बड़ा अन्तर है। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर काँप रहा है, और काँप बस शरीर से नहीं रहा, मन कम्पित है। और बस मन ही नहीं कम्पित है, मन का केन्द्र कम्पित है। हमारा केन्द्र कभी का़ँपता नहीं। हमें पूरी आश्वस्ति है, कि हम जैसे हैं, हम ही ठीक हैं, अपने हिसाब से चलेंगे। अर्जुन का सब हिसाब-किताब अभी गड़बड़ा गया है। हमारा हिसाब-किताब अडिग रहता है — मैं ठीक हूँ, मैं अपने हिसाब से चलूँगा। हमारे जीवन में वो एक खास पल आता ही नहीं — जब लगे कि पाँव तले ज़मीन खिसक गयी, आधारहीन हो गये। हमारा आधार अहंकार ही होता है न? हमारे जीवन में वो पल ही नहीं आने आता कि जब हम आधारहीन हो जाएँ। ऐसा लगे जैसे दम घुट रहा हो, जीवन छिन रहा हो, वो घड़ी हम आने ही नहीं देते। कुछ हो जाए, हमें कोई अन्तर नहीं पड़ता।
न हमारे पास शौर्य है, न लाज है। हमारे पास न प्रेम है, न दुख है। हमारे पास बस एक ढीठ बेहोशी है, जिसमें हमें कुछ पता ही नहीं चलता। उस बेहोशी को ही हम बनाये रहते हैं, क्योंकि उस बेहोशी में ही हमारे लिए सुख है। बेहोशी उतरेगी, बड़ा गहरा दुख लगेगा। उस दुख की अपेक्षा में बेहोशी बेहतर है, बेहोशी में सुख है।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
“हे! कृष्ण, युद्ध में अपनों का, स्वजनों का वध करके मैं कोई मंगल नहीं देखता। मैं युद्ध में जय-लाभ की, जीत की आकांक्षा नहीं रखता। न राज्य या सुख भोग की ही कामना करता हूँ।”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३१-३२)
ये देखना आसान है कि अर्जुन मोहग्रस्त हैं, उससे पहले ये देखिए कि अर्जुन को सत्ता का और विजय का कोई मोह या लोभ नहीं। यदि अर्जुन को लोभ इस वक्त हैं भी तो स्वजनों की प्राण रक्षा का। और इतिहास गवाह है कि महल और सत्ता, और धन में ऐसा नशा होता है कि लोगों ने स्वजनों की हत्या करने में भी संकोच नहीं करा है। सिंहासन के लिए भाई ने भाई को और बेटे ने बाप को मारा है। और यहाँ पर तो अर्जुन के पास वैध, समुचित, नैतिक कारण है दुर्योधन के खिलाफ़ युद्ध करने का, लेकिन फिर भी सत्ता और प्रतिशोध से ऊपर मूल्य दे रहे हैं, अर्जुन, किसी और चीज़ को। वो बात महत्व रखती है।
“हे! कृष्ण, युद्ध में स्वजनों का वध करके मैं कोई मंगल नहीं देखता।”
सत्ता तो ठीक है, स्वजनों को मारकर सत्ता! सत्ता के प्रति एक निर्मोह है, वो भी देखिए। स्वजनों के प्राणों के प्रति मोह है, ये तो दिख रहा है, पर सत्ता के प्रति एक अनासक्ति भी है, एक निर्मोहता भी है, वो भी देखिए। वही अर्जुन को अधिकारी बनाती है गीता का।
देखिए गीताएँ संयोग नहीं होतीं। कोई गीता कभी संयोग नहीं होती, और कोई गीता कभी अनुपलब्ध भी नहीं होती। आपकी तैयारी हो जाए तो गीता आपको अभी उपलब्ध हो जाए। हमारी तैयारी नहीं होती, और तैयारियाँ कोई संयोग की बात नहीं होती, तैयारियाँ चुनाव की बात होती है। चैतन्य चयन करना पड़ता है गीता का।
तो पहली बात, आपकी ओर से एक चैतन्य तैयारी, एक होशपूर्वक किया गया चुनाव हो, और दूसरी बात, कृष्ण की ओर से कोई विलम्ब या अवरोध नहीं है। जिस क्षण आपकी तैयारी पूरी हो गयी, जिस क्षण आपका चुनाव निर्दोष हो गया, गीता जैसे तैयार खड़ी है, आपको मिल जाएगी। कहाँ से आएगी, कैसे आएगी, वो छोड़िए। आपको पूछना ये चाहिए कि आपकी तैयारी कैसे होगी। तैयारी अभी हुई नहीं और पहले उत्सुकता है, कि बताइए तैयारी के बाद गीता कहाँ से आएगी। जहाँ से आपकी तैयारी आएगी, वहीं से गीता आएगी। आप तैयारी करिए। और तैयारी आपकी नहीं है तो आप जीवन भर पाठ करते रहिए गीता का, आपको कुछ नहीं मिलेगा। अधिकान्श लोगों को कुछ नहीं मिलता। एक से एक गीता शास्त्री बैठे हैं, जीवन उनका धूल-धूसरित ही रहता है, कोई चमक नहीं, कोई निर्मलता नहीं।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।
“हे! गोविंद, हम लोगों को राज्य से क्या प्रयोजन है? हमें विषय भोगों से या जीवन से भी क्या लेना है?”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३२)
ये योद्धा के नहीं, ये एक सन्यासी के वचन प्रतीत हो रहे हैं। कृष्ण समझ रहे हैं कि उनकी मुस्कुराहट व्यर्थ नहीं जाने वाली! कृष्ण को दिख रहा है कि पल, न सिर्फ़ सम्भावित हैं, बल्कि अति निकट है अब।
“हे! गोविंद, हम लोगों को राज्य से क्या प्रयोजन है?”
‘गोविंद, मैं आपके जैसा हूँ, मैं उनके जैसा नहीं हूँ। मैं राज्य लेकर क्या करूँगा? मेरे लिए आप काफ़ी हैं। हमें जीवन से भी क्या लेना है?’ एक योद्धा कई बार ये कहता मिलेगा कि क्या लेना-देना है जीवन से, पर वो ऐसा कहता है, जब उसे शत्रुओं के तीर झेलने होते हैं। वो कहता है, जो मुझे चाहिए उसके लिए मैं मर भी जाऊँ तो मरना स्वीकार है। पर जिस चीज़ पर मेरी दृष्टि है, जिस वस्तु का मुझे लोभ है, जहाँ मैंने लक्ष्य बनाया है, वो तो मुझे चाहिए, भले ही उसके लिए जीवन गँवा दूँ।’
अर्जुन की हालत बिलकुल उल्टी है। अर्जुन कह रहे हैं, उनको नहीं मारूँगा, वो भले ही मुझे मार दें तो भी स्वीकार है।’ जीवन बचाने के लिए भी किसी का जीवन नहीं लूँगा। अपना जीवन बचाने के लिए भी किसीका जीवन नहीं लूँगा। भले ही वो दुर्योधन क्यों न हो, भले ही वो कितना भी दुष्ट क्यों न हो, दंड नहीं दूँगा
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाःसम्बन्धिनस्तथा।।
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३३-३४)
हम जो भी पाना चाहते हैं, किन्हीं लोगों के लिए पाना चाहते है — कम-से-कम अर्जुन जैसे लोग अपने लिए कुछ बहुत चाहते नहीं। वो यदि कुछ जीतकर लाते हैं, कुछ कमाकर लाते हैं, तो भी उनकी इच्छा ये होती है कि दूसरों में बाँट दें, अपनों के लिए वो लाते हैं, बाँटने के लिए वो कमाते हैं — सबकी नहीं, अर्जुनों की बात कर रहा हूँ।
तो अर्जुन कह रहे हैं, मैं कहीं कुछ जीतकर लाता, तो मैं इनके चरणों में अर्पित करता। ये मेरे गुरु लोग हैं, सब आचार्य है, ये मेरे पितामह हैं, मेरे सम्बन्धी हैं, कुछ मुझसे बड़े हैं, कुछ मुझसे छोटे हैं। मैंने जीवन में जो भी उपलब्धियाँ करी होतीं, वो तो मैं सब इनको अर्पित करता न। इन्हीं के लिए मैं उपलब्धियाँ करता, अब इनको मारकर जो मुझे उपलब्धि मिलेगी, वो किसके लिए होगी, बताओ? जिसके लिए मैं युद्ध जीतता, उसको मारकर मैं युद्ध जीतूँ तो क्या लाभ, बताओ केशव?
“हे! गोविंद, हम लोगों को राज्य से क्या प्रयोजन है? हमें विषय-भोगों से या जीवन से भी क्या लेना है, जिन लोगों के लिए हमें राज्य, विषय-भोग और सुख आकांक्षित हैं, वे सभी आचार्य, पितृव्य, पुत्र, पितामाह, मातुल, ससुर, पौत्र, साले, कुटुम्बी सब अपने-अपने जीवन की आशा, धन-संपत्ति छोड़कर इस युद्ध में खड़े हुए हैं।”
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।
“हे! मधुसूदन, मुझे मारने पर भी अथवा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल — इन तीन लोकों का राज्य पाने के लिए भी मैं इन लोगों की हत्या नहीं करना चाहता, फिर केवल पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३५)
ये मुझे मार भी दें, चाहे इनको मारने से मुझे स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक सब मिलता हो, मैं तब भी इनकी हत्या नहीं करना चाहता। फिर पृथ्वी के एक छोटे से भूखंड को पाने के लिए मैं इनको मारुँ! ये क्यों करूँ मैं? मुझे तीन लोक मिलते हों, मैं तो भी नहीं मारूँ इन्हें; एक राज्य के लिए इनको काहे को मार दूँ! मुझे मार भी रहे हो ये, मैं तो भी इनको नहीं मरना चाहता।
देहभाव से कहीं आगे खड़े हुए हैं, अर्जुन, इस समय। न उन्हें अपनी देह की रक्षा करनी है, न उन्हें अपने स्वार्थ की रक्षा करनी है, तैयारी बिलकुल पूरी है। बार-बार कह रहे हैं, वो मुझे मार भी दें तो भी मुझे उन्हें मारना नहीं है। ये देहाभिमानी नहीं कह सकता। जो देह से अपनी आसक्त हो, वो ऐसा नहीं कह सकता। और जो अभी मन की वासनाओं से संतप्त हो, मन का बन्धक हो, वो भी नहीं कह पाएगा, कि राज्य के लिए मैं युद्ध या हत्या क्यों करूँ? तन और मन दोनों से एक कदम आगे खड़े हो गये हैं अर्जुन, इस पल में — ये पल विशेष है।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्ननः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।
“हे! जनार्दन, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम लोगों को क्या सुख मिलेगा? इन आतर्ताइयों की हत्या करके हमें पापी ही बनना पड़ेगा।”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३६)
एक तरफ़ तो कह रहे हैं कि वो आर्ततायी हैं सब, दूसरी ओर कह रहे हैं कि इनको मारकर क्या सुख मिलेगा; हम ही पापी हो जाएँगे। अन्धे नहीं हो गये मोह में, दिख रहा है कि दुर्योधन दुष्ट है, दिख रहा है कि सामने जितने हैं, सब विधर्मी हैं। लेकिन फिर भी कह रहे हैं कि इनको क्या मारना! कौनसा सुख रखा है इनको मारने में! नहीं कह रहा हूँ कि ये श्रेष्ठ हैं, इसलिए इनको मत मारो। मैं तो ये कह रहा हूँ कि मेरा कोई स्वार्थ नहीं बचा इनको मारने में।
अब ये बड़ा विशेष बिन्दु है, निस्वार्थ हो गया हूँ मैं। मैं पहले तीर चलाता था स्वार्थ के लिए — हर योद्धा ने आजतक तीर चलाया है स्वार्थ के लिए — मेरे पास स्वार्थ तो अब नहीं बचा। तो स्वार्थवश इनको नहीं मार सकता मैं।
कृष्ण कह रहे हैं, अब मैं तुम्हें स्वार्थ और निस्वार्थ से ऊपर एक और कारण देने वाला हूँ, अर्जुन, तीर चलाने का, बस कुल, कुछ पल अब प्रतीक्षा करो। एक तीर चलता है स्वार्थ से, वो तीर नहीं चलता, जब तुम निस्वार्थ हो जाते हो। तुम कहते हो, ‘स्वार्थ में, मैं लड़ता था, भिड़ता था, हत्याएँ करता था, स्वार्थ का काम था। मैं निस्वार्थ हो गया, मैं तीर कैसे चलाऊँ?’
निस्वार्थ हो जाते हो, तीर रुक जाता है, गति रुक जाती है कृष्ण कह रहे है, ‘न! जब तुम वास्तविक रूप से निस्वार्थ होते हो, तब तीर दोबारा चलता है। और तब उसकी धार और गति अलग होती है, वो तुम अभी जानते नहीं है, अर्जुन, वो मैं तुम्हें सिखाऊँगा।’
तुमने आज तक सारे युद्ध करे है स्वार्थवश, आज मैं तुमको सिखाने जा रहा हूँ निस्वार्थ होकर के कैसे युद्ध किया जाता है। चूँकि तुमने आज तक सब स्वार्थवश ही युद्ध करे हैं, इसलिए थोड़ा सा निस्वार्थता का स्वाद पाते ही तुम्हें लग रहा है अब युद्ध कैसे करूँ? क्योंकि स्वार्थ ही तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारा ईंधन था। स्वार्थ हट गया, अब धनुष भी गिरा जा रहा है। पर नहीं, ऐसा नहीं है कि जो निस्वार्थ हो जाते हैं उनका बल कम हो जाता है, उनके हाथ काँपने लगते हैं। निस्वार्थ होने के बाद तो व्यक्ति और घोर युद्ध करता है। वो युद्ध अब मैं तुमसे करवाऊँगा पार्थ, बस कुछ पल।
महाकाव्य अब शुरु ही होने जा रहा है, महागीत बस ज़रा सी दूर है अब।
समझ में आ रही है बात?
दुनिया के लोग इसी में पगलाये रहते हैं, कहते हैं, अगर स्वार्थ मिट गया, तो कोई कुछ करेगा क्यों?’ जब स्वार्थ मिट जाता है, तब तुम कौरवजयी अर्जुन हो जाते हो। स्वार्थ मिटने से युद्ध रुकता नहीं है। जब स्वार्थ मिट जाता है, तब वास्तविक युद्ध शुरु होता है। जब तक स्वार्थ रहता है, तब तक तो तुम छोटे युद्धों में ही उलझे रहते हो। स्वार्थ छोटी चीज़ है न, उसको बचाने के लिए बहुत सारे छोटे-छोटे युद्ध करने पड़ते हैं। जैसे सड़क पर दो छोटे मवाली आपस में भिड़ गये हो। उसको तुम महाभारत का महायुद्ध थोडे़ ही कहोगे।
स्वार्थवश आदमी बस उतनी ही बड़ी लड़ाईयाँ करता है — नुक्कड़ वाली झड़पें। महाभारत जीतने के लिए तो निस्वार्थ ही होना पड़ता है। और निस्वार्थ हो भी फिर वही पाते हैं जो महाभारत का चयन करते हैं, दोनों बातें एक साथ।
जिनके जीवन में छोटे मुद्दों और छोटी झड़पों से बड़ा कुछ नहीं है, मैं उनसे पूछा करता हूँ, तुम्हें गीता मिल भी गयी, तुम उसका करोगे क्या? तुम्हारी ज़रूरत कुल इतनी सी है, तुम्हारी ज़रूरत बस ये है कि तुम्हें पड़ोस के गुड्डू से हिसाब बराबर करना है — कल वो तुम्हारी सिगरेट चुराकर भाग गया था — तुम्हारी कुल इतनी सी ज़रूरत है, तुम्हें कौनसी बड़ी लडाई लड़नी है? तुम्हें इसमें गीता की ज़रूरत ही नहीं है।
मच्छर मारने के लिए क्रूज़ मिसाइल थोड़े ही चाहिए होती है! और गीता क्या है? गीता क्रूज़ मिसाइल है। और आपको मारने है मच्छर। आपके लिए तो ‘सेल्फ़ हेल्प (स्वयं सहायता) के ऑल आउट ही काफ़ी हैं। वो बहुत सारी किताबों की दुकानों पर मिलते हैं।
सेल्फ हेल्फ, सेल्फ हेल्फ, वो सब यही हैं मच्छर मारने की ऑल-आउट।
समझ में आ रही है बात?
अपने जीवन को देखो, अभी बीते हुए दिन को ही देख लो, तुमने कौनसी बड़ी चुनौती उठायी? गीता तुमको क्यों मिले, भाई? आज का ये जो दिन बीत रहा है, मुझे बताओ इस दिन में तुम्हारे सामने बड़े-से-बड़ा मुद्दा क्या था? तुम रसोई में गये, तुम्हारी दाल कोई और खा गया, आज दाल नहीं मिली है।
है इससे बड़ा कुछ?
किसी को बेवकूफ़ बनाना चाहते थे, उसने पकड़ लिया। आज की बड़ी ख़बर बस यही है — बेवकूफ़ बना रहे थे, धरे गये।
तुम्हारी इस ज़िन्दगी में गीता आकर करेगी क्या?
वो बहुत बड़ी चीज़ है, तुम्हें छोटी चीज़ें चाहिए। तुम बाज़ार जाओ, जमाल-घोटा लेकर आओ — इस तल की हमारी ज़रूरते हैं। गीता उसके लिए, जिसे गीता की ज़रूरत हो।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।
“इसलिए हमें धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हे! माधव, अपने ही सम्बन्धियों की हत्या करके हम सुखी कैसे रहेंगे?”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३७)
यघप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम्।।
यद्यपि ये धृतराष्ट्र-पुत्र लोभ से अन्धे होने केकारण कुलनाशकारी दोष तथा बन्धुओं को मारने से उत्पन्न पाप को नहीं देखते।”
मुझे पता है ये कैसे हैं, ये कुल नाशकारी है।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।
“तो भी हे! जनार्दन, कुलक्षय से होने वाले दोष को देख-सुनकर भी हम लोगों को इस पाप से निवृत होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?”
श्रीमद्धभगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ३८-३९)
वो जैसे हैं तो हैं, हम उनके जैसे क्यों बन जाएँ? वो दुष्ट हैं, पतित हैं, वो हमें मारने से पीछे नहीं हटेंगे। हम भी उन्हें मार दें यदि तो, हममें उनमें अन्तर क्या? उदात्त विचार!
कृष्ण कह रहे हैं, ‘ठीक है, शुरुआत ठीक है, अन्त में करूँगा।’ इसी शुरुआत की तलाश थी मुझे, क्योंकि एक चीज़ है जिसका अन्त करना बहुत आवश्यक है। पर उसका अन्त में स्वयं नहीं कर सकता, मैं भी जैसे पराश्रित हूँ। मुझे भी कोई चाहिए होता है, जो मुझे एक शुरुआत दे दे। तुम मुझे वो शुरुआत बस दे दो, आगे का काम मेरा है। वो शुरुआत है तो शुरुआत भर ही, पर मिलती नहीं, बड़ी बिरली चीज़ है। करोड़ों में कोई एक वो शुरुआत दे पाता है। अन्त आसान है, वो तो कृष्ण कर देते हैं, आरम्भ कठिन है, क्योंकि वो अर्जुन को करना है। आरम्भ हमेशा शिष्य करता है, इसीलिए सबसे बड़ी बाधा आरम्भ ही है। अन्त गुरु के हाथों होता है, वो हो जाता है।