बेचारी महिलाओं की क्या ग़लती? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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बेचारी महिलाओं की क्या ग़लती? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जैसा कि आपने कल के सत्र में कहा था कि हमारे जो दुःख होते हैं वो हमारे चुनाव पर निर्भर करते हैं। हम जिस प्रकार का चुनाव करते हैं उसी प्रकार हमें दुःख प्राप्त होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे इंसिडेंट्स (घटनाएँ) होते हैं, जहाँ पर चुनाव का कोई अधिकार हमें मिलता नहीं है। जैसे अफग़ानिस्तान का है कि वहाँ पर स्त्रियों को एक वस्तु की तरह देखा जाता है। वहाँ पर उन्हें पढ़ाई का कोई अधिकार नहीं है, बाहर वो नहीं जा सकतीं हैं बिना किसी पुरुष के, और उन्हें बाहर दफ़्तर में काम करने की भी इतनी छूट नहीं है। ना उन्हें कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, ना ही कानूनी अधिकार। उन्होंने इस दिशा में अपने चुनाव के अधिकार का प्रयोग कहाँ किया है? उन्हें मानसिक वेदना जो मिल रही है, उन्होंने कब इसमें चुनाव किया था? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: ये उदाहरण ले रही हैं अफग़ानिस्तान का, या इस तरह के और भी कुछ समाज हैं जहाँ महिलाओं को शिक्षा का, नौकरी का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। तो इस उदाहरण को लेकर ये पूछ रही हैं कि आप कहा करते हैं, मतलब मैं कहा करता हूँ कि हमें जो भी कष्ट होते हैं, बंधन होते हैं, उनमें हमारा चुनाव होता है, कहीं-न-कहीं हमारी सहमति होती है। तो पूछ रहीं हैं कि इसमें उन महिलाओं ने ऐसा क्या चुनाव करा है, उनकी क्या सहमति है?

दिख नहीं रहा क्या? ये सब नियम अगर पुरुष सत्ता ने बनाए हैं तो पुरुष सत्ता रात को कहाँ लौटकर आती है? कहाँ लौटकर आती है? उन पुरुषों को पैदा किसने किया है? क्यों पैदा किया? पैदा करना चुनाव है या नहीं है? ऐसे पुरुषों के साथ एक ही बिस्तर पर सोना चुनाव है या नहीं है? क्यों ऐसे पुरुषों को खाना बनाकर देते हो?

मैं बताता हूँ क्या चुनाव है। चुनाव ये है कि खाना बनाकर अगर दे देंगे तो थोड़ी बहुत तो सुख-सुविधा मिली रहेगी या कम-से-कम पीटे नहीं जाएँगे। खाना बनाकर नहीं देंगे, इनके साथ बिस्तर पर सोएँगे नहीं तो पीटे भी जाएँगे। तो ये चुनाव है कि नहीं है कि 'नहीं पिटना चाहती'?

चुनाव है या नहीं है?

जान दे दो न, बात ख़त्म। स्थिति इतनी ख़राब हो रही है तो रो क्यों रहे हो? भिड़ जाओ, जान दे दो! और सबको जान देने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। १००-५० भी ऐसी शूर स्त्रियाँ खड़ी हो जाएँ तो ये सब पुरुष घुटने टेक देंगे। ये कोई बात नहीं होती है, ‘अरे! हम क्या करें? नियम दूसरों ने बनाए हैं, वो उन्होंने ऐसा कर दिया, हमारा तो शोषण हो गया।‘ यही बात जो जातिप्रथा से शोषित लोग होते हैं वो भी कहते हैं, ‘अरे! हम क्या करें? दूसरों ने नियम बनाए थे।‘

भिड़ जाओ न जा करके!

नहीं जीत सकते तो जान दे दो। कम-से-कम ग़ुलामी में तो नहीं जीना पड़ेगा अगर जान दे दी तो! और तुम जान दे दोगे, उससे हो सकता है दूसरों को आज़ादी मिल जाए।

महिलाओं के मुद्दे पर तो ये बात बिलकुल साफ़-साफ़ लागू होती है। आप नहीं जानते पुरुष मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से किस हद तक स्त्री पर निर्भर करता है? आप नहीं जानते? तो आप कैसे कह रहे हो कि पुरुषों ने ऐसे ख़राब, एकतरफ़ा, शोषणकारी नियम बना दिए?

‘हम बेचारी स्त्रियाँ, हम क्या करें!’

तुम बस इतना कर दो कि ना रोटी देंगे, ना बिस्तर देंगे – देखते हैं क्या कर लेंगे पुरुष! कब तक बलात्कार करेंगे? कितना बलात्कार कर लेंगे? और कुछ नहीं कर सकते, किसी चीज़ पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं चलता, तो गर्भ पर तो चलता है न? कौनसा पुरुष आपको विवश कर सकता है नौ महीने तक गर्भ ढोने के लिए? तुम कर लो हमारा शोषण, हम बच्चे ही नहीं पैदा होने देंगे। देखते हैं कि तुम्हारा समाज आगे कैसे बढ़ता है। ख़ुद कर लो न बच्चे पैदा! जब तुम सत्ता जानते हो, तुम मज़हब जानते हो, तुम सब नियम-कायदे और शरिया जानते हो, तो बच्चे भी तुम ही पैदा कर लो! कर लो! क्या पुरुष इस बात के लिए भी आपको मजबूर कर सकता है कि नौ महीने तक गर्भ ढोना है? कर सकता है?

तो चुनाव है या नहीं है?

चुनाव सदा होता है। ये मत कहिए कि चुनाव नहीं होता। हाँ, चुनाव जितना कठिन होता है उतनी ही बड़ी मुक्ति उसके साथ जुड़ी भी होती है।

घूमते तो रहते हैं सब पुरुष। और सबको फिर जीवन सूना-सूना भी लगता है अगर जीवन में कोई महिला ना आए तो। मत आओ न किसी के जीवन में, मत आओ। और जीवन में लाने का मतलब बिस्तर पर लाना ही होता है, पर कहते ऐसे ही हैं कि ‘तू मेरी ज़िंदगी में आ जा, मेरा सूनापन भर जा।‘

तुम्हें अगर पता है कि ये सब पुरुष शोषणकर्ता हैं, तो मत आओ न किसी के जीवन में। लेकिन आओगी ज़रूर, क्यों? क्योंकि तुम भी हो उन्हीं पुरुषों जैसी। जैसा वो कह रहे हैं कि ‘जीवन सूना-सूना है, कोई आ जाए, गोद में बैठ जाए’, वैसे ही आपको भी जाकर बैठना है किसी की गोद में। तो स्वार्थ फिर दोनों ओर से बराबर का हो जाता है। फिर उस स्वार्थ में ये स्वीकृति भी होती है कि ‘तू कर ले मेरा शोषण। तू कर ले मेरा शोषण, बदले में तू मुझे कुछ सुख-सुविधाएँ तो दे रहा है न? मैं तेरा सूनापन दूर कर रही हूँ, तू मेरा सूनापन दूर कर रहा है। इस चक्कर में अगर मेरा शोषण भी हो गया तो मैं झेल लूँगी।‘

ये चुनाव किया या नहीं किया? बोलो। या दूसरे ने बस ज़बरदस्ती ही करी है?

दो-चार साल पहले जब तक मैं लोगों से व्यक्तिगत मुलाकातें करने का समय निकाल पाता था, आती थीं देवियाँ बात करने। और दस में से पाँच का यही रोना होता था। ‘हम क्या करें! स्थितियाँ ख़राब हैं। आचार्य जी, आप बोलते हैं कि स्वावलंबी रहो, लेकिन घरवाले काम नहीं करने देते। ये परेशानी है, ऐसा है, वैसा है।‘ और फिर मैं देखता था उनके हैंडबैग को, मात्र ७५००० रुपए। घर वाले काम नहीं करने देते, ये ७५००० का हैंडबैग कहाँ से आया? सारी कहानी साफ़ हो गई न? काम क्यों नहीं किया जा रहा, सब साफ़ हो गया न? अब बता दो, ये चुनाव है या नहीं है?

लेकिन हमें दोनों तरफ़ से मिठाई चाहिए। यह भी रोने को होना चाहिए कि, ‘मैं क्या करूँ, मेरे पति ने मेरा शोषण कर रखा है!’ रोने का भी तो एक लुत्फ़ होता है। सबकी नज़रों में अपने-आप को पीड़ित दिखाओ, उसका मुआवज़ा मिलता है फिर। मज़ा आया न? और साथ-ही-साथ ७५००० के हैंडबैग का भी मज़ा लो। ७५००० का हैंडबैग ही नहीं है, वो पति की ही गाड़ी में आयीं हैं। और शॉफर-ड्रिवेन (संचालित) गाड़ी है, वो बाहर इंतज़ार कर रहा है ड्राइवर। पति की ही गाड़ी में आकर, पति के ही ड्राइवर से, पति का ही दिया हैंडबैग ले करके, पति के ही पैसों की डोनेशन देकर के पति की शिकायत कर रहीं हैं। और फिर कह रहीं हैं, ‘हम क्या करें! हमें तो इस पितृ-सत्तात्मक समाज ने ग़ुलाम बना रखा है। पैट्रिआर्की हाय, हाय!’ और नारे लगा रहे हैं और मैं बस उस हैंडबैग को देख रहा हूँ। ये आया कहाँ से?

कम-से-कम कोई महिला तो ये बिलकुल ना कहे कि ‘मैं तो बेचारी क्या करती?’ आपके पास तो ऐसी चीज़ है कि आप उसका सही इस्तेमाल करें तो कोई नहीं आपके साथ ज़बरदस्ती कर सकता। जिस चीज़ को महिला अपनी कमज़ोरी मानती है, पहली चीज़, जिस चीज़ को बहुत सारी आधुनिक स्त्रियाँ, वेपनाइज़ (हथियार बना) करके, अपनी स्वार्थपूर्ति करती हैं, ठीक उसी चीज़ का अगर सही इस्तेमाल किया जाए, तो आपकी मुक्ति में सहायक भी हो सकती है।

मैं किस चीज़ की बात कर रहा हूँ? मैं आपके शरीर की बात कर रहा हूँ।

शरीर से पुरुष की अपेक्षा कुछ दुर्बल रही है स्त्री। इस बात को दुर्भाग्य की तरह लिया गया। ‘ये देखो, ये तो एक प्राकृतिक हैंडीकैप है।‘ और आज के समय में उसी शरीर का सस्ता, ओछा, बाज़ारु इस्तेमाल करके बहुत सारी स्त्रियाँ लाभ उठा रहीं हैं। किस तरह के लाभ? वही ओछे लाभ। लेकिन मैं कह रहा हूँ, उसी शरीर का सही इस्तेमाल करिए तो वह शरीर ही आपकी मुक्ति में सहायक भी बन जाएगा।

जो पुरुष, पुरुष कहलाने लायक ना हो, उसे छूने मत दीजिए अपने शरीर को, बस इतना कर लीजिए। थोड़ा आत्म-संयम सीखिए। आप भी अपनी वासना पर थोड़ा नियंत्रण करना सीखिए और तय कर लीजिए कि 'हाथ मुझे वही लगाएगा जो हाथ लगाने लायक होगा।' नहीं तो जीवन भर अनछुए रह लेंगे, कुँवारे भी रह लेंगे। इतना कर लीजिए, फिर बताइए कौन आपका शोषण कर सकता है?

इसलिए अध्यात्म सिखाता है – नाहं देहास्मी (मैं देह नहीं हूँ)। इसलिए मैं कहा करता हूँ कि स्त्रियों के लिए तो अध्यात्म और ज़्यादा ज़रूरी है। जानो कि तुम देह मात्र नहीं हो। जानो कि देह के अनुसार व्यवहार करना तुम्हारी मजबूरी नहीं है। देह से कोई रिश्ता भी रखना है तो मालिक का रखो; देह के मालिक हैं हम, देह हमारी मालिक नहीं है।

हम देह के अगर मालिक हैं तो देह का इस्तेमाल करेंगे, सही उद्देश्य के लिए देह का इस्तेमाल करेंगे। देह की कठपुतली बनकर नहीं नाचेंगे।

देह की कठपुतली बनना माने? हॉर्मोन्स हैं, उनसे भावनाएँ उठ रही हैं, ये-वो वही विचार आ रहे हैं और उसी हिसाब से हम चल रहे हैं, नाच रहे हैं। वैसे नहीं जीना है, देह का इस्तेमाल बंदूक की तरह करना है। धर्मयुद्ध है। पूरा समाज सही हो जाए अगर एक यह प्रण स्त्रियाँ उठा लें। ये जितने छिछोरे, लफंगे घूम रहे हैं, ये सब संट हो जाएँगे, इन्हें गर्लफ्रेंड मिलनी बंद हो जाएँ, बस।

एक बार लड़कियों में यह चेतना आ जाए कि लफंगों की छाया नहीं पड़ने देंगे अपने ऊपर, फिर देखते हैं कैसे लफंगई चलती है। वही कामवासना जो बड़ी ग़ुलामी होती है, उसी वासना का इस्तेमाल करके मुक्ति भी पायी जा सकती है। ये है असली बात 'काम से राम तक' वाली।

समझ रहे हैं न?

कि वासनापूर्ति करना चाहते हो मिस्टर लफंगे, तो पहले बेहतर आदमी बनो, फिर आना। तुम्हारी वासना ही तुम्हें बेहतर आदमी बनाएगी, क्योंकि वो चिल्लाएगी, 'मुझे पूरा होना है!' तुम्हें पूरा होना है तो पहले बेहतर इंसान बनकर आओ। जाओ, गीता पढ़कर आओ पहले। और बकायदा तुम्हारी परीक्षा होगी। जब पास हो जाओगे तो पास आना।

प्र२: आचार्य जी, जैसे अभी वुमन ऑब्जेक्टिफिकेशन (महिला वस्तुकरण) के बारे में भी बात हो रही थी और आपने अभी बोला कि औरतों को ही अपनी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी अपनी मुक्ति के लिए, लेकिन यहाँ देखा जा रहा है कि जो बेसिक फ्रीडम (बुनियादी मुक्ति) होती है, वो भी औरतें नहीं लेना चाहतीं।

जैसे अगर कोई पुरुष है, वो लहज़े की इतनी चिंता नहीं करेगा, शॉर्ट्स पहन कर निकल जाएगा, ऐसे वो ज़्यादा उस चीज़ पर ध्यान नहीं देगा। लेकिन अगर कोई महिला है, तो वो भले ही कितनी ही इंटेलेक्चुअल (बुद्धिजीवी) भी हो, वो बोलेंगे कि ‘मैं बिना मेकअप के तो ऑफिस जाऊँगी ही नहीं‘ या, ‘हील्स पहनना तो ज़रूरी है‘। जबकि उससे ख़ुद उसका भी नुकसान हो रहा है तब भी वो बोलती है कि ‘नहीं, ये तो मेरा चुनाव है, ये माय चॉइस (मेरी मर्ज़ी)’। और यह तो एक ज़हर ही फैल रहा है हर जगह ये माई चॉइस बोलकर।

आचार्य: ये जो माई चॉइस है, वो भी अकस्मात, रैन्डम नहीं होती है। उसके पीछे भी स्वार्थ होता है। बहुत समझाने की ज़रूरत नहीं है। इतना तो सभी जानते हैं कि आप अगर इस तरह का मेकअप करते हो या कम कपड़े पहनते हो, या जो भी, तो उससे अटेन्शन (ध्यान) मिलता है। इतना तो सभी जानते हैं, और इतना सब स्वीकार भी करते हैं कि हाँ भाई, इस बात से अटेंशन तो मिलता ही है। उसके आगे की हम जाँच-पड़ताल नहीं करते कि उस अटेंशन से क्या मिलता है।

उस अटेन्शन से मुनाफ़ा मिलता है।

तो ले-दे करके ये बस मुनाफ़ा कमाने की घटिया तरकीबें होती हैं। कई तरीके का मुनाफ़ा – रुपए-पैसे का मिल जाता है, कोई और सुविधा मिल जाती है, आपका कोई काम है वो कर देगा जा करके क्योंकि आप हॉट (उत्तेजक) लगते हो। ये बस इतनी-सी चीज़ है, अब इसमें क्या?

कह रहा था न मैं आपको – शरीर संसाधन है, उसका जिस तरीके से चाहो इस्तेमाल करो। उसका इस्तेमाल बंधनों को काटने के लिए भी कर सकते हो और उसी को अपना सबसे बड़ा बंधन भी बना सकते हो।

जो मूर्ख होते हैं, जिनकी बुद्धि फिरी होती है, जिनको वेदान्त की कोई शिक्षा नहीं मिली होती, वो अपने शरीर को ही अपना बंधन बना लेते हैं।

वो शरीर का इस्तेमाल करने लग जाते हैं शरीर को ही चलाने के लिए, कि ‘मैं शरीर का प्रदर्शन करती हूँ ताकि उससे रुपया-पैसा मिले, उससे खूब खाएँगे।‘ वो खाना भी कौन खा रहा है? तो शरीर का इस्तेमाल किसलिए किया गया? शरीर को चलाने के लिए।

जैसे कि किसी कार का इस्तेमाल किया जाता हो बस पेट्रोल पंप तक जाने के लिए। ये कार क्या करती है? घर से चलती है, पेट्रोल पंप तक जाती है, वापस आती है। ये कार चलती ही है बस अपने-आप को खाना देने के लिए। ऐसी कार को आप रखना चाहेंगे एक संसाधन, रीसोर्स के रूप में? ये कार बेकार है न? कार कहें, बेकार कहें?

श्रोतागण: बेकार।

आचार्य: क्योंकि इसका कोई इस्तेमाल ही नहीं हो पा रहा मंज़िल तक पहुँचने के लिए। ये चलती है बस अपने-आप को ही चलाने के लिए।

वैसे ही ये शरीर मिला है किसी मंज़िल पर पहुँचने के लिए। उसकी जगह आप इस शरीर का इस्तेमाल या प्रदर्शन कर रहे हो बस शरीर को ही चलाने के लिए, तो ये तो कार बेकार है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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