बच्चों को पंख दो, पिंजड़े नहीं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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बच्चों को पंख दो, पिंजड़े नहीं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: देखा हुआ है मैंने, यहाँ तक होता है कि जवान लोग हैं, किसी परीक्षा वगैरह की तैयारी कर रहे हैं—प्रतियोगी परीक्षा, नौकरी वगैरह के लिए—और उन्हीं दिनों घर में बहन की शादी का मुहूर्त निकाल दिया गया। माँ-बाप भी ज़बरदस्त होते हैं। लड़के का मेंस का एग्जाम है, उससे वो एक महीने पहले बिटिया का मुहूर्त निकाल देते हैं। और फिर तो भाई में अदम्य भ्रातृत्व जग उठा, उसने कहा, "अरे! ये नौकरियों का क्या है! ये आती-जाती रहती हैं। मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया। ये तो जीवन में एक बार की बात है।"

और वो स्कूटर लेकर के कभी शामियाने वाले के यहाँ दौड़ रहा है, कभी फूफे को मनाने दौड़ रहा है कि तुम भी आ जाना, कभी बारातियों की बस का इंतज़ाम कर रहा है। और ये सब करते हुए उसके भीतर बड़ी ठसक है, उसको लग रहा है 'मुझे देखो, मैं कितना ज़िम्मेदार आदमी हूँ। और ज़िम्मेदार आदमी ही नहीं हूँ, मैं बड़ा बलिदानी आदमी हूँ, मैंने कुर्बानी दे दी; बहन की ख़ातिर अपने परीक्षा की। मेरे जैसा कोई होगा भी भाई।'

देवियाँ होती हैं, किसी तरह उनको कैरियर मिल गया होता है। दो साल, चार साल नौकरी में लगाकर के, वो कैरियर में अपनी जड़ें जमा रही होती हैं। अपने ऑर्गेनाइजेशन (संगठन) में, अपनी संस्था में वो ज़िम्मेदार और सम्माननीय पदों पर पहुँच रही होती हैं। पतिदेव को खुजली मचती है, वो उन्हें गर्भ का तोहफ़ा दे देते हैं। कहते हैं, “ये देखो बेबी मैं तुम्हारे लिए क्या लाया—प्रेगो न्यूज।”

अब कैरियर गया भाड़ में। भीतर की पुरातन भारतीयता जागृत हो जाती है कि कैरियर वगैरह तो सब रुपए-पैसे की बात है। अब तो मैं माँ बनूँगी। बन लो! और मैं ये सब कह रहा हूँ, मुझे मालूम है आप लोग भी और जो लोग ऑनलाइन इत्यादि सुन रहे हैं उनमें से कईयों को भी भावनात्मक तल पर ज़रा चोट लग रही होगी—लगती हो तो लगे! पर मेरे इस कथन से अगर दो-चार लोगों की भी ज़िंदगी बच सके तो मेरा कहना सार्थक हुआ।

मैं आमतौर पर अपने निजी जीवन से कुछ बातें खोल कर बताता नहीं पर बातचीत अभी जिस मुकाम पर पहुँची है उसपर याद आता है – मेरा आईएएस का इंटरव्यू (साक्षात्कार) था। मेरे ख़्याल से दस मई को तय था। मेरे माता-पिता गए हुए थे मेरे ननिहाल की तरफ़, दूर है, क़रीब आठ सौ, हज़ार किलोमीटर। इंटरनेट का ज़माना नहीं था, न एंड्रॉयड फोन का। इंटरनेट के नाम पर ईमेल चलती थी, याहू चैट चलता था, बस इतना ही।

सताइश अप्रैल या तेइस अप्रैल को वो लोग निकले थे, और मेरे घर में ऐसी कोई प्रथा नहीं थी कि सदस्य सब एक-दूसरे से बहुत ज़्यादा बात करें, रोज़-रोज़ फोन पर बतियाएँ, तो वो लोग चले गए, दो हफ़्ते बाद मेरा आईएएस का इंटरव्यू था। मैं इंटरव्यू ख़ुद ही गाड़ी उठाकर गया, शाहजहाँ रोड, कमीशन की बिल्डिंग में पार्क करी, इंटरव्यू दिया, वापस आ गया।

जब वापस आता हूँ तो देखता हूँ मेरे माता–पिता खड़े हुए हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक पट्टियों से बँधा हुआ शरीर। माता जी का एक हाथ क़रीब-क़रीब पूरा निष्क्रिय हो चुका है। पिता जी के चेहरे पर इतनी चोट है कि चेहरा पहचाना नहीं जा रहा। दो हफ़्ते पहले ही उनका ज़बरदस्त रोड ऐक्सिडेंट (सड़क दुर्घटना) हुआ था जब वो घर से निकले थे। ऐक्सिडेंट के बाद गाड़ी में आग भी लग गई थी। ड्राइवर की टाँग काटनी पड़ गई थी, इतनी बुरी तरह फँसा हुआ था वो गाड़ी में।

दो हफ़्ते तक ये लोग अस्पताल में पड़े रहे, मुझे ख़बर नहीं होने दी। और ख़ासतौर पर पिताजी कुछ ज़्यादा घायल थे, बात कितनी भी दूर तक जा सकती थी। उन्होंने सूचना ही नहीं होने दी। बोले, जो होगा देखा जाएगा, उसका इंटरव्यू है, उसको पता नहीं लगने देना।

मुझे नहीं मालूम कि मुझे यहाँ तक पहुँचाने में मेरे माता-पिता का पॉजिटिव (सकारात्मक) योगदान कितना रहा है, लेकिन इतना तो मेरे सभी समीपस्थ लोगों ने करा कि उन्होंने मेरे जीवन पर कभी किसी पचड़े की छाया नहीं पड़ने दी, बिलकुल अलग रखा, इंसुलेटेड (अछूता)। जो कुछ भी चल रहा हो, कोर्ट केस (मुक़दमा) चल रहा है, कोई बात नहीं, तुम्हें क्या मतलब , तुम पढ़ो। पूछ भी क्यों रहे हो, जाओ अपने कमरे में, पढ़ो। रिश्तेदारी निभानी है, हम जाएँगे, हम निभा लेंगे। तुम पूछ भी क्यों रहे हो, जाओ पढ़ो।

बहुत आसान होता, और बहुत सामान्य और बड़ी साधारण बात होती कि वो कम-से-कम ख़बर तो पहुँचा देते। पर ख़ुद तो उन्होंने ख़बर नहीं ही पहुँचाई, जो लोग उनको उठाकर ले गए, अस्पताल में दाख़िल किया और जो सगे-संबंधी फिर इकट्ठा हुए उन सबको भी उन्होंने सख़्त निर्देश दिए कि सूचना नहीं जाएगी, और नहीं जाएगी तो नहीं जाएगी।

बच्चे को आगे बढ़ाने में आप कोई बड़ा योगदान दें पाएँ, न दें पाएँ, कोई बात नहीं। लेकिन बच्चा हो, कि पति हो, पत्नी हो, कि भाई-बहन हों, कम-से-कम उनको घसीट-घसीट कर बेवकूफ़ी की चीज़ों में तो न शामिल किया करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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