बेचारी आत्मा, जो भूत बन गई (कमज़ोर दिल वाले न देखें) || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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बेचारी आत्मा, जो भूत बन गई (कमज़ोर दिल वाले न देखें) || आचार्य प्रशांत (2023)

भाषा हमें बहुत सारे देती है नाम। और ये जो सारे नाम हैं, ये हमें भरोसा दिला देते हैं कि अपूर्ण अहंकार, पूर्ण हो सकता है। ‘इस नाम से बात नहीं बनी तो उस नाम से बात बनेगी; तो उस नाम से बात बनेगी, तो उस नाम से बात बनेगी। अरे! आत्मा से बात नहीं बनी, मैं वैदिक धर्म में था। चलो! बुद्ध की ओर चलते हैं, अनात्मा से बात बन जाएगी।’ और इस पूरी प्रक्रिया में ये बात छुपी रह गयी कि जिसकी बात बनाना चाह रहे हो। वो अपनेआप ही बिगड़ी हुई बात है। उसकी बात कभी बन ही नहीं सकती।

आप ये तो देख गये कि आत्मा से बात नहीं बनी, वेद काम नहीं आये। अब बुद्ध कोई नयी बात बता गयें हैं — 'अनात्मा'। ‘चलो! ज़रा जाते हैं संघ की ओर। वो घूम रहा है हाँ भाई! भिक्षु बताना तुम्हारा क्या है? तुम तो वही हो न, जो उपनिषद् पढ़कर के आ रहा था। अब तुम ‘धम्म पद’ पढ़ लोगे तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा। तुम तो वही हो न!’

देखो! दो नामों में भेद करके तुमने अहंकार और सत्य का जो भेद था कितनी आसानी से स्वयं को भुलवा दिया। तुम्हें लगा, ‘देखो, कुछ नया मिल गया न! ‘उपनिषद्’ से ‘धम्मपद’ पर आ गये। कुछ नया हो गया।’ कुछ नया क्या हुआ? जो आया है वो तो वही है। ये भाषा का काम है — आपको झूठी आस देना। आपको लगता है कि कुछ नया आ गया जीवन में। समझ में आ रही है बात ये?

जो नया आया है न, बस वो नाम से नया है। नाम से नया है। वो न सिर्फ़ पुराना है बल्कि समूची प्रकृति का प्रतिनिधि है। तो कुछ नया आया ही नहीं है। पहले भी वही पुरानी प्रकृति थी जिसके सामने अहंकार खड़ा हो गया था, हथेली फैलाकर के। अभी भी वही पुरानी प्रकृति इसके सामने अहंकार खड़ा हो गया है, हथेली फैलाकर के। बस अहंकार एकदम बुद्धू है, पगलू सा। तो पहले वही जैसे- ‘अन्धों का हाथी’ कहानी नहीं है! तो पहले हाथी की सूंड के सामने खड़ा था। अब हाथी की पूँछ के सामने खड़ा है। दोनों को अलग-अलग क्या नाम दे दिये — ‘सूंड’। बोला! फिर ‘पूँछ’ बोला! हाथी के टुकड़े कर दिये। क्योंकि इतना बड़ा हाथी, वो छोटू की पकड़ में आता ही नहीं। तो छोटू ने क्या करा? हाथी को बना दिया — ‘ये सूंड है, ये पूँछ है, ये कान है, ये टाँग है, ये पेट हैं, ये पीठ हैं, ये आँख हैं, ये दाँत हैं।’ और अब अपनेआप को बोल रहा है, ‘देखो! ज़िन्दगी में नयी-नयी चीज़ें आ रही हैं मेरे। और एक चीज़ से अगर बात नहीं बन रही तो ज़रूर किसी नयी चीज़ से बात बन जाएगी।’

‘तुझे पता है मैं पहले ग़लत फँस गया था!’ क्यों? ग़लत कैसे फँस गया था? ‘अरे! वो न मैंने कुछ एक बहुत कठोर सी चीज़ पकड़ ली थी सफ़ेद-सफ़ेद। उतनी कठोरता मुझसे झेली नहीं जा रही थी। हाथ पड़े लटक गया होगा। वो दाँत पकड़कर के।’ हाथी के दाँत पकड़कर के लटका हुआ था। ‘अरे! मैं ग़लत फँस गया था। अब ज़िन्दगी में कुछ कोमलता आयी है।’ क्या हुआ है? ‘अब पूँछ है, नयी चीज़ आयी है।’ उसको कहाँ समझ में आ रहा है कि वो तो पुराना हाथी ही है। तुमने उसी के बिना बात के टुकड़े कर डाले हैं। जहाँ टुकड़े तो वास्तव में, हैं भी नहीं। अब हाथी में हमें दिखाई देता है। क्योंकि वो जो पूर्ण है उसको हम देख पा रहे हैं इन्ही इन्द्रियों से, इसी आँख से और जो हम देख पा रहे हैं, उसके लिए हमारे पास एक संयुक्त नाम है — हाथी।

अगर मैं आपसे कहूँ कि इन सबको मिलाकर के मुझे एक संयुक्त नाम दो, तो आप दे देते हो। मैं कहूँ, ‘चलो! इन सबको जोड़ो और इसके लिए एक नाम दो — दाँत, आँख, सूंड, माथा, पेट, टाँग, पूँछ इनके लिए एक नाम दो।’

श्रोता: हाथी।

आचार्य: देखा, दे लिया! क्योंकि सुविधा है। क्योंकि हाथी भी बड़ा है पर इतना बड़ा नहीं है कि आँखों को दिखाई ही न दे कि वो एक ही चीज़ है, और बुद्धि को समझ में ही न आये कि वो एक ही चीज़ है। तो वहाँ हमने सुविधा से दे दिया। चलो! एक नाम देना — जड़, तना, पत्ती, फूल, शाखा, प्रशाखा।

श्रोता: पेड़।

आचार्य: देखा! कितने आप होशियार हो! तुरन्त बता दिया कि ये अलग-अलग नहीं हैं। फँसिएगा मत। ये एक ही चीज़ है। बता दिया। अब चलो! अब एक नाम दो। अब फँस जाओगे। दीवार, कुर्सी, राजदीप, अनमोल, माइक, मेज़, इज़रायल। दो, एक नाम दो। मुश्किल है। अब यहाँ बैठकर के हम कुछ-कुछ कोशिश कर रहे हैं बोलने की। नहीं तो ये सब आपके सामने आयें, आप इनको एक नाम दे भी सकते हो क्या? नहीं दे पाओगे न! ये बात बहुत नैसर्गिक सी लगेगी कि ये तो अलग-अलग हैं ही। इनमें क्या है? ठीक वैसे ही जैसे वो जो अन्धे खड़े थे, उनको लग रहा था कि पूँछ और पेट और दाँत और टाँग ये तो अलग-अलग होते ही हैं। वैसे ही आज हमें यहाँ पर यही लग रहा है।

आपसे बोला जाए कि क्रिकेट, हमास, अफगानिस्तान, नये कपड़े, दशहरा, अटलांटिक महासागर, नये जूते। बताओ, इनको एक साझा नाम दो। नहीं दे पाओगे न? हाथी इतना बड़ा हो गया है कि दिख ही नहीं रहा है कि एक ही चीज़ है।

चलो! एक थोड़ा आँख बन्द करो। कल्पना करो इतना बड़ा हाथी है। पता ही नहीं चल रहा, अलग-अलग चीज़ है। वो एक ही चीज़ है। आपके जूते और अटलांटिक महासागर बिलकुल एक ही चीज़ है। जैसे हाथी की पूँछ और हाथी की सूंड एक ही चीज़ है।’ नहीं, नहीं आ रहा। समझ में नहीं आ रहा।’ क्योंकि ब्रह्म कल्पना में नहीं आ सकता। फँस गये! नहीं आ रहा न?

आप जिस जम्बोजेट से आये हैं। जिस जम्बोजेट से आये हैं। उसमें सामान रखने का एक बहुत भारी जगह होती है। उसी में तो आपका सब आता है। वहाँ एक बैक्टीरिया रहता है। वो वहीं पैदा हुआ था। तब से वहीं रहता है। और उसको वहाँ रहते अब छ: दिन बीत चुके हैं। कुल दस दिन की उसकी ज़िन्दगी होती है। पैदा होता है, दस दिन जीता है मर जाता है। छ: दिन हो गये हैं। उस बैक्टीरिया को कभी कॉकपिट का कुछ पता चलेगा क्या? वो बैक्टीरिया कभी भी ये जान पाएगा कि वो जहाँ रहता है और हवाई जहाज़ के जो पहिए हैं, और हवाई जहाज़ की जो सीट है, और हवाई जहाज़ में जो खाना है, और हवाई जहाज़ में जो लेवेटरी है, और हवाई जहाज़ में जो तमाम तरह के यात्री हैं, और क्रू है और पायलट है और जो उसमें धातुएँ लगी हुई हैं वो सब एक ही चीज़ हैं? कभी जान पाएगा? वो बैक्टीरिया बनकर के। सोचिए! वो जो वहीं पर पैदा हुआ है अभी-अभी। कहाँ पैदा हुआ है वो? वो जो उसका हल होता है। जहाँ पर वो सब सामान रखा जाता है। उसको बैगज सेक्शन या जो भी बोलते होंगे। कभी उसे पता चलेगा?

चलिए! मामले को और व्यक्तिगत बना देते हैं। आपको इतना तो पता ही होगा कि आपकी आँतों में लाखों बैक्टीरिया रहते हैं। आपकी आँत में एक बैक्टीरिया रहता है। उसका शून्यता सप्तति से क्या रिश्ता है? आपका बैक्टीरिया कभी जान पाएगा कि आप आजकल इश्क में गिरफ्तार हो। कि आपको गुलाबी शर्ट पसन्द नहीं आयी, आप नारंगी शर्ट पाना चाहते हो। और रहता ठीक आपकी आँत के अन्दर है। बोलिए!

वो इतना छोटा है इतना छोटा है कि पूर्ण ब्रह्म को तो छोड़ दो ये जो शरीर है, वो इस शरीर की पूर्णता का भी अनुमान तक नहीं लगा सकता। उसके लिए उसकी पूरी ज़िन्दगी क्या है? आपकी आँत का वो ज़रा सा अड्डा जहाँ वो घुसकर के बैठ गया है। और वहीं पर वो कुछ-कुछ कर रहा है। उसका पूरा ब्रह्माण्ड है वहाँ पर। वहीं उसका प्यार है, वहीं पर उसकी एक्स भी है, वहीं पर उसका सबकुछ। मतलब जो-जो कुछ सोच सकते हो। पतंग उड़ता है वहाँ पर वो। वहाँ पर हो सकता है उसकी प्रिंटिंग प्रेस हो, समाचार पत्र निकलता हो। वहाँ पर सबकुछ है। उसकी पुरानी स्मृति है। वो आतंकवाद का भी शिकार है। उसको याद आ रहा है कि हम बैक्टीरिया लोग हैं। और साथ में फंगस भी रहती है। और बैक्टीरिया और फंगस इनकी बहुत पुरानी लड़ाई चल रही है। वो सब उसका वहाँ चल रहा है। कोई आता है तो बोलता है, ‘अजी! साहब हमारे बाप-दादाओं की ज़मीन है। यहीं पर हमारे वीर पितामहों ने प्राण त्यागे थे। और ये फंगस इनसे तो हमारा जन्म-जन्म का बैर है, मारकर के ही छोड़ेंगे इनको। उसको कुछ भी पता है कि कहीं पर कोई बैठा हुआ है। जो अपनी प्रयोगशाला में एंटी बायोटिक्स बना रहा है। उसे कुछ पता है?’

एक बार आप वो बैक्टीरिया बनकर देखिए जो आपकी आँत के किसी ज़रा-सी जगह पर बैठा है। वहीं पैदा हुआ, वहीं मरेगा। और उसके पुरखे भी वहीं पैदा हुए थे। वहीं मरे थे। आप जितने दिन जीते हो न, उतने में बैक्टीरिया की कम-से-कम सौ पुश्तें वहाँ पर जन्म लेकर मर जाती हैं। सोचो! क्योंकि वो जीतीं ही बस कुछ दिन है। कुछ दिन जिये मर गयी। फिर अगली पुश्त आ गयी। फिर अगली पुश्त आ गयी। अगली पुश्त आ गयी। ये सब आपके पेट के अन्दर चल रहा है। उसे कुछ पता चलेगा कि तुम यहाँ बैठ गये हो हाथ में पेन लेकर के। उसको पता है कि आपकी गाड़ी में फ्यूल कम है। आप अभी भरवाने जाने की सोच रहे हो। और आप ब्रह्म नहीं हो। आप बस बैक्टीरिया से अनुपात में थोड़े बड़े हो तो भी बैक्टीरिया को कुछ पता नहीं चल सकता, क्या चल रहा है। जबकि वो रह आपके भीतर रहा है।

इसी प्रकार अहंकार, ‘ब्रह्म’ में ही जन्म लेता है। ब्रह्म में ही मर जाता है। पर ब्रह्म को कभी वो जान नहीं सकता। उसने अपनेआप को इतना अपूर्ण घोषित कर दिया है। उसने अपनेआप को इतना छोटा ठहरा दिया है कि उसे ब्रह्म का कुछ पता नहीं चल सकता। ब्रह्म की आँत के बैक्टीरिया को अहंकार कहते हैं। वो भी हमने अभी अहंकार का बड़ा महिमा मंडन कर दिया। अहंकार इतना भी बड़ा नहीं है कि उसको आप ब्रह्म की आँत के बैक्टीरिया की भी उपमा दे सकें। समझ में आ रही बात ये?

सोचो! तो अन्दर क्या-क्या नहीं हो रहा है उसका। और क्या हो रहा है उसका सोचो? अन्दर बैक्टीरिया की वहाँ पर न्याय व्यवस्था भी चलती है। एक अदालत लगी हुई है। उसमें छ: सरपंच बैक्टीरिया बैठे हैं। उनका उच्चतम न्यायलय बोलते हैं, बेंच पाँच-छ: के। बैठे हुए हैं छ: वहाँ पर और ज़मीन-जायदाद का मुकदमा चल रहा है ज़बरदस्त। और क्यों नहीं चल रहा होगा आप ये बता दीजिए। कोई कल्पना की बात है। वो आप ही की तरह प्राणी है एक। और जब आपकी तरह ही प्राणी है तो जिजीविषा उसमें भी है, कामना उसमें भी है, ईर्ष्या उसमें भी है। जो कुछ आपमें है। वो आपकी आँत के बैक्टीरिया में भी है। तो जो कुछ भी आप कर रहे हैं, आपकी आँत के भीतर वो बैक्टीरिया भी कर रहा है। आप ब्रह्म में कर रहे हैं, वो आपकी आँत में कर रहा है। आपको ब्रह्म का कुछ पता नहीं, बैक्टीरिया को आपका कुछ पता नहीं। लेकिन कर वो सबकुछ रहा है, जो आप कर रहे हैं। एक बैक्टीरिया दूसरे से खार नहीं खाता, बताओ?

दो कुत्ते, दो बिल्ली एक साथ छोड़ दो। फिर देखो क्या होता है। जैसे दो बैक्टीरिया एक साथ छोड़ दो तो वो एक — दूसरे को मारते नहीं होंगे पटा-पट? ‘आ गया मेरी जगह पर मेरा सामान खाने। भाग यहाँ से!’ एक बैक्टीरिया ने कुछ करा, दूसरा उसका श्रेय ले गया। तो पहला बैक्टीरिया उसको बोल रहा है, ’पैरासाइट कहीं का!’ करा मैंने, मज़े ये ले रहा है। ये सब चल रहा है अन्दर।

एक बैक्टीरिया दुखी है। उसका बिलकुल लौंडा बर्बाद निकल गया है। अवारा। फंगस की कोलोनी में घुस गया है। वहाँ कोई फंगी पकड़ ली है। वो बोल रहा है फंगी है, बाप उसका बोल रहा है, ‘बैकटीरिया वो लफंगी है’। भीतर मचा हुआ है महाभारत।

आप क्यों हँस रहे हैं? आपको क्यों लग रहा है कि ये नहीं चल रहा है? बताओ न! ये चल रहा है। वो हम हैं। वो हम हैं। समझ में आ रही है बात? जो नहीं हैं, उसे अपनेआप को किसी भी तरह सत्यापित करने के लिए बहुत सारे झूठ बनाने पड़ते हैं। उन झूठों का निर्माण करने के लिए भाषा का सहारा लिया जाता है। जहाँ अन्तर नहीं है वहाँ अज्ञानवश अन्तर देखो। और जहाँ अन्तर है, वहाँ अन्तर नहीं देखो।

बौद्ध परम्परा में भी और वेदान्त में भी। ये दोनों ही बातें उद्घाटित करी जाती हैं। एक और आपको उदाहरण दिया जाता है। और ये बड़ा प्रचलित उदाहरण है। उदाहरण दिया जाता है कपास का। कहा जाता है अलग-अलग रंग के कपड़े हैं। लेकिन अगर इनको ग़ौर से देखोगे तो इनके भीतर कपास का रेशा एक है। ये उदाहरण है अभेद का। कि जहाँ भेद है नहीं, वहाँ भेद काहे को देख रहे बाबा? और दूसरा उदाहरण दिया जाता है रज्जु सर्प। कि पड़ी हुई है रस्सी और लग रहा था साँप। भेद करना सीखो।

अहंकार उल्टा चलता है। जहाँ भेद नहीं है वहाँ वो भेद कर लेता है। वो सब कपड़ों को अलग-अलग बोलेगा। बिना ये देखे कि 'बस इक्को रंग कपाई दा' वो ये नहीं देखेगा। जहाँ कोई अन्तर नहीं है। वहाँ वो अपने प्रश्रय के लिए, अपनी सुरक्षा के लिए कृत्रिम अन्तर स्थापित कर देगा। और जहाँ सचमुच अन्तर है, वहाँ वो कहेगा — ‘नहीं-नहीं, कोई फ़र्क नहीं; कोई फ़र्क नहीं। कोई फ़र्क है ही नहीं। कोई फ़र्क नहीं।’

विवेक का अर्थ बस इतना ही नहीं होता कि अन्तर करना सीखो। बात पूरी करो जल्दी। विवेक का अर्थ ये भी होता है कि जहाँ फ़र्क नहीं है, वहाँ फ़र्क करना बन्द करो। जहाँ अन्तर है, वहाँ अन्तर करना सीखो और बराबर के ही महत्व की बात है कि जहाँ कोई अन्तर नहीं है। वहाँ काहे के लिए इतने तुमने कृत्रिम अन्तर खड़े कर दिये। कोई अन्तर है ही नहीं। जहाँ कोई अन्तर नहीं है वहाँ कृत्रिम अन्तर न खड़े करने को कहते हैं समभाव या इक्वेनीमिटी। वहाँ कोई अन्तर नहीं है। तुम बेकार ही अन्तर खड़े कर रहे हो। समता, दोनों समान हैं। कोई अन्तर नहीं है।

और वो व्यक्ति जो ऐसी जगहों पर अन्तर करेगा जहाँ अन्तर नहीं है। वो वहाँ अन्तर करना भूल जाएगा जहाँ सचमुच अन्तर है। अगर तुम वो सब गिनने लग जाओगे, जो गिनने लायक़ नहीं है। तो उस गिनती से चूक जाओगे जो तुम्हें कभी नहीं भूलनी चाहिए थी। तुम्हारे लिए वो महत्त्वपूर्ण हो जाएगा जिसका कोई महत्व नहीं है। तो जिसका महत्व है उससे बहुत दूर हो जाओगे।

भाषा, अन्तर्जगत में नामों का इतना आधिक्य कर देती है कि जो नामातीत है उसकी कोई सुध बाक़ी नहीं रह जाती। नागार्जुन कितने सौन्दर्य के साथ कह देते हैं। जिनके भी बारे में भाषा का प्रयोग होता है। वे निर्वाण की तरह निस्वभाव हैं। बात ये नहीं है कि उन्होंने ये कह दिया कि जिस भी वस्तु के लिए तुम्हारे पास शब्द हैं या नाम है वो वस्तु नि:स्वभाव है। देखो! यहाँ पर विद्वत्ता देखो, तीक्ष्णता देखो। नागर्जुन की छुरी की धार देखो। कह रहे हैं — निर्वाण की तरह नि:स्वभाव है। वो कह रहे हैं — तुम्हारे बन्धन तो झूठ हैं ही, तुम्हारी मुक्ति भी झूठ है। क्योंकि मुक्त होने के लिए भी कोई चाहिए न जो बन्धन में था। जब अहंकार ही झूठ है तो बताओ — मुक्त कौन हो गया? तुम्हारी मुक्ति भी झूठ है। अहंकार का इससे बड़ा अपमान कुछ हो सकता है।

बुद्ध ने कहा, ‘निर्वाण से बड़ा कुछ नहीं।’ नागार्जुन कह रहे है, ‘निर्वाण भी कुछ नहीं।’ बुद्ध बोलें, ‘निर्वाण’। नागार्जुन ने आकर स्पष्ट कर दिया निर्वाण भी नि:स्वभाव है। तुम बन्धन में थे कब? बन्धन है कहाँ? बन्धनों के होने के लिए कोई होना तो चाहिए। जैसे आप एक पुतला खड़ा कर दो पट्टियों से बिलकुल लपेट-लपेट-लपेट-लपेट-लपेट पुतले पर पट्टियाँ ही पट्टियाँ आपने लपेट दी हैं। कोई पूछे ये कौन हैं? आप बोलो मरीज़ है। ये एकदम घायल है या जल गया है। इसलिए इसके ऊपर से नीचे तक नखशिख, क्या बाँध दी हमने? पट्टियाँ बाँध दी हैं। बड़ी बेचारे की ख़राब हालत है। बड़ी बेचारे की ख़राब हालत है। वो पट्टियाँ-ही-पट्टियाँ थी। उसके भीतर कोई अब बताओ कोई मर गया। कोई मरा ही नहीं। क्यों? क्योंकि कोई ज़िन्दा ही नहीं था। अब बताओ किसी को बचा लिया। कोई बचा ही नहीं। क्यों? क्योंकि कोई था ही नहीं वहाँ पर बचाने के लिए। क्या हैं? पट्टियाँ ही पट्टियाँ ।

बुद्ध कह रहे हैं, ‘भाषा ही इन पट्टियों को निर्मित करती है। तुम पट्टियों को देखकर मान रहे हो पट्टियों के भीतर कोई होगा।’ समझ में आ रही है बात? तुम शब्द को देखकर मान रहे हो कि यदि किसी के लिए शब्द है तो कोई होगा। शब्द, शब्द है। शब्द के पीछे कोई नहीं है। ये लगभग ऐसी बात है कि मैं बोलूँ किसी को कि जाना ज़रा दिल्ली में चाणक्यपुरी। कल वहाँ काकाटुआ के एम्बेसी में तुम्हें वीजा मिलेगा और तुम वहाँ जाओ, वहाँ तुम पाओ भी। वहाँ लिखा हुआ उच्चायोग या दूतावास। किसका? काकाटुआ का। बढ़िया बात है। बस इसमें एक छोटा सा फ़ेर रह गया। क्या? काकाटुआ कोई देश है ही नहीं। उसका दूतावास भी है और उसका राजदूत भी है पर कोई देश नहीं है ऐसा। अब क्या करें? भाषा ऐसी ही है।

भाषा में हम कहते हैं हर शब्द किसी का प्रतीक होता है। शब्द तो है पर जिस चीज़ का उसको प्रतीक होना था वो चीज़ नहीं है। शब्द तो है लेकिन हम शब्द को देखकर के ये मान लेते हैं कि वस्तु भी होगी, वस्तु कुछ नहीं है। वस्तु कुछ नहीं है। शब्द भर है वस्तु नहीं है। शब्द है वस्तु नहीं है। ‘आइ लव यू’। तीन शब्द हैं। तीनों में ही वस्तुत: कहीं नहीं है। तीनों को ही नागार्जुन कहेंगे। ‘रिक्त, शून्य, नि:स्वभाव। न ‘आइ’ है, न ‘यू’ है। मुस्कुरा रहे पीछे से। समझ में आयी बात?

शब्द हैं, शब्दों के पीछे कुछ नहीं है। जैसे कि कई होते हैं रेस्तराँ, वहाँ आप जाओ। वहाँ वो आपको मेन्यू दे देते हैं। आप कहते हो, ‘भाई, ये मिलेगा, चना-छोला?’ वो कहते हैं, ‘नहीं है’। हुआ कि नहीं हुआ? तो आप बोलते हो, ‘इडली ले आओ।’ बोलते हैं, ‘नहीं है’। कहते हैं, ‘और काहे के लिए शब्द हैं तुम्हारे पास?’ ‘डोसा ले आओ।’ नहीं है। ‘अरे! पराठे ही दे दो।’ वो भी नहीं है। ये बौद्ध है। ये आपको कुछ सिखाना चाह रहा है। वो आपको बता रहा है, ‘इसी को जगत कहते हैं। यहाँ शब्द होते हैं। शब्दों के पीछे कुछ नहीं होता। हाँ! शब्द खा सकते हो तो खा लो पेट भर लो। शब्द खाओ, पेट भरो। शब्द है, शब्द के पीछे कुछ नहीं।’ क्या ऐसा रेस्ट्रॉन भी है? उसको माने कि ये भी है। यदि जो कुछ भी मेन्यू में लिखा हुआ है। वो बस लिखा हुआ है। है नहीं। नहीं है, कुछ भी नहीं। यहाँ तक ठीक था। सब ठीक था। अगर बिल न देना पड़ता। यहाँ एंट्री चार्जेज हैं। पैसा पहले ही ले लिया और अन्दर जो भी मँगाओ, क्या बोलते है? ‘नहीं है।’ अब क्या करें?

सारी दिक्क़त आ रही थी क्योंकि उपनिषदों का अर्थ न कर पाने के कारण। लोग मानने लग गये थे कि आत्मा जैसे होती है और मुक्ति भी जैसे होती है। फँस गये न? और बुद्ध के इतना समझाने के बाद भी हिन्दू आज भी यही मान रहे हैं कि आत्मा होती है। जबकि जिन्होंने आपको दिया था शब्द — 'आत्मा'। उन्होंने बहुत हिचक के साथ दिया था। उन्होंने शब्द देते हुए आपको सौ बार चेताया था कि आत्मा कोई शब्द है नहीं। मौन ही आत्मा है।

अच्छा! एक बात बताओ। जो निर्गुण हो, निराकार हो, अरूप हो, असंग हो। क्या वो है? लेकिन हिन्दुओं ने आत्मा को ऐसा बना लिया जैसे वो है। और जो चीज़ है, वो तो अहंकार का ग्रास बन गयी न! तो इसलिए फिर हिन्दुओं ने आत्मा को अपने भीतर बैठा लिया। बोले, ‘आत्मा, यहाँ भीतर कुछ होती है’. उसको अहंकार के बराबर कर दिया। अहम् को जो चीज़ बुरी लगी; बोले, ‘मेरे आत्मा को बुरी लग रही है।’ अहम् को जो चीज़ प्यारी लगी; बोले, ‘मैं आत्मा से प्यार करता हूँ।’ यही हिन्दू आज भी कर रहे हैं। यही हिन्दू तब भी कर रहे थे। इसलिए बुद्ध को एक फिर नया धर्म ही चलाना पड़ा। बोले! इन लोगों ने तो आत्मा ही ख़राब कर दी। इनका कुछ नहीं हो सकता। ये तो आत्मा को अपने भीतर बैठकर लेकर बैठ गये हैं।

बुद्ध आये, इतना समझाए, बुद्ध चले गये। हिन्दू आत्मा को छोड़ नहीं रहे। वो आत्मा को यहाँ भीतर ही बैठाए हुए हैं। वो भीतर बैठती है फिर फुर्र से उड़ जाती है। फिर किसी के पेट में घुस जाती है। मोटी भी हो जाती है। पतली भी हो जाती है। गन्दी भी हो जाती है। और जब गन्दी हो जाती है तो उसको गंगा में ऐसे वहाँ पर नहला-धुला दो, निचोड़ दो तो साफ़ हो जाती है।

बुद्ध यही पहले ऐसे थोड़े ही वो उन्होंने कहा कि मैं एक अलग पन्थ ही बनाऊँगा। पहले उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश करी। लोग नहीं सुधर रहे तो उन्होंने कहा कम-से-कम जिन मुट्ठीभर लोगों को मेरी बात समझ में आ रही है उनकी सुरक्षा करना ज़रूरी है। तो उन्होंने कहा, ‘एक काम करो। तुम इधर आओ, अलग आओ। तुम संघ में आओ।’ क्योंकि बहुत लोग नहीं थे।

बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार तो बुद्ध के बहुत बाद हुआ है। जब तक बुद्ध थे तो बुद्ध को समझने वाले मुट्ठी भर ही लोग थे। तो फिर बुद्ध को उनको अलग करना पड़ा। बोले, ‘तुम इधर आओ क्योंकि तुम उनके साथ रहोगे न, तो वो लोग तुम्हें अपने साथ ही फिर बहा ले जाएँगे, भ्रष्ट और विकृत कर देंगे। तो इसलिए इधर आओ।

अहंकार को ये मानने में बड़ी तकलीफ़ हो जाती है कि वो है ही नहीं। वो उल्टा प्रहार करता और कहता है, ‘तुम कहोगे मैं हूँ ही नहीं। तो मैं कहूँगा, मैं आत्मा हूँ।’ अहंकार ने हिन्दु धर्म में अपनेआप को आत्मा बना लिया। जब भी कोई हिन्दू आपसे बोले — आत्मा! तो अर्थ एक ही है — अहंकार। अहंकार इससे बड़ी कोई धृष्टता कर सकता है कि वो अपनेआप को आत्मा बोलना शुरू कर दे! और ये हुआ हिन्दुओं में कि अहंकार ही आत्मा बन गया। इसलिए फिर बुद्ध को कहना पड़ा, ‘हटो, तुम सब ख़त्म करो आत्मा-अनात्मा सब बेकार! ये बेकार की बातें!’ कोई समझाने वाला नहीं था। समझ में आता है। समझाने वाले के होने के बाद भी हिन्दू माने नहीं। पहले उन्होंने अपने ऋषियों का अपमान करा। फिर उन्होंने बुद्ध का अपमान करा। आज भी वो इसी बात को पकड़कर बैठे हुए हैं कि आत्मा तो है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं। प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहीं॥ ~ संत कबीर

अरे! भाई, अगर तुम हो, तो आत्मा नहीं है। क्योंकि हमारे होने का मतलब होता है — भौतिक। अगर मैं कहूँ, ‘ये है’(तौलिया को उठाते हुए) और साथ ही मैं बोल दूँ, ‘आत्मा भी है’। तो इसका मतलब हुआ आत्मा इसी की तल की कोई चीज़ हो गयी न! मैं कहता हूँ, ‘तौलिया है’ और उसी ज़बान से मैंने बोल दिया, ‘आत्मा है’। तो इसका क्या मतलब हो गया? आत्मा और तौलिया एक ही जैसी कोई चीज़ होगा। एक ही तल की कोई चीज़ हो। तौलिया में गुण होते हैं, आत्मा में भी गुण होंगे। तौलिये में वज़न होता है, आत्मा में भी वज़न होगा। तौलिये का शरीर होता है, आत्मा का भी शरीर होगा। तौलिये का रूप-रंग गुणधर्म होता है, आत्मा का भी रूप-रंग गुणधर्म होगा। तो या तो बोल दो कि आत्मा है या बोल दो — ‘तौलिया है’। पर हिन्दुओं ने कह दिया — ‘तौलिया भी है और आत्मा भी है’। तो लो तौलिया और आत्मा एक हो गये और इसलिए हिन्दुओं में जो आत्मा प्रचलित है, वो भौतिक है।

जब आत्मा भौतिक हो जाती है तो उसके लिए एक नया नाम हो जाता है — 'भूत'। क्योंकि आत्मा अगर भौतिक हो गयी तो आत्मा का हो गया अब शरीर। शरीर ही तो भूत है, पंचभूत। जब आत्मा का शरीर हो गया। तो आत्मा पर जब रोशनी पड़ेगी तो पलट कर आएगी। परावर्तित होकर, रिफ्लेक्ट होकर। फिर आप बोलते हो, ‘मैंने भूत देखा’। अगर आत्मा भौतिक न होती तो भूत दिखाई कैसे पड़ जाता? बताओ। कोई वस्तु कभी दिखाई पड़ सकती जब उसके पास शरीर हो। अगर शरीर नहीं है तो लाइट रिफ्लेक्ट नहीं हो सकती उससे तो दिखाई नहीं पड़ेगी वो वस्तु। तो हमने आत्मा को शरीर ही बना डाला और फिर क्या! ‘भूत दिखा-भूत दिखा-भूत दिखा।’

भूत और आत्मा को तुम जब भी भौतिक बनाओगे, वो भूत बन जाएगी। तो इसलिए हिन्दुओं में ‘आत्मा’ शब्द का पर्यायवाची होता है — ‘भूत’। आप ये बोल दो कि मुझे आत्मा दिखी या ये बोल, ‘दो मुझे भूत दिखा’, एक ही बात है।

हिन्दुओं ने जो सबसे बड़ा सत्य है — ‘आत्मा’ उसको ‘भूत’ बना दिया। ये करा है हमने अपने ऋषियों के साथ। जो उच्चतम सत्य है। हमने उसको क्या बना दिया? वो भूत, डायन और चुड़ैल घूम रहे इधर-उधर। ये करा है हमने अपने ऋषियों के साथ। ये हमने अपने वैदिक मंत्र-दृष्टाओं के साथ करा है।

कह रहें हैं, ‘दिखा रे! दिखा। काहे तुम तो बोले कि शरीर पीछे छूट गया था। ‘शरीर से निकलकर के गयी है वो आत्मा। तो दिख कैसे गयी। जिसके पास शरीर नहीं है, वो दिख कैसे सकता है? बताओ। दिखने के लिए तुम्हारी आँख में जब रोशनी पड़ती है तभी दिखता है न कुछ? ये कैसे दिख रहा है आपको (तौलिया)? कैसे दिख रहा है? मैं ये सारी जो बत्तियाँ बुझा दूँ। ये दिखाई देगा (तौलिया)? ये कैसे दिख रहा है? इसके दिखने के लिए दो चीज़ें चाहिए होती हैं। मैं ये हटा दूँ तो भी ये नहीं दिखेगा। और मैं सारी बत्तियाँ बन्द कर दूँ तो भी नहीं दिखेगा। मैं इसको हटा दूँ, ये दिखना बन्द और मैं इसको न हटाऊँ लेकिन बत्तियाँ कर दूँ तो भी दिखना बन्द।

दिखने के लिए दो चीज़ें चाहिए — प्रकाश और भौतिक अस्तित्व। अगर आत्मा के पास शरीर नहीं है तो मुझे बताओ — आपको दिख कैसे गयी? पर यहाँ सब घूम रहे हैं — ‘भूत देखा,आत्मा देखी भूत देखा,आत्मा देखी।’ कुछ करने के लिए भी भौतिक अस्तित्व चाहिए। भौतिक अस्तित्व नहीं है तो कर कैसे दिया? समझ में आ रही है बात? यही सब उपद्रव तब भी चल रहे थे। इन्ही सब उपद्रवों को काटने के लिए बुद्ध ने कहा — 'अनात्मा'। और फिर आप अनात्मा पर भी न अटक जाओ। इसलिए बुद्ध के बाद आते हैं, आचार्य नागार्जुन। वो बोलते हैं — आत्मा भी झूठ, अनात्मा भी झूठ और आत्मा-अनात्मा भी झूठ और इन सब झूठों से निर्वाण भी झूठ। सब झूठ। जाओ अब तुम स्वतन्त्र हो। क्योंकि तुम हो ही नहीं।

जिसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, हम उसको कहेंगे ही नहीं कि वो है। ये बुद्ध की वाणी। बोले, ‘अगर हम हैं भी, तो सदा पराश्रित हैं न! जो सदा दूसरों पर आश्रित है। हम उसके होने को ही नहीं स्वीकार करते। कभी हमें दिखा दो न एक स्वतन्त्र अहंकार कहीं पर जो किसी से भी जुड़ा न हो, आश्रित न हो, सम्बंधित न हो। दिखाओ ऐसा अहंकार। जब ऐसा अहंकार पाया ही नहीं जाता तो हम अहंकार की सत्ता को ही ठुकरातें हैं, ये बुद्ध ने कहा। नहीं है।

वेदान्त ने कहा बन्धन में है। बुद्ध ने कहा अगर बन्धन में है तो सीधे यही कह दो की है ही नहीं। वेदान्त ने कहा मुक्ति ही आख़िरी बात है। मुक्ति ही सत्य है। बुद्ध ने कहा निर्वाण भी नि:स्वभाव है। निर्वाण, जैसे वेदान्त कहता है मुक्ति। वैसे ही बुद्ध कहते हैं, निर्वाण। वहाँ तक ठीक है। लेकिन बुद्ध कहते हैं — ‘निर्वाण भी शून्य है’। निर्वाण भी शून्य है क्योंकि मुक्त होने के लिए कोई था ही नहीं। मुक्त होने के लिए कोई था ही नहीं। समझ में आ रही बात ये? कुछ नहीं है बस बातें हैं। द्वैत का खेल है। एक शब्द दूसरे शब्द पर आश्रित है। कोई शब्द बताओ जिसको परिभाषा की ज़रूरत न पड़ती हो। कोई शब्द बताओ जो किसी अन्य शब्द पर आश्रित नहीं है। बताओ। कोई ऐसा शब्द बता दीजिए जो कोई भी अपरिचित व्यक्ति समझ जाएगा बिना परिभाषा जाने। बताइए।

सब शब्द दूसरे शब्दों पर आश्रित होते हैं। कोई शब्द नहीं चल सकता बिना परिभाषा के। एक शब्द बताइए न जो कि आप जाएँ और मान लीजिए कहीं पर कोई रूस में है, फ्रांस में है और आप हिंदी भाषा के उसे कोई शब्द बोल दें और वो तत्काल समझ जाए। नहीं समझ सकता। जब तक कई शब्द नहीं दोगे। तब तक वो इस एक शब्द को नहीं समझ सकता। तो यही चल रहा है बस। आप माँ हैं, उसके लिए आपको बच्चा चाहिए। आप भाई हैं, उसके लिए आपको भाई चाहिए। आप यार हैं, उसके लिए आपको यार चाहिए। आप जीव हैं, उसके लिए आपको जगत चाहिए।

एक चीज़ बता दो, जो आप हो सकते हो बिना कुछ चाहे। मैं जवान हूँ, इसके लिए आपको बाल्यकाल भी चाहिए, बुढ़ापा भी चाहिए। यदि बाल्यकाल न कुछ होता, न बुढ़ापा होता तो आप जवान हो ही नहीं सकते। आप जवान होकर के दिखाइए। अगर बचपने जैसा नहीं कुछ है। तो जवानी भी नहीं हो सकती। जवानी शब्द का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा अगर बचपना कुछ नहीं होता तो। जवान का अर्थ ही यही है जो न बच्चा, न बूढ़ा। उसको आप बीच में बोल देते हो जवान। तो ये हम शब्दों से मनोरंजन कर रहे हैं। है कुछ नहीं। किसका मनोरंजन हो रहा है? जो सिर्फ़ मनोरंजन ही के नाते पैदा हो जाता है। वरना वो नहीं है। मनोरंजन कर दो तो खड़ा हो गया। मनोरंजन रोक दो, तो मिट गया। मनोरंजन कर दो उसका कुछ उसको बता दो — ये ऐसा है वैसा है, क़िस्सा-कहानी सुना दो तो वो खड़ा हो जाता है। क़िस्सा कहानी बन्द कर दो तो वो मिट जाता है।

बुद्ध कहते हैं, ‘इस तरीक़े के जन्तु को हम आज़ादी भी क्या दिलायें! ये तो है ही नहीं।’ ये ऐसी सी बात है कि आप बोलें कि वो जो आता है स्क्रीन में पुपोई, उसको निर्वाण दिलाना है। कैसे दिलाओगे? वो दिखता तो है, प्रतीत तो होता है, कूद-फॉंद भी मचाता है, बोलता भी है, खाता भी है। पर वो है नहीं। तो तुम उसको मुक्ति भी नहीं दे सकते। क्योंकि वो है ही नहीं। और शायद यही जानना मुक्ति है कि वो है नहीं। ये वेदान्त का मत है।

वेदान्त कहता है, ‘बोध ही मुक्ति है। तुम जान लो न, कि अहम् मिथ्या है। इसी को मुक्ति बोलते हैं। बुद्ध जो बात बोल रहे हैं वो बिलकुल वेदान्त की ही है। इसीलिए मैं बुद्ध को बहुत बड़ा वेदान्ती मानता हूँ। लेकिन बुद्ध ने जिस छोर से वेदान्त की बात को पकड़ा है, वो छोर बहुत उपयोगी हो जाता है। वेदान्त की बात विकृत की जा सकती है, भ्रष्ट की जा सकती है। विकृत तो ख़ैर बुद्ध की बात भी की गयी। लेकिन बुद्ध की बात को विकृत करना कठिन है ज़्यादा। वेदान्त का तो क्या करा है सनातनियों ने? उसकी तो चर्चा आज हमने कर ली है। बुद्ध की बात भी विकृत की गयी है पर उतनी नहीं की जा सकी।

हिन्दुओं ने तो वेदान्त के परम सत्य आत्मा को क्या बना डाला? भूत! कम-से-कम बुद्ध की शून्यता को तो भूत, प्रेत, चुड़ैल नहीं बनाया गया न! हिन्दुओं ने तो मर जाने को क्या बना डाला? मुक्ति! कोई मर गया तो बोलते हैं — मोक्ष हो गया। वो लाश वाली गाड़ी आती है तो बोलते हैं वो मोक्षयान आया है। उस पर लिखा होता है मोक्षयान। लाशवाली गाड़ी है ‘मोक्षयान’! हिन्दुओं ने तो मोक्ष को ये बना दिया कि वो लाश जा रही है तो ये मोक्ष हो गया है। कुछ समझ में आया?

समझने वाला कोई है ही नहीं। बस ये आख़िरी बात है जो समझ जाओ। न कोई समझने वाला है, न समझने के लिए कुछ है। लेकिन जब तक ये बात नहीं समझोगे तब तक वो जो भीतर बैठकर के झूठमूठ ही ‘मैं-मैं’ चिल्लाता है। उसकी समझने की भूख बची ही रहेगी।

प्र: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी मेरा प्रश्न ये था यदि आत्मा नहीं है तो आनन्द जैसा भी कुछ नहीं है। ये हमारा भ्रम है। आनन्द जैसा कुछ है ये भ्रम है क्या हमारा?

आचार्य: आत्मा नहीं है, आनन्द नहीं है — सौ बातें कर लीं। अहंकार है कि नहीं है?

प्र: है।

आचार्य: ठीक है। अहंकार है, न आत्मा है, न आनन्द है। एकदम ठीक बोला। ख़तम बात। यदि आत्मा नहीं है इससे क्या मतलब है आपका? आत्मा नहीं है माने क्या कहना चाह रहे हैं? नहीं समझ पा रहे हैं आप। समझ ही नहीं पा रहे हैं। वही ग़लती कर रहे हैं। जो पाँच हज़ार साल से चल रही है। आत्मा नहीं है इससे क्या आशय है? जिस अर्थ में आप हैं, शब्द का उपयोग करते हैं उस अर्थ में आत्मा कुछ नहीं है। अगर ये है (मग को उठाते हुए) तो फिर आप अहंकार को ही आत्मा बोल रहे हैं। आप कहें — ‘ये है गिलास या मग’, और कहें — ‘आत्मा है’। दोनों के साथ आपने क्या जोड़ दिया? ‘है’। जिस तल पर ये सबकुछ है। वो तल अहम् का है, वो तल प्रकृति का है। ये प्रकृति का तल है और प्रकृति के तल पर आपका कुछ नहीं है तो प्रकृति के तल पर आत्मा नहीं है।

‘आत्मा’ माने वो जो मैं हूँ किसी पर आश्रित नहीं, पूर्णतया स्वतन्त्र । प्रकृति में क्या पूर्णतया स्वतन्त्र है?

प्र: कुछ नहीं।

आचार्य: हाँ, तो यहाँ आत्मा कहीं नहीं है। न शरीर के भीतर, न शरीर से बाहर। 'आत्मा नहीं' से आशय है कि आप जिसको ‘मैं’ बोलते हो, वो ‘मैं’ झूठा है। इसी बात को वेदान्त ऐसे कहता है कि अहम् मिथ्या है और आत्मा परम सत्य है।

'आत्मा परम सत्य है' ये कहने से आशय ही है कि जो ‘आत्मा’ से अलग है ‘अहम्’, वो झूठा है, झूठा है। लेकिन चूँकि हिन्दुओं ने ‘अहम्’ को ही ‘आत्मा’ बोलना शुरू कर दिया। तो बुद्ध ने कहा, ‘अच्छा! अगर अहम् ही आत्मा है तो फिर जैसे अहम् नहीं है वैसे ही आत्मा भी नहीं है। आप मान लो कि अहम् और आत्मा दो एकदम अलग बातें हैं। तो ये कहने की फिर कोई ज़रूरत नहीं रहेगी कि आत्मा झूठ है। पर लोगों ने क्या करा? लोगों ने अहम् को ही क्या बना दिया? आत्मा! जब अहम् को ही आत्मा बना दिया। तो बुद्ध ने कहा, ‘जैसे अहम् मिथ्या है फिर तुम्हारी आत्मा भी मिथ्या है। दोनों मिथ्या है।’

प्र: सिर्फ़ समझाने के लिए भगवान बुद्ध ने ऐसा बोला कि सिर्फ़ समझाने के लिए ऐसा बोल रहें हैं कि आत्मा नहीं है।

आचार्य: नहीं तो है! ये रही, ले जाइए। आप समझ भी रहे हो? आपका सारा सवाल न, आपके एक डर से आ रहा है। आप माने बैठे थे कि आत्मा वाली फुर्री या फुर्रई चिड़िया यहाँ रहती है। अब आपको डर लग रहा है कि बुद्ध ने बोल दिया आत्मा नहीं है। आज भी पूरा प्रमाणित हो रहा है, आत्मा नहीं है। तो कहीं सचमुच तो नहीं है। हम किस चीज़ की बात कर रहे हैं। आपकी समझ ही नहीं पा रहे हो। तो बुद्ध ने सिर्फ़ समझाने के लिए बोला था न कि आत्मा नहीं है। सचमुच तो होती है न! काहे कि अगर नहीं होती है तो दादाजी की आत्मा जो पेड़ पर लटकी हुई थी उसका क्या होगा?

श्राद्ध का समय चल रहा है। इन दिनों में ऐसी चर्चा कि आत्मा नहीं है। अभी आज ही अभी लेटेंगे तो पाएँगे कि पाँव ऐसे टेढ़े हो गये। ये क्या सवाल है? आप सवाल के पीछे का डर देख पा रहे हो। बुद्ध ने सिर्फ़ समझाने के लिए बोला था न कि आत्मा नहीं है। देखो! तुम झूठ बोल रहे हो न? तुम मज़ाक कर रहे हो न? बुद्ध से भी ऐसे कई लोगों ने कहा होगा। जब वो बोलते थे कि जिसको तुम आत्मा बोलते हो मिथ्या है। तो ऐसे ही ये मज़ाक ही है न ये बस?

सारा खेल ‘मैं’ से शुरू होता है। ठीक है न? ‘मैं’! वही ‘मैं’ परेशान है। है न? आप उस ‘मैं’ को ‘अहम्’ बोलो। अभी अच्छे से पकड़ लीजिए। आप उस ‘मैं’ को ‘अहम्’ बोलो तो ‘अहम्’ झूठ है। उसी ‘मैं’ को आप ‘आत्मा’ बोल दो तो ‘आत्मा’ भी झूठ है। इसमें कोई जटिलता है? कोई समस्या है?

सारा जो आध्यात्म का क्षेत्र है। वो किसके लिए है? ‘मैं’ के लिए है। सारा कष्ट किसको है? सारा ताप किसको है? सारा ज्वर किसको है? सारे बन्धन किसको है? ये ‘मैं’ ही तो है न। सारी समस्या इसको है (‘मैं’ को)। वो ‘मैं’ अपनेआप को बोले ‘अहम्’ तो वेदान्त बोलता है, अहम्?

श्रोता: झूठ है।

आचार्य: वही ‘मैं’ अपनेआप को अगर ‘आत्मा’ बोल दे। तो बुद्ध कहते हैं आत्मा भी झूठ है। वेदान्त और बुद्ध दोनों बिलकुल एक ही बात बोल रहे हैं, दो अलग-अलग छोरों से लेकिन। कुल मिलाकर के बात उतनी है जो कृष्ण बोल गये हैं — ‘मैं’ नहीं है। सारा जो खेल है वो सारी गति कौन कर रहा है? प्रकृति के गुण कर रहे हैं। प्रकृति के गुण कर रहे हैं। लेकिन अहंकार विमूढात्मा क्या बोलता है? मैंने किया! तो कृष्ण कह रहे हैं — अहम् झूठ है।

बुद्ध के आते-आते मामला और आगे निकल गया था। लोगों ने कहा, ‘अच्छा, तो वेदान्त ने अहंकार को क्या घोषित कर दिया है?वेदान्त ने अहंकार को क्या घोषित कर दिया है? झूठा। अच्छा! तो फिर मैं अहंकार हूँ ही नहीं। क्योंकि अहंकार को तो पहले ही क्या बताया जा चुका है? झूठा है। तो मैं अहंकार हूँ नहीं।’ मैं क्या हूँ? बुद्ध ने ऐसे कान पकड़ा; बोले, ‘तू इधर आ। तू कौन है? बोल रहा है — मैं अहंकार नहीं हूँ।’ ‘मैं अहंकार हूँ ही नहीं। मुझे पता है। बीस साल पहले मैंने अपनेआप को अहंकार बोला था। तो याज्ञवल्क्य के हत्थे चढ़ गया था। बिलकुल आपके ही जैसे दिखते थे वो भी। मैं उनके पास गया तो उन्होंने आप ही की तरह मेरे कान पकड़े, पूछा, ‘कौन हो?’ मैंने कहा — मैं अहंकार हूँ। बोले जा! तू है ही नहीं।’ बोले, ‘अब मैं होशियार हो गया हूँ। आपने मेरे कान पकड़े हैं, मैं बताता हूँ — मैं कौन हूँ। मैं अहंकार हूँ ही नहीं, मैं तो आत्मा हूँ।’ तो वो बोलें, ‘तू आत्मा है?’, बुद्ध बोलें। बोले, ‘हाँ! मैं तो आत्मा हूँ’। (बुद्ध) बोले, ‘जा! फिर आत्मा भी है ही नहीं।’ समझ में आयी बात?

अहंकार जब अपनेआप को आत्मा बोलने लगे तो और अब कोई तरीक़ा बचा है? यही बोलना पड़ेगा न कि आत्मा भी झूठ है। तो वही बुद्ध ने किया। यही सब चल रहा हो उस समय भी — भूत चढ़ गया, भूतनी चढ़ गयी। फिर भूतनी पर भूत चढ़ गया। फिर दोनों मिलकर के पीपल पर चढ़ गये। अब इंटरपोल वाली डायन बुलाई गयी है। ‘उतार दोनों को नीचे!’ ये सब तब भी चल रहा होगा। बुद्ध ने कहा, ‘ख़त्म करो। ये सब चक्कर ही ख़त्म करो। अगर इसको आत्मा बोलते हैं कि जो पेड़ पर चढ़कर, बाल खोलकर भुभुआ रही है। इसको तुम आत्मा बोलते हो। तो मैं गौतम बुद्ध घोषित करता हूँ कि आत्मा झूठ है।’ आ रही है बात समझ में?

प्र: प्रणाम, आचार्य जी! आचार्य जी जैसे जो मेरा मन है या मेरे मन में जो विचार आता है या मेरी जो हस्ती है। जिससे मुझे लगता है कि जो मेरी पूरी हस्ती मैं चला रहा हूँ। तो बुद्ध कह रहे हैं कि वहाँ कुछ नहीं है। वहाँ शून्य है। और पिछले श्लोक में कृष्ण ने कहा था मतलब कि मैं अगर अपनी जो भावनाएँ हैं और मेरे विचार हैं। उनको अगर सत्य मानकर के उनमें जीता हूँ। मतलब पूरी तरीक़े से उससे आइडेंटिफाई कर रहा हूँ। तो मैं मृत हूँ या जड़ हूँ।

आचार्य: एकदम ठीक।

प्र: तो आचार्य जी क्या ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अगर मैं अपनी हस्ती में जी रहा हूँ तो मैं अपनेआप को मृत मानूँ?

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌। सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

जो अज्ञान से बँधकर, अँधेरे से बँधकर, जहाँ कोई रोशनी नहीं है (‘असूया’), मेरी बात नहीं मानते, उनको नष्ट ही समझ लेना; भविष्य में नहीं नष्ट होंगे, वो वर्तमान में ही नष्ट हैं। उनका आगे नहीं कुछ बुरा होगा, वो हैं ही नहीं कि उनका आगे कुछ बुरा हो; वो नष्ट हो चुके हैं।

~ श्रीमद् भगवद्गीता (अध्याय-३, श्लोक-३२)

आचार्य: एकदम ठीक। आप अपनी हस्ती में जियें कि किसी और की बस्ती में जियें। आप मृत हैं। कोई शर्त मत लगाइए अपने मृत होने पर। नहीं तो फिर आप कह देंगे — अगर मैं वैसा कर लूँगा तो मृत नहीं रहूँगा। अपनी हस्ती में जी रहा हूँ तो मैं मृत हूँ। इसका मतलब अब मैं जा रहा हूँ दूसरे की हस्ती में जीने। तो अब दूसरे की हस्ती में कूदकर घुस जाएँगे। फिर कहेंगे, ‘देखा! अब मैं मृत नहीं हूँ।’ अहंकार अपनेआप को अ-मृत घोषित करने के लिए कुछ भी कर सकता है न। तो कोई शर्त लगाकर मत बोलिए कि यदि मैं अपनी हस्ती में जी रहा हूँ यदि — यदि-यदि-यदि कुछ नहीं। मृत हैं तो हैं। चाहे अपनी हस्ती में चाहे पड़ोस की बस्ती में। मृत हैं तो मृत हैं। कुछ थोड़ी सी रियायत, कोई चोर दरवाज़ा, कोई छोटी सी झिर्री जिससे निकलकर के बाहर भाग सकें। कुछ बचने का कोई तरीक़ा बताएँ।

क्या करें कि किसी तरह अहंकार को ज़िन्दा रख सकें। कोई तो उपाय बताइए। बहुत सरल उपाय है। उन्होंने बोला ही तो है — चाहे वैदिक ऋषि हों, चाहे बौद्ध विद्वान हों उन्होंने बोला ही तो है। आप सुनिए वही जो आपको सुनना है। इससे अच्छा तरीक़ा नहीं हो सकता अहंकार को बचाए रखने का। कोई कुछ बोले, सुनो वही जो सुनना चाहते हो। बचे रहोगे। कुछ भी लिखा हो उसका अर्थ अपने हिसाब से कर लो कि हम सुरक्षित रहें। ऐसा अर्थ निकाल लो बचे रहोगे। वो बेचारे बोल ही तो सकते थे वो बोल गये।

प्र: भावनाओं को भी मृत जानना है फिर?

आचार्य: किसकी भावनाएँ हैं?

प्र: मेरी।

आचार्य: हाँ तो बस। मुर्दे को भावनाएँ आ रही हैं तो भावनाओं को क्या जाने? मुर्दा भावुक हो गया बहुत ज़्यादा! विदाई का क्षण आ गया है, मुर्दा कह रहा है कि क्या करें! अब। कोई नहीं है। भावनाएँ भर हैं। और उन भावनाओं से भावुक का निर्माण होता है। भावनाएँ प्रकृति से है। विचार हैं, विचारों से विचारक का निर्माण हो जाता है। गति है, गति से गतिक का निर्माण हो जाता है। क्रियाएँ हैं, क्रियाओं से कर्त्ता का निर्माण हो जाता है। इसको अविद्या बोलते हैं।

यही भ्रम है कि अगर क्रिया है तो कोई कर्त्ता भी होगा। ये झूठा अनुमान है। ये बैड लॉजिक है बैड लॉजिक — बैड लॉजिक। क्रिया है, कर्त्ता नहीं है। मुर्दे डकार मारते हैं ख़ूब। मृत्यु के बाद जो पेट में होता है न, वो पचता तो है नहीं तो वो और गैस बन जाता है। और फिर जब उसको आप ले जाते हो और उसको नहलाने के लिए या कुछ करने के लिए थोड़ा सा बैठाते हो तो बहुत ज़ोर की डकार आती है। डकार है ,डकारक कोई नहीं है। सिर्फ़ डकार सुनकर ये मत मान लेना कि कोई है। कोई नहीं है।

मुक्ति का इससे कुछ अच्छा तरीक़ा हो सकता है। सोचो! तुमने बहुत पाप कर दिए। तुमसे भारी ग़लतियाँ हो गयी। क्यों मानते हो तुमने करी? सच्चाई तो ये है कि अगर तुम होते तो ग़लती हो नहीं सकती थी। तो जो यथार्थ है स्वीकार कर लो न! तुम नहीं थे कुछ हुआ और तुम्हारे न होने पर ही जो होता है उसको ही तो ग़लती बोलते हैं, भाई! स्वीकार कर लो — ‘मैं नहीं था, कुछ हुआ। मेरी भूल ये नहीं कि कुछ हुआ, मेरी भूल ये कि मैं था नहीं।’ बस हो गया, मुक्ति बस यही। आप नहीं थे चोरी हो गयी, चोरी आपने थोड़े ही करी है। चोरी आपने थोड़े ही करी है। चोरी का माल आपसे वसूला जाए आप दे नहीं पाओगे। आपके घर में निकलेगा ही नहीं, आपने नहीं करी है चोरी। पर ग़लती आपकी कुछ थी। क्या? आप थे नहीं वहाँ। आपका काम था ध्यान। चौकीदारी! आप थे नहीं। चोरी हो गयी। अपनेआप को दोषी जानो, पर चोरी के दोषी नहीं हो तुम।

जो घटना घटी उसमें अपना दोष याद रखो। हम ग़लत दोष पकड़ लेते हैं। हम कहते हैं, ‘अरे! फ़लानी चीज़ थी मैंने कर डाली। तुम होते तो वो चीज़ होती नहीं।’ तुमने कहाँ कर डाली। तुमने कुछ नहीं किया। तुमसे कोई ग़लती नहीं हुई। तुम थे नहीं। क्या था बस? प्रकृति का बहाव था। सबके साथ होता है तुम्हारे साथ भी हो गया। तुम कोई पहले हो जिसके साथ ये हुआ है? तुम होते, तो नहीं होता। तुम होते, तो कुछ अपवाद होता।

आत्मा जो सबसे गरिमामयी अपवाद होता है उसको कहते हैं — 'आत्मा'। कृष्ण आत्मा हैं क्योंकि कृष्ण एक गौरवशाली अपवाद हैं। उस कुरुक्षेत्र के मैदान में। जो सबके साथ हो रहा हो, वही तुम्हारे साथ हो रहा हो। तो तुम हो कहाँ फिर अभी। तो फिर तुम्हारी ग़लती भी तुम्हारी नहीं है। तुम्हारा तो अभी जन्म ही बाक़ी है। बच्चा अभी पैदा नहीं हुआ है। बच्चा अभी पैदा नहीं हुआ है। टीचर आकर के बोल रही है, आपका बेटा फेल हो गया। वो फेल हो ही नहीं सकता। क्यों? अभी वो गर्भ में है। अभी पैदा तो हुआ नहीं है, रिपोर्ट कार्ड दिखा रहे हो बच्चा फेल हो गया, बच्चा फेल हो गया। बच्चा भीतर से क्या बोलेगा? ‘ठेंगा! मैं तो अभी हुँइच नहीं।’ बच्चा ऐसा बोल दे, बढ़िया बात है! मनोरंजक बात है। पर आपको होना चाहिए था आप हुए नहीं। आप हुए नहीं। आपको दिखाई ही नहीं दिया क्या हो रहा है। आप सो रहे थे। आप सो रहे थे। कुछ हो गया।

प्रायश्चित क्या है फिर?

जो हुआ उसको पलटना प्रायश्चित नहीं कहलाता। जगना प्रायश्चित है। जग जाओ।

जो हुआ उसको पलट नहीं पाओगे। जग जाओ यही (है) प्रायश्चित। चोर चोरी कर ले गया। अब कहाँ से लाओगे वो माल जो चोरी हो गया। ला सकते हो? तो प्रायश्चित ये नहीं है कि हमारी वजह से माल चोरी हुआ है। अब हम जा रहे हैं, सारा माल अब हम बरामद करके लाएँगे। बरामदगी तुम्हारे हाथ में ही नहीं है। नहीं लाओगे। चोर ने खा-पीकर के सब ख़त्म कर दिया। जैसे आता था न वो 'हेरा फेरी' में उसको फ़ोन आता था बार-बार, उससे पूछा, ‘मछली है क्या?’ मछली मैं तो मस्त तेल में फ्राई करके खा गया। वैसे ही तुम्हारा भी जो माल था सारा वो अब मस्त तेल में फ्राई करके वो खा चुका है। तुम कहाँ से बरामद करोगे? तो इतना मत लजाओ, इतना सिर न झुकाओ। जग जाओ, वही पर्याप्त प्रायश्चित है। बहुत लोग हममें से उम्र भर बुढ़ा जाते हैं। तब तक भी अतीत की ग़लतियों का बोझ ढोते रहते हैं। क्या करोगे?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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