आचार्य प्रशांत: कोई नहीं कहता कि बहन को पढ़ाना है, लिखाना है। ‘आचार्य जी, भाई हूँ, धर्म निभाना है, बहन को स्वावलम्बी बनाना है। बहन अपने पैरों पर खड़ी हो, आज़ाद हो जाए’, कोई आता ही नहीं। क्या समस्या है? ‘बहन की शादी।’ अरे! बहन से पूछ तो लो, शादी वगैरह ये उसका निजी मसला है। निजी कुछ समझते हो? प्राइवेट , पर्सनल (व्यक्तिगत) मैटर (मसला) है ये। या तुम ज़बरदस्ती उसको कहोगे कि ले इसके साथ बाँध रहा हूँ, अब एक कमरे में घुस जा, सुहागरात मना?
जितना पैसा बहन की शादी में खर्च करने वाले हो, उतना उसकी शिक्षा पर खर्च कर दो। उतने में उसको कोई कोर्स करा दो, नौकरी दिला दो, वर चुनने का काम तुम करोगे उसके लिए! बाकी सब काम अपनी ज़िंदगी के वो खुद कर सकती है, लड़का ढूँढने तुम जाओगे! तुम लड़कों में बड़े विशेषज्ञ हो! लड़का चुनने में लड़कियों की नज़र ज़्यादा अच्छी होगी या लड़कों की? तुम्हारी कैसे इतनी विशेषज्ञता है लड़का चुनने में? तुम्हारा क्या हिसाब-किताब है, ये मुझे समझ में नहीं आया!
लड़की डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, वकील हो, खिलाड़ी हो, दुनिया का कोई काम-धंधा करती हो, वो सारे काम अपने खुद कर लेती है, शादी बेचारी नहीं कर पाती अपनेआप! जाने कौनसी विकलांगता है! शादी करने के लिए भाई निकल कर आता है, ‘मैं कराऊँगा न बहन की शादी!’ लड़की वैज्ञानिक हो सकती है, वकील हो सकती है, सेना में हो सकती है, पुलिस में हो सकती है, ज़िंदगी में ऊँचे-से-ऊँचा काम कर रही हो, सब वो कर सकती है, एक ही काम बेचारी नहीं कर पाती, क्या? अपनी शादी। वो कराने के लिए बाप और भाई खड़े होते हैं, ‘हम हैं न!’ ये बाप-भाई को क्या विशेष रूचि है भाई, उस स्त्री की शादी में? ये मामला कुछ गड़बड़ दिख रहा है, दाल में कुछ काला है! फ्रायड से पूछना पड़ेगा मुझे कि दो पुरुषों की, एक स्त्री के विवाह में इतनी रुचि है, इसका अर्थ क्या हुआ? फ्रायड से पूछना, वो बताएँगे।
एक जवान स्त्री के विवाह में दो वयस्क पुरुष इतनी रुचि दिखाएँ, तो मामला सेक्सुअल कहलाता है — ये सुनने में बड़ा बुरा लगेगा, कहेंगे, ‘छी! छी! ये क्या बोल दिया!’ पर बात ऐसी ही है। तुम अपनी मुक्ति देखो, बेचारी लड़की को खुली हवा में साँस लेने दो, वो अपना रास्ता खुद चुन लेगी। रही माँ-बाप की बात, उनसे कहो कि अब आप ज़रा धर्म-कर्म की सुध करें। ये शादी-ब्याह, बच्चों की बात करना अब आपको शोभा नहीं देता, आपके दिन बीत गए। जब आपके दिन थे, तब आपने यही-यही बातें करीं — इसकी शादी, उसका ब्याह, ये लड़की, वो लड़का, इसका गर्भ, उसके बच्चे। अब छोड़िए, ये लीजिए उपनिषद् सार-संग्रह, आप ये पढ़िए।
ये अज़ीब बात है, लेकिन शादी-ब्याह में जितनी रुचि पच्चीस साल वालों की होती है, उससे कहीं ज़्यादा दमदमाती हुई उत्तेजना दिखाते हैं, साठ साल वाले! मुझे समझ ही नहीं आता, साठ के हो गए हैं, पर ‘शादी’ शब्द कान में पड़ते ही बिलकुल उबाल आ जाता है इनमें! अरे! अब तो तुममें कुछ वैराग्य उठे, अभी भी तुमको बैंड-बाजा, शहनाई, लाल साड़ी यही सब आकर्षित करता रहता है! अपनी शादी के परिणाम तुमने खूब भुगत लिए, अभी भी बाज़ नहीं आ रहे हो। दूसरों को भी उसी दलदल में धकेलना चाहते हो जिसमें तुम जाकर फँसे।
लड़की होगी, वो चाहे गुड़गाँव में काम कर रही हो, चाहे मुंबई में, चाहे बेंगलुरु में, उसकी दो ज़िंदगियाँ होती हैं। एक जो दफ़्तर में होती है — दफ़्तर में हो सकता है मैनेजर हो, पंद्रह लोग उसको रिपोर्ट करते हैं, पंद्रह लोग उसके अधीनस्थ हों और वहाँ पर वो एक काबिल मैनेजर होगी। क्लाइंट उसके होंगे कहीं अमेरिका में, यूरोप में, बेल्जियम में, ऑस्ट्रेलिया में, उनसे बात कर रही है, समझा रही है, कंसल्टिंग (सलाह) दे रही है, दुनिया भर की ज़िम्मेदारियाँ उठा रही है। एक इसका वो रूप होता है। दूसरा रूप होता है जब वो घर आ जाती है। और घर आती है, देखती है, ‘अरे! माँ की पाँच मिस्ड कॉल पड़ी हैं!’ और माँ बोलती हैं, ‘बिटिया शादी! एक बार को कन्नौज आ जाओ पंद्रह दिन को, छ: लड़का देखे हैं तुम्हारे लिए।’ वो कैलिफोर्निया और केंटकी देख सकती है, माँ उसको बुला रही है, ‘कन्नौज वापस आ जाओ, तुम्हें घूँघट चढ़ाएँगे!’ और ये हज़ारों लड़कियों की कहानी है आज की, लाखों। और माँ-बाप थक जाएँ, तो भाई उतावले हैं, ‘बहन की शादी’। घोड़ा दौड़ा के घुस जाएँगे बेंगलुरु में, उसके अपार्टमेंट में, ‘बहना मैं आ गया तेरे लिए।’
और हर खानदान में, हर कुल-कुनबे में कुछ विवाह विशेषज्ञ होते हैं। उनका काम ही यही होता है कि कोई लड़की सोलह की, अठारह की हुई नहीं कि उसके माँ-बाप को और भाई को कोंचना शुरू कर दो कि इसका विवाह कब कराओगे, इसकी विदाई कब कराओगे। ‘अरे! जवान हो रही है।’ इनको सबसे पहले खबर लगती है कि लड़की जवान हुई! इन्हें पता नहीं कैसे खबर लगती है लड़की जवान हुई! ये सब मसले इनको कौन आकर बताता है, अंदर की बातें कि वो जवान हो गई है? न माँ को पता हो, न बाप को पता हो, न भाई को पता हो, ये दो-चार विशेषज्ञ होते हैं जिन्हें सबसे पहले पता होता है कि अब इसकी उम्र हो गई है, कुछ करो न। और ये विशेषज्ञ ही वही होते हैं जो फिर शादी वाले दिन रूठ के बैठे होते हैं।
वो देखा है न, हर शादी में एक होता है जो रूठ के कोने में बैठा होता है? ये वही है, जो कह रहा है, ‘रूह-आफ़्ज़ा नहीं पिलाया ठीक से और जहाँ हमारा टट्टू पार्क होना था, वहाँ दूल्हे की घोड़ी पार्क हो गई है।’ हँसी भी नहीं आ रही न? कितना फ़ालतू का चुटकुला है, ये कहानी ही ऐसी है, इसमें क्या हँसी आनी है। घिसा-पिटा मध्यवर्गीय फैमिली ड्रामा , क्या मिला इससे आजतक किसी को? क्या मिल जाएगा तुमको?
लड़की को पढ़ाई के लिए दो-सौ किलोमीटर दूर भेजना हो, तो यही माँ-बाप और भाई कन्नी काट जाते हैं। और ब्याह के वो दो-हज़ार किलोमीटर दूर जा रही हो, इन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। और पढ़ाई के लिए जाएगी तो किसी यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहेगी, सुरक्षा में रहेगी, हॉस्टल के बाहर गार्ड खड़ा होगा। उसकी ये अनुमति नहीं देते, कहते हैं, ‘नहीं, हम घर से दूर नहीं भेजेंगे पढ़ाई-लिखाई के लिए।’ और शादी करके कहीं भी भेजने को तैयार हो जाते हैं। और फिर जहाँ भेजते हैं, वहाँ उसके साथ होता क्या है, इसकी ज़िम्मेदारी उठा लेंगे वो? वहाँ कोई गार्ड भी नहीं होगा, वहाँ ’बॉडीगार्ड’ होगा। और तब बहन वहाँ से फोन भी करेगी कि भैया, ये क्या कर दिया हमारे साथ, हम तो तुम्हारे ही भरोसे रह गए। तो भैया यहाँ से बोलेंगे, ‘अब तुम निभाओ, एडजस्ट करना सीखो, वही तुम्हारा घर है।' तब तो सब ज़िम्मेदारी से हाथ-पाँव धो लेते हो, कहते हो, 'नहीं, अब तो क्या, पराई हो गई, अपना घर देखे!'
जब शादी कराने के लिए इतने उत्सुक हो, तो शादी के बाद जो कुछ होता है उसकी फिर पूरी ज़िम्मेदारी उठाना; उठा सकते हो क्या? जब उठा नहीं सकते तो फिर क्यों व्यर्थ किसी के जीवन में विघ्न बनते हो? जीवन जीने के दो ढंग हैं — प्यार में जियो या व्यापार में जियो। हमने प्यार वाला ढंग कभी जाना नहीं, हमने व्यापार का ढंग ही जाना है।