बदले की आग में जलता है मन

Acharya Prashant

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बदले की आग में जलता है मन
अतीत की बुरी घटनाओं को याद करके तुम अपने वर्तमान को भी खराब कर रहे हो। जो बीत गया, वह अतीत है, लेकिन प्रतिशोध के विचार तुम्हारे इस पल को भी प्रभावित करते हैं। तुम्हारे विचार जिस स्तर के होते हैं, तुम्हारा मन भी वैसा ही बन जाता है। प्रतिशोध का ख्याल दिल की आग को ठंडा नहीं करता। यह आग केवल आत्मज्ञान, बोध और अपने आप को जानने से शांत होती है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गहरे रिवेंजफुल यानि प्रतिहिंसा से भरे हुए विचारों से मुक्ति कैसे पाएँ? बहुत सारी ऐसी भावनाएँ हैं जो हम प्रकट नहीं कर सकते लेकिन वो बहुत पुरानी हैं, उनमें बड़ी जान है।

आचार्य प्रशांत: बदले की भावना। बार-बार याद आना कि अतीत में किसी ने हमारे साथ कुछ बुरा करा था और उससे प्रतिशोध लेना है। तुम्हारे साथ अतीत में किसी ने कुछ करा। वो बहुत कोई अच्छा काम था क्या? बहुत ऊँचे तल का? अगर वो कोई बहुत अच्छा, बहुत ऊँचे तल का काम होता, तो उस काम के लिए तुम बदला लेने की तो सोचते नहीं। माने तुम्हारे साथ जो काम हुआ था वो निचले ही तल का था।

किसी ने कोई घटिया ही हरकत करी थी तुम्हारे साथ। यही भर मत याद रखो कि तुम्हारे साथ जो हुआ वो घटिया था; ये याद रखो कि वो जो पूरी घटना ही थी वो एक निचले तल की घटना थी। अब अगर तुम्हारे दिमाग में वो घटना बैठी हुई है, और तुम बार-बार बदले का विचार कर रहे हो, तो देखो तुम क्या कर रहे हो? तुम अपने मन को वर्तमान में भी एक घटिया तल पर गिरा रहे हो न? क्योंकि जिस तल के तुम्हारे विचार होते हैं उसी तल का तुम्हारा मन हो जाता है। तुम किसी बहुत ऊँची घटना के बारे में तो सोच नहीं रहे।

अतीत में भी कुछ बहुत अच्छा, बहुत ऊँचा, बहुत प्रेरणादायी हुआ हो, उसके बारे में तुम बार-बार सोचो, तो वर्तमान में भी तुम्हारी चेतना में, तुम्हारे मन में एक ऊँचाई आएगी, तुम्हारे जीवन में एक ऊँचाई आएगी क्योंकि तुम कुछ ऐसा याद कर रहे हो जिसको याद करते ही जीवन में एक उत्साह आ जाता है, आँखों में सच्चाई आ जाती है, शरीर में ऊर्जा आ जाती है, मन में स्पष्टता आ जाती है। कुछ ऐसा याद कर रहे हो, तो बहुत अच्छा है तुम्हारे साथ। लेकिन तुम तो जो कुछ याद कर रहे हो इसलिए कर रहे हो क्योंकि तुम्हें बदला चाहिए। बदला तो किसी बुरी ही बात का लिया जाता है। माने तुम कुछ बुरा याद कर रहे हो, है न? उसी को मैं कह रहा हूँ 'घटिया तल की घटना।'

बुरा याद-याद कर-करके तुम इस पल को, वर्तमान को भी क्यों खराब किए ले रहे हो?

जो घटना पीछे घटी वो तो बीत गई, लेकिन उसका विचार करके तुम इस क्षण को भी अपने नीचे गिराए ले रहे हो। देखो, पीछे अतीत में तुम्हारा किसी ने कुछ नुकसान हो सकता है कर दिया हो या तुम्हें आहत कर दिया हो, चोट पहुँचा दी हो, लेकिन वो नुकसान जैसा भी था बीत गया। उससे कहीं ज़्यादा बड़ा नुकसान तुम अपना करे ले रहे हो अभी भी उस पुरानी बात को याद कर के। वास्तव में यदि कोई दुश्मन है तुम्हारा, तो तुम्हारी इस बदला लेने की नीयत पर खूब हँस रहा होगा क्योंकि दुश्मन तुम्हारा नुकसान करना चाहता है न? नुकसान तो वो अतीत में थोड़ा ही कर पाया लेकिन आज ज़्यादा किए दे रहा है।

और अतीत के नुकसान की कोई भरपाई नहीं हो सकती। वहाँ कोई विकल्प ही नहीं है। अतीत बीत गया, बदला नहीं जा सकता। लेकिन अभी तुम्हारे पास विकल्प है कि तुम मन में ऊँचा ख़याल भी रख सकते हो और नीचा ख़याल भी, और तुम उस विकल्प का गलत इस्तेमाल कर रहे हो। शायद तुम उस विकल्प का वही इस्तेमाल कर रहे हो जो तुम्हारा कोई दुश्मन चाहेगा। तो तुम्हारा दुश्मन तो मुस्कुराएगा ही न? वो कहेगा, "ये देखो, ऐसी चोट मारी है मैंने बच्चू को कि पाँच साल बीत गए, ये अभी भी अपने मन में वही चोट लिए घूम रहा है।"

दुश्मन को करारा-से-करारा जवाब तो ये होता कि तुम कहते, "वो चोट हम बहुत पीछे छोड़ आए। उस चोट को हमने बिल्कुल भुला दिया।"

तो दुश्मन कहता कि हमने तो चाहा था कि इसको घाव लग जाए और घाव ज़रा लंबा चले क्योंकि घाव में दम ही क्या, अगर लगे वो और लगते ही ठीक भी हो जाए, भर जाए घाव। फिर तो घाव में कोई समस्या ही नहीं न। तुम्हें गहरे-से-गहरा घाव लगे और जिस पल लगे उसी पल वो ठीक हो जाए, भर जाए, तो क्या तुम शिकायत करोगे? चोट या घाव या बीमारी बुरे कब होते हैं?

बुरे वो तब होते हैं जब वो ज़रा लंबा खिंचते हैं। ज़रा कल्पना करके देखो न; तुम्हें कोई बीमारी हुई और पल भर में ठीक भी हो गई। अब वो बड़ी-से-बड़ी बीमारी हो, गहरे-से-गहरी बीमारी हो, शिकायत की कोई बात ही नहीं क्योंकि जब हुई बीमारी तभी वो ठीक भी हो गई। इसी तरीके से, कोई तुम्हें चोट दे, उसको तुम्हारा समुचित उत्तर यही होना चाहिए कि "तूने मुझे जो चोट दी, वो जिस पल मुझे लगी उसी पल वो ठीक भी हो गई। मैं आगे उसे लेकर ही नहीं जाऊँगा।" अब चोट देने वाला भी हैरान हो जाएगा। हार जाएगा चोट देने वाला तुमसे। वो कहेगा, "मैंने चोट दी थी, पर वो चोट चली ही नहीं।

रात में मैंने इसको गाली-गलौज कर दी, थप्पड़ मार दिया या इसका कोई नुकसान कर दिया या धोखा दे दिया, और सुबह होते-होते ये उस पूरी बात को पीछे छोड़ आया, क्यों? क्योंकि सूरज ताज़ा उगा है, दिन नया है, इसके पास बहुत कुछ है सार्थक इस नए दिन में करने को। ये पुरानी बात को याद रखना ही नहीं चाहता। इसके पास जीने के लिए एक ऊँचा उद्देश्य है। इसके पास हीरे-मोती हैं। बीती रात के कंकड़ों और कीचड़ को ये याद रखना ही नहीं चाहता।" क्या चाह रहे हो तुम, कि बदला लेने की इस ख़्वाहिश में तुम अपनी ज़िन्दगी को कंकड़ों और कीचड़ों से भरे रहो?

मन में याद रखने को कितना कुछ है जो ऊँचा है, उत्कृष्ट है, जो अगर तुम्हें स्मरण रह जाए तो ज़िन्दगी बिल्कुल बदल जाएगी, लोहे से सोना हो जाएगी।

वो सब याद रखने की जगह तुम क्या याद रख रहे हो? "फ़लाने ने मुझे तब चोट दी थी, पाँच साल पहले ऐसा हुआ था, दो दिन पहले ऐसा हुआ था, बीस साल पहले ऐसा हुआ था, सात-सौ साल पहले ऐसा हुआ था मेरे पुरखों के साथ; मैं बदला लूँगा।" तुम ये सब याद रख करके अपना हित कर रहे हो या अहित? ये सोचो। और ये सब तुम याद रख करके, मैं पूछ रहा हूँ, अपने दुश्मनों का ही साथ नहीं दे रहे हो क्या? तुम्हारे दुश्मन यही तो चाहते हैं।

ये बात मैं दोहरा रहा हूँ। ये एक अधोगामी अहंकार का लक्षण है कि वो सबकुछ ऐसा ही याद रखना चाहता है जो उसे नीचे ही गिराए रहे, ऊपर वो उठना नहीं चाहता। 'अधोगामी' समझते हो? जो गिरने के लिए आतुर हो, जो नीचे जाने के लिए, पतन के लिए आतुर हो, जो चाहता ही यही है कि, "मैं बिल्कुल ज़मीन पर, धूल पर, कीचड़ पर लोटता रहूँ।" तो ये ऐसे अधोगामी अहंकार का लक्षण है कि वो घटिया चीज़ें ही याद रखता है। घटिया चीज़ें याद रखना अहंकार को बड़ा भाता है, क्यों? क्योंकि अहंकार ऊँचाई से तो वैसे भी घबराता है। ऊँचाई पर क्या होता है अहंकार का? ऊँचाई पर अहंकार मिटता है। तभी हम कहते हैं न कि जो लोग ज़िन्दगी में ऊँचे बढ़े वो अहं से मुक्ति पा गए।

ऊँचाई से तो अहंकार वैसे भी घबराता है। तो वो तो चाहता ही यही है कि कोई निचली घटना मिल जाए, कोई निचली बात मिल जाए, कोई निचले तल का व्यक्ति मिल जाए, वो उससे ही लिपटा रहे। बड़ी सुविधा हो गई अब अहंकार को। आप उसके पास जाइए और कहिए, "आओ मेरे साथ, ज़िन्दगी में किसी सार्थक, ऊँचे उद्देश्य की बात करें।" वो कहेगा, "नहीं! अभी हम याद कर रहे हैं कि फ़लाना हमें कैसे धोखा देकर भागा था। प्रतिशोध!"

आप जाइए उसके पास, आप कहिए, "आओ ज़रा उपनिषद् पढ़ते हैं।" वो उपनिषद् पढ़ने बैठेगा, उसका मन ही नहीं लगेगा। आप कहेंगे, "तेरा दिमाग कहाँ है?" वो कहेगा, "मैं योजना बना रहा हूँ कि बदला कैसे लेना है।" आप कहेंगे, "आओ, बाहर आओ, कितना सुंदर मौसम है! पेड़ों को, पक्षियों को, पशुओं को देखो। कितना कुछ है इस प्रकृति में आनंद लेने को और सीखने को भी! अनुभव करो ये सब।" वो कहेगा "चल रही होगी शीतल हवा, कुलाँचे मार रहे होंगे नन्हे खरगोश, झूम रहे होंगे पेड़-पौधे, मुझे मतलब नहीं। मैं तो अपनी आंतरिक ज्वाला में ही जल रहा हूँ।"

ये तुम अपने दोस्त हो रहे हो या अपने दुश्मन हो? तुम्हें बाहर के किसी दुश्मन की ज़रूरत क्या? अपने-आपको बदले की आग से भरकर तुमने तो स्वयं को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु बना लिया न। बाहर का दुश्मन क्या नुकसान करता तुम्हारा? तुम्हारे अंदर जो तुम्हारा अहंकार बैठा है वो ज़्यादा नुकसान कर गया तुम्हारा।

अहंकार इतने में ही नहीं होता कि तुम अपने-आपको बहुत बड़ा समझो और घमंड करो। अपने आपको शोषित-पीड़ित समझना भी अहंकार का बहुत बड़ा लक्षण है क्योंकि जब तुम अपने-आपको शोषित-पीड़ित बना लेते हो, तो तुम अपने-आपको बहुत निचला और गया-गुज़रा बना लेते हो। और मैं कह रहा हूँ अहंकार यही चाहता है; उसे ऊँचाईयों से घबराहट होती है। वो किसी भी निचली चीज़ से, तल से, घटना से, वस्तु से, व्यक्ति से, विचार से बिल्कुल जुड़ जाता है। उसमें उसको सहूलियत है। ऊँचाई पर उसे घबराहट है और निचली घाटियों से, तलहटियों से, तहखानों से उसको बड़ी सहूलियत है।

अब ये तुम देख लो कि तुमको ज़िन्दगी में क्या चाहिए। ज़िन्दगी में अगर तुमको कीचड़ में ही लथपथ रहना है, तो तुम यही सब याद रखते रहो कि कौन कितना बुरा है, किसने क्या कर दिया, कैसे तुम प्रतिशोध लोगे, इत्यादि-इत्यादि। लेकिन ये याद रखना कि प्रतिशोध तुम्हें कुछ दे नहीं देगा। तुम सोच रहे हो कि प्रतिशोध लेकर तुम्हारे दिल की आग ठंडी हो जाएगी। नहीं, ऐसा होता नहीं है। वास्तव में हम प्रतिशोध का ख़याल इसलिए करते ही नहीं हैं कि दिल की आग ठंडी हो जाए।

दिल की आग प्रतिशोध से नहीं ठंडी होती, दिल की आग प्रकाश से, ज्ञान से, बोध से, सत्य से ठंडी होती है।

प्रतिशोध हम दिल को ठंडा करने के लिए नहीं लेते, प्रतिशोध हम अपने अहंकार को बचाने के लिए लेते हैं। ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। बदला लेने को जितने भी लोग आतुर हों, ये बात अच्छे से समझ लें: बदला लेने का ख़याल आप इसलिए नहीं कर रहे हैं कि मन शीतल हो जाएगा, दिल को सुकून मिलेगा। भले ही आपने अपने आपको ये बहाना बता रखा हो कि, "बदला नहीं ले रहा इसीलिए सुकून नहीं मिल रहा, बदला लेना पड़ेगा।" नहीं! असली बात दूसरी है।

बदला लेने का ख़याल हम इसलिए कर रहे हैं ताकि हमको सहूलियत बनी रहे एक निचले तल का जीवन जीने में। हर ऊँची चीज़ से, हर ऊँचे ख़याल से, हम बचे रह सकें इसलिए हमने अपने मन को बदले इत्यादि के निचले जलते हुए ख़यालों से भर रखा है। क्या आप ऐसा ही करते रहना चाहते हैं? आप जानिए आपकी मर्ज़ी है। ये चुनाव आपको करना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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