आचार्य प्रशांत: हम जैसे जीते हैं, हमारे लिए दो हैं, एक संसार और एक हम। संसार और एक हम, कुछ हम संसार की बात करते हैं, कुछ हम अपनी बात करते हैं। जब हम अपनी बात करते हैं तो भी हम अपने आप को देखते उन्हीं उपकरणों से और उसी तरह हैं जैसे हम संसार को देखते हैं। तो जिन आँखों से हम इन दीवालों को देख रहे हैं, इस पंखे को देख रहे हैं पूरी दुनिया को देख रहे हैं उसी आँख से हम अपने शरीर को भी देखते हैं और इस शरीर को ही हम नाम दे देते हैं ‘मैं’ का, ठीक है।
तो ये जो पूरा विभाजन हमने करा है संसार और अपने बीच में, वो वास्तव में विभाजन दृश्य जगत के क्षेत्र के मध्य का है। समझिएगा, आपको दुनिया दिखाई दे रही है दिखाई देने वाली दुनिया में दो हिस्से हैं, एक हिस्सा है ये मेज़ और दूसरा हिस्सा है इस मेज़ पर रखा हुआ ये हाथ। इस मेज़ को मैं संसार कह देता हूँ, इस हाथ को मैं, ‘मैं’ कह देता हूँ लेकिन मेज़ में और संसार में, मेज़ में और इस हाथ में समानता है और वो ये कि दोनों ही है दृश्य जगत के ही हिस्से। दृश्य जगत माने वो जगत जो मुझे आँखों से बाकी इन्द्रियों से अनुभव होता है, ठीक है। हम जब कहते भी हैं कि हम खुद को जानना चाहते हैं या हम जब कहते भी हैं कि हम अपनी देखभाल कर रहे हैं या अपने बारे में कुछ ज्ञान इकट्ठा कर रहे हैं? तो वास्तव में हम वो जानकारी इकट्ठा कर रहे होते हैं आँखों से देखी गयी दुनिया के बारे में ही, आँखों से ही देखी जा रही दुनिया के एक हिस्से को हमने नाम दे दिया है ‘मैं’ का।
अच्छे से समझिएगा! हमारा जो ‘मैं’ भी है वो आँखों के पीछे वाला नहीं है वो आँखों के आगे वाला है। इन्हीं आँखों ने इस मेज़ को देखा और इन्हीं आँखों ने मेज़ पर रखे हाथ को देखा ठीक है। तो आप चाहे मेज़़ के बारे में बात करें और जाँच-पड़ताल करें, चाहे आप हाथ का अन्वेषण करें, ये दोनों ही चीज़ें आती हैं ‘अविद्या’ के अन्तर्गत, अविद्या, ठीक है।
तो ‘अविद्या’ का मतलब ये नहीं है कि आप उसकी बात करने लग जाएँ जिसको आप ‘मैं’ समझते हैं, जिसको आप सब्जेक्ट, अनुभोक्ता, ज्ञाता जानते हैं। हम तो चाहे जिस भी चीज़ की बात करें वो आएगा अविद्या के अन्तर्गत ही।
अविद्या का मतलब उन सब क्षेत्रों का ज्ञान जो इन्द्रियों के अन्तर्गत आते हैं। आप कुछ सुन सकते हैं, जो कुछ आपने सुना आप उसकी छानबीन करें तो वो क्या है? अविद्या। अब सुन तो आप दूसरों की आवाज़ भी सकते हैं और अपनी भी, तो अपनी आवाज़ के बारे में भी अगर आप कुछ पता कर रहे हैं तो वो सबकुछ है अविद्या ही, ठीक है।
उपनिषद् कहते हैं जो अविद्या में ही फँसा रह गया, रत रह गया वो क्षरण की तरफ़ बढ़ रहा है उसके हाथ सिर्फ़ प्रतिपल मृत्यु आनी है।
फिर है विद्या, विद्या क्या है? विद्या है अपनेआप से साफ़ पूछना कि आँखों से भी जो आ रहा है वो जा किसके पास रहा है? कौन है जो कह रहा है ‘मेरी आँखें’ और अगर आँखें किसी की हैं तो फिर आँखों की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, फिर तो आँखें सिर्फ़ एक नहर की तरह है जो कहीं पर सूचना की और सामग्री की आपूर्ति कर रही है।
नहर का अपना क्या होता है? कुछ नहीं, उसमें से तो जो कुछ बह रहा है वो कहीं को जा रहा है, तो जो बाहर से लगातार दृश्यों का प्रवाह आँखों के रास्ते होकर के भीतर कहीं पहुँच रहा है उस प्रवाह में आँखें बस माध्यम हैं। वो प्रवाह आँखों का नहीं है, आँखें उसका स्वामित्व नहीं रखती, आँखों का भी कोई स्वामी है जो बार-बार बोल देता है, ‘मेरी आँखें’।
ये कौन है जो बोल रहा है, ‘मेरी आँखें’? कौन है? ये कौन है जो पूरी हमारी दुनिया के अन्त में और मध्य में बैठा हुआ है? जब हम इसकी जाँच-पड़ताल शुरू करते हैं तो वो अन्वेषण कहलाता है, ‘विद्या’। ज्ञान के उस पूरे क्षेत्र को नाम दिया गया है विद्या का।
और कहते हैं उपनिषद् के विद्या, बोध की तरफ़ ले जाती है, विद्या बोध की तरफ़ ले जाती है। आगे ये भी कहते हैं कि विद्या अमृतत्व की तरफ़ ले जाती है, अमर बना देती है।
अमर बना देती है से क्या आशय है? आशय ये है कि जब ‘मैं’ की खोज-बीन शुरू होती है तो उसका पता चलता है जो मरने से डरता है और इसीलिए जगत को सोखता रहता है इस आशा में कि जगत में ही कुछ ऐसा मिल जाएगा, संसार में ही कुछ ऐसा जो मौत से उसको बचा देगा। जो प्रतिपल मिटती उसकी हस्ती को कुछ सहारा दे देगा। एक बार उस तक पहुँच जाते हो जो लगातार मृत्यु के भय में जीता है, माने न जीता है न मरता है क्योंकि लगता तो यही है कि जी रहा है। अगर मरने का किसी को भय है तो एक बात तो तय है कि अभी मरा नहीं और दूसरी बात यह भी तय है कि जी नहीं रहा है।
ये जो भीतर बैठा है जो लगातार मृत्यु के भय में है जब इसका पता चल जाता है तो एक बड़ी विचित्र घटना घटती है और वो घटना ये है कि भय मिट जाता है और जो भयभीत है वो भी मिट जाता है, जानने भर से।
ये तो खुशखबरी होनी चाहिए थी लेकिन ये समाचार उतना शुभ नहीं होता, इसलिए नहीं होता क्योंकि हमारा पूरा संसार उसी भय को केन्द्र में रखकर हमने गढ़ा है। डर मिटता है, डरने वाला मिटता है लेकिन साथ में जो डरा हुआ संसार है वो भी मिट जाता है, इसलिए विद्या बड़ी दुर्लभ है। विद्या के प्रार्थी बड़े विरल हैं और अविद्यालय चारों ओर है। अविद्यालय सिर्फ़ वहीं नहीं है जहाँ पर दुनिया के भौतिक मामलों की पढ़ाई होती है, ज्ञान दिया जाता है वगैरह-वगैरह। अविद्या का वितरण वहाँ भी हो रहा है जहाँ कोई भी साधारण मनुष्य किसी दूसरे इंसान से बातचीत कर रहा है।
बातचीत में क्या होता है? सूचना का ही तो आदान-प्रदान होता है न, हम जब बात करते हैं किसी से तो किस बारे में बात करते हैं? हमेशा उन्हीं चीज़ों के बारे में बात करते हैं हम जिनके भोक्ता हैं। ऐसे कह लीजिए सीधे-सीधे की हम चीज़ों के ही बारे में बात करते हैं और भूलना नहीं है कि चीज़ों में जितना ये मेज़ सम्मिलित है उतना ही मेज़ पर रखा हाथ भी, ये भी चीज़ ही है, ये भी आँखों का, मन का विषय ही है तो इसके अलावा तो हमारे पास कुछ होता ही नहीं बात करने के लिए।
आप ज़रा गिनती करके देख लीजिएगा, अच्छे से ध्यान करके कि आपने और किन्हीं भी चीज़ों का ध्यान करा है क्या? आप कल घर से चले होंगे आप यहाँ आए, आज पूरे दिन आप यहाँ पर रहे हैं, आपने कई लोगों से बात करी होगी, बात नहीं भी करे तो विचार करा होगा अपने भीतर, अपनी बातचीत का स्मरण करें, अपने विचारों का स्मरण करें और मुझे बताइएगा कि उनके जो भी विषय हैं, उन विषयों में क्या कुछ भी ऐसा है जो इन्द्रियों से हटकर है, जो संसार का नहीं है?
तो ये है अविद्या का खेल, हम इसी में बैठे रहते हैं और उपनिषद हमें बड़ी खड़ी चेतावनी दे रहे हैं। वो कह रहे हैं जो इसमें बैठा हुआ है वो लगता तो है ज़िन्दा पर मरा हुआ है क्योंकि दुनिया के विषयों की बातचीत करने के पीछे मन का एक गहरा डर ही है और मन का गहरा डर यही है कि मिटा, मिटा, मिटा, अब मिटा, अब मिटा। हो सकता है वो बातचीत चुटकुले की शक्ल में हो आप कहेंगे, ‘साहब हम तो हँस रहे थे, हँसा रहे थे, इसमें डर कहाँ से आ गया?’ नहीं, हमारे तो चुटकुलों में भी गहराई में डर ही बैठा हुआ है, अमरता नहीं बैठी है। इसलिए देखा नहीं हमारा हास-परिहास भी कितना हिंसक होता है। विरल होगा कोई ऐसा चुटकुला, कोई ऐसा मज़ाक जिसमें हिंसा न छुपी हुई है।
समझ में आ रही है बात?
उपनिषद् कह रहे हैं तुम जितना ज़्यादा लिप्त हो संसार से, संसार के विषयों से उतना तुम मृत्यु में जी रहे हो और उतना ही ज़्यादा तुम मृत्यु की ओर तीव्रता से बढ़ रहे हो। ये तुम ठीक नहीं कर रहे हो। हालाँकि लिप्त तुम इसीलिए हो रहे हो क्योंकि तुम्हारी चाहत है मृत्यु से बचने की।
अज्ञान का और क्या मतलब होता है? चाहना कुछ पर करना कुछ और, ऐसा बिलकुल उल्टा, जो आपकी मूल चाहत के ही विपरीत हो। वरना मूलतः कौन अपना बुरा चाहता है? चाहते तो सब अपना कल्याण ही हैं न, सब यही चाहते हैं हमारे साथ कुछ अच्छा हो हमारी बेहतरी हो। अगर दुनियाभर में सब यही चाहते हैं कि हमारे साथ अच्छा हो तो इतने लोगों के साथ, ज़्यादातर लोगों के साथ बुरा होता क्यों रहता है? क्योंकि आत्मज्ञान की कमी है। आत्मज्ञान की कमी का मतलब ही यही होता है कि हमें यही नहीं पता कि हम वास्तव में चाहते क्या हैं।
तो हम चाहते कुछ और हैं और कर कुछ और जाते हैं। हमारा जीवन जैसे हमारे ही विरुद्ध, हमारे ही द्वारा रचा गया षड्यन्त्र हो। कोई और नहीं दुश्मन होता हमारा और लगातार हमारा दावा क्या होता है? कि हम कुछ ऐसा कर रहे हैं जिसमें हमारी भलाई है, बेहतरी है। ये सारा क्षेत्र अविद्या का है ये सारा क्षेत्र अविद्या का है।
अविद्या बहुत-बहुत घातक हो जाती है विद्या के अभाव में। जो श्लोक हमारे सामने हैं उसमें नहीं उल्लिखित है, पर उपनिषदों से अन्यत्र जगह से मैं उद्धृत करके आपको कहता हूँ कि उपनिषद कहते हैं कि अविद्या के साथ-साथ जिसने विद्या पा ली उसने मृत्यु को पूर्णतया जीत लिया।
ये भी नहीं कहते कि अविद्या का बहिष्कार ही कर दो, अविद्या होनी ही नहीं चाहिए। कहते हैं दोनों चाहिए अविद्या के साथ-साथ विद्या। जब आप संसार को भी जानते हो और जब आप उसको भी जानते हो जो संसार से सम्बन्ध रख रहा है, क्या इरादे हैं उसके, क्या माँग है उसकी, अपने बारे में क्या सोचकर बैठा है वो, अपने ही द्रष्टि में उसकी छवि क्या है, तब बात बन जाती है।
अब आँखें ऐसी हो जाती हैं कि बाहर को ही नहीं देख रही हैं, बाहर देखने के साथ-साथ भीतर को भी देख रही हैं। ये भी देख रही हैं कि सामने क्या आया और तत्काल उसी क्षण, तत्क्षण, ये भी देख लिया कि जो सामने आया उसका किस पर क्या प्रभाव पड़ा, उसका किस पर क्या प्रभाव पड़ा, उसी को तो तीसरी आँख बोलते हैं।
तीसरी आँख का ये मतलब नहीं होता कि आपके माथे पर कुछ आ गया है, तीसरी आँख का यही मतलब होता है, कि ज्ञान से, अभ्यास से, वैराग्य से, आपने लगातार रियल टाइम (वास्तविक समय में) में, पीछे सोचने से नहीं। बात बीत जाए फिर पीछे सोचने वाले तो बहुत होते हैं, उसी समय जब कुछ हो रहा है उसी समय जान लिया कि ये जो हो रहा है किसके साथ हो रहा है, ये जो करा जा रहा है उसे करने वाला कौन है।
वो व्यक्ति फिर अनूठा हो जाता है, वो व्यक्ति फिर व्यक्ति ही नहीं रहता क्योंकि व्यक्तियों को तो खत्म होना है, वो व्यक्ति फिर डर के पार निकल जाता है। डर कोई छोटी बात नहीं है, उपनिषद् रचे ही गए हैं इसी मूल उद्देश्य से , क्या? हमें डर के पार ले जाने के लिए। स्वयं कहते हैं वो, कभी भय कहते हैं, कभी ताप कहते हैं और कभी कहते हैं सीधे मृत्यु। हम जिस कष्ट में जीते हैं, हम जिस स्वरचित नर्क में जीते हैं, उससे हमें बाहर लाने के लिए उपनिषद रचे गए हैं।
समझ रहे हैं?
देखिए आज ही अभी गीता दर्शन पर, एक दोपहर में, सत्र था तो वहाँ मैं कुछ कह रहा था ऑनलाइन, जो कहा वो यहाँ भी उपयोगी है तो दोहराए देता हूँ। दो-तीन तरह के संस्करण धर्म के बहुत प्रचलित हो रखे हैं आजकल, एक है जो धर्म को संस्कृति और परम्परा से जोड़कर देखता है, ठीक है। ये कहता है धार्मिक आदमी वो है जो पुरानी प्रथाओं का, परम्पराओं का पालन करता है, जो कहता है धार्मिक आदमी वो है जो चली आ रही संस्कृति पर अटल रहता है।
उपनिषदों का न किसी प्रथा से, न परम्परा से, न संस्कृति से कोई सम्बन्ध है, कुछ नहीं। उपनिषद वास्तविक अध्यात्म है, वो अतीत से इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, संस्कृति से, कल्चर से इनका कोई वास्ता नहीं है; एकदम नहीं।
दूसरे तरह का धर्म वो प्रचलित है जो अनूठे, पारलौकिक, एग्ज़ोटिक अनुभवों में लिप्त रहता है। कि आदमी अपनेआप को धार्मिक बोल रहा है और बता रहा है कि मेरे सपने में भगवान आये थे या मैं ध्यान कर रहा था तो मुझे फलानी किस्म का प्रकाश दिखाई दिया या संगीत सुनाई दिया या कि मैं फ़लाने पर्वत पर यात्रा कर रहा था तो मुझे एक पक्षी दिखाई दिया जो अचानक मछली में तब्दील हो गया या मुझे मेरे पिछले जन्म की अमुख घटनाएँ याद हैं। विशेष अनुभव, कि धार्मिक आदमी वो है जिसको कुछ खास अनुभव हुए हैं किसी भी तरह के।
उपनिषदों का इन सब चीज़ों से भी कोई सम्बन्ध नहीं है। उपनिषद कहते हैं ये सब तुम्हारे मन के जाल हैं इन जंजालों में नहीं फँसना है। उपनिषद एक बिलकुल तीसरी बात करते हैं, यहाँ खरा धर्म है, यहाँ बस केन्द्रीय अध्यात्म है और कुछ नहीं। यहाँ नहीं कहा जा रहा कि किसी भी चीज़ को मान लो, यहाँ नहीं कहा जा रहा है कि तुम धार्मिक तब हो जब तुम मानो कि फ़लानी किताब में जो लिखा है वो आखिरी सत्य है या फ़लाना व्यक्ति फ़लाने तरीके से अवतरित हुआ या फ़लाना व्यक्ति आखिरी अवतार था, न, उपनिषद ऐसी कोई बात नहीं करती।
न वो किसी परम्परा को मानने की बात करते हैं और न ही वो आपको किसी भी तरह के खास अनुभवों का वादा करते हैं। वो तो आपको अपने साथ यात्रा पर ले चलते हैं, खोज पर ले चलते हैं। बहुत सटीक, बहुत केन्द्रीय, बहुत खरा, बहुत वैज्ञानिक काम करते हैं उपनिषद।
समझ में आ रही है बात?
तो उपनिषदों के ऋषि आरम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं कि उपनिषद किसलिए रचे गए हैं इनका सम्बन्ध आपके जीवन से है, इनका सम्बन्ध आपके मन से है, इनका सम्बन्ध आपके वास्तविक कष्टों से है, आपके वास्तविक कष्ट क्या हैं? ये ही, जिसको उपनिषद कभी कहते हैं भय, कभी कहते हैं ताप, और कभी कह देते हैं मृत्यु। तो इसलिए रचे गए हैं।
ये अलग बात है, ये एक तरह का अलंकार है, अतिशयोक्ति भी एक अलंकार है न, कि उपनिषद कह देते हैं कि हम तो ब्रह्मविद्या के बारे में हैं।
ब्रह्मविद्या यही है, इतनी ही है कि आपका मन जिन चूहेदानियों में फँसा है उसको वहाँ से बाहर निकाला जाए। आपका जीवन जिन बेडियों में जकड़ा हुआ है उसको वहाँ से आज़ादी दिलाई जाए। यही है उपनिषदो का उद्देश्य, कुछ विशेष नहीं, आपके चेहरे या सर के इर्द-गिर्द कोई विशेष आभामंडल नहीं निर्मित हो जाने वाला, उपनिषद किन्हीं आभा मंडलों की बात नहीं करते।
आपको कोई विशेष दिव्यद्रष्टि नहीं मिल जाने वाली। उपनिषद किन्हीं दिव्यताओं की बात नहीं करते आपको कोई पारलौकिक, पराभौतिक सिद्धियाँ नहीं मिल जाने वाली, उपनिषद ऐसी चीज़ों पर हँसते हैं। न आप हवा में उड़ने लग जाओगे, न पानी पर चलने लग जाओगे।
किसलिए हैं उपनिषद्?
आप रोज़-रोज़ जो परेशानियाँ झेलते हो उनसे आपको मुक्ति दिलाने के लिए। क्या आपकी रोज़ की परेशानियों में ये बात सम्मलित है कि आप पानी पर नहीं चल पाते? ये किसको कष्ट है भाई, कौन इसी कष्ट से मरा जा रहा है कि मैं उड़ नहीं पा रहा हूँ हवा में, मेरे पंख क्यों नहीं विकसित होता, ये कष्ट किसको है? कहिए। कौन है जो इस बात को लेकर के तनाव में है, अवसाद का शिकार है कि मैं आँखें बन्द करके, उड़ करके हिमालय पार क्यों नहीं जा पाता, वीज़ा क्यों लगता है? इस बात को लेकर कौन चिन्तित है?
उपनिषद आपकी वास्तविक चिन्ताओं से सरोकार रखते हैं, आपकी वास्तविक चिन्ता क्या है? ‘मैं और संसार’, गौर से देखिएगा। एक क्षण लीजिए, मौन होकर के देखिए कि आपके जीवन में जो भी कलह, क्लेश, सन्ताप है वो बस इतना ही है या नहीं, ‘मैं और संसार?’
गौर करिए अपनी चिन्ताओं पर, अपने तनावों पर और भी कोई विषय है उनका, ‘मैं और संसार’, संसार माने कुछ भी हो सकता है, कोई भी दूसरा। संसार का मतलब पैसा भी हो सकता है, संसार का मतलब व्यापार भी हो सकता है, संसार का मतलब घर-बार भी हो सकता है, संसार का मतलब बच्चे भी हो सकते हैं, माता-पिता भी हो सकते हैं, पति-पत्नी भी हो सकते हैं। पर सब सन्तापों के आधार में क्या? संसार।
तो उपनिषद सम्बन्ध रखते हैं संसार से, ‘मैं और संसार।‘ चूँकि हम सारा समय संसार से ही आक्रान्त रहते हैं तो उपनिषद यहाँ पर इस अध्याय के आरम्भ में ही कहे दे रहे हैं कि ये जो तुम संसार से ही इतना लिपटे रहते हो न इसीलिए तुम मरे जा रहे हो। संसार से ही लिपटे रहने को कहते हैं, ‘अविद्या’। हम अविद्याग्राही लोग हैं, हमारी इन्द्रियाँ भूखी हैं, हम सोखते रहते हैं, बस सोखते रहते हैं, सोखते रहते हैं, कुछ यहाँ से मिल जाए, कुछ वहाँ से मिल जाए और कचरा ही सोखते रहते हैं।
तो तीन बातें यहाँ कही गयीं, ‘पहली बात अविद्या से विद्या श्रेष्ठ, दूसरी बात अविद्या से विद्या श्रेष्ठ तो है पर मात्र विद्या से काम नहीं चलेगा, विद्या के साथ अविद्या भी चाहिए, विद्या के साथ अविद्या भी चाहिए लेकिन ये याद रखते हुए कि इन दोनों में श्रेष्ठ तो विद्या ही है और फिर एक तीसरी बात भी कही गयी है वो ये है कि ब्रह्म, विद्या-अविद्या दोनों के पार है, परे है।‘
हम साथ चल रहे हैं? हाँ-न कुछ, कुछ बात बन रही है अभी तक? हालांकि अभी आपसे प्रश्न लिए जाएँगे।
तो पहली बात सबसे जो निम्नतल तल है जीने का वो ये है कि आप लिप्त हैं सिर्फ़ दुनिया से। यहाँ क्या चल रहा है, वहाँ क्या चल रहा है। अरे! यहाँ (बाँह में) बड़ा, आज दर्द रहता है और यही बात मन का केन्द्र बन गया, ज़िन्दगी का केन्द्र बन गयी है। दिन भर क्या विचार? बाँह में बड़ा दर्द रहता है, सपने भी इसी बात के आ रहे हैं, बाँह में बड़ा दर्द हो गया।
बाँह का उदाहरण इसलिए ले रहा हूँ कि जो भी एक कोई भी छोटी-मोटी क्षुद्र चीज़ हो सकती है वही हमारे लिए बड़ी हो जाती है। कहीं पर कुछ पैसे फँसे हुए हैं वो वापस नहीं आ रहे हैं, पानी नहीं पिया जा रहा, खाना नहीं उतर रहा, ऐसे ही तो जीते हैं। बेपरवाही बहुत कम लोगों में पायी जाती है, जिनमें पायी जाती है उनकी मौज है।
ये जीने का सबसे निचला तल है अविद्या में ही लिप्त रहना, सबसे निचला। इससे ऊँचे वो लोग जाते हैं जो अपना सम्बन्ध विद्या से बनाते हैं, पर जो विद्या से अपना सम्बन्ध बनाते हैं उनके लिए एक चेतावनी है जो इस श्लोक में वर्णित नहीं है पर मैंने आपको अलग से बता दी थी कि जो विद्या से अपना सम्बन्ध बनाए वो कृपा करके अविद्या को न भूल जाएँ।
वो चेतावनी मुझे अलग से इसलिए देनी पड़ रही है हालाँकि उसकी ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत क्यों नहीं है वो भी अभी बताऊँगा। वो चेतावनी मुझे इसलिए देनी पड़ रही है क्योंकि अनुभव बता रहा है कि बहुत लोग ऐसे होते हैं जो अविद्या के रास्ते में आती हुई अड़चनों से भाग करके विद्या की ओर जाते हैं। जैसे कि कोई हो जो शहर में काम इसलिए न कर पा रहा हो क्योंकि बड़ा आलसी, तामसिक है, मेहनत नहीं करना चाहता, तो फिर वो जंगल भाग जाए और जंगल भागने को नाम दे अध्यात्म का।
इसलिए चेतावनी देनी पड़ रही है, अन्यथा इसकी ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत क्यों नहीं? ज़रूरत इसलिए नहीं क्योंकि वास्तव में जिन्हें विद्या चाहिए उन्हें अविद्या से होकर गुज़रना ही पड़ेगा। पूछो क्यों? क्योंकि ‘मैं’ को अगर जानना है तो ‘मैं’ के विषय को जानना पड़ेगा, ‘मैं’ के विषय के अलावा कोई तरीका ही नहीं ‘मैं’ को जानने का। ‘मैं’ कोई कलम तो है नहीं, कोई माइक नहीं है, कोई कागज़ नहीं है, कोई चादर नहीं है, ‘मैं’ कभी पकड़ में आ सकता है?
तो अगर ‘मैं’ की वृत्तियों को जानना है, ‘मैं’ के रुझानों को और डरों को जानना है तो एकमात्र तरीका क्या हुआ? देखो कि ‘मैं’ भाग किधर को भाग रहा है, चिपक किससे रहा है, डर किससे रहा है, आकर्षित किसकी ओर हो रहा है और ‘मैं’ जिधर को भी भाग रहा है और जिधर से भी भागने को बच रहा है वो सब जगह कहाँ है? संसार में। तो जिसे ‘मैं’ को भी जानना है उसे साथ में किस को जानना पड़ेगा? संसार को।
तो विद्या के जो प्रार्थी हैं, उनके लिए विद्या आवश्यक है ही। सबसे नीचे वाला तल कौनसा हुआ? जो सिर्फ़ अविद्या में अटके हैं, सिर्फ़,याद रखना है, मात्र अविद्या। उससे ऊपर का तल कौन सा हुआ? विद्या का, लेकिन विद्या के तल के साथ एक चेतावनी जुड़ी है, क्या? कि अविद्या, विद्या से वास्तव में भिन्न नहीं है, वो उसके अन्तर्गत ही आ जाती है जैसे उसका एक छोटा हिस्सा हो, अंश हो, सबसेट हो।
तो कोई ये न कहे कि साहब हम आध्यात्मिक हैं इसलिए हमें दुनिया का कुछ पता ही नहीं। ये दुनिया क्या चीज़ होती है? अरे, ये आपके हाथ में क्या है? लोहे का? मोबाइल, ये कैसा नाम है, मोबाइल क्या होता है? कोई आदमी अगर ऐसा है तो वो ये न कहे कि आध्यात्मिक है। जिसको ये न पता हो कि देश में, दुनिया में, जहान में, विज्ञान में क्या चल रहा है, मुझे बड़ा ताज़्जुब होगा अगर ऐसा आदमी अध्यात्म में भी बहुत आगे निकल पाता है।
अपना कैसे पता करोगे अगर आपको ये ही नहीं पता कि आप जिसकी ओर भागते हो वो चीज़ क्या है या आप जिससे बचते हो वो चीज़ क्या है। ठीक है।
और फिर उच्चतम तल आता है, उच्चतम तल पर कौन है? कोई नहीं। उच्चतम तल पर कौन है? कोई नहीं। अविद्या पाने का तरीका है, दुनिया में घुस जाओ, बहुत किताबें हैं, किसी कॉलेज, किसी यूनिवर्सिटी चले जाओ मिल जाएगा। वो ज़रा साफ़-सुथरी अविद्या होगी और एकदम ही घटिया अविद्या चाहिए हो तो क्या कर लो? किसी चैट ग्रुप में चले जाओ, व्हाट्सऐप पर लग जाओ, वहाँ से भी खबरें मिल जाएँगी।
तो ये तो मज़ेदार बात हो गयी। जो तीसरा तल है जैसे उसके भी दो विभाग हों, जैसे अविद्या के भी दो हिस्से हों। तो हमारे साथ बुरा हो गया, हम सोच रहे थे कि तीसरा ही तल निम्नतम है। नहीं, तीसरा तल ही निम्तम नहीं है, तीसरे तल का भी एक तहखाना है और दुनिया की ज़्यादातर आबादी तीसरे तल के भी तहखाने में निवास करती है।
हमें दुनिया की भी जानकारी जो है, वो न किताबों से है ज़्यादा, न विश्वविद्यालयों से है ज़्यादा, न शोध पत्रों से है, न वैज्ञानिकों से है, न रिसर्च रिपोर्ट से है। दुनिया को लेकर के भी हमने जो धारणाएँ बना रखी हैं, जो मत, जो कल्पनाएँ बना रखी हैं वो हमें कहाँ से मिले हैं? कहाँ से मिले हैं?
कही-सुनी बात से, कि मेरे ताऊ मेरे चाचा से फ़लानी चीज़ बोलते थे, मैं छोटा सा था, मैं सुन लेता था, मेरा ज्ञान बढ़ गया। ये अलग बात है कि ताऊ भी महा अज्ञानी हैं और चचा की तो पूछो मत। लेकिन हमें ज्ञान ऐसे मिला है। आप अपने पूरे ज्ञान का एक बार अवलोकन करिए और देखिए कि उसमें अधिकांशतः कहाँ से आया है? कॉलेज की किताब में तो जो पढ़ा वो सब भूल ही गया, वहाँ से आ रहा है क्या ज्ञान? एक तिहाई तो यहाँ इंजीनियर ही बैठे होंगे यहाँ पर।
पहली बात तो वो जो काम कर रहे होंगे उसका उनकी इंजीनियरिंग से कोई ताल्लुक नहीं होगा और दूसरी बात जो कुछ भी पढ़ा होगा वो कहाँ काम आ रहा होगा! सब भूल भुला गया। लेकिन ज्ञानी तो हम सब हैं, किताबों की बात अगर भूल गयी है तो फिर हमारा ज्ञान आता कहाँ से है? इन बातों पर हम कभी गौर नहीं करते, हमारे ज्ञान का स्रोत क्या है और अज्ञानी कहलाना कोई पसन्द नहीं करता।
हम हैं भी नहीं अज्ञानी, खोपड़े में तो पता नहीं क्या-क्या भरा हुआ है वो आया कहाँ से? कहाँ से आया? इतने सारे टीवी चैनल किस लिए हैं, गौसिप किसलिए है? फुसफुसाहट किसलिए है? फ़ुसफ़ुसाहट किसलिए है?
यहाँ उपनिषद कह रहे हैं कि अविद्या ही तुम्हें मौत की ओर ले जाती है और हम तो अविद्या के भी तहखाने में लोटते हैं। बेचारे ऋषियों को पता नहीं था कि शायद मौत से भी बदतर कोई ज़िन्दगी होती होगी नहीं तो उसका नाम लिख देते।
विद्या के तल पर पहुँचने की कुछ शर्तें होती हैं उन शर्तों में से पहली होती है, अपने दुख से मुक्ति के प्रति ईमानदारी, इसी को धार्मिकता भी बोलते हैं। आपको लगा होगा ऐसे तो फिर सभी धार्मिक होते हैं क्योंकि सभी को दुख से मुक्ति चाहिए। नहीं, ज़्यादातर लोगों को दुख से मुक्ति चाहिए ही नहीं, उन्होंने दुख में ही कहीं-न-कहीं सुख की रचना कर ली है, दुख के डब्बे पर उन्होंने सुख का नाम लिख दिया है।
तो ये काम जब हम अपनी दुकानों में कर सकते हैं तो अपने जीवन में क्यों नहीं करेंगे? अगर एक चीज़ पर दूसरी चीज़ का लेबल चिपकाया जा सकता है बाहर-बाहर, तो एक चीज़ पर दूसरी चीज़ का लेबल भीतर भी तो लगाया जा सकता है न। बन्धन को ज़िम्मेदारी का नाम दिया जा सकता है, डर को कर्तव्य का नाम दिया जा सकता है, कायरता को विवेकशीलता का नाम दिया जा सकता है। नहीं दिया जा सकता? आलस को सन्तोष का नाम दिया जा सकता है।
ये सब काम हम अपने साथ करते हैं, जो लोग ये काम करना छोड़ देते हैं वो दूसरे तल के अधिकारी हो जाते हैं, वो अब स्वयं को देख सकते हैं ईमानदारी से या ऐसे कह दीजिए कि स्वयं को ईमानदारी से देखने का नाम ही विद्या है। स्वयं को ईमानदारी से देखने का नाम ही विद्या है, याद रहेगा ये? और खुद को ईमानदारी से न देखने का सबसे प्रचलित तरीका क्या है? दुनिया में ज़बरदस्त रुचि रखना, दुनिया में इतनी रुचि रखो, इतनी रुचि रखो कि अपनी ओर देखने का मौका ही न मिले, समय ही न मिले।
कभी उसकी तारीफ़ कर रहे हैं, कभी उसकी निन्दा कर रहे हैं, ये अच्छा वो बुरा, ये आया वो गया, यहाँ ऐसा वहाँ वैसा। अच्छा श्रीलंका में क्या चल रहा है, अच्छा अंटार्कटिका में क्या चल रहा है, अच्छा फ़लाने राष्ट्रपति की पत्नी को ज़ुकाम हो गया! हमें क्यों चाहिए इतनी खबरें ताकि हम अपनी ओर से बेखबर रह सकें। कभी समझिएगा इस साजिश को, यूँ ही नहीं चल रहे इतने न्यूज़ चैनल, हमें अपनी ओर से बेपरवाह रहना है इसीलिए हमें इतनी परवाह है दुनिया की।
समझ में आ रही है बात?
तो अविद्या में अगर आपको पसरना है तो विधि है इधर-उधर जहाँ मिले मुँह मारते चलो। विद्या अगर चाहिए तो भी विधि है, उस विधि का नाम होता है विवेक, वैराग्य पर अगर उच्चतम तल पर जाना है तो क्या विधि है? तो कोई विधि नहीं है, बिलकुल कोई विधि नहीं है, फिर राम विधि है।
कोई नाम नहीं दिया जाना चाहिए उस विधि को, हालाँकि कोई कह देता है समर्पण, पर समर्पण कहना भी खतरनाक है क्योंकि हमारे पास समर्पण की भी छवि है और जिस चीज़ की हमारे पास छवि हो गयी वो पहले तल की तो छोड़िए दूसरे की भी नहीं रही, वो सीधे तीसरे तल की हो गयी। क्योंकि छवि हमेशा वस्तुओं की होती है, छवि में हमेशा विचार सम्मिलित होता है और जहाँ वस्तुएँ हैं, जहाँ विचार है, विषय है वो कौनसा तल है? तीसरा।
जो चीज़ तीसरे तल की है वो पहले पर आपकी क्या सहायता करेगी, वो पहले की कैसे विधि बनेगी? तो पहले की कोई विधि नहीं होती। हमारे अधिकार में, अख्तियार में तो बस इतना ही है कि भाई तीसरे पर मत लोटते रहो, तीसरे से उठकर दूसरे पर आ जाओ। पहले वाला काम तो अपनेआप होता है चूँकि वो अपनेआप होता है, इसीलिए कहने वालों ने उसको अनुग्रह कह दिया, अनुकंपा कह दिया, ग्रेस कह दिया। उसकी कोशिश नहीं की जाती, उसके लिए हाथ-पाँव नहीं मार सकते आप, आप उतना ही तो करोगे न जो आप कर सकते हो, आप क्या कर सकते हो? आप यही कर सकते हो कि जो इतना पसरे बैठे हो, अपनेआप को ज़रा समेट लो।
जैसे कृष्ण कहते है न गीता में, ‘कछुए की तरह दो हाथ, दो पाँव, एक पूँछ, एक सिर, छहों को भीतर ले लो।‘ जैसे छ: इन्द्रियाँ भीतर ली जा रही हों खोल के। कछुए को देखा है? छ: तरीके से वो अपने खोल से बाहर होता है और जहाँ वो बाहर होता है वहीं उसके मरने का खतरा है। कृष्ण कहते हैं जो मरना नहीं चाहता वो फिर ‘कच्छप विधि’ का इस्तेमाल करता है। क्या है ये विधि?
कृष्ण खोल के भीतर आ जाओ, कृष्ण से क्या आशय है? सच्चाई! क्यों इधर-उधर भाग रहे, जिधर को तुम भाग रहे हो वहीं पर गंडासा पड़ेगा, पाँव बाहर निकालोगे पच्च से पड़ेगा, अन्दर आ जाओ।‘