बड़ी लड़ाइयों के पीछे छोटा सा राज़ || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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बड़ी लड़ाइयों के पीछे छोटा सा राज़ || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। बचपन से यही शिक्षा दी जाती है कि पढ़ाई कर लो, अच्छे नंबर लाओगे तो अच्छे बच्चे कहलाओगे या फिर आगे चलकर अच्छी नौकरी मिलेगी तो समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी। तो इन सब में जो एक निष्कामता की जो चीज़ है, वो कहीं-न-कहीं कम ही रहती है हमारी। और ये कंडीशनिंग काफ़ी समय से होती आ रही है, जब तक हमें आध्यात्मिक शिक्षा नहीं मिल पाती है। और आप अभी कह रहे हैं कि ये सारी चीजें तो रहेंगी। इसको हटा पाना काफ़ी मुश्किल है। जब इतने सालों से ये हमारे जीवन में है। तो इनको लेकर के ही दौड़ लगाना पड़ता है। तो उस दौड़ लगाने के दरमियाँ अपनी वृत्तियों को छोड़कर जब दौड़ लगाने की बारी आती है तो वहाँ पर जो…

आचार्य प्रशांत: छोड़कर नहीं, उनके बावजूद, उनके होते हुए भी।

प्र १: तो जब दौड़ लगाने की बारी आती है तो अंदर से जो विरोध उठता है…

आचार्य: उसी के विरुद्ध तो लड़ना है।

प्र १: जी, तो उनका तेज इतना प्रबल रहता है कि कभी-कभी लगता है कि…

आचार्य: तेज तो रहेगा ही। सामने कभी कर्ण हैं, कभी द्रोण हैं, कभी भीष्म हैं। उनके पास देखो कितना तेज है। तो तुम योद्धा काहे के हो कि उनका तेज देखा और लोट गये, ‘बहुत तेज है’, रथ के पीछे आकर छुप गये। ये कोई बताने की बात है कि सामने जो खड़ा है, उसमें बहुत तेज है। उसमें तेज है, तुम्हारे पास क्या है फिर? तुम भी ज़रा हुंकार मारो, दम दिखाओ। तुम काहे के लिए हो? या सारा तेज उन्हीं के सुपुर्द कर रखा है? क्यों भई?

ये तो तुम बिलकुल दुर्योधन जैसी बात कर रहे हो। दुर्योधन ने बिलकुल आरम्भ में ही कहा कि गुरुवर, द्रोण से जाकर, उधर जो सेना है वो पर्याप्त है और हमारी अपर्याप्त है। उधर बहुत तेज है और हमारे पास नहीं है। जो ऐसी बात शुरू में ही बोल दे उसका फिर क्या होगा। वही जो दुर्योधन का हुआ था।

हाँ, उधर जो है सो है, हम भी हैं, देखते हैं, आ जाओ। बार-बार अपनेआप को चुनौती देते रहा करो बीच-बीच में, दिन में पाॅंच-सात बार, आईने के सामने जाओ और धमकी दिया करो। ‘तमीज़ में रह, बहुत मारूँगा। दिन में दो बार बता चुका हूँ, और तीसरी अगर चेतावनी की नौबत आयी तो पटक कर मारूँगा।’ ये तुमको विधि दे रहा हूँ। दिन में पाँच-सात बार अपनेआप को घुड़की दिया करो। आईने के सामने खड़े हो और…(घुड़की दो)। नहीं?

प्र १: तो जैसे एक ये होता है कि कभी, मान लीजिए, कि जीत गये तो फिर उसमें क्या होता है कि अच्छा लगता है कि हाँ, इस बार जीत गये। तो उसमें से चीज़ें धीरे-धीरे कम होती हैं कि पहले जितनी बार हार रहे थे, अब चीज़ें कम हो रही हैं। तो मन में विचार आता है कि फिर ये कब एकदम होगा कि जब पूरी तरह से खत्म हो जाऍं और हम स्मूथली (सुचारू रूप से) आगे बढ़ पाऍं इस क्षेत्र में।

आचार्य: ये जितनी बातें आती हैं इन सब बातों को जीतना होता है एक के बाद एक। ये ऐसी व्यूह रचना है जिसमें सबसे बाहर वाले वृत्त पर खड़े होते हैं पैदल सैनिक, जिनको हराना सबसे आसान है। उनको हरा के आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? फिर घुड़सवार मिलेंगे। उनके आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? फिर हाथी वाले मिलेंगे, गजसेना। फिर उसके आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? रथी मिलेंगे। उसके आगे बढ़ोगे तो महारथी मिलेंगे। जितना जीतते जाओगे उतना बड़ा योद्धा अब तुम्हारे सामने आता जाएगा लड़ने के लिए। तुम बड़े धुरंधर हो, तुम्हारे भीतर एक-से-एक कलाकार बैठे हैं।

हमको पता थोड़ी है हम कितने बड़े पापी हैं। कृष्ण बोलतेथे न, 'हे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर!', तुम अपनेआप को बोला करो, 'हे सर्वश्रेष्ठ धुरंधर!'। अपने एक छोटे पाप को जीतोगे तो पीछे से सफाई निकल के नहीं आएगी। क्या निकल कर आएगा? और बड़ा पाप। तो लड़ने का मजा तुमको लगातार, सतत, निश्चित रूप से मिलते रहना है, लाइफटाइम गारंटी ।

प्र १: तो चीज़ें, आचार्य जी, कभी ऐसी आती हैं कि जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं तो फिर जो जीतने की हमारी क्षमता होती है वो भी विकसित हो जाती है। जैसे कि आप कहते हैं कि अगर..।

आचार्य: हाँ, मामला और गाढ़ा होता जाता है। तुम्हारी क्षमता भी विकसित होती जाती है और सामने जो पापी खड़ा होता है, वो भी और प्रबल होता जाता है। तो कुल मिला कर फिर वो जो मैच होता है, जैसे मान लो क्रिकेट का उदाहरण लो, तो जिम्बाब्वे वर्सेज आयरलैंड से बढ़ कर के फिर वो ऑस्ट्रेलिया वर्सेज इंग्लैंड हो जाता है। संघर्ष पहले भी था, पर दो छोटे योद्धाओं में था। संघर्ष अभी भी है, पर अब तुम भी थोड़ा प्रबल हो गये हो और जो तुम्हारे सामने है वो भी धुरंधर है। तो कुल मिलाकर क्या हुआ? अब मैच में आनंद ज़्यादा आता है। मामला प्रगाढ़ हो जाता है।

दो नये-नये हों जिनको कुछ खेलना नहीं आता, एकदम ही नौसिखिए, मान लो कुछ खेल रहे हैं, टेनिस खेल रहे हैं। उनको खेलते देखना, तुम्हें कैसा लगेगा? और दोनों हैं बराबरी के ही लेकिन, बराबरी के अनाड़ी। दोनों बराबरी के अनाड़ी हैं और दोनों आमने-सामने खड़े हैं। कैसा लगेगा? और यही फेडरर और नडाल खेल रहे हैं, वो भी बराबरी के हैं। मामला तब भी बराबरी का था, अब भी बराबरी का है, पर अब आनंद बहुत ज़्यादा है। ब्रह्मविद्या का यही लाभ है — जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ते हो, वैसे-वैसे आनंद प्रगाढ़ होता जाता है।

प्र २: आचार्य जी, प्रणाम। अभी बात हुई थी खुद से लड़ने की। आपने बताया था कि खुद से लड़ना ही है ब्रह्म है, अध्यात्म है। तो एक तो खुद से हम बाहर के तल पर लड़ाई करते हैं और एक सूक्ष्म तल हम पर खुद से लड़ते हैं। तो कैसे इसको देखा जाए?

आचार्य: बाहर के तल पर क्या लड़ते हो खgद से? सूक्ष्म ही होती है हमेशा लड़ाई। बाहर के तल पर क्या करोगे? मुक्का थोड़ी मारोगे खgद को। स्थूल लड़ाई क्या लड़नी है अपनेआप से? तुम्हारा जो दुश्मन है तुम्हारे भीतर, वो सूक्ष्म है, तो उससे लड़ाई भी तो सूक्ष्म ही होगी न। स्थूल दुश्मन कौनसा होता है तुम्हारा? स्थूल दुश्मन ऐसा होता है जैसे तुम्हारे भीतर कैंसर की गांठ हो। वो तुम्हारा स्थूल दुश्मन है। तो फिर क्या करता है चिकित्सक? सर्जरी करके उस गांठ को निकाल देता है। वो तो हो गयी स्थूल लड़ाई। या शरीर का मैल है, वो तुम्हारा स्थूल दुश्मन है। तुम नहाकर उसको हटा देते हो। पर जो तुम्हारा गहरा दुश्मन है तुम्हारे भीतर, वो मन है न, मन। वो कैंसर की गांठ नहीं है। वो कोई शारीरिक चीज़ नहीं है। वो मन है, तुम्हारा जो भीतर दुश्मन है। तो उससे तो सूक्ष्म ही लड़ाई होगी, स्थूल क्या है वहाँ?

हाँ, स्थूल ये जरूर है कि अब मन के कारण मान लो तुम आलसी हो गए हो, तो तुम सड़क पर या ट्रेडमिल पर दौड़ लगा दो। वो एक स्थूल घटना है। पर वहाँ भी तुम्हें जो विरोध आएगा वो शरीर से नहीं आता है, वो मन से आता है। मन बोलता है, 'अरे, ठीक है, अभी आज इतना ही कर लेते हैं। बाकी कल कर लेंगे। क्या हो गया।' किसी ने कहा था कि देखो, शरीर को एक बढ़िया आकार दो। भीतर से मन का तर्क उठ रहा है, ‘गोल सबसे सुन्दर आकार होता है। चाँद भी गोल है, सूरज भी गोल है, हम भी गोल हैं। 'राउंड इज़ माई शेप, आइ एम इन शेप' (गोल मेरा आकार है, मेरा आकार सही है)।’

कभी दौड़कर देखना, ऐसे-ऐसे तर्क उठेंगे भीतर से कि पूछो मत। अब वो तर्क तुम्हारी तोंद से नहीं आ रहे हैं, तुम्हारे मन से आ रहे हैं। तो स्थूल प्रक्रिया में भी जो बाधा है, वो सूक्ष्म ही है न?

प्र ३: प्रणाम आचार्य जी। अब मैं जितना देख और समझ पा रहा हूँ कि ज्ञान से ही सही कर्म निकलता है और सही कर्म ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता। और अगर ज्ञान सही कर्म में परिवर्तित नहीं हो रहा, तो ज्ञान जीवन में उतरा ही नहीं। अब अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है, तो जो नेति-नेति है वो स्वयं ही घटती है और जो सकाम कर्म है उनमें मूर्खता दिखनी शुरू हो जाती है। अब एक तो ये साइड है। दूसरा, मुझे अपने अन्दर क्या दिखता है कि हमारी संरचना निष्काम कर्म करने के लिए तो हुई ही नहीं है।

आचार्य: ठीक।

प्र३ तो ये निष्काम कर्म तो घट रहे हैं बस। और अगर जीवन फिर सही दिशा में बढ़ रहा है, ज्ञान और कर्म एक-दूसरे के प्रपोर्शन (अनुपात) में हैं, जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ेगा, वैसे-वैसे हमारे कर्म निष्काम होंगे। तो फिर भक्ति को तो घटना होगा, वो अनुग्रह है।

आचार्य: नहीं, पर जैसे आप कह रहे हैं कि हमारी संरचना निष्काम कर्म के लिए नहीं हुई है, वैसे ही हमारी संरचना ज्ञान के लिए भी नहीं हुई है न। तो ज्ञान कैसे बढ़ेगा? चाहे निष्काम कर्म हो, चाहे ज्ञान हो, वो दोनों ही प्राकृतिक तौर पर हमारे साथ नहीं घटने हैं। उन दोनों के लिए ही चैतन्य प्रयास करना पड़ता है, जिसको मैं चुनाव बोलता हूँबार-बार।

न ज्ञान खुद आएगा, न प्रेम खुद आएगा, न निष्कामता खुद आएगी, बोध नहीं आएगा, सरलता, सहजता नहीं आऍंगे। जो कुछ भी जीवन में ऊॅंचा है, वो अपनेआप कभी नहीं आएगा। प्राकृतिक तौर पर नहीं आएगा। उसको तो बड़े श्रम से, साधना से, संकल्प से, खींचकर जीवन में लाना होता है।

हाँ, उनमें से किसी एक को आप ले आएँ जीवन में, तो बाकी सब स्वत: घटित होने लगते हैं। अब प्रेम हमेशा मूल्य माँगता है। आप जान लगाकर वो मूल्य चुकाऍं तो फिर आप पाऍंगे कि उसी प्रेम ने आपको निरहंकार भी कर रखा है। उसी ने आप में अनासक्ति ला दी है, मोह कम कर दिया है, निर्भय बना दिया है। फिर वो और बहुत सारी चीज़ें हैं जो प्रेम के साथ-साथ अपनेआप जीवन में आ जाऍंगी। लेकिन मूल्य तो किसी एक मोर्चे पर पूरा चुकाना ही पड़ेगा। कोई एक मोर्चा हो कम-से-कम जहाँ पूरा मूल्य चुका रहे हों, फिर बाकियों पर फ़तह अपनेआप होने लगती है।

प्र. 3: अब मैं ये देख पा रहा हूँ कि ये सब-कुछ घट तो मेरे साथ ही रहा है लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। और एक पहलू ये है कि भई बड़े लोगों से आये हो, उनमें उठना बैठना है तो जो कर्म हैं, जो वो हम उन निचले तल पर उतर जाते हैं, वो नहीं करना। ये दो साइड मैं अपनी देख पाता हूँ।

आचार्य: देखिए, ये बड़ी अच्छी बात है यदि लगने लगे कि इसमें मैंने कुछ करा नहीं है। ये विनम्रता का सूचक है। लेकिन ऐसा होता नहीं है कि, कम-से-कम आरम्भिक चरण में, कि अपने संकल्प के बिना चीज़ें बोध की दिशा में या सही दिशा में अपनेआप घटने लग जाऍं। तो मूल्य तो आप चुका ही रहे होंगे। और ये अच्छी बात है कि आप उसके साथ इतने सहज हो गये हैं कि अब आपको याद भी नहीं है कि आप मूल्य चुका रहे हैं। या आपको ये बहुत अनुभव नहीं होता या कष्ट नहीं होता कि मूल्य चुका रहे हैं। लेकिन मूल्य तो चुकाया जा ही रहा है।

देखिए क्या होता है न, मान लीजिये अब तीर्थ जा रहे हैं आप, केदरनाथ जा रहे हैं। ठीक है? अब मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है, मूल्य क्या चुका रहे हैं आप किउतनी ऊँची चढ़ाई है, वहाँ ऊपर बैठे हुए हैं महादेव, आपको अब पूरा चढ़ कर के जाना है। लेकिन कोई ऐसा भी हो सकता है, जिसको उस पूरी यात्रा से, उस पर्वतारोहण से ही प्रेम हो जाए, आनंद आने लग जाए। अब वो मूल्य कहाँ चुका रहा है? उससे आप पूछेंगे, 'मूल्य चुका रहे हो न? देखा, तीर्थ जाने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है।'

अब श्रम तो वो कर रहा है लेकिन वो श्रम करने में आने लग गया है उसको आनंद। वो चल रहा है, अब उसके भी दर्द हो रहा होगा और ये सब है, ऊँची चढ़ाई है, ठंड-वंड लग रही हो शायद। तो मूल्य तो चुका ही रहा है। लेकिन वो जो पूरा रास्ता ही है वहाँ तक का, वो नयनाभिराम भी बहुत है और मौज बड़ी आ रही है वहाँ पर। जब मौज आने लग जाती है, तो फिर आदमी भूल जाता है कि इसमें हमारा घट क्या रहा है, इसमें हम दे क्या रहे हैं। फिर आदमी ये गिनने लग जाता है कि आनंद मिल कितना रहा है। ये दृष्टि का ही परिवर्तन है।

ये अब अनुग्रह की दृष्टि बन गयी है। अब ये मिले हुए को गिन रही है। ये देख रही है कि क्या मिल रहा है। और मिले हुए को जब आप गिनने लग जाते हैं तो और मिलने लग जाता है। जिधर को आपकी नजर होती है न, वही आपका बढ़ता है। आप गिनने लग जाइए कि आपका छिन क्या-क्या रहा है, बहुत लोगों की पूरी ज़िंदगी यही करने में बीत जाती है, ‘मेरे साथ ये नुकसान हो गया, मेरा इसने छीन लिया, जीवन ने मेरे साथ धोखा कर दिया’ आप ये सब गिनेंगे तो यही और बढ़ेगा।

अबआप सही दिशा चलने लग जाऍं और सही दिशा चलते हुए आपको जो हल्कापन मिलने लगे, थोड़ा आनंद मिलने लगे, थोड़ी मौज मिलने लगे, थोड़ी सरलता मिलने लगे, और आप उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने लगें, आप साफ़-साफ़ मानना शुरू कर दें कि साहब मिल रहा है। तो फिर ये होता है कि जो मिल रहा होता, वो बढ़ जाता है। मानने से बढ़ जाता है। आपने माना तो बढ़ जाएगा। जिसको आप मानेंगे, वही बढ़ने लग जाता है। क्योंकि खेल ही सारा मान्यता का है न।

मन के..क्या? माने हार है और मन के? मन के जीते जीत। ये मान्यता ही तो है कि मन ने मान लिया कि हार गये, मन के हारे हार है, तो हार गये। इनका कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। आप जिस भी हालत में हैं, उसमें अगर आपको सच दिखाई देने लग जाए, तो सच बढ़ने लग जाएगा। प्रेम प्रतीत होने लग जाए, प्रेम बढ़ने लग जाएगा। चारों तरफ सब माया ही माया है और मुझे इससे अपना बचाव करना है या मुझे इसी माया दुश्मन से अपने लिए कुछ चीजें छीन करके लानी है, तो माया और बढ़ जाएगी।

जिसके प्रति आप कृतज्ञ ही नहीं हैं, वो आपको और ज़्यादा क्यों मिले?

ऐसा कोई भी नहीं होता जिसके जीवन में कृष्ण एकदम भी मौजूद न हों। आप कृष्ण से कितने भी दूर चले जाइए, जब सत्य वही हैं तो थोड़े बहुत तो आपके पास वो होते हैं।

प्रश्न ये है कि जितना कृष्णत्व आपको उपलब्ध है, आपका उसके प्रति भी क्या रुख है। आप उसको बढ़ाना चाहते हैं? या धिक्कारना चाहते हैं? आप बढ़ाना चाहेंगे, बढ़ जाएगा; बढ़ेगा तब जब कृतज्ञता होगी। मानो कि बहुत ऊँचा है, मानो कि उसका उपकार कि जितना मिला उतना भी मिला। यदि कम मिला, तो भी उसने उपकार करा। क्योंकि हम किस लायक थे? हम तो प्रकृति के खिलौने हैं, हम तो जंगल के जानवर हैं। हम किस लायक थे? वो मिल गया उसका अहसान है। नहीं तो हम तो जंगल में भौंक रहे होते। और जंगल माने ये सब शहर-वहर, ये सब जंगल ही है। इसमें इतने जानवर इधर-उधर, हम भी ऐसे ही घूम रहे होते जानवर। वो जितना भी मिल गया, उसने बड़ी कृपा करी। जब ये मानने लग जाते हो तो बात बढ़ने लग जाती है।

देखो, ये दोनों बातें आपस में फिर जुड़ी हैं। आत्मज्ञान यदि नहीं है तो अनुग्रह भी नहीं हो सकता। आत्मज्ञान का क्या मतलब होता है?

आत्मज्ञान का मतलब होता है जानना कि मैं जानवर हूँ। अपनी पशुता को जानना आत्मज्ञान है।

जहाँ आत्मज्ञान है फिर वहाँ अनुग्रह आएगा। मैं जानवर हूँ, तो फिर मेरे जीवन में ये सच्चाई की जो दो-चार किरणें हैं ये कहाँ से आ गयीं? जहाँ से भी आ गयीं, उसका एहसान है। मैंने एहसान माना। अपने बूते तो मैं किसी अंधेरी गुफा में ही ज़िंदगी बिता देता। ये दो-चार किरणें भी नसीब नहीं होनी थी। दो-चार किरणें भी आ गयी हैं, मैं करबद्ध होकर के कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।

अब तुम पाओगे कि वो तुम्हारी गुफा के आगे जो पत्थर रखा है भारी, वो थोड़ा और खिसकेगा। रोशनी का एक और टुकड़ा तुम्हारी गुफ़ा में, तुम्हारे जीवन में प्रवेश करेगा। हम अपनेआप को बहुत बड़ा आदमी माने रहते हैं न, अक्सर हम कहते हैं, ‘मेरा तो अधिकार ही है मुक्ति।’ हमारा अधिकार मुक्ति-वुक्ति कुछ नहीं है। हमारा वही अधिकार है जो जंगल के किसी भी जानवर का अधिकार है। क्या अधिकार है? यही अधिकार है – जियो, खाओ, पियो, घोंसला बनाओ, मर जाओ। समझ रहे हो?

जो कुछ भी तुम्हें ऊँचा नसीब हो रहा है, उसको किसी का प्रेम मानना। तुम्हारे मन में उसके लिए जितना प्रेम होगा, उतना उसका दिया हुआ तुम्हें उपलब्ध हो पाएगा।

और तुम्हें वो दे रहा है, उसके बाद भी तुम उसे धिक्कारो। जो मिल रहा है, वो भी…. हाथ धो बैठोगे उससे।

YouTube Link: https://youtu.be/bT_9C980AkY

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