बंधन कायम रखकर कैसी मुक्ति? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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बंधन कायम रखकर कैसी मुक्ति? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा प्रश्न ये है कि मैं जिस राह में बढ़ रही हूँ मुक्ति को लेकर, तो वो दिशा मेरी सही है या नहीं इस चीज़ का पता कैसे चलेगा मुझे कि मुक्ति को लेकर मैं सही दिशा में जा रही हूँ या नहीं?

आचार्य जी: हमको मुक्ति की और नहीं जाना होता। हमें बन्धनों के विपरीत जाना होता है। तो बस दिशा सही है या नहीं है, ये बन्धन तय करेंगें। बन्धनों के विपरीत जाना माने बन्धनों को काटना, बन्धनों से दूर हो जाना, मुक्त हो जाना। यही मुक्ति है। तो आप जिधर को बढ़ रहे हो, उधर जाकर के बन्धन कमज़ोर हुए कि नहीं, यही जाँच लीजिए। कमज़ोर हुए हैं तो दिशा सही है, कमज़ोर नहीं हुए तो गड़बड़ चल रहा है मामला।

समझ में आ रही है बात?

देखो, सत्य, मुक्ति, ब्रह्म, आत्मा, ये सब विधियाँ हैं। ये कोई चीज़ें नहीं हैं, न कोई स्थितियाँ हैं, न कोई जगहें हैं, न व्यक्ति हैं, न वस्तु हैं। ये क्या हैं? विधि हैं। ये विधि है, आपके भीतर साहस और श्रद्धा बनाए रखने की। ताकि आपको ये भरोसा रहे कि माया आखिरी चीज़ नहीं है कि माया ही सबसे ताकतवर नहीं है। तो इसलिए आपसे कहा गया कि सत्य और आपसे कहा गया सत्य माया से बढ़कर है।

आपसे ये नहीं कहा गया होता तो आप सबसे बड़ा किसको ही मान लेते?

श्रोता: माया को।

आचार्य: क्योंकि हमें घेरे कौन हुए है?

श्रोता: माया।

आचार्य: हम पर छाई कौन हुई है?

श्रोता: माया।

आचार्य: तो ज़ाहिर सी बात है हम सबसे बड़ा किसको मान लेते?

श्रोता: माया को।

आचार्य: तो इसलिए हमसे कहा गया ब्रह्म, आत्मा, सत्य इत्यादि। ताकि भीतर ज़रा हौसला तो बना रहे। नहीं तो फिर तो ज़िन्दगी ऐसे ही दुख में,लाचारी में कट जाती। इसका मतलब समझिए। इसका मतलब है कि सत्य पाने की कोशिश मत करिए, वो कुछ है ही नहीं। मैंने कहा है न, वस्तु है न, न विचार है, न व्यक्ति है। क्या है? विधि भर है। सत्य एक उपाय है, सत्य एक विधि है,तरीका है। किस चीज़ का तरीका है? बन्धनों को काटने का तरीका है, सत्य। सच, बस एक तरीका है झूठ के पार जाने का। तो सच की ज़्यादा बातचीत फायदेमंद नहीं होगी, न मुक्ति की।

हमें चर्चा किस पर करनी चाहिए? झूठ पर। पैंतरे झूठ के है, दांव झूठ खेल रहा है, चालाकियाँ झूठ की हैं। और वो हम सब समझने की कोशिश कर नहीं रहे हैं। हम सत्य के गीत गा रहे हैं। क्या मिलेगा? बोलो, क्या मिलेगा? जैसे कोरोना छाया हो दुनिया पर और दस-पचास आध्यात्मिक लोग मिलकर स्वास्थ्य की स्तुति करें। रिसर्च लैब (अनुसंधान प्रयोगशाला) में जितने वैज्ञानिक हैं, वो कर क्या रहे हैं? वो स्वास्थ्य देवता की आरती उतार रहे हैं और कह रहे हैं- पता है स्वास्थ्य कैसा होता है? आहा! क्या आनंद आता है स्वास्थ्य में।

तुम स्वास्थ्य को छोड़ो, स्वास्थ्य की बात ही मत करो। तुम ध्यान दो बीमारी पर, वायरस पर ध्यान दो, वायरस को समझो। जब वायरस को समझोगे तभी तो उसकी वैक्सीन निकलेगी न। तो स्वास्थ्य के गीत गाने हैं या बीमारी पर ध्यान देना है? हम यहीं गड़बड़ कर देते हैं। स्वास्थ्य को हमने बहुत नाम दिये हैं, उसमें भगवान, ईश्वर ये भी सब शामिल हैं। बस यही, भगवान, भगवान, हे! भगवान बचा ले।

अरे! ये तो बताओ कि फँसे कैसे? हे! ईश्वर ताकत दे। कमज़ोरी कहाँ से आयी पहले ये नहीं बताओगे? किसके पास गए थे कमज़ोरी माँगने? ताकत तो भगवान से माँग रहे हो, कमज़ोरी कहाँ से माँगकर लाए हो? थोड़ा वो भी तो प्रकट करिए, जनाब! उसकी नहीं बात करना चाहते। हे! भगवान ताकत दे। माने कमज़ोरी जहाँ से ले रहे हो, लेते ही रहोगे। उसको रोकने का कोई इरादा नहीं है।

कमज़ोरी भी कहीं से तो आ ही रही होगी न। वो जरिया नहीं रोकना चाहते। तो कमज़ोरियों का प्रवाह तो अनवरत चलता रहे, उसकी हम बात भी नहीं करेंगे। जब वो कमज़ोरियाँ दुख देने लगे तो, हे! भगवान ताकत दे। कोई ताकत नहीं मिलेगी, कुछ नहीं मिलेगा, याचिका खारिज़! इस तरह की बहुत जाती है वहाँ पर, रोज़, करोड़ों। उनको पढ़ा भी नहीं जाता, वो बाहर ही उन पर ठप्पा लगा दिया जाता है। क्या? खारिज़, रिज़ेक्टेड। चलो हटो। क्योंकि तुम जो माँग रहे हो, वो चीज़ पहले ही दी जा चुकी है, पागल! तुम ताकत माँग रहे हो, ताकत तो उसने दे रखी है। वो अपने पास समेटकर थोड़े ही बैठा है ताकत।

तुमने उस ताकत के ऊपर कमज़ोरी पकड़ ली। अब वो अतिरिक्त ताकत कहाँ से दे तुमको? उसके हाथ खाली हैं। वो कह रहा है, दूँ कहाँ से? पर फिर हम अपनेआप को दिलासा देने के लिए एक पिक्चर बनाएँगे, जिसमें ऐसे दिखाएँगे, ऊपर से एक हाथ आता है और हाथ से ऐसे, हमने कहा- हे! भगवान ताकत दे, और ऐसे ताकत आयी प्रकाश के रूप में और ताकत जैसे ही आयी वैसे ही ‘पोपोइ’ की तरह तुम्हारा बाजू फूल गया और बाजू फूलते ही तुम बिलकुल एकदम सुपरमैन हो गए। अब कुछ नहीं, बच्चों की बातें, बड़ों की दुनिया में ये काम नहीं आने वाली।

ये जानते हो, क्या है? ( हाथ दिखाते हुए ) ये कुछ देने के लिए नहीं होता। ये किसलिए होता है? सब सन्त जनों को ऐसे ही बनाते हैं न, ऐसे बैठे हैं (आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ करते हुए )। इसका राज़ कोई समझा ही नहीं अभी तक। हम सोचते हैं, वो ऐसे बैठे हैं, ऐसे आशीर्वाद वगैरह दे रहे हैं। वो आशीर्वाद नहीं दे रहे, वो आपको बोल रहे हैं, थम! चढ़ ही आएगा क्या? क्योंकि माया के अपने पांव तो होते नहीं, वो जिन पर छाई होती है, उन्हीं के पांव से चलती है। तो वो रोक रहे हैं और यही काम है जीवन में बस। सच को पाना नहीं है, झूठ को रोकना है। अरे! थम।

समझ में आ रही है बात?

प्र: मेरा प्रश्न है कि मैंने ये महसूस किया है कि मेरे अन्दर जिज्ञासा नाम की चीज़ बिलकुल बहुत कम है और जैसे कोई मुझे कोई पुश कर दे, ठेल दे कोई हल्का सा, तो वो काम मैं कर लेता हूँ, ऐसा नहीं है। बट (लेकिन) वो चीज़ मुझे खुद से क्यों नहीं आती है। और जब खुद से नहीं आती है। तो मैं देखता हूँ कि बहुत खीज़ उठती है फिर। कि ये जो जिज्ञासा है जो मतलब जैसे चीज़ें दिख रही हैं आपको, मतलब ये तो ओबवियस (स्पष्ट) है कि ये चीज़ होनी चाहिए। फिर ये अन्दर से क्यों नहीं आती है? कोई कह दिया तो हाँ, कर लिया। बट खुद से नहीं आती है। बहुत खीज़ उठती है कि ऐसा क्यों? खुद से क्यों नहीं आ रही है?

आचार्य: ये तमसा है, तामसिक गुण है, तमोगुण प्रधान हो इसमें कोई ऐसी बहुत गूढ़ बात नहीं है। तमसा का मतलब होता है, बैठो! तमसा का मतलब होता है कि लगता रहता है कि जो चल रहा है, ठीक ही चल रहा है बदलने की ज़रूरत क्या है। फिर कोई आकर के, ठेलकर कुछ करवा दे तो कर लेंगे, नहीं तो अपने भीतर से कोई ऊर्जा उठती ही नहीं।

देखो, ऊर्जा तो सदा बदलाव के लिए ही आती है। ऊर्जा का प्रवाह बदलाव के लिए ही होता है। जिसको जीवन में बदलाव चाहिए ही नहीं, उसमें ऊर्जा भी नहीं रहेगी। और जिसमें ऊर्जा है वो बदलाव लाकर रहेगा। इन दोनों में पहले क्या आता है? ऊर्जा के उठने में और बदलाव की चाहत में। इन दोनों में पहले वही आता है, जिसकी कल बात की थी, संकल्प। पहले ये निर्णय तो करो कि जो चल रहा है, वो नहीं चलना चाहिए। फिर अपनेआप उठकर दौड़ोगे, चीज़ें इधर से उधर करोगे, कुछ जोड़ोगे, कुछ तोड़ोगे, कुछ उठाओगे, कुछ गिराओगे, नक्शा बदलोगे पूरा।

क्यों नहीं तुमको बुरा लग रहा जो चल रहा है? दो वजहें हैं- छोटी भी बता देता हूँ, बड़ी भी। छोटी वजह होती है कि जो चल रहा है, वो बुरा इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि पता ही नहीं है कि चल क्या रहा है। पता ही नहीं है चल क्या रहा है। ये छोटी वजह है। बड़ी वजह क्या है? बड़ी वजह ये है कि देखो थोड़ा बहुत तो सबको पता होता है कि क्या चल रहा है। इतना भी अनजान कोई नहीं होता कि एकदम ही अँधेरे में हो।

तो बड़ी वज़ह है साहस का अभाव। ठीक है? सपाट शब्दों में इसको बोलेंगे, कायरता। कौन पंगे ले। कुछ गड़बड़ चल तो रही है, पर मूसलों में अपना कौन डालें सर। जहाँ तक ज्ञान की बात है उसे शास्त्र दूर कर सकते हैं, सत्संग दूर कर सकता है। लेकिन साहस तो तुममें कोई बाहर से इंजेक्शन लगाकर नहीं ला सकता। वो तो तुम्हारी अपनी बात है। तुम्हारे हाथ में कोई तलवार दे सकता है, बन्दूक दे सकता है, तुम्हें अधिक-से-अधिक उठाकर के लड़ाई की जगह तक पहुँचा सकता है, तुम्हें दुश्मन के सामने खड़ा कर सकता है पूरे हथियार वगैरह सब देकर। लेकिन लड़ना तो फिर भी तुम्हें ही है न।

ये सब करने के बाद भी तुम वहाँ पर सो जाओ, तो कोई क्या करेगा। बन्दूक का तकिया बनाकर। प्रार्थना करो कि जो ठीक नहीं है। उसको बदलने का साहस दिखाओ। ये तो मुझसे नहीं कहना चाहते न कि सब कुछ ठीक है। जो ठीक नहीं है, जानते ही हो कि ठीक नहीं है, बदल डालो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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