प्रश्नकर्ता: नमन, आचार्य जी। मेरा प्रश्न महिलाओं से सम्बन्धित है। मैंने देखा है कि महिलाओं के लिए बहुत सी चीज़ें की जा रही हैं, जैसे कि सती-प्रथा बहुत पुरानी हो गई। जैसे अभी दहेज-प्रथा है, वो भी एक तरह से कुप्रथा बना दी गई है। तो वो भी चीज़ें धीरे-धीरे ख़त्म हो रही हैं।
बार–बार ये कहा जाता है कि बेटी को अपने बेटे के बराबर मानें। एक माँ है जिसके दो बच्चे हैं — एक बेटी, एक बेटा — उनमें वो भेदभाव करती है। उसकी जड़ तक जब मैं गया, मुझे सोच समझ करके जो समझ में आया, जो जड़ समझ में आयी, वो जड़ ये समझ में आयी कि बेटी तो पराई होती है। सबसे बड़ी जड़ मुझे यही लगी कि बेटी तो पराई होती है, एक दिन उसे जाना है।
आचार्य जी, आप एक ऐसे आदर्श हैं, एक ऐसे माध्यम हैं, किसी एक मज़हब के लोग आपको नहीं सुनते हैं। आपको हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, हर कोई सुनता है और हर पंथ में, हर मज़हब में शादी होती है और हर मज़हब में लड़की जो है वो ससुराल जाती है। और आपने मुझे एक आस दी थी, आप जो चीज़ें बताते हैं, सबसे पहली चीज़ आपसे जो सीखने को मिली है, मुझे अपनी संभावना सीखने को मिली है। मुझे ये एहसास नहीं होता था कि अच्छा, ऐसा भी हो सकता है, ये भी जीवन हो सकता है। ये सबसे पहली चीज़ सीखने को मिली है आपसे।
तो आपसे मैं थोड़ा सा ये जानना चाह रहा हूँ। आपने पिछले महोत्सव में बोला था कि, भाई, क्यों एक बेटी किसी के यहाँ जाए। कुछ दिन आप उसके यहाँ रहो, लड़का कुछ दिन लड़की के साथ रहे, लड़की कुछ दिन लड़के के घर रहे। इस तरह दोनों लोग अपने प्रबंध करके रहें। तो वो चीज़ मुझे तब से कौंध रही थी। तो ऐसा क्या समाधान हो सकता है कि किसी भी बेटी को पराया ना समझा जाए पैदा होते ही? यहाँ तक कि लोग गर्भ में यही सोच कर मार देते हैं बेटी को कि वो तो पराई है, क्योंकि उससे तो उन्हें कोई आस नहीं होती है। आचार्य जी, इस पर आपका विचार और आपका मार्गदर्शन चाह रहे थे।
आचार्य प्रशांत: देखो, धर्म में और प्रथा और परंपरा में बड़ा अंतर होता है, और वो अंतर करना सीखना चाहिए। बेटी को उत्थान मिले जीवन में, यह बात धार्मिक है। और बेटी को विवाह करके ससुराल विदा कर दो, यह बात पारंपरिक है। और ये दोनों बातें अलग-अलग हैं, इनको एक में गुत्थम-गुत्था नहीं कर देते। ये दोनों बातें एक नहीं हैं।
एक बात है इसमें से जो कभी बदल नहीं सकती, वो सनातन है और वही सनातन धर्म है। कौनसी बात? कि बेटी है तो उसको जीवन में जो उच्चतम मिल सकता है वो मिले ज़रूर। ये बात सनातन है, ये बात धार्मिक है। वो जो दूसरी बात पारंपरिक है, वो बदल सकती है और यदि आवश्यकता हो तो बदली जानी चाहिए।
प्र: इसको, आचार्य जी, आज की युग की सबसे बड़ी कुरीति क्यों नहीं हम मान सकते हैं?
आचार्य: आज के युग की सबसे बड़ी कुरीति इसलिए नहीं मान सकते हैं क्योंकि हम जैसे हैं, हम इस तरह की चीज़ बार-बार करते हैं, जीवन की हर दिशा में करते हैं। अभी तुम स्वयं ही कह रहे थे कि ये सब आप अलग-अलग धाराएँ बोलते हो—हिंदू, मुस्लिम वगैरह, लेकिन बेटी को विदा करना, ये हर जगह पाया जाता है। बस कुछ कबीले हैं, मैट्रीआर्कल, मातृ-सत्तात्मक, जहाँ पर बस ऐसा नहीं होता। बाकी तो ये हर जगह होता है।
तो बात इसकी नहीं है कि तुम्हारे पास धर्म क्या है। बात इसकी है कि इंसान कोई भी हो, कहीं का भी हो, किसी युग का हो, वृत्ति तो उसकी वही मायावी है न। और जब वृत्ति मायावी है तो वो हर चीज़ में अपना हित खोजता है। हर चीज़ में अपना संकीर्ण स्वार्थ और लाभ देखता रहता है। समझ रहे हो?
एक समय था जब जो कमाने का काम था, या परिवार चलाने का, या पेट चलाने का, वो पुरुष ही कर सकता था क्योंकि पुरुष की ही माँसपेशियों में ताक़त ज़्यादा है। देखो, अर्थव्यवस्था में इस बात का बड़ा योगदान होता है न कि एनर्जी (ऊर्जा) कहाँ से आ रही है। अमेरिका क्यों बार-बार जाकर घुसा रहता है, कभी इराक़ में, सऊदी अरब में उसने बहुत अपना कर रखा है। ईरान में भी जा करके घुस जाएगा। अभी रूस-यूक्रेन का युद्ध चल रहा है, उसमें भी जो ऊर्जा वाला कोण है, उसकी हम इतनी बात करते हैं, करते हैं कि नहीं?
ऊर्जा हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण चीज़ रही है और ये जो एनर्जी है, ऊर्जा, इसने तय करा है कि सिर्फ़ अर्थव्यवस्था ही नहीं, समाज और परम्पराएँ भी किस तरह के बनेंगे। आज भी उन जिन लोगों के पास, जिन देशों के पास ऊर्जा है, वो अपने अनुसार तय करते हैं कि विश्व किधर को आगे बढ़ेगा — कल्चरली (सांस्कृतिक रूप से) भी और जियोपॉलिटिकल (वैश्विक राजनैतिक रूप से) भी।
बात समझ रहे हो कि नहीं समझ रहे हो?
ऊर्जा सब कुछ है। वही तय कर देती है कि तुम्हारी ज़िंदगी का क्या होना है। भारत को कई बार इतना झुकना पड़ता है क्योंकि हमारे पास ऊर्जा के संसाधन बहुत सीमित हैं। जो हाइड्रोकार्बन आधारित ऊर्जा है, वो हमारे पास बहुत सीमित है। उससे हमारी आधी आवश्यकताएँ भी नहीं पूरी होती हैं, बाकी का हम आयात करते हैं। और जहाँ होती हैं, उनको पाने के लिए हर कोई उतावला रहता है, और जब उसको पाने के लिए उतावले रहोगे तो उनके पास फिर शक्ति आ जाती है।
अब जाओ प्राचीन काल में। वहाँ शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत क्या था? ये (बाजू दिखाते हुए)। तो ये जिसके पास है, उसी ने फिर नियम-क़ायदे बना दिए, सब कर दिया। पर हम उस स्थिति से बहुत आगे आ चुके हैं न, जब वहाँ पर अपनी बाजुओं की ताक़त से काम करना पड़ता होगा। ऐसा तो आज है नहीं।
तो आज वो सब पुरानी जो परम्पराएँ थीं, जो एक तरह की ऊर्जा के आधिक्य के कारण बनी थीं। वो सब परम्पराएँ अब समाप्त की जा सकती हैं। तब ये था कि भाई जब कमाने वाला पुरुष है, तो वो अपनी जगह पर रहेगा, स्त्री उसके पास जाया करेगी। और बात तब शायद जायज़ भी थी, क्योंकि अगर आप कमाने वाले को उसकी जगह से हटाओगे तो वो कमाएगा कैसे? कमाएगा नहीं तो सब भूख से मर जाएँगे। समाज में त्राहि-त्राहि हो जाएगी। तो ये बात तब शायद वैध भी थी कि पुरुष अपनी जगह रहे और विवाह हो रहा है तो स्त्री उसके पास आएगी।
सोचो तुमने क्या किया होता? आप पुरुष हैं, वहाँ पर उसका खेत है, वहीं काम करता है। तुमने कह दिया होता, ‘नहीं तू जा अब लड़की के घर रहने।’ तो भूख से मरे होते न सब? तो यह परंपरा, ऊर्जा के एक प्रकार के स्रोत की सीमाओं के कारण शुरू हुई थी।
अब आज तो कौन अपनी माँसपेशियों से काम करता है? भारत में तो फिर भी अभी लगभग आधी आबादी ऐसी है। अमेरिका चले जाओ तो वहाँ की आबादी का दो प्रतिशत भी नहीं है जो खेती करता हो।
तो आज जो फैक्टर्स हैं, जो कारक हैं उत्पादन के, वो बहुत बदल चुके हैं। आज ये बात बस एक पुराने अवशेष की तरह ज़िंदा है कि शादी होगी तो लड़की अपना घर छोड़ेगी, लड़के के घर चली जाएगी, वो विचित्र बात है। जबकि ऐसा भी हो सकता है कि लड़की जहाँ रह रही हो वहाँ वो कोई बहुत अच्छी नौकरी कर रही हो, और लड़का हो सकता है ऐसे ही कहीं पड़ा हो और दोनों का विवाह हो गया हो। लड़की काहे को अपना शहर छोड़ेगी भाई! इसमें तो दोनों का ही, दम्पति का ही कुल नुकसान है, क्योंकि लड़की की नौकरी चली गई तो नुकसान तो फिर उसके पति का भी हुआ न?
इस बात का कोई बहुत अर्थ नहीं है कि लड़की को उसके घर से निकाल दो शादी वगैरह के बाद। और ये समझना पड़ेगा कि ये कोई धार्मिक बात नहीं है। इसमें किसी तरह का कोई धार्मिक पक्ष नहीं है कि लड़की को पराया मानो, उसे घर से विदा करो। आप जीवन भर अपनी लड़की को अपने घर रख सकते हैं और यह बात पूरी तरह धार्मिक है। इसमें कोई अधर्म नहीं हो गया।
अभी जो भारतीय कप्तान रही हैं महिला क्रिकेट टीम की, मिताली राज, तो वो रिटायर हुईं। बड़ा लम्बा-चौड़ा उनका करिअर रहा, बड़े उनके नाम कीर्तिमान हैं। तो अविवाहित हैं वो, चालीस साल करीब की हो रही हैं। तो उनसे एक प्रश्न पूछा गया कि ‘आपने शादी नहीं की, आपको कुछ लगता नहीं?’ बोलीं, ‘जब मैं चौबीस-पचीस की थी, तब मुझे भी लगता था कि मैं भी कर लूँ। पर अब जब मैं चालीस की हो रही हूँ और मैं उनकी हालत देखती हूँ जिन्होंने कर ली है, तो मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मैंने शादी नहीं करी। मैं बच गई!’ और ये बात कोई आम महिला नहीं कह रही है। ये भारत ही नहीं, विश्व की एक अग्रणी महिला खिलाड़ी कह रही है, जो भारतीय टीम की बड़े लंबे अरसे तक कप्तान रहीं हैं, बहुत उनकी कीर्तिमान हैं।
तो पहली बात तो ये है कि जिसको आप पारंपरिक तौर पर विवाह की संस्था कहते हैं, वो आज कोई इतनी अनिवार्य रह नहीं गई है कि आप अपनी लड़कियों को धक्का ही देते रहें, धक्का ही देते रहें कि शादी करो, शादी करो। नहीं कर रही है शादी तो ज़्यादा सुखी है। सौभाग्य है उसका कि नहीं कर रही है शादी। और अगर शादी कर भी रही है तो कृपा करके उसे अपने घर से बेदखल मत करिए।
आज आर्थिक तौर पर लड़की-लड़का दोनों बराबर हैं, बराबर के अवसर हैं कम-से-कम। तो यदि बराबर हैं तो लड़का भी आ सकता है उसके यहाँ रहने के लिए। कुछ समय वो आ जाए रहने, कुछ समय वो चली जाए। बाकी समय दूर-दूर रहो, अलग रहो, शांति रहेगी ज़्यादा। ज़रूरी है एक ही घर में घुसे हुए हो?
प्र: प्रेम भी रहेगा। प्रेम भी रहता है उसमें।
आचार्य: वो प्रेम या जो भी है, वो रहता है। पर ये बात तो वैसे भी बड़ी विचित्र है और गंधाती हुई बात है कि तुमने एक आदमी, एक औरत को पकड़ा और उनके लिए अनिवार्य कर दिया कि अब एक घर में घुस जाओ। काहे को घुस जाओ? वो भी उनके लिए अनिवार्य कर दिया कि एक ही कमरे में रहना है। क्यों रहना है? अपना-अपना अलग-अलग ठिकाना रखो। जब लगे कि मिलना है तो मिल लो। नहीं तो ठिकाने अपने अलग-अलग ही रखो। बहुत ज़्यादा दुनिया में कलह और क्लेश बच जाएगा, अगर ये छोटी-सी बात जवान लोग समझ लें।
तुम्हारी निजता का बहुत मूल्य होता है। जैसे भीतर कुछ होना चाहिए जिसे कोई स्पर्श ना कर सके, उसी तरीके से बाहर भी तुम्हारे पास एक जगह होनी चाहिए जो तुम्हारी है, जिसमें कोई दूसरा अधिकारपूर्वक घुसा नहीं चला आ रहा है। हमें खाली स्थान चाहिए होता है, भीतर भी और बाहर भी; स्पेस – जो हमारा होना चाहिए।
मौत को याद रखना होता है न? बीवी के साथ मरोगे क्या? जब मरना अकेले है तो जी अकेले क्यों नहीं सकते बाबा? अकेले जीना सीखो। दूसरे से उतना ही मिलो जितने में मधुरता बनी रहे। ये चौबीस घंटा लिपटा-चिपटी और सूँघने में और एक ही दूसरे की शक्ल देखने में कुछ नहीं रखा है। इसमें सिर्फ़ सिर फूटते हैं और जीवन नर्क होता है। जब तुम अकेले होते हो तो भीतर बहुत कुछ ऐसा है फिर जिसको विकसित कर सकते हो।
दूसरा कितना भी निकट हो, कितना भी प्यारा हो, दूसरा, दूसरा ही होता है। तुम अस्तित्व का विधान नहीं बदल सकते, दूसरा तो दूसरा ही होता है। हाँ, प्रार्थना है मेरी कि जो दूसरा है उससे तुम्हारा प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रहे। लेकिन कितना भी प्रेम कर लो, दूसरा तुम्हारे लिए परमात्मा तो नहीं बन पाएगा, कभी नहीं बन पाएगा। दूसरा तो दूसरा ही रहेगा। एक साधारण सांसारिक प्राणी – चाहे वो पति हो तुम्हारा, पत्नी हो, कोई हो, माँ हो, बाप हो, कोई हो। तो ये यथार्थ याद रखना चाहिए।
कितने अभिभावक बैठे हैं, उनसे निवेदन करूँगा, लग मत जाया करिए कि बाईस-चौबीस साल की लड़की हुई नहीं कि उसको कोचने लगे कि ‘चल, चल शादी कर, बाहर निकल।‘ कितनी अपमानजनक बात है न? पीछे पड़े हो उसके, ‘निकल बाहर, निकल बाहर, निकल बाहर’, जैसे चेक आउट टाइम हो गया उसका और उसने अभी भाड़ा नहीं दिया है।
होटलों में करते हैं। पहले तो बड़ी विनम्रता से पूछेंगे, फिर एक घंटे बाद थोड़ी कम विनम्रता से, फिर उसके बाद सीधे दरवाज़े पर दस्तक होगी – ‘सर, सामान’। तो उसका भी तुम बिलकुल सामान तैयार रखते हो बाँध-बूँध कर कि बस अब हो गई है चौबीस-पच्चीस की, बाहर फेंक दो इसको।
तुमने ही पैदा किया है और कहते हो कि प्रेम है, तुम्हारी बेटी है। काहे को उसको फेंकने को तैयार बैठे हो? उसको सही शिक्षा दो, सही पालन-पोषण दो। अगर वो तैयार है आपके घर में रहने को तो उसे घर में ससम्मान रखो। संभावना यही है कि बेटे से ज़्यादा काम आएगी। और विवाह हो भी जाए, तो भी ये मत कह दो कि ‘अब ये पराई हो गई, अब तू निकल यहाँ से’।
विवाह हो भी जाए, तो अगर घर में उसका कमरा है तो उसी का रहना चाहिए। वो जब चाहे उसमें रह सकती है, महीनों चाहे महीनों रह सकती है और उसका पति भी चाहे तो पति भी आकर रह सकता है। ये सब पुरानी परंपरा है कि घर-जमाई कहलाएगा, या कि पिता फिर जो उसकी बेटी का घर होता है, वहाँ जा करके नहीं रहता कि वहाँ पानी नहीं पी सकते। ये छोड़ो, ये क्या दकियानूसी बातें हैं!
अगर सही लड़के से तुमने शादी की है अपनी बिटिया की तो तुम उस लड़के के घर जाकर नहीं रह सकते? क्या हुआ उस लड़के को? छूत की बीमारी है? तुम कह रहे हो बेटी के घर जाकर नहीं रह सकते। बेटी के घर में, बेटी तो तुम्हारी है। तो उसमें तो कोई समस्या है नहीं।
बेटी के घर में जो दूसरा व्यक्ति है वो तुम्हारा दामाद है। कह रहे हो बेटी के घर का पानी भी नहीं पी सकते तो ज़रूर उस दामाद को ही कोई बीमारी है कि पानी में भी वो बैक्टीरिया घुस गया है कि पी नहीं सकते। तो ऐसे फिर तुमने खराब आदमी से बेटी की शादी करी काहे को? तुम्हारा दामाद तो ऐसा होना चाहिए न जिसके साथ समय बिताने में तुमको भी आनंद आए। तो उसके घर क्यों नहीं जा सकते? वो तुम्हारे घर क्यों नहीं आ सकता? रह क्यों नहीं सकता? महीनों क्यों नहीं रह सकता?
बात आ रही है समझ में?
प्र: इसमें एक चीज़ और है कि जैसे मेरी भी बहन हैं। जब भी घर पर वो दो दिन, चार दिन के लिए आ जाती हैं न तो उन्हें ऐसा लगता है कि किसी पराए का सामान छू रही हैं, या सामान ले रही हैं। कुछ भी सामान अगर जो उन्हें वैसे भी लेना होता है तो पूछ कर ले लेती हैं।
आचार्य: नहीं, उसकी बहुत बड़ी वजह दहेज है। वो इतना सारा दहेज पहले चला गया होता है उसके साथ कि उसको भी पता होता है कि अब जो बचा है वो भाइयों का है, उसे मैं हाथ कैसे लगाऊँ। वो इतना सारा लेकर गई है कि वापस आती है, कहती है, ‘थोड़ा बहुत बचा है घर में, बाकी तो घर लुट गया पूरा। अब जो बचा है उसको भी कैसे छू दूँ।‘ तो उसको भीतर से अपराध भाव आ जाता है।
ये दहेज वगैरह क्या है? मतलब मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ। दहेज का मतलब क्या है? आज दहेज का क्या अर्थ है?
एक समय पर जानते हो, दहेज का एक अर्थ होता भी था। तब ये होता था कि ये जो लड़की है, ये कोई फैक्टर ऑफ प्रॉडक्शन तो है नहीं इकॉनमी में। ये घर देखती है बस और उसके बाद संतानें जनती है। तो अभी तक हम इसको खिलाते थे, अब पति के यहाँ जा रही है। पति के यहाँ अचानक एक सदस्य बढ़ जाएगा। एक ऐसा सदस्य बढ़ेगा जो कमाऊँ नहीं है। तो उनका खर्चा बढ़ जाएगा। उनका खर्चा बढ़ जाएगा तो हम पीछे से कुछ सामान देकर भेजते हैं ताकि कुछ दिन तक वो खर्चा हम चला लें। ये लड़की का बाप कहता था कि, ‘भई, अब तुम्हारा खर्चा बढ़ेगा, पहले इसका खर्चा मैं उठाता था, अब तुम उठाओगे तो मैं कुछ देकर भेज रहा हूँ कि दो महीने, चार महीने, जब तक वहाँ पर ठीक से इसका संयोजन नहीं हो जाता, तब तक इसका खर्चा मैं ले लेता हूँ।’ ये बात तब होती थी। आज क्यों है ये बात?
ये दहेज का क्या अर्थ है? बल्कि बहुत अपमान की बात है न? मैंने पूछा था एक बार, मैंने कहा था कि अगर कोई लड़की पैसा ले करके किसी लड़के के साथ हो जाती है तो तुम कहते हो वेश्या, और लड़का जब पैसा लेकर लड़की के साथ हो जाता है तो तुम कहते हो दूल्हा। ये बात कैसे ठीक है?
तो बड़े अपमान की बात है कि ये तुम शादी कर रहे हो, उसके लिए कहो कि ‘मुझे पैसा चाहिए’।
प्र: आचार्य जी, एक बात और पूछना चाह रहा हूँ मैं। जैसे ही लड़की एक समझदारी के तल पर आती है तो उसके दिमाग में ये एक तरह से दबाव बनता जाता है कि उसकी शादी होगी, उसे बाहर जाना है। ये दबाव चौदह से लेकर के पच्चीस साल तक उसके अंदर एकदम बम की तरह अंदर-ही-अंदर भरता रहता है। उस घर जिस घर में वो रहती है, साइकोलॉजिकली , मानसिक तौर पर उस घर को अपना मानती ही नहीं है। मैंने कई लोगों की परिस्थितियाँ देखी इस तरह की।
आचार्य: ये सब है। लेकिन ये सब अगर माँ-बाप जागरुक हों तो तुरंत बदल भी जाता है। ये सब ज़्यादा अभी भी उन्हीं घरों में पाया जाता है जहाँ माँ-बाप भी एकदम सोए किस्म के हैं, अंधेरे में जीने वाले। बहुत बड़ी तादाद में अब ऐसे जागरुक घर निकल कर आ रहे हैं जहाँ बेटियों को सम्मान भी है, आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर भी हैं और जहाँ बेटियाँ पराया नहीं अनुभव करतीं; ऐसे भी घर अब बहुत हैं।
प्र: धन्यवाद आचार्य जी।
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