बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर। ।
~गुरु कबीर
प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। कृपया गुरु कबीर की इन पंक्तियों का आशय स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत जी:
एक ही है जो बड़ा है, जो वृहद है, उसे ‘ब्रह्म’ कहते हैं। उसके अलावा कुछ और बड़ा नहीं। उसके अलावा तो आप जिसको भी ‘बड़ा’ कहेंगे, बस तुलनात्मक रूप से कहेंगे। और किसी बड़े से बड़े की ‘उससे’ तुलना कर देंगे तो छोटा हो जाएगा।
तो वास्तव में अतुलनीय रूप से यदि कोई बड़ा है, तो मात्र ‘ब्रह्म’ है। वो बड़ा ही नहीं है, उसका बड़ा होना निरंतर बढ़ता ही रहता है। वो वृहद से वृहद होता रहता है।
बड़े होने का स्वभाव बिलकुल यही है – अनन्त्त से अनन्त्तर होते जाना। बढ़ते जाना, बढ़ते जाना।
वो कम नहीं हो सकता। वो जितना विस्तृत होता है, जितना फैलता है, उतना बढ़ता है। दूसरे शब्दों में कहें, वो जितना बँटता है, जितना देता है, उतना ज़्यादा बढ़ता है। इसी ओर कबीर साहिब इशारा कर रहे हैं, इसे कुछ और न समझा जाए ।
जब आपके भीतर सत्य प्रकाशित होता है, तो वो बँटेगा ज़रूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।
वो बँटेगा ज़रूर। उससे, जो बाकी पथिक हैं, जो अपनी-अपनी व्यक्तिगत यात्राओं पर हैं, उन्हें भी मदद मिलेगी, और आपका बढ़ना भी निरंतर जारी रहेगा।
बड़प्पन की निशानी ही यही है कि आप माध्यम बन जाएँगे। और आपके माध्यम से दूसरों को लाभ होगा। कौन-सा लाभ? ये लाभ नहीं कि खाना-पीना दे दिया किसी को, कोई शादी-ब्याह करना चाहता है तो उसकी सहायता कर दी।
इस लाभ की बात नहीं हो रही है।
सत्य तो किसी का भी एक ही लाभ करता है – उसे सत्य दे देता है। इसके अलावा आप किसी का और कोई लाभ कर नहीं सकते। इसी का नाम ‘प्रेम’ है, इसी का नाम ‘मित्रता’ है, कि आप जो हो, अपने आप को ही बाँट दो।
मृत्यु से पहले जीसस ने अपने शिष्यों को कुछ ऐसी बात कही कि – “अब मैं नहीं रहूँगा, मेरा रक्त पियो।” वो बात बिलकुल यही थी।
गुरु होने का अर्थ ही यही है – अपने आप को बाँट दिया। अपने ख़ून की एक-एक बूँद बाँट दी। अपना वो नहीं बाँटा जो सतह पर है, अपना होना बाँट दिया। अपना ख़ून ही बाँट दिया। ज्ञान बाँटना तो छोटी बात है, अपना होना बाँट दिया।
और ऐसे ही जाँच लेना कि प्रेम है या नहीं।
जो साधारण देने वाला होगा, वो तुमको साधारण चीज़ें ही देगा। थोड़ा रुपया, थोड़ा कपड़ा, खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, ज्ञान, जानकारी। जो वास्तव में तुमसे प्रेम करेगा, जो वास्तव में हितैषी होगा, मित्र होगा, प्रेमी, गुरु, वो अपने आप को ही बाँट देगा।
वो कहेगा, “बचाके क्या रखना है? जो मैं हूँ, वही दे रहा बाँटे हूँ।” इसकी अलावा कोई छाया नहीं, कोई फल नहीं जो वृक्ष किसी को दे सकता है। वो अपने आप को ही दे देता है – “लो पूरा दे दिया।”
*बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।*पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
तुम्हें कुछ मिला है कि नहीं, तुम बड़े हुए हो कि नहीं, तुम्हारे भीतर ब्रह्म जागृत हुआ है कि नहीं, एक ही पहचान है इसकी – तुम्हारे माध्यम से बँटने लगा है कि नहीं।
तुम कहो, “बँटता तो है” तो फ़िर एक बार और जाँच लेना – क्या बँटता है? क्योंकि बीमार व्यक्ति से अकसर बीमारी भी बँट जाती है।
बाँटते तो हो, पर क्या बाँटते हो दुनिया को? तुम्हारे माध्यम से दुनिया तक क्या पहुँच रहा है? तुम जो हो वही बाँटते हो। तुम्हारे भीतर यदि अँधेरा है, तो तुम चारों तरफ़ अँधेरा बाँट देते हो, बीमारी है तो बीमारी बाँट देते हो, सुगन्ध है तो सुगन्ध बाँट देते हो।
इससे एक बात और समझना ।
‘सफलता’ शब्द का अर्थ।
कबीर कह रहे हैं, “फल लागे अति दूर।”
‘सफलता’ शब्द में भी ‘फल’ केंद्रीय है।
जो जागृत व्यक्ति होता है उसके परिणामों में भी ‘फल’ ज़रूर होते हैं, पर उसके लिए नहीं होते। वो करता है बहुत कुछ, पर अपने लिए नहीं करता। ठीक वैसे जैसे कोई दाता वृक्ष हो, तो उसके फल उसके लिए नहीं होते। साधारण आदमी करता है इस उम्मीद में कि – “इसका फल मेरे काम आएगा।” वो अपूर्णता के भाव से करता है। वो कहता है, “जो कर रहा हूँ उसका कोई परिणाम, कोई फल मुझे मिलेगा, और मुझे उसका लाभ हो जाएगा। हम इस दृष्टि से काम करते हैं।”
और जो वास्तव में बड़ा होता जाता है, कर्म वो भी करता है, पर उन कर्मों से उसकी कोई लिप्तता, कोई वासना नहीं होती। कर्म भर करता है, फल छोड़ देता है। फल दूसरों के लिए हैं। अपनी इच्छा ही नहीं है कुछ पाने की। कर्म पूरा है, फल की इच्छा नहीं है।
“इसलिए नहीं कर रहे हैं कि कुछ मिल जाए। बस कर रहे हैं।”
“क्यों?”
“ये सवाल ही उचित नहीं है।”
तो जीवन ऐसा ही रहे। जो लोग झुलस रहे हैं, तप्त हैं, उनको छाया मिले। जो लोग भूखे हैं, प्यासे हैं, उन्हें आपके माध्यम से फल मिले। पर वो बातें बाद की हैं। वैसा जीवन तब आएगा जब पहले आपमें बड़प्पन आए, वास्तव में आप एक घना वृक्ष बनें। उसके लिए आपको अपनी जड़ें गहरी पैठानी होंगी। जैसे-जैसे आपकी जड़ें गहरी होती जाएँगी, वैसे-वैसे आपकी छाया बढ़ती जाएगी। वैसे-वैसे आपके फल पूरी दुनिया के काम आएँगे।
सूखे काठ पर कोई फल नहीं लगता, उसकी कोई जड़ भी नहीं होती। उसमें कोई लचक, कोई लचीलापन नहीं होता।और वो सुख-दुःख का अनुभव भी नहीं करता। सूखी लकड़ी जैसे हो जाईए, उसपे आप ख़ूब पानी डालिए, उसे कोई सुख नहीं होता। और उसको आप जलती धूप में रख दीजिए, उसे कोई दुःख नहीं होता। न उसके सुख-दुःख है, न उसके जड़ है, न उसके छाया या फल है। ऐसा होना हो, तो हो जाईए।
कोई गति नहीं है उसमें।
ब्रह्म में तो पूरी गति होती है। वह अचल रहते हुए भी गतिमान है। जड़ें गहरी हों, फ़िर पत्ते आते हैं, पत्ते गिरते हैं, जीवन के सारे मौसम आप अनुभव करते हैं। सुबह होती है तो देखते हैं कि पत्तों पर ओस की बूँदें हैं, पतझड़ आता है तो पाते हैं कि शाख़ें नंगी हो रही हैं। समस्त अनुभवों से गुज़रते हैं।
फ़िर फल लगते हैं, फ़िर छाया मिलती है।
यही है ‘ब्रह्मलीन’ हो जाना । बाहर से प्रकृतिस्थ, भीतर से समाधिस्थ।