बच्चों को बचाएँ इनसे || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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बच्चों को बचाएँ इनसे || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: मैं सिंगल पैरेंट (एकल अभिभावक) हूँ। मेरी एक बच्ची है छोटी। मुझे उसे कैसे संभालना चाहिए, कैसे संस्कारित करना चाहिए? क्योंकि मैं उसको थोड़ा सा फ़्रीडम (स्वतंत्रता) भी देती हूँ, तो बाहर के लोग बोलते हैं कि वो तुम्हारी सुनती ही नहीं है। तो कैसे उसको अच्छे से संस्कार दूँ, अच्छे से कैसे बड़ा करूँ?

आचार्य प्रशांत: आपने पूछा कि बिटिया है, छोटी है, आप सिंगल पैरेंट हैं। अच्छी बात हो सकती है कि आप सिंगल पैरेंट हैं। ये कोई समस्या नहीं है। दो लोग बर्बाद कर रहे होते हैं, उससे बेहतर है एक ही बर्बाद करेगा। अधिकांशतः तो दूना प्रहार होता है बेचारे बच्चे पर। आगे से बाप पीछे से माँ। ऊपर से दादी माँ, नीचे से नानी माँ। और ये जितने चाचे, फूफे, ताऊ इनकी तो गिनती ही क्या। ऐसे ही थोड़ी आप एक बच्चे को बर्बाद कर लोगे, बड़ी मेहनत लगती है भाई, पूरा कुनबा चाहिए बच्चे को बर्बाद करने के लिए। सब लग कर के उसका क्रिया कर्म करते हैं, 'आओ बताते हैं ऐसा है, वैसा है।'

एक जाँबाज़ जवान चचा होता है, वो बच्चे को रोज़ शाम को घूमाने ले जाता है बाइक पर बैठा के। ठीक तब जब वो बच्चे को गुब्बारा दिला रहा होता है, वो ख़ुद आती-जातियों को घूर रहा होता है और सोच रहा होता है, बच्चा तो बस गुब्बारा देख रहा है। नहीं, बच्चा गुब्बारा ही नहीं देख रहा है, यह भी देख रहा है कि चचा चौराहे पर कर क्या रहा है। भतीजे को गुब्बारा दिलाना है, हमें नैना लड़ाना है।

बच्चे को तो वास्तव में सबसे ज़्यादा एकांत की ज़रूरत है। छोटी समस्या है यह कि अच्छे संस्कार नहीं मिल पाए। ज़्यादा बड़ी समस्या है कि अच्छे संस्कारों के नाम पर ज़हर दे दिया उसको। संस्कार निश्चित रूप से आवश्यक हैं, लेकिन पहले पता तो हो अच्छा संस्कार बोलते किसको हैं। संस्कार ऐसा होता है जैसे दवाई। क्योंकि जो बालक पैदा होता है वो वृत्तियों से बीमार ही पैदा होता है, इसलिए उसको संस्कार देने पड़ते हैं।

संस्कार दवाई की तरह होने चाहिए। लेकिन दवाई दे पाने की पात्रता तो किसी विशेषज्ञ की ही होती है न या हर आते-जाते को हक़ दे दोगे कि दवाई लगा दे बच्चे को? पर हमने ये अधिकार सबको दे रखा है। इन मामलों में सब गुणी हैं, सबको लगता है हम ही चौधरी हैं। जो आता है वही बच्चे पर चढ़ बैठता है — 'हम बताएँगे न, ऐसे करो, वैसे करो।'

ये आँखों के सामने देखा है। 'चल मुन्नी पापा को चुम्मी दे, टॉफी देंगे।' अब वो जान गई है — पापा को चुम्मी दो, टॉफी मिलती है। एक दिन पापा खीझे बैठे थे, दफ़्तर से लौटे किसी बात पर चिढ़े हुए थे, ये चुम्मी देने गई, उन्होंने चाँटा दे दिया। वो समझ ही नहीं पा रही है बेचारी टॉफी नहीं मिली चाँटा कहाँ से आ गया।

उसके बाद पापा को बड़ी ग्लानि छायी — आज मुन्नी को चाँटा मार दिया — तो उसको गोद में उठा कर ले गए बाज़ार, उसको चॉकलेट दिला दिया। अब वो और अंदर उलझ गयी। कह रही है, 'ये एल्गोरिदम क्या है — टॉफी, चाँटा और चॉकलेट!' और फिर वापस आयी तो वहाँ मम्मी बैठी थी भड़की। बोली 'इतनी सी है इसको पूरी चॉकलेट दिला दी, नालायक कहीं के।' और मम्मी ने चॉकलेट छीन भी ली। अब वो बेचारी और उलझ गयी कि खेल क्या है, कोई समझाएगा। इसके नियम क्या हैं? 'चुम्मी देनी है पापा को कल कि नहीं देनी है?'

यही सब छोटी-छोटी बातें न — हमें लगता है अध्यात्म कोई दूर की बात है — यही बातें आध्यात्मिक हैं। और इन्हीं बातों में एक आध्यात्मिक आदमी गलती नहीं करता। और एक आदमी जो आध्यात्मिक नहीं है वो इन्हीं छोटी-छोटी बातों में सारा खेल हार जाता है। कोई बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ थोड़ी हैं जीवन में, कोई रणदुंदुभी बजा कर थोड़े ही आएगा आपका दुश्मन कि वो बताएगा 'यलगार, सावधान! अब तुझ पर वार किया जा रहा है।'

इन्हीं सब बातों में — टॉफी, चॉकलेट, करछुल, कढ़ाई — यहीं रोज़ लड़ाई हार रहे हैं हम। ज़िन्दगी की लड़ाई कहाँ हारी? कढ़ाई में हारी। समझ में ही नहीं आती ये बात। हमें लगता है ज़िन्दगी बहुत बड़ी चीज़ है, तो किसी बहुत बड़े युद्ध क्षेत्र में हमने लड़ाई हारी होगी। नहीं, ज़िन्दगी बहुत छोटी चीज़ है और हम रोज़ यहीं लड़ाई हारते हैं। दफ़्तर में, चौके में, बाज़ार में, दुकान में इन्हीं जगहों पर रोज़ लड़ाइयाँ हार रहे हैं, निरंतर हार रहे हैं।

और हमारे बच्चे भी ऐसे ही छोटे-छोटे प्रभावों से बिगड़ते, बर्बाद होते हैं। वो बच्चा नहीं बिगड़ा, आपने पूरा एक जीवन ख़राब कर दिया।

दो हज़ार छः में जब अद्वैत की स्थापना करी मैंने, कॉलेजों में जाने लगा, बात करने लगा, मैं झटका खा गया। मैंने कहा मैं जिनसे मिल रहा हूँ वो कम-से-कम सत्रह वर्ष के हैं। सत्रह से शुरू होकर के पच्चीस तक, इस उम्र के होते थे जिनसे बातचीत होती थी। मैंने कहा बहुत देर हो चुकी है, ये मेरे सामने आठ की उम्र में आने चाहिए थे, शायद तीन की उम्र में आने चाहिए थे — 'मैं बेबस हूँ, मैं कुछ कर ही नहीं पा रहा इनके साथ।'

तो फिर मैंने कोशिश भी की कि और छोटे बच्चों के साथ काम करूँ, पर वहाँ दूसरे तरीक़े की समस्याएँ थीं, उनपर माँ-बाप का पूरा पहरा था। मुझे वो आज़ादी ही न मिले जो मुझे चाहिए किसी के ऊपर काम करने की, प्रयोग करने की। और जो आश्वासन मुझे चाहिए कि ये व्यक्ति मेरे साथ कम-से-कम साल भर तो रहेगा, तब तो मैं इसके ऊपर काम कर पाऊँगा। छोटा बच्चा तो ग़ुलाम होता है, माँ-बाप जब चाहते हैं उसको उठा कर ले जाते हैं — तो उनके साथ काम नहीं कर पाया।

पर सत्रह की उम्र तो ऐसी होती है जैसे कोई बूढ़ा हो गया हो। सत्रह आते-आते फिर सुधारना लगभग असम्भव हो जाता है। हमारा पूरा विनाश पाँच साल, सात साल, आठ साल की उम्र तक लगभग पूरा हो चुका होता है। और कुछ पता नहीं लगता, हमें लगता है बच्चा है, घर में है, खेल कूद रहा है, रो रहा है, पाँव पटक रहा है, कुछ माँग रहा है, हँस रहा है, टीवी देख रहा है — हमें नहीं समझ में आता।

तो आपको यह नहीं पूछना है कि मैं अकेली हूँ तो बच्चे को कैसे मैं बड़ा करूँ। आपको तो यह पूछना है कि अगर मैं अकेली भी हूँ तो क्या मैं घातक हूँ बच्चे के लिए। आप दुकेली होतीं या चौकेली होतीं या छकेली होतीं तब तो बहुत घातक होतीं ही; आप अकेली भी घातक हो सकती हैं बच्चे के लिए अगर आप जागृत नहीं हैं। एक जागृत माँ बच्चे के लिए ईश्वर हो सकती है। लेकिन जागृत नहीं भी हो तो बहुत नुक़सान नहीं हो जाएगा। समस्या तब आती है जब माँ बिलकुल बेहोश है — तब वो बड़ा भारी नुक़सान कर देती है।

तो कुल मिलाकर माया ने स्थिति ऐसी रची है कि लाभ होने की संभावना तो कम ही है, लेकिन नुक़सान होना लगभग निश्चित है।

अपने मन से ये बात निकाल दीजिए कि बड़ा भारी परिवार चाहिए बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए। आपको बहुत सारे लोग नहीं चाहिए जो बच्चे को अच्छी परवरिश दें, बल्कि आपको इन बहुत सारे लोगों से बचा कर रखना है अपने बच्चे को।

ये सब दूषित लोग हैं, इन्हें कोई अधिकार नहीं कि बच्चे को स्पर्श करें। आपको भी बहुत अधिकार नहीं है कि अपने बच्चे पर चढ़ बैठें। आपको लगता होगा कि उसका शरीर आपका है; उसकी चेतना आपकी नहीं है। तो जो आप उसके ऊपर उपकार कर सकती हैं वो यही है कि उसे ख़राब मत करिए।

और जो भी आप कदम उठाइए उसको सही संस्कार देने के लिए, सौ बार अपनेआप से पूछिए — मुझे कैसे पता ये संस्कार सही है?

ठीक है?

मैं मना नहीं कर रहा हूँ कि संस्कारों की आवश्यकता नहीं है; निश्चित रूप से अच्छे संस्कारों की आवश्यकता है, लेकिन अच्छे संस्कारों के नाम पर कुछ और दे दिया अगर आपने, तो उससे नुक़सान बहुत बड़ा है — बस ये चेता रहा हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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