प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी! पहले मैं सोशल मीडिया पर ज़्यादा सक्रिय नहीं था। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय आने के बाद, मैं थोड़ा ज़्यादा सक्रिय हो गया हूँ। तो मैं देखता हूँ, सोशल मीडिया पर आजकल बहुत सारे बाबा लोग हैं, जो अपना आधिकारिक ऐप बना लिये हैं। और ऐड के माध्यम से प्रचार कर रहे हैं, कि वो हमारी जन्म कुंडली देखकर, हमारा ग्रह-नक्षत्र देखकर, हमें बताएँगे कि हम किससे प्रेम करते हैं। हमारा शादी कब और किससे होगा। हमें नौकरी कब मिलेगा। आपसे सीखा है कि ये सब अन्धविश्वास है। कोई जोड़ा पूर्व में निर्धारित नहीं होता। तो फिर सरकार इन्हें बैन क्यों नहीं करती अगर यह अन्धविश्वास है तो?
आचार्य प्रशांत: अरे बाबा! क्या पूछ रहे हो? वही अज्ञान जो इन बाबाओं को ज़िन्दा रखे हुए है, उसी अज्ञान के आधार पर तो आज़ादी के बाद से आज तक सरकारें बनती रहीं हैं न। अज्ञान अगर इसलिए हटा दिया कि ये बाबा लोग झाड़फूँक और जन्तर-मन्तर और भविष्य और अतीत और ये सब नाटक कर रहे हैं, इस नाते अगर अज्ञान हटा दिया, तो सरकारें भी तो गिर जाएँगी। अगर शिक्षा पर ध्यान दिया ही गया होता तो दो बातें होतीं। भारत में उन्नीस-सौ-सैंतालीस के बाद से जो सबसे बड़ा अपराध हुआ है, वो ये है कि हमने शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया।
भारत के साथ ही पूरा जो दक्षिण-पूर्व एशिया था, वो आज़ाद हुआ था। चीन भी लगभग उसी समय, जापान की भी दुर्गत हुई थी, उन्नीस-सौ-पैंतालीस में तो उसकी भी हालत ख़राब हो चुकी थी। कोरिया की भी हालत ख़राब थी। और ये जितने आपके इधर के देश हैं, साउथ-इस्ट, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया ये सब लगभग एक समय पर ही अपनी यात्रा शुरू कर रहे थे। सब के सब, फिलीपीन्स।
इनमें और भारत में अन्तर क्या रहा है? इनमें और भारत में अन्तर ये रहा कि भारत ने शिक्षा को सबसे कम क़ीमत का समझा। आज़ादी के बाद के दशकों में, शिक्षा के बहुत ज़बरदस्त कुछ स्तम्भ खड़े भी किये गए, तो वो उच्च शिक्षा में थे। उच्च-उच्चतर शिक्षा में थे। हम आइआइटी (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी) , आइआइएम (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट) वगैरह का नाम लेते हैं। हम आइएससी (इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट) की बात करते हैं। आइएससी ( इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट) तो ख़ैर आज़ादी से पहले का है। हम एम्स (आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़) की बात करते हैं। हम कुछ अन्य संस्थानों की बात करते हैं। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि इन संस्थानों में पहुँचने वाले लोग लाखों में एक थे।
जिन लोगों को शिक्षा की ज़रूरत थी, वो सब लोग जो शिक्षा की धारा में प्रवेश करते हैं, चार साल, पाँच-साल की उम्र में, उनमें से लाखों में कोई एक होता है जो जाकर के हाईयर एजुकेशन के इन इन मन्दिरों से लाभ उठा पाता है। और जो लाभ उठाते हैं, उनमें से भी बहुत सारे तो बाहर चले जाते हैं। तो जो भारत में ही रहने वाले लोग हैं, उनकी बड़ी दुर्दशा रही।
भारत का जो आधारभूत शैक्षणिक ढाँचा है, वो आज भी विश्व के दुर्बलतम में से एक है। उसका नतीजा ये है कि आम भारतीय बहुत अनपढ़ है। बड़ा गन्दा लगेगा सुनने में, पर ऐसी ही बात है। हमें बस इस बात की खुशी है कि हम जैसे ज़्यादातर मामलों में, वैसे इस मामले में भी पाकिस्तानियों से आगे हैं। (श्रोतागण हँसते हैं) पाकिस्तानियों से बस, बांग्लादेशियों से नहीं,वो निकल गए आगे।
तो पहली बात तो, हमारे यहाँ पर अभी भी दो-हज़ार-तेईस में भी जो शिक्षा दर है, वो पिचहत्तर प्रतिशत से आगे निकली नहीं है। पच्चीस प्रतिशत तो हमारे यहाँ आधिकारिक रूप से अनपढ़ हैं। ऑफ़िशियली इल्लिट्रेट पच्चीस प्रतिशत और ये जो पिचहत्तर प्रतिशत हैं, इसमें बहुत बड़ा अनुपात उनका है जो बस अपना नाम लिख पाते हैं। सरकार के अनुसार, अगर बैंक में आपको अँगूठा लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती तो आप साक्षर हो। आप अगर अपना नाम लिख सकते हो तो आप अनपढ़ में नहीं गिने जाते सरकारी दस्तावेजों में। अनपढ़ बस वो है जो अँगूठा छाप है। अँगूठा छाप नहीं हो तो सरकार के हिसाब से आप?
सच तो ये है कि पढ़ने-लिखने वाले भारतीय जो सचमुच पढ़ सकते हों, शायद अभी भी पचास प्रतिशत भी न हों देश में। पच्चीस प्रतिशत तो वो, जो आधिकारिक रूप, ऑफ़िशियली इल्लिट्रेट , पढ़ ही नहीं सकते, पच्चीस प्रतिशत वो जिनको बस अपना नाम लिखना आता है। तो कहीं पर कुछ होता है तो अपना नाम लिख देते हैं। उसके बाद उनकी संख्या आती है, जो पढ़ना तो जानते हैं, पर पढ़ने की क़ीमत नहीं जानते। तो उनको अगर दिया जाए अख़बार कि पढ़ लो, तो कोशिश करके पढ़ तो लेंगे, पर वो कोशिश करेंगे ही नहीं, क्योंकि उन्हें पढ़ने का मूल्य नहीं पता। पढ़ने का मूल्य भी तो शिक्षा बताती है न। अगर शिक्षा ही ठीक न हो तो कैसे पता चलेगा कि शिक्षा का मूल्य क्या है? पढ़ाई-लिखाई का बहुत मूल्य है ये भी तो पढ़ाई-लिखाई ही बताती है न। पढ़े-लिखे न हों तो ये भी नहीं पता होगा कि हम पढ़े-लिखे नहीं है कितना कुछ गँवा दिया ज़िन्दगी में।
कुल मिलाकर के जिनको आप शिक्षित कह सको, शिक्षित व्यक्ति वो होता है जिसके सोचने समझने की शक्ति जाग्रत हो गयी है। शिक्षित लोग भारत में मुझे ताज्जुब होगा अगर एक या दो प्रतिशत से ज़्यादा हैं। सौ में से एक व्यक्ति है भारत में जो शिक्षित है। आपने दो नाम लिये।
आपने कहा एक बाबा और एक सरकार। एक प्रतिशत शिक्षित लोग हैं, निन्यानवें प्रतिशत अशिक्षित हैं, उन्हीं अशिक्षितों से बाबा भी चल रहे हैं उन्हीं से सरकारें भी चलती आयी हैं आज तक। सरकारें कैसे ये जन्तर-मन्तर और अन्धविश्वास बन्द कर देंगी? नहीं कर सकती।
सरकारी स्कूलों की क्या हालत होती है? और ज़्यादातर लोग पढ़ाई तो सरकारी स्कूलों में कर रहे हैं। क्या हालत है वहाँ शिक्षा की? किसको क्या पता है? किसकी सोचने की क्षमता जाग्रत हो रही है? साधारण स्कूलों में जो टॉपर भी होते हैं क्या वो थिंकर्स (विचारक) होते हैं? और ये अभी हम शीर्ष पाँच प्रतिशत की बात कर रहे हैं। पच्चीस और पच्चीस और पच्चीस को तो हम पहले ही हटा चुके हैं, वो तो खत्म ही थे। अब जो बचे हैं पच्चीस उनमें जो शीर्ष हैं, टॉपर्स , उनकी बात कर रहे हैं। क्या वो विचारक होते हैं? या रट्टा मारते हैं? बहुत ज़्यादा साल नहीं बीते हैं, उत्तर प्रदेश की एक सरकार ने बाक़ायदा आधिकारिक रूप से नक़ल कराकर लड़कों को बोर्ड पास कराया था। आप क्या समझ रहे हो कि यहाँ विचारक पैदा होने वाले हैं।
जो भारत में स्टेपल, ब्रैड एंड बटर (उपजीविका) डिग्री हैं, वो हैं बीए (बैचलर ऑफ़ आर्ट्स) और बीएससी (बैचलर ऑफ़ साइंस)। और डिग्री कॉलेजेस की क्या हालत रहती है, आप जाकर देखिये। वहाँ पर जो लड़का या लड़की पढ़ रहा है, उसको कुछ होश है? उसे कुछ समझ में रहा है? उसे दुनिया की कुछ ख़बर है? आप उससे दुनिया की किसी भी मुद्दे पर दो बातें करके दिखा दीजिए। इन लोगों को पता है क्या कि वोट कहाँ डालना है? इनको पता है क्या ज़िन्दगी कैसे चलानी है? तो फिर ये चले जाते हैं किसी एस्ट्रो (ज्योतिष) गुरु के पास।
आपको कोई ताज्जुब होता है क्या जब आप देखते हो कोई व्यक्ति बोलता है कि साहब मैं एमए (मास्टर ऑफ़ आर्ट्स) हूँ और वो ज़बरदस्त अन्धविश्वासी होता है? कोई ताज्जुब होता है क्या? अगर वो सचमुच एमए (मास्टर ऑफ़ आर्ट्स) होता तो अन्धविश्वासी कैसे हो सकता था? अभी हम उनकी नहीं बात कर रहे हैं जो शिक्षा पा ही नहीं पाए, हम उनकी बात कर रहे हैं जिन्होंने पा ली।
हमारा तन्त्र इतना दीमक से चटा हुआ है कि यहाँ जो बी ए , एमए करके बैठे हैं वो भी अशिक्षित ही उनको जानिए आप । हमारे पाठ्यक्रम में ऐसा क्या है जो हमें मौलिक चिंतन के लिए और स्वतन्त्र विचार के लिए प्रेरित करता हो? कुछ करता है क्या? थोड़ा सा जो अभिजात्य वर्ग है, और शहरों की कुलीन हवा है उससे दूर चले जाइए तो लड़के पढ़ इसलिए रहे हैं कि किसी तरीक़े से नौकरी लग जाए, लड़कियाँ पढ़ इसलिए रहीं हैं कि किसी तरह से शादी हो जाए।
इसको आप शिक्षा बोलोगे क्या? इनको आप शिक्षित बोलोगे? शिक्षित हैं? अंग्रेज़ी में बीए करने वाले अंग्रेज़ी का एक वाक्य साफ़ न लिख पाएँ। फिलोसॉफी में डिग्री लेकर के बैठे हैं, फिलोसॉफी की दो बातें इनसे कहलवा लो, उलझ जाएंगे। इन्हें डिग्री मिल कैसे गयी?
मैं सवाल पूछ रहा हूँ अगर किसी के तैंतीस प्रतिशत अंक आ रहे हैं तो उसको हम पास घोषित क्यों कर दे? मुझे बताओ। दस में से तीन-साढ़े तीन नम्बर आएँ हैं, मैं उसे थर्ड डिवीज़न में भी पास क्यों घोषित कर रहा हूँ? बोलो, क्यों करें? क्यों नहीं पासिंग परसेंटेज सत्तर होना चाहिए? जवाब दीजिए। सत्तर से नीचे नम्बर आएँ हैं, दोहराओ न। तुम्हें नहीं समझ में आया अभी। क्या जल्दी है आगे भागने की, जब पीछे की बात नहीं समझ में आयी है तो दोहराओ।
ये कितनी बड़ी साजिश है विचार के खिलाफ, मन और चेतना के खिलाफ, कि सौ में से तैंतीस नम्बर लाओगे तो आगे बढ़ जाओगे। क्यों बढ़ जाओगे? क्यों बढ़ाना है उसे आगे? उसे दोहरवाओ। सत्तर नहीं अस्सी पे बोलो तू दोबारा कर, दोबारा कर। ज़िन्दगीआपको माफ़ कर देती है क्या सत्तर में, सौ में, आप तैंतीस लाते हो तो? बोलो? जब ज़िन्दगी नहीं माफ़ करती तो स्कूल क्यों माफ करता है? और यहाँ तो तैंतीस भी नहीं लाने होते अट्ठाईस पर ग्रेस दे के पास कर देते हैं।
आप छोटे शहरों में और देहात में चले जाइए वहाँ पर डिग्री कॉलेज , इंटर कॉलेज में लड़कियों को फेल नहीं करते। कहते हैं, इसका ब्याह होना हैं इसको फेल-वेल क्या करें। उसको दो बातें पक्की होती हैं पहला कॉलेज नहीं जाना होगा, दूसरा फेल नहीं होऊँगी। क्योंकि छोटी सी जगह है वहाँ सब एक-दूसरे को जानते हैं। वहाँ जो कॉलेज का टीचर है वो उसको उधर ही कहीं मोहल्ले में, पड़ोस में रहता होगा। सब एक दूसरे को नाम से जानते हैं। और फ़लाने की लड़की पढ़ने आती है उसको फेल कर दोगे? ऐसे कैसे फेल कर दोगे? कैसे फैल कर दोगे? वो फेल करे और ये भी पक्का है कि उसको कॉलेज आने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं करा जाएगा। लड़की है क्या करेगी कॉलेज आकर? पैंतीस नम्बर देके, पैतालीस नम्बर देके, बहुत हुआ तो पचपन नम्बर देकर के आगे बढ़ाओ न, आगे बढ़ाओ, आगे बढ़ाओ।
विकसित देश वो होते हैं, जहाँ सबसे महत्वपूर्ण और सम्माननीय काम होता है शिक्षण। अमेरिका में अगर आपके नाम के आगे डीआर (Dr.) लगा हुआ है, तो आप विशिष्ट हैं। अमेरिका में अगर आपने मास्टर्स कर रखा है तो आप में कुछ ख़ासियत है। और भारत में शिक्षण के क्षेत्र में वो जाते हैं जिन्हें और कोई काम नहीं मिलता। ये कितने दुर्भाग्य की बात है। फिर समाज भी उन्हें उसी हिसाब से इज़्ज़त देता है।
अद्वैत लाइफ़ एजुकेशन के दिनों की बात — तो वहाँ पर स्टूडेंट्स के लिए एचआइडीपी होता था। अब पता चले कि स्टूडेंट्स बेहतर हो पाएँ इसमें रोड़ा बन रहे हैं वहाँ के टीचर्स ही कॉलेजों के। तो मुझे अद्भुत लगा। तो टीचर्स से बात करनी शुरू करी, तो पता चला कि इनसे ज़्यादा निरुत्साही और दमित वर्ग तो कोई दूसरा होता ही नहीं है। इनसे पूछो, ‘बात क्या है?’ तो बोले, ‘हम प्राइवेट कॉलेज के टीचर हैं, हमें कोई लड़की नहीं देता।’ बोलते हैं, ‘एक तो टीचर , वो भी प्राइवेट में, कोई इज़्ज़त ही नहीं है हमारी कहीं भी। कोई इज़्ज़त नहीं।’
इससे हमें समाज की चेतना के स्तर के बारे में पता चलता है कि जहाँ टीचर होना, सम्मान की बात न होती हो। शिक्षक होना सबसे ऊँचे सम्मान की बात होनी चाहिए। लेकिन यहाँ पर हालत ये है कि जिन लोगों को कुछ और नहीं करना होता, व्यवस्था ऐसी बनी है, और उस व्यवस्था में लोग भी वैसे ही जा रहे हैं। वो कहते हैं हमें शिक्षक बनना है। और उसमें अगर कुछ लोग पहुँच भी जाते हैं उत्साही, ऊर्जावान, तो उनका दम निकल जाता है। वो या तो घुटने टेक देते हैं या शिक्षण छोड़ देते हैं। वो कहते हैं, ‘हम कुछ और कर लेंगे।’
एक देश कैसा है, एक समाज कैसा है, ये किसी भी और चीज़ पर इससे ज़्यादा निर्भर नहीं करता कि वहाँ पर शिक्षा का स्तर कैसा है। भारत की दुर्दशा का केन्द्रीय कारण है शिक्षा का अपमान। शिक्षा का अपमान, शैक्षणिक संस्थानों का अपमान और शिक्षक का अपमान। यहाँ पर आप बता दें कि मैं फ़लानी पार्टी का युवा कार्यकर्ता हूँ, ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में, तो आपको ज़्यादा इज़्ज़त मिल जाएगी बजाय इसके कि आप बोल दें कि मैं फ़लाने कॉलेज में प्रोफेसर हूँ। ‘फ़लाने कॉलेज में क्या हैं? अच्छा, एसोसिएट प्रोफेसर हैं? चलिए उधर बैठिए ज़रा।’ और वहीं पर आजाएँ एक, ये क्या हैं? ये बाहुबली दबंग धाकड़ युवा छात्र नेता, पानी पिलाओ, पानी पिलाओ इनको पानी पिलाओ। ये छात्र नेता क्या होता है? छात्र हो कि नेता हो? भारत दुनिया का अग्रणी देश है, छात्र राजनीति के मामले में। और जिन कैंपसेस (परिसरों) में स्टूडेंट (छात्र) पॉलिटिक्स (राजनीति) भारत में जितनी ज़्यादा है, वहाँ शिक्षा का स्तर उतना गिरा हुआ है।
वैसे ही देख लीजिए कि देश के अलग-अलग हिस्से, अलग-अलग राज्य जहाँ पर शिक्षा का स्तर ऊँचा है, वहाँ जीवन का स्तर भी ऊँचा है। वहाँ राजनीति का स्तर भी बेहतर है। और जहाँ शिक्षा का स्तर जितना गिरा हुआ है, वहाँ पर लिंग अनुपात भी उतना गिरा हुआ है, वहाँ जातिवाद भी उतना ज़्यादा है। जितने तरीक़े के रोग हो सकते हैं, सबसे ज़्यादा देश के उन्हीं क्षेत्रों में हैं जहाँ शिक्षा की सबसे ज़्यादा दुर्दशा है।
और मैं कह रहा हूँ कि हमारे यहाँ समस्या ये नहीं है कि बेचारा एक देहाड़ी वाला मज़दूर अनपढ़ है। हमारे यहाँ विडंबना बड़ी से बड़ी ये है कि जो अपने आपको ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट करते हैं, कहते हैं, वो भी महा अनपढ़ हैं। मैं सिर्फ़ बीए, बीएससी की भी बात नहीं कर रहा हूँ। वो बीटेक-एमटेक करके बैठा होगा, उससे पूछो, ‘ज़िन्दगी में किताबें कितनी पढ़ी हैं?’ इसको अनपढ़ क्यों नहीं बोलेंगे? इसको अनपढ़ क्यों नहीं बोलेंगे?
किताब पढ़ी ही नहीं जाती। क्या करते हो फिर? ये वीडियो देखते हैं, स्टॉक मार्केट में पैसा कैसे इन्वेस्ट करना है। तुम्हें अगर इन्वेस्टमेंट और पोर्टफ़ोलियो मैनेजमेंट करना है तो ये उसके लिए भी किताबें नहीं पढ़ेंगे। ये उसके लिए भी जाकर के किसी छपरी इन्फ्लूएंसर का वीडियो देखेंगे पन्द्रह मिनट का। जिसमे वो पन्द्रह मिनट में इनको बता देगा कि वारेन बफे कैसे बनना है।
किताबों से भारत को जैसे चिढ़ हो गयी है। वो भारत जिसने दुनिया को ज्ञान मार्ग दिया, उस भारत में ‘ज्ञान’ एक घिनौना शब्द बन गया है, गाली बन गया है। हमारे वीडियोज़ पर आकर के यही जो सब ग्रेजुएट , पोस्ट ग्रेजुएट और बीटेक , आज की नई फसल है, ये आकर के बताया करती है। ज्ञान के साथ एक ऐसा शब्द जोड़ती है जो खोज से मिलता-जुलता है। ये कहते हैं 'ज्ञान मत खोद'। ये ज्ञान के लिए इनका सम्मान है। नहीं! तुम मुझे थोड़े ही कुछ बोल रहे हो, मुझे तो यही बोल रहे हो कि मैं ज्ञान दे रहा हूँ। तुमने जो खोदा-खोदी करी है वो मेरे साथ नहीं करी, वो ज्ञान के साथ करी है। (ताली बजाती है)
जिधर देखो, उधर बस वही जैसे पशु चेतना, कुछ समझ में नहीं आता। कुछ पूछो, कुछ नहीं पता होगा। इज़राइल-हमास चल रहा है एक वर्ग के हैं तो, ‘हे! मार दो, मार दो, मार दो, ये सुजते हैं ये, फिलिस्तीन वाले मार दो, हिज़्बुल्ला मार दो, हमास मार दो।’ क्यों? ‘मुसलमान हैं इसलिए मार दो।’ अरे भाई! किसी मुद्दे को थोड़ा सूक्ष्मता से तो देख लो और अगर मुस्लिम पक्ष से आ रहे हैं तो, 'फ्रॉम द रिवर टू द सी पैलेस्टाइन विल बी फ़्री'। भाई, बात तो समझ लो। कुछ पता है इतिहास क्या है उस जगह का? चल क्या रहा है? बात क्या है? कुछ नहीं। हर आदमी जाहिल। कहीं विचार में सूक्ष्मता नहीं। नुएन्सेस (बारीकियाँ) नहीं। मुद्दे तक, मुद्दे की जड़ तक पहुँचने का कोई आग्रह नहीं। बात को पूरा समझने की कोशिश नहीं।
आपको मालूम है ये जितनी गाली-बाज़ी चलती है, मैं आपकी संस्था की बात कर रहा हूँ, और आपकी संस्था को दिन में, हज़ारों के हिसाब से गालियाँ, धमकियाँ, घृणा आदि मिलती है। जितनी गाली-बाज़ी चलती है, ये आमतौर पर वो लोग होते हैं ,जो गाली भी ठीक से नहीं लिख पाते। कितनी अजीब बात है!
देखो बेटा, ये जो तुमने लिखा न 'बाहन नहीं होता', 'बहन होता है'। जाओ पहले घर जाओ और अपनी बहन से बहन लिखना सीखो और फिर ये खोदा-खोदी करना।
अभी जो पूछ रहे थे, क्या बोल रहा था मैं, कि एक जवान आदमी, लड़का खड़ा होता है इधर-उधर देखता है और क्या पाता है डिस्टॉर्टेड स्पेसिमेंस (विकृत नमूने) सिर्फ़ अग्लिनेस, अग्लिनेस, अग्लिनेस , शब्दों में, विचार में, भाषा में, आचरण में, सिर्फ़ कुरूपता, कुरूपता, कुरूपता। सोफिस्टिकेशन (जटिल), मँजा हुआ होना, व्यक्तित्व का निखार, बोध में गहराई, ये सब तो शिक्षा से आते हैं न। और मान लीजिए आपको तन्त्रगत शिक्षा नहीं भी मिली। ठीक है, स्कूल, कॉलेज , यूनिवर्सिटी ये सब आपके नहीं बहुत अच्छे थे, मान लिया, तो स्वाध्याय में क्या परेशानी है, भाई? खुद क्यों नहीं पढ़ लेते? मैं आपसे कह रहा हूँ, इंसान बनना ही बहुत मुश्किल है, अगर कम-से-कम पचास श्रेष्ठ कोटी की किताबें आपने नहीं पढ़ रखी हैं तो।
दुनिया में लगभग तीन-चार सौ किताबें ऐसी हैं जो सबको पढ़नी चाहिए। लेकिन साथ ही साथ मैं ये भी समझता हूँ कि जीवन की मजबूरियाँ होती हैं, शायद हर व्यक्ति तीन-चार सौ किताबें न पढ़ पाए। लेकिन अगर आप कहें कि उन तीन-चार सौ किताबों में आपने पचास भी नहीं पढ़ी है तो अपने आप को शिक्षित छोड़िए, साक्षर कहने का भी आपको हक़ नहीं है कोई। श्रीमद्भगवद्गीता उन पचास किताबों में से एक है।
एक ही है, और भी हैं, वो पढ़नी भी हैं। उसके बिना काम नहीं चलेगा, भई। नहीं तो मुँह खोलकर के बोल देने से हम इंसान नहीं हो जाते न। मुँह खोलकर के तो हर पशु बोल देता है, वो भी उनका ओपिनियन (राय) ही तो होता है।
रात भर कुत्ते सड़क पर क्या कर रहे होते हैं एक्सप्रेशन ऑफ़ ओपिनियन , फ़्री एक्सप्रेशन इन लिबरल कंट्री (उदार देश में राय की निःशुल्क अभिव्यक्ति)। वो तो कोई भी कर सकता है। आचरण में, व्यक्तित्व में और व्यवहार में सौंदर्य, गहराई, सूक्ष्मता, ये बातें होती हैं आनन्द की। जब तक ये नहीं होंगी तब तक ये क्रूडनेस (भोंडापन) है। कि वहाँ पर वो एस्ट्रो (ज्योतिष) वाला एक बैठ गया और वो आपको बता रहा है कि ये जो आपका सेकेंड (दूसरा) हुक-अप (जोड़ना) है कल कोई मुझ से बोल रहा है, आपका जो सेकेंड हुक-अप है, बाबाजी ने बताया, इसको तो बिलकुल मत छोड़ दीजिए, क्योंकि इसी से आपका ब्याह होना है। अब वो कूल बनने के लिए, आज की पीढ़ी की भाषा में बात करते हैं। कहते हैं इसी से आपका होना हैं क्यों? क्योंकि इससे आपका वो सब राहु-केतु मिल गया है।
कुछ बातें हैं शिक्षा को लेकर के मेरे मन में। मैं समझता हूँ सबके लिए ज़बरदस्त, कड़ी, रिगरस (कठिन) शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए ,कम-से-कम तेईस की उम्र तक। मैं समझता हूँ कि गणित ऐसा विषय नहीं है, जिसे दसवीं में ही समाप्त किया जा सके किसी के लिए भी। गणित, विज्ञान, अर्थशास्त्र, ये कम-से-कम बारहवीं तक चलने चाहिए। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि हाइयर साइंस और लोअर साइंस हो, कि जिन्हें आगे विज्ञान में ही आगे बढ़ना है उनके लिए एक तरह का उच्चतर विज्ञान हो सकता है। और जिन्हें विज्ञान में आगे नहीं बढ़ना है, उनको साधारण विज्ञान की समझ दी जाए। पर दसवीं में मामला नहीं हो पाता भाई, हम नहीं जानते विज्ञान। वहीं से तो अन्धविश्वास आता है। आप ले आइए बाहर से,आधे लोगों को, अगर आप बता दें न कि यहाँ पर ऐसे ख़ास तरीक़े से फूँक मारी जाए, तो सोफ़ा उड़ जाएगा, तो वो मान लेगा। कि फूँक मारने की एक विशेष विधि होती है जिसमें सोफ़ा उड़ने लगता है। वो मान लेगा। क्यों? क्योंकि हम अशिक्षित हैं।
इसी तरीक़े से जिन लोगों ने विज्ञान चुना है, उनके लिए जो बातें आर्ट्स (कला) की परिधि में आती हैं सामान्यतः वो भी कुछ वर्षों के लिए या कुछ सेमेस्टर्स (छमाही) के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। समाजशास्त्र, समाजशास्त्र आपको पता होना चाहिए, अर्थशास्त्र, इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र), आपको पता होना चाहिए, फिलोसॉफी (दर्शन), और साइकोलोजी (मनोविज्ञान) आपको पता होनी चाहिए। आप इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बनके निकल गए हो और आपने कभी साइकोलोजी , फिलोसॉफी पढ़ी नहीं इंसान कैसे हो अभी? आप इंसान ही नहीं हो। इसी तरीक़े से साहित्य बहुत ज़रूरी है, लिट्रेचर (साहित्य), फ़र्क नहीं पड़ता कि आप क्या पढ़ रहे हो? क्या नहीं पढ़ रहे हो? लिट्रेचर कम्पल्सरी (अनिवार्य) होना चाहिए।
और मैं ये भी जानता हूँ कि जो हमारी व्यवस्था अभी चलती है, टेन प्लस टू प्लस थ्री (शिक्षा व्यवस्था में 10+2+3 की नीति) वाली उसमें इतना कुछ समाएगा नहीं। तो इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि तेईस साल तक पढ़ाई सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए और सरकार द्वारा मैंनडेटिड (अनिवार्य) होनी चाहिए। ताकि गरीब का बच्चा भी तेईस साल तक पढ़ सके, बिना रोज़ी-रोटी की परवाह करे। नहीं तो वो कहेगा कि तेईस साल तक मैं पढ़ ही रहा हूँ, घरवाले भूखे मर रहे हैं, काम कैसे चलेगा? जो पढ़ने लग जाएँ उनको अठारह की उम्र के बाद से स्कॉलरशिप (छात्रवृत्ति) सरकार की ओर से मिलनी चाहिए। और न पढ़ने का अंजाम ये होना चाहिए कि आप अभी और पढ़ोगे (ताली बजती है)। स्कॉलरशिप इतनी ही है कि उससे बस अपना किसी तरह ख़र्चा-पानी निकलेगा, ऐश नहीं कर पाओगे।
तुम मत पढ़ो। तुम तीस साल तक पढ़ोगे। नियम होना चाहिए कोई कि नौकरी नहीं दी जाएगी आपको, अगर आपकी शिक्षा नहीं पूरी हुई है। क्योंकि हमको बस पैसा कमाने की मशीनें थोड़ी चाहिए, हमें इंसान चाहिए। हमें वो आदर्श नहीं चाहिए कि फ़लाना कॉलेज ड्रॉप आउट था लेकिन देखो अब अरब पति है, करोड़ पति है। कॉलेज ड्रॉप आउट था, करोड़ पति है, होगा। जानवर है,अभी भी। अरबपति जानवर नहीं हो सकते क्या? आप अरबपति हैं, आप मरते हुए अपना सारा पैसा अपने कुत्ते को रख जाइए। अपनी वसीयत बनवाकर के मेरा कुत्ता, मेरे आठ मिलियन डॉलर का हकदार हुआ अब से, तो है तो वोअभी भी वो, भों-भों। श्लोक थोड़े ही बोलेगा? आठ मिलियन डॉलर आ गए तो।
पर ये भी अब खूब आदर्श बन गया है अरे! एजुकेशन में क्या रखा है? गेट हैंड्सऑन इंडस्ट्री एक्सपीरियंस (क्रियाशील उद्योग अनुभव पाना)? क्या हैंड्सऑन इंडस्ट्री एक्सपीरियंस? न इतिहास का पता, न भूगोल का पता, न मनोविज्ञान का पता, न विज्ञान का पता, तू पैसे कमा भी लेगा तो करेगा क्या उसका?
इस देश को एक वास्तविक रूप से शिक्षित पीढ़ी की ज़रूरत है। हम सब बदल देंगे। भारत को ही नहीं, हम पूरी दुनिया बदल देंगे। एक पीढ़ी चाहिए। (ताली बजती है) और बस कुछ और नहीं, शिक्षा, तेईस साल चाहिए, बस एक पीढ़ी। जो बच्चा आज पैदा हो रहा है, वो तेईस साल के लिए मिल जाए, फिर देखिए भारत क्या बनता है? और कोई, कोई उसमें हमें ऐसा छेद नहीं छोड़ना होगा जिससे लीकेज (रिसाव) हो जाए। जो बच्चा शिक्षा की धारा में प्रविष्ट हो, वो पूरी तरह शिक्षित होने के बाद ही बाहर निकले। यूनिवर्सल एंड कम्पलसरी एजुकेशन फॉर ईच एंड एवरी चाइल्ड प्रोवाइडेड बाय द स्टेट (सार्वभौमिक और अनिवार्य शिक्षा प्रत्येक बच्चे के लिए, राज्य द्वारा प्रदत्त)।
और उसके बाद सब ठीक हो जाएगा। उसके बाद आप पूछेंगे धर्म का क्षेत्र ठीक हो गया? हाँ, हो गया। राजनीति ठीक हो गयी? हाँ, हो गयी। अच्छे खिलाड़ी निकलने लगे? हाँ, निकालने लगे। ओलम्पिक में पदक आने लगा? आने लगा। अर्थव्यवस्था बेहतर हो गयी? हाँ हो गयी। सब कुछ अच्छा हो गया क्योंकि हम शिक्षित हो गए। हम इंसान बन गए न। सब अच्छा हो जाएगा अपने आप अच्छा हो जाएगा। और जब तक हम शिक्षित नहीं होंगे बाकी जो कुछ भी हो रहा है, वो व्यर्थ ही है। पत्रकारिता बेहतर हो जाएगी? हाँ हो जाएगी। टीवी पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वो पूरा बदल जाएगा? सब बदल जाएगा। अभी टीवी पर जो दिखाया जाता है, वो गँवारों के लिए दिखाया जाता है, भाई। और गँवार ही उसका भोग करते हैं।
और हालत इतनी बदतर होती जा रही है कि पहले आपको किसी को प्रभावित करना होता था, तो आप अपनी शिक्षा वगैरह दिखाकर के, या आप अपनी भद्रता दिखा करके, या आप अपनी भाषा दिखा करके, ख़ासकर अंग्रेज़ी, आप उसको प्रभावित करते थे। होता था न? आज से दस, बीस साल पहले तक। अब आप किसी को इम्प्रेस (प्रभावित) नहीं कर सकते अपनी इंग्लिश दिखाकर। अब आप लोगों को प्रभावित करते हो अपनी गँवरइ दिखाकर। (गँवरई का अभिनय करते हुए) अब वो ज़रूर डरेगा।
बीते कुछ दिनों में, महीनों में, मैंने अच्छे, बड़े होटेल्स में और रेस्ट्रॉ में गँवरई का नंगा नाच होते देखा है। और होटेल का पूरा स्टाफ , मैनेजमेंट (प्रबंधन), सिक्योरिटी (सुरक्षा), सब बेबस खड़े होते हैं। वो गँवार लोग वहाँ चढ़ आए हैं और हर तरीक़े की अभद्रता कर रहे हैं, अशोभनीय बिल्कुल। हमें ऐसा देश चाहिए जहाँ हम सम्मान दें, किसी व्यक्ति के ज्ञान को। ज्ञानी को सम्मान होना चाहिए, गँवार को नहीं। और भारत में इस वक्त जो लहर चल रही है उसका नाम है गँवार स्वैग। जो जितना गँवार है, वो उतने स्वैग में है। और जो जितना पढ़ा-लिखा है, वो उतना दबा हुआ है।
हमने उन्नीस-सौ-सैंतालीस के बाद से ग़लती करी है और आज हम और बड़ी ग़लती कर रहे हैं। शिक्षा का अपमान, ज्ञान की उपेक्षा, इससे बड़ा पाप नहीं हो सकता।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=nomPiwwYefY