प्रश्न : आचार्य जी, बाहरी प्रभावों से कैसे बचा जाए?
आचार्य प्रशांत : (सत्संग शुरू होने के कुछ समय पहले आचार्य जी ने कुछ श्रोताओं को शांत होकर बैठने के लिए कहा। उसी बात का उल्लेख आचार्य जी ने उदाहरण के रूप में लिया।)
अभी मैं डाँट रहा था। उस वक़्त मैं ये भूल नहीं सकता कि ये जो बाकी लोग बैठे हैं, कहीं डाँट इतनी तगड़ी ना हो जाए कि ये लोग भी डर जाएँ। ऊपर-ऊपर से बहुत ज़ोर से डाँटना है, पर अंदर ही अंदर शांत भी रहना है।
एक और उदाहरण देता हूँ।
तुम लोग मैच तो खेलते ही होगे? खेलते हो ना? तो दो बल्लेबाज़ हैं। स्थिति यह है मैच की कि आख़िरी के पाँच ओवर हैं, और रन चाहिए पैंसठ। तो मतलब कैसी बल्लेबाज़ी करनी है? तीस गेंदों पर पैंसठ रन चाहिए, तो कैसी बल्लेबाज़ी करनी पड़ेगी? कैसी करनी पड़ेगी?
प्रश्नकर्ता: पीटना पड़ेगा।
आचार्य प्रशांत : अंधाधुन्द मारना ही है! कोई भी बॉल छोड़ नहीं सकते। दोनों बल्लेबाज़ों को ही मारना पड़ेगा। दोनों ही ठीक-ठाक बल्लेबाज़ हैं। लगा लो के अभी पाँच मिनट खेले हैं। और बाहर से दोनों ही उत्तेजित हैं, खूब दौड़ रहे हैं, तेज़ दौड़ रहे हैं। है ना? बाहर निकल-निकल के मार रहे हैं। दोनों ही बाहर से उत्तेजित दिख रहे हैं। बाहर-बाहर से दोनों ही कैसे दिखाई पड़ेंगे?
श्रोतागण : उत्तेजित।
आचार्य प्रशांत : पर एक ऐसा है, जो भीतर से भी उत्तेजित हो गया है। वो अंदर से भी पूरी तरह हिल गया है। मैच की परिस्थिति उसके दिमाग पर हावी हो गई है। वो उसके बहाव में बह गया है। और दूसरा ऐसा है कि अंदर से शांत है। बाहर-बाहर तो दोनों ही बल्ला घुमा रहे होंगे। लेकिन भीतर से एक शांत है, और एक व्याकुल है।
क्या सम्भावना है, दोनों में से ज़्यादा अच्छा कौन खेलेगा? ज़्यादा रन भी कौन बनाएगा? जो बाहर से उत्तेजित है पर भीतर से…..
प्रश्नकर्ता: शांत।
आचार्य प्रशांत : अब आ रही है बात समझ में?
बाहर से उत्तेजित रह लो, पर भीतर से शांत रहो।
प्रश्नकर्ता: यहाँ तो उल्टा होता है।
आचार्य प्रशांत : बाहर से शांत और भीतर से उत्तेजित। हाँ!
बाहर तो ये नकली चेहरा लटका होता है शांति का, क्योंकि बाहर से व्याकुलता दिखाओगे तो कोई कहेगा, “ये पागल आदमी है।” क्लास में बैठे हो और बाहर से भी उत्तेजित हो, तो शिक्षक क्लास से बाहर निकाल देगा। दोस्तों के साथ हो और बाहर से भी दिखा रहे हो कि – मैं बहुत उदास और व्याकुल हूँ – तो दोस्त भी पास नहीं आएँगे। वो कहेंगे, “ये कैसा बंदा है, इसके पास मत जाओ।” है ना?
थोड़ा उल्टा चलो।
बाहर-बाहर उदासीनता में रह लो, ख़ुशी में रह लो, व्याकुलता में रह लो, उत्तेजना में रह लो, भीतर से बिलकुल शांत रहो। भीतर से बिलकुल शांत रहो।
जो सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं, उनमें एक बात नोटिस करी होगी कि वो बाहर जैसे भी बोलें, भीतर से उत्तेजित नहीं होते।
रॉजर फेडरर को कभी अपशब्द कहते सुना है? इतने सारे छोटे-छोटे खिलाड़ी होते हैं, जो पहले दूसरे राउंड में बाहर हो जाते हैं। वो गालियाँ भी देते हैं, क़समें भी खाते हैं। तेंदुलकर को कभी देखा है इशारा करते हुए, कि छक्का मारने के बाद बोल रहा है, “देख मैंने मारा?” देखा है कभी? हाँ, जो आम बल्लेबाज़ होते हैं, वो ज़रूर करते हैं ये सब।
अब कल या परसों, फिर से आई. पी. एल. के राउंड में द्रविड़ ने, अब उसकी चालीस साल की उम्र है, चालीस साल! और उसने अपना दूसरा फिफ्टी मारा है फिर से, ओपनिंग करते हुए।
राहुल द्रविड़ को कभी देखा है उत्तेजित, कि किसी के पास दौड़ के जा रहा है कि ये कर दूँगा, वो कर दूँगा? हाँ जो आम खिलाड़ी हैं, वो ये कर लेते हैं। समझ रहे हो?
बाहर से उत्तेजित। *और भीतर से? शांत!* बाहर से दिखा लो जो दिखाना है, अंदर शांति।