प्रश्नकर्ता: ये जो आशिक़ लोग होते हैं, ये एक-दूसरे से बेबी-बेबी वाली भाषा में बात क्यों करते हैं? एक-दूसरे को बेबी-बेबी बोलना, या शोना बोलना,, या चुन्नू-मुन्नू बोलना, ये क्यों होता है?
आचार्य प्रशांत: वजह तो बिलकुल सीधी है ईशा। बेबी क्या होता है? बेबी? बच्चा। बच्चे का मतलब है वो जिसके पास चेतना बहुत कम है, कॉन्शियसनेस , समझदारी बहुत कम है। तो वो क्या है पूरे तरीक़े से? वो एक बॉडी है, एक शरीर है।
बेबी माने एक ऐसा जीव जिसके पास कोई समझदारी नहीं है, और जिसके पास एक शरीर है और वह शरीर कैसा है? बेबी-सॉफ़्ट। मुलायम-मुलायम, और उसकी नाज़ुक सी त्वचा, स्किन। उसके पाँव भी कैसे हैं? छोटे बच्चों के पाँव देखे हैं कैसे होते हैं? बड़ों जैसे नहीं होते। एकदम नर्म, मुलायम, गोरे-गोरे। उसके तलवे में भी तुम ज़रा सी, ऐसे, उंगली छूआओगे, तो एकदम लाल सा हो जाएगा तलवा।
अब दो लोग आपस में कह रहे हैं कि प्यार करते हैं एक-दूसरे को। वो प्यार दो तरह का हो सकता है। एक तो ये कि जिसमें तुम दूसरे को छोटे से बड़ा बना दो, बच्चे से उठाकर के उसको मैच्योर (परिपक्व) कर दो, और दूसरा ये हो सकता है कि जिसमें तुम एक मैच्योर एडल्ट (परिपक्व वयस्क) को गिराकर के बच्चे जैसा बना दो।
अब अगर प्यार ऐसा है जिसमें आपकी ख़्वाहिश ही ये है कि सामने वाला ज़्यादा समझदारी न दिखा दे। तो आप क्या चाहोगे? कि वो जो आपके सामने खड़ा है, वो मैच्योर (परिपक्व) रहे, वयस्क रहे,, प्रौढ़, या इम्मैच्योर (अपरिपक्व) रहे? अगर मैं चाहता हूँ कि मैं जिससे रिश्ता रख रहा हूँ, वो ज़्यादा समझदारी न दिखा दे, क्योंकि उसने ज़्यादा समझदारी दिखा दी तो मेरे मंसूबों पर पानी फिर जाएगा, तो मैं उसको मैच्योर रखना चाहूँगा या इम्मैच्योर रखना चाहूँगा? इम्मैच्योर रखना चाहूँगा।
कुछ समझ में आ रहा है ईशा, कि ज़्यादातर लोग रिश्ते बनाते कैसे हैं? हम रिश्ते बनाते ही ऐसे हैं जिसमें दूसरे की समझदारी हमसे बर्दाश्त नहीं होगी। बल्कि अगर वो ज़्यादा समझदार हो गया तो हम उससे कहेंगे कि तुम तो बड़े होशियार हो रहे हो! बनेगी नहीं अपनी, ये होशियारी कहीं और दिखाना!
अगर हम चाहते ही हैं कि दूसरा हमारे लिए सिर्फ़ एक देह रहे— बॉडी , जिस्म—तो बहुत ज़रूरी है न कि हम उसको बेबी बनाकर रखें। क्योंकि बेबी क्या होता है? एक बॉडी , एक देह, एक जिस्म। बेबी के पास कोई अक्ल नहीं होती। और हमारे भी जितने बेबे-बेबियाँ हैं, हम चाहते यही हैं कि वह ज़रा भी अक्ल का इस्तेमाल न कर लें।
बेबी के पास कोई अवेयरनेस (जागरूकता), कोई नॉलेज (ज्ञान) नहीं होता। और तुमको भी, ज़रा भी अच्छा नहीं लगेगा अगर तुम्हारी बेबी ज़्यादा अवेयरनेस व ज़्यादा नॉलेज दिखाना शुरू कर दे। क्योंकि तुम्हारी बेबी के पास अगर ज़्यादा अवेयरनेस और नॉलेज आ गया, तो वह तुम्हारे साथ क्यों रहेगी या रहेगा?
तो हालत ये है कि तुमको अगर कोई मैच्योर लड़का या लड़की मिल भी गया प्रेम में, तो तुम पूरी कोशिश कर-कर के उसकी चेतना का स्तर, उसकी कॉन्शियसनेस का लेवल गिराते हो, इतना कि वो चार साल का हो जाए बिलकुल। और जब वो चार साल का हो जाता है तो तुमको बहुत प्यारा लगता है। तब तुम बहुत प्यार से उसके पास जाओगे, कहोगे, ‘ओ बेबी, बेबी,बेबी!’
इतना प्यार तुम्हें तब आएगा ही नहीं जब सामने वाला इंसान पूरी समझदारी से तुमसे बात कर रहा हो। हज़ार में से कोई एक होगा जिसके सामने कोई बैठ जाए, जिसका डेढ़ सौ का आईक्यू (बुद्धि लब्धि) हो या जिसमें बुद्ध जैसी प्रतिभा हो, और उसे ऐसे इंसान पर प्यार आ जाए। कल्पना करके देखो, ईशा। तुम्हारे सामने बैठ गया है कोई बुद्ध जैसा, और उसकी आँखें बता रही हैं कि वह बिलकुल जान ले रहा है कि तुम्हारे मन में क्या है, तुम्हारे जीवन में क्या है, तुम्हें ऐसे पर प्यार आएगा क्या? नहीं आएगा। तो फ़िर तुम चाहोगी कि ऐसा इंसान अगर तुम्हें मिल भी गया है तो तुम उसको बेबी बना दो। बेबी बनाने का मतलब है मूर्ख बना देना।
जो तुमको बार-बार बोल रहा है बेबी-बेबी , समझ लो वो यही कह रहा है कि मूर्ख-मूर्ख। और उसका स्वार्थ ही इसी में है कि तुमको वो मूर्ख बनाकर रखे। बेबी के साथ सुविधा रहती है न? उसको गोद में उठा लो, बेबी मना ही नहीं कर सकता। उसको बेवकूफ़ बना दो, बेबी मना ही नहीं कर सकता। उसके मुँह में कुछ डाल दो, बेबी मना ही नहीं कर सकता। उसके कपड़े उतार दो, बेबी मना ही नहीं कर सकता।
भई, एक एडल्ट, मैच्योर आदमी होगा, वो तो यूँ ही नंगा नहीं घूम रहा होगा, पर बेबी तो ऐसे ही, अपना, इधर-उधर नंगा घूम रहा होता है। अब अगर तुम्हारा रिश्ता ही ऐसा है जिसमें मैच्योरिटी नहीं चलेगी, और ये नंगाई चलेगी, तो ज़रूरी है कि उसको बेबी बनाकर रखो।
खुश मत हो जाना अगर रिश्ते में कोई तुमको बार-बार बेबियाता हो। उसके इरादे तुम्हारा मेंटल डिग्रेडेशन (मानसिक पतन) करने के हैं। वह तुमको मानसिक रूप से दबाकर रखना चाहता है। और खुशनसीब होओगे तुम, अगर कोई तुम्हें ऐसा मिले जो तुम्हारी मेंटल ऐज (मानसिक उम्र) बढ़ा दे, कि उसको मिलने से पहले तुम ऐसे जीते थे, ऐसे व्यवहार करते थे जैसे बारह साल के हो। ज़्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं — शरीर से उम्र हो जाती है बाईस की, और दिमाग़ से उम्र होती है बारह की।
तुम्हें कोई ऐसा साथी मिल जाए जो तुम्हारी इस बारह की अन्दरूनी उम्र को बढ़ाकर के बाईस का कर दे, अट्ठाईस का कर दे, तो ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना। लेकिन ज़्यादा सम्भावना यही है कि तुम्हें ऐसा ही कोई मिलेगा ईशा, कि जिसके सामने अगर तुम पच्चीस की उम्र की खड़ी हो, तो उसकी भरसक कोशिश रहेगी कि वह तुमको पाँच का या सात का बना दे।
तुम्हें क्या लगता है प्रेमीजन आपस में जो बात करते हैं, कु-कू, ये कोई बहुत ऊँचे स्तर की बातें होती हैं? उनमें ज़िन्दगी की गहराई होती है? कोई डेप्थ है? न, वह बातें बिलकुल वैसी ही होती है जैसे पाँच-सात साल के लड़के-लड़कियाँ कर रहे हों। पाँच-सात साल के लड़के-लड़कियों की बातों में क्या होता है? इम्पल्सिज़, इमोशन्ज़ (आवेग, भावनाएँ) — अभी जो लग रहा है वो बोलते जा रहे हैं, बोलते जा रहे हैं, कोई छोटी बात ही बहुत बड़ी हो गयी। कोई मुद्दा पकड़ कर बैठ गये, ‘मम्मी ने डाँट दिया, उसने ऐसा कर दिया। तुम मेरे साथ खेलने क्यों नहीं आये? तुम मेरे साथ खेलने की जगह पड़ोस की प्रिया के साथ क्यों खेलने चले गये आज?’
यही तो पाँच-सात साल के लड़के-लड़कियों के होते हैं, ‘तुमने मेरी डॉल चुरा ली। वो मेरी गिल्ली उखाड़ कर भाग गया।’ यही तो मुद्दे होते हैं पाँच-सात साल के लड़के-लड़कियों के। उसने मेरी बैटिंग ही नहीं दी आज! उसने मेरी शटल तोड़ दी! उसने मेरी बाॅल फोड़ दी! यही तो चल रहा होता है।
तो ये जो लवर्ज़ (प्रेमी) होते हैं, ये भी आपस में कौनसी समझदारी की बात कर रहे होते हैं? ये ये बातें कर रहे होते हैं कि फ़लाने उपनिषद् में क्या लिखा है! कि ये बातें कर रहे होते हैं कि मिडल ईस्ट में क्या चल रहा है! कि ये बातें कर रहे होते हैं कि कोविड की जो अलग-अलग वैक्सीन्ज़ हैं, उनके जो ट्रायल्ज़ चल रहे हैं, उनके क्या स्टेटस हैं!
ये जो लवर्ज़ टॉक होती है, ये क्या होती है? ये परम बेवकूफ़ी की बात होती है। ये ऐसी बात होती है कि ब्रेकअप के बाद जब तुम देखोगे कि तुम कैसी बातें किया करते थे, तो झट से उसको डिलीट मारना चाहोगे कि छी छी छी छी छी, ये मैं इस तरह की बातें करता था!
इसलिए नहीं कि वह जो तुम बात कर रहे हो, वह कोई स्कैंडल है, इसलिए क्योंकि वह जो तुम बात कर रहे हो, वो ये साबित करने के लिए काफ़ी है कि तुम्हारा आईक्यू तेईस-दशमलव-दो-तीन है, इससे ऊपर का नहीं है। इसलिए बेबियाना ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि हम प्रेम दूसरे से दूसरे को बढ़ाने, उठाने, उसकी अपलिफ़्टमेंट (उत्थान) के लिए नहीं करते। प्रेम हम दूसरे से करते हैं अपने स्वार्थ के लिए, और अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को गिराना ज़रूरी होता है, दूसरे को गिराना माने दूसरे को बेबिया दिया। कि कल तक तुम कौन थे? बलवन्त राय। और बलवन्त राय अब क्या हो गये हैं? बल्लू, बल्ली, बेबी बन गये हैं। ये किया इश्क़ ने तुम्हारे साथ। समझ में आ रही है बात?
तो ये कोई क्यूट बात नहीं है। ये कोई इन्नोसेंस की बात नहीं है कि लव बर्ड्स बैठे हैं साथ में, और एक-दूसरे से बेबी टॉक कर रहे हैं; ये बहुत ख़तरनाक बात है। जब ये हो रही होती है तब ये बहुत मीठी लगती है, आ हा हा! क्यूटनेस की इन्तहा हो जाती है बिलकुल, ओ लू लू लू! लेकिन ये चीज़ बहुत ज़हरीली है ईशा, इससे बचकर रहना।
फिर याद दिला रहा हूँ — कोई ऐसा खोजो जो तुमको मानसिक स्तर पर ऊँचा उठाये। कोई ऐसा खोजो जो तुमको बस जिस्म की तरह न देखे। जो तुमको बच्चा बना रहा है वह वास्तव में तुमको सिर्फ़ एक जिस्म बना रहा है। बेबी माने बॉडी , एंड दैट टू बॉडी विदाउट एनी डिफ़ेंसिज़, बॉडी विदाउट एनी अवेयरनेस। क्या तुम ऐसी बॉडी बनना चाहती हो अपने लवर के लिए, बॉडी विदाउट डिफ़ेंसिज़, बॉडी विदाउट अवेयरनेस? नहीं, तो बेबी मत बन जाना किसी की।
प्र२: बॉलीवुड गानों में अभी दस-पन्द्रह साल से बेबी शब्द बहुत उपयोग होता है, जैसे बेबी डॉल और बेबी को बेस पसन्द है। पहले ऐसे नहीं होते थे।
आचार्य: उसका नतीजा ये हो रहा है न, कि जब आप सौ बार सुनते हो कि कोई आपको बेबीया रहा है तो आप आन्तरिक रूप से भी बेबी ही हो जाते हो, क्योंकि ज़्यादातर लोग ऐसे तो होते नहीं कि उनके पास आत्मा का केन्द्र है और वो बस अपनी आत्मा के कहने पर चलते हैं। उनको तो जो चीज़ तुम सौ बार बोल दोगे, उनको यही लगने लगता है हम वही हैं। अब कोई लड़की है, उसको सौ बार बोल रहे हैं और चार लोग बोल रहे हैं बेबी-बेबी-बेबी , तो वो अपनी नज़रों में भी क्या बन जाती है? वो बेबी ही बन जाती है, और फ़िर बेबी बनकर ही घूमने लगती है। और उसके बाद अब न उसका मानसिक विकास हो सकता है, न आध्यात्मिक विकास हो सकता है। अब वो बस बेबी है। उसके शक्ल पर ही एक तरह की इम्मैच्योरिटी (अपरिपक्वता) आ जाती है, चाइल्डिशनेस आ जाता है। और ये चाइल्डिशनेस इनोसेंस की नहीं है, इग्नोरेंस की है। ये जो चाइल्डिशनेस आ गयी है, इसमें निर्दोषता नहीं है, इसमें अज्ञान है। समझ में आ रही है बात?
और बुरे-से-बुरी चीज़ ये हुई है कि उसे लगने लग गया है कि ये जो चाइल्डिशनेस है, ये उसकी सम्पदा है, एस्सेट है। और वो एस्सेट ही नहीं है, अब वो अपनी इस एस्सेट को वेपनाईज़ कर देती है। इट्स अ वेपनाईज़्ड एस्सेट, वेपनाईज़्ड एस्सेट समझ रहे हो? ये जो चाइल्डिशनेस है, ये जो क्यूटनेस है, इसका इस्तेमाल हथियार की तरह किया जाता है।
कैसे हो गया ये एक हथियार? समझना। जो पुरुष वर्ग है वो खोज ही रहा है किसी ऐसी को जो देह-ही-देह हो और दिमाग़ से गुल्ल हो। क्योंकि तुम्हें वास्ता ही क्या है? उसकी देह से वास्ता है। ज़्यादातर जो पुरुष हैं या लड़के हैं, वो कैसी लड़कीयाँ ख़ोज रहे हैं? जो बहुत इन्टेलेक्चुअल हों, समझदार हों, या अवेयर हों? दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी लड़कियाँ कोई नहीं चाहता। ज़्यादातर लड़के ऐसी ही लड़कियाँ खोज रहे हैं और इसका उल्टा भी, शायद हो सकता है, लड़कियाँ भी ऐसे लड़के खोज रही हों।
ज़्यादातर पुरुष ऐसी ही लड़कियाँ खोज रहे हैं जो शरीर से तो पूरी तरीक़े से जवान हैं, वयस्क हैं, ग्रोनउप हैं, लेकिन मानसिक तौर पर एकदम डम्ब हैं। क्योंकि ऐसी लड़की से अपने स्वार्थ की पूर्ति करना बहुत आसान है भाई, वो ज़्यादा सवाल नहीं पूछेगी, तुम उसे बेवकूफ़ बना सकते हो। तुम उसके साथ जिस तरह का चाहे खिलवाड़ कर सकते हो, वो ज़्यादा रेज़िस्ट (विरोध) ही नहीं करेगी। बात समझ रहे हो? या अगर उसका रेज़िस्टेंस (विरोध) आएगा भी, तो वो बहुत प्रिडिक्टेबल होगा, अनुमानित होगा, आपको पता होगा कि ये किस तरीक़े का रेज़िस्टेंस देगी। चूँकि आपको पता है कैसा रेज़िस्टेंस आएगा, तो आपको ये भी पता है कि कैसे उसको ओवरकम करना है, कैसे उसको जीत लेना है। समझ में आ रही है बात?
तो इसलिए ये सब चलता है कि दूसरे वाले को उसकी ही नज़रों में ये जता दो कि तेरे लिए यही अच्छा है कि तू बेबी बनकर रह, और फिर वो भी जान जाती है कि मुझे अपने बेबीपने को कैपिटलाइज़ करना है, मैंने कहा वेपनाइज़ करना है। वो उसका इस्तेमाल फ़िर हथियार की तरह करती है। तुमको वही चीज़ उसकी चाहिए, वो वही चीज़ दिखाएगी और तुरन्त वो तुमको जीत लेगी। नाउ यू हैव बीन वनोवर (अब आपको जीत लिया गया है)।
और ये बात, मैंने कहा, दोनों तरफ़ लागू होती है, लड़कों पर भी लागू होती है, वो भी इसी चीज़ का इस्तेमाल करते हैं। और ये बहुत गड़बड़ बात है, क्योंकि आदमी पर सबसे ज़्यादा असर किसका पड़ना है? साथ का। जो तुम्हारे साथ है वही तुला हुआ है, वही लगा हुआ है कि तुमको उठाने की जगह तुमको बेबी बना देगा, तो अब बताओ तुम्हारे लिए क्या उम्मीद शेष है? तो इस चीज़ से बिलकुल बचना।
और आपने बिलकुल ठीक कहा कि ये हिन्दुस्तान में तो कभी होता ही नहीं था कि एक-दूसरे को बेबिआया जाए। ये तो पिछले बीस-चालीस साल में, पाश्चात्य भाव है। भारत में इसलिए नहीं होता था क्योंकि भारत में इतनी समझदारी थी कि जिसको प्रेम कर रहे हो, जिसको साथी कह रहे हो अपना, उसका नुक़सान नहीं कर देना है, उसको देह ही नहीं बना देना है, उसकी ज़िन्दगी में इसलिए नहीं घुसे हो कि उसको चार साल का खिलौना बना दो।
प्र२: आचार्य जी, अभी कुछ समय पहले मैं एक साक्षात्कार देख रहा था यूट्यूब पर। उसमें बताया जा रहा था कि महान पुरुषों की जीवनियों पर आधारित जो टीवी सीरियल्स आजकल आते हैं, जैसे महाराणा प्रताप, तो उनमें ये होता है कि उनको बड़ा ही नहीं होने दिया जाता है। लगातार उनका जो बचपन है, उसी के आसपास कहानी को खींच कर दिखाया जा रहा है। और उनका जो असली जीवन था, जो असली चीज़ उन्होंने की जीवन में, वो अब कभी आ ही नहीं रही है। तो ऐसा क्या है समाज में?
आचार्य: वो झेला नहीं जाएगा न। महाराणा प्रताप ने बड़े होकर जो किया वो चीज़ इतनी ज़बरदस्त थी कि ज़्यादातर लोग उसका मुक़ाबला करना तो छोड़ो, उसका अनुकरण भी नहीं कर सकते। पूरा अनुकरण करना छोड़ो, उसका दस-बीस प्रतिशत अनुकरण भी नहीं कर सकते। तो ज़रूरी है कि महाराणा प्रताप को बड़े ही मत होने दो, क्योंकि बड़े हो गये तो ख़तरा बन जाएँगे। छोटे हैं जब तक तो प्यारे लगते हैं। बड़े होकर के कुछ ऐसा करने वाले हैं तुम जिसकी मिसाल अपनी ज़िन्दगी में ला ही नहीं सकते। बल्कि जब वो बड़े हो जाएँगे तो वो तुम्हारे लिए एक अपमान की चीज़ बन जाएँगे। उनका होना तुम्हारे लिए बड़े अपमान की बात हो जाएगी, क्योंकि कहाँ उनकी ऊँचाई, कहाँ उनकी कीर्ति, कहाँ उनकी वीरता और कहाँ तुम्हारा जीवन, डर से लदा हुआ! कहाँ उनकी स्वतन्त्रता प्रियता और कहाँ तुम्हारा ग़ुलाम जीवन! तो झेले नहीं जाएँगे महाराणा प्रताप, तो बेहतर है उनको छोटा ही रहने दो।
ठीक यही काम हमने श्रीकृष्ण के साथ भी किया है। बड़े हो गये श्रीकृष्ण तो गीता कह देंगे, ख़तरा है। इसीलिए हिन्दुस्तान ने ये बड़ा अन्याय करा श्रीकृष्ण के साथ कि अगर उनकी गीता एक ने पढ़ी है, तो उनकी जो बाल-लीला और बाल-क्रीड़ाएँ हैं, वो सौ को और हज़ार को पता हैं।
इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं कि उनकी जो बाल-क्रीड़ाएँ हैं या उनका जो बाल-रूप है, उसका लोगों को ज्ञान हो, लेकिन ये बहुत भारी आपत्ति की बात है कि ज़्यादातर लोग बस किशन-कन्हैया की बाल सुलभ क्रीड़ाओं तक ही अपनेआप को सीमित रखना पसन्द करते हैं, और वो कभी किशन-कन्हैया को श्रीकृष्ण बनने ही नहीं देते, गीता से वो कोई मतलब रखना ही नहीं चाहते। क्योंकि गीता ख़तरनाक है, नन्हा कान्हा सुविधापूर्ण है।
नन्हे कान्हा के साथ क्या है — वो ग्वालों के साथ जाता है, गैया चराता है, बाँसुरी बजाता है, मोर आ जाते हैं, मोर नाच रहे हैं, गोपियाँ आ जाती हैं, गोपियाँ नाच रही हैं, कुछ मीठी बातें हो जाती हैं, फ़िर वापस आता है तो माँ के साथ कुछ उसकी नटखट नोक-झोंक हो जाती है। माँ थोड़ा इधर-उधर होती हैं तो वो कभी मक्खन, कभी दही, कभी घी चुराकर खाता है। इस चक्कर में पात्र फोड़ देता है, तो माँ आती हैं, तो किसी भी अन्य नटखट बालक की तरह कहता है, ‘मैं नहीं माखन खायो।’ अब इन सब बातों में रस भी आ जाता है और क़ीमत चुकानी नहीं पड़ती। तो ज़्यादातर लोग कृष्ण भक्ति के नाम पर बस अपनेआप को इन्हीं चीज़ों तक सीमित रख लेते हैं।
और मैं फिर कह रहा हूँ, मेरा आशय ये बिलकुल भी नहीं है कि इन बातों का ज्ञान न हो, या श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का रस न लिया जाए। सुन्दर हैं, मीठी हैं उनकी बाल लीलाएँ, ज़रूर उनका आप रस लें। लेकिन मुझे बताइए आप गीता तक क्यों नहीं गये? यदि श्रीकृष्ण आपको वास्तव में प्रिय हैं तो गीता की इतनी उपेक्षा और अवहेलना कैसे कर दी आपने? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये आपके मन की आन्तरिक साज़िश है? क्योंकि अगर आपने श्रीकृष्ण को बड़ा होने दिया तो निष्काम कर्म भी सुनना पड़ेगा। निष्काम कर्म सुन लिया और जीवन में उसका अनुपालन नहीं किया तो बड़ी बेइज़्ज़ती की बात होगी। तो इससे अच्छा ये है कि ये नौबत ही नहीं आने दो कि श्रीकृष्ण की निष्काम कर्म की शिक्षा हमारे कानों में पड़े। ये नौबत ही नहीं आने देंगे। कृष्ण को हम बड़ा ही नहीं होने देंगे। घर में श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी रखेंगे तो कितनी बड़ी? वो छोटी सी कि बाल-गोपाल बैठे हुए हैं। बड़ा उन्हें होने ही नहीं देंगे।
और मैं फ़िर कह रहा हूँ, श्रीकृष्ण के बाल रूप से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? बहुत सुन्दर है, बहुत रसिक है। लेकिन उस बाल रूप से आगे जाकर के कभी श्रीमद्भगवद्गीता तक न पहुँचना — ये बहुत गड़बड़ बात है।
प्र३: सर , आजकल एक शब्द काफ़ी यूज़ होता है ‘टॉक्सिक रिलेशनशिप्स’ (ज़हरीले सम्बन्ध)। मुझे एक बात याद आयी कि आमतौर पर जब कॉलेज के दिनों में रिलेशनशिप होते थे तो शुरू में बेबी-बेबी वाला खेल शुरू करते थे, क्योंकि लगता था कि इससे काम शुरू होगा। फ़िर थोड़े दिन बाद आपको लगता था, जब वो काम हो गया आपका, कामवासना की पूर्ति हो गयी, अब जब आप चाहते हैं कि कुछ अच्छी बातें करें, और जब आप शुरू करते थे तो वो बात होती नहीं थी। तो फिर कहते थे बकवास! क्या रिलेशनशिप है! लेकिन फिर से वापस कामवासना आती थी, फ़िर वही बेबी-बेबी शुरू करते थे। तो एक पूरा दुष्चक्र बनता था, कि आप यहाँ से निकलना भी चाह रहे हैं, लेकिन साथ-साथ आपको कामवासना भी खींच रही है। मुझे लगता है यही चीज़ शायद टॉक्सिक रिलेशनशिप का पूरा एरीना बनता है। कि एक तरफ़ आप सोचते हैं कि चलो ये करके हम छोड़ देंगे, लेकिन वो हो नहीं पाता।
अचार्य: करके छोड़ भी नहीं सकते। और जिससे आपने रिश्ते की शुरुआत ही बेबियाने से करी है, उससे फिर आप चाहें कि आगे जाकर के आपका रिश्ता किसी ऊँचे स्तर का हो जाए, तो बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि जो मूल समझौता है, फ़न्डामेंटल एग्रीमेंट है, उसकी टर्म्ज़ एंड कन्डीशनज़ ही यही हैं — तुम बेबी हो, मैं बेबा हूँ। अब तुमने दो-चार महीने बाद उस समझौते को बदलना चाहा, युनीलेट्रली मॉडिफ़ाई करना चाहा, तो वो दूसरा पक्ष थोड़े ही तैयार हो जाएगा। वो कहेगा, ‘रुक जा, तुम कल तक मेरे बेबे थे, आज तुम अचानक से इन्टेलेक्चुअल बन गये, ये तो डेफ़िनिशन (परिभाषा) ही वॉयलेट (उल्लंघित) हो रही है।
‘हमारी तुम्हारी परिभाषा क्या है? मैं तेरी बेबी , तू मेरा बेबा। तू और कुछ कैसे हो रहा है? ये तो रूल्ज़ ही वॉयलेट हो रहे हैं न? आपने तो जो हमारे समझौते के बिन्दु हैं, उन्हीं का उल्लंघन कर दिया!’
इससे अच्छा ये है कि जब रिश्ता बनाओ उसी वक़्त ज़रा होश रखो, और बिलकुल सतर्क हो जाओ, जैसे ही देखो कि कोई तुमको शोना-मोना, शिंगु-चिंगु कुछ बना रहा है। कहो, ‘ये तो मुझे चौबीस से चार का करने की कोशिश की जा रही है।’ और हम लोग सब वल्नरेबल टु इन्फ़्लुएंस होते हैं। कोई बार-बार तुमको चार का बनाएगा, तुम बन भी जाओगे, अपनी ही नज़रों में वैसे हो जाओगे। देखते नहीं हो, बहुत सारी जो एडल्ट ड्रेसेज़ होती हैं, वो बिलकुल वैसी ही होती हैं जैसे एक-दो साल के बच्चों के झबले। एक साल, दो साल के बच्चों के कपड़े देखे हैं कैसे होते हैं? और बहुत सारी एडल्ट ड्रेसेज़ बिलकुल वैसी ही होती हैं। ये क्या किया जा रहा है? ये मिमिक किया जा रहा है बेबी को, इवन इन द टर्म्स ऑफ़ द ड्रेसिंग सेंस, द सार्टोरियल चॉइसिज़।
वो बेबी ही बन गयी, उसने कपड़े भी एक-दो साल के बेबी जैसे ही पहनने शुरू कर दिये। कई बार तो ज़बान भी वैसी ही हो जाती है — तुतलाना शुरू कर दिया, और वो बात बड़ी क्यूट लगती है, आहा! जो जितना तुतलाये वो उतना ज़्यादा सेक्सी हो गया। और ये पाउट (दोनों होंठ) निकालना शुरू कर दिया, जैसे छोटे बच्चे थूथन निकालते हैं। जाने पाउट है, जाने स्नाउट है। स्नाउट जानते हो न? सूअर का थूथन। हाँ वही, ‘थाना थाया’ वाला। तो कोई तुमको ये बनाएगा, तुम वैसे हो भी जाओगे, तुम सही में ये करना शुरू कर दोगे, ‘मैं तो थाना था रहा था।’ अभी हँसी आ रही है, यही बोलते नज़र आओगे।
प्र३: आचार्य जी, मेरा सोचना है कि जो यौन सम्बन्ध होता है, उसका कुछ-न-कुछ इस चीज़ से तो बहुत मेल है। ये कभी हो ही नहीं सकता था कि आप ओशो की बात कर रहे हो, और फिर आप अचानक से…
आचार्य: नहीं, हो सकता है। देखो, ऐसा नहीं है कि यौन सम्बन्ध सिर्फ़ दो मेंटली रिटार्डेड (मन्दबुद्धि) लोगों में ही बन सकता है। ये बात बिलकुल भी ठीक नहीं है कि जब तक आप दोनों का कम्बाइन्ड आईक्यू सिंगल डिजिट का न हो, तब तक आप आपस में सेक्स कर ही नहीं सकते। नहीं, ऐसा नहीं है। हायर ऑर्डर रिलेशनशिप्स (उच्च स्तर के सम्बन्ध) भी हो सकती हैं, और उनमें भी सेक्शुअल डायमेंशन (यौन आयाम) हो सकता है। बस ये है कि वो हमें आमतौर पर दिखायी नहीं देता। ऐसा कोई हायर ऑर्डर रिलेशनशिप हमें दिखायी ही नहीं देता, तो हमें लगता है कि सेक्शुअल रिलेशनशिप (यौन सम्बन्ध) सिर्फ़ बन ही बेबी और बेबा में सकता है। नहीं, ऐसा नहीं है।
कोई ये सोचकर न डर जाए कि अगर मैंने कोई ऊँचा सम्बन्ध बनाया, तो वो तो फिर पूरे तरीक़े से इन्टेलेक्चुअल और प्लेटोनिक (बौद्धिक और आदर्शवादी) हो जाएगा, उसमें फ़िज़िकल कॉन्टैक्ट (शारीरिक सम्पर्क) तो होगा ही नहीं। हो सकता है, पर ऊँचे रिलेशनशिप में फ़िज़िकल कॉन्टैक्ट भी फ़िर एक ऊँचाई लिए हुए होगा, उसमें भी एक लेविटी (हल्कापन) होगी, एक उद्दामता होगी।
वो फिर ऐसा नहीं होगा कि पूचू-पूचू करते-करते एक-दूसरे पर हाथ फेरना शुरू कर दिया, और बातें ये कर रहे हैं कि तुमने थाना थाया कि नहीं, और हाथ टटोल रहे हैं कि इसका बटन कहाँ है, खोल दूँ जल्दी से। ये जो आमतौर के रिश्तों में होता है कि बोलने तो ये गये हैं कि अले-अले तुम्हें बुखाल तो नहीं हो गया, और माथा टटोलकर भी देख सकते थे कि बुखार है कि नहीं, ये क्या टटोल रहे हो? बुखार होगा तो पूरे जिस्म में होगा। कहाँ हाथ घुसेड़कर उसका टेम्परेचर (तापमान) ले रहे हो?
तो ये सब न, ये जाहिल किस्म की घटिया रिलेशनशिप्स होती हैं, जिसमें दोनों ही पक्ष जानते हैं कि उद्देश्य सिर्फ़ ये है कि किसी तरीक़े से एक-दूसरे का माँस नोचकर खा लें। एक-दूसरे का जिस्म चबा लें — यही उद्देश्य है, और बाक़ी सब जो ये चाइल्डिश है, और ये सब है, ये उसके आसपास का एक प्रपंच, एक तरह का बहाना मात्र होता है।
प्र४: लेकिन मुझे इसमें तो बहुत ज़्यादा समाज का भी स्वार्थ दिखता है, कि अगर कोई बड़ा होता है, अगर कोई समझदार होता है, अगर आप कोई ऐसे रिलेशनशिप में पड़ गये जिसने आपकी आँखें खोल दीं, तो आप वो बहुत सारे काम करना भी छोड़ दोगे जो सोसाइटी आपसे करवाती है। और जितनी भी हमारी फ़िल्म वगैरह है, वो बहुत ज़्यादा इस चीज़ को ग्लोरिफ़ाई (गौरवान्वित) करती हैं कि आपका जो अदर हाफ़ (साथी) है, उसको होना चाहिए कि वो आपको खाने के लिए पूछ रहा है।
आचार्य: नहीं! खाने के लिए पूछने में क्या बुराई है? लेकिन दो बातों में बुराई है — पहली, कि सिर्फ़ खाने के लिए पूछ रहे हो, माने तुम्हारा ताल्लुक़ सिर्फ़ उसके शरीर की भूख से है, उसका मन वास्तव में क्या चाहता है, तुम ये नहीं पूछ रहे। तुम पूछ रहे हो, ‘थाना थाया कि नहीं।’ तुम्हें बस इससे मतलब है कि खाना तू खा ले ताकि तेरा शरीर चलता रहे। मन क्या चाह रहा है, दिल की वास्तविक तड़प क्या है, ये तुमने अभी जानने-समझने की अभी कोशिश ही नहीं करी।
एक बुराई ये है, और इससे भी बदतर बुराई इसमें है कि तुम शरीर की बात भी सिर्फ़ इसलिए कर रहे हो ताकि शरीर को नोच-खसोट कर खा सको। उदाहरण के लिए ये कि जानू ने खाना खाया कि नहीं खाया? अब खाना नहीं खाया और तुमको मौक़ा मिल गया, और झट से एक कटोरे में कुछ लेकर के—वो लेटी हुई है जानू—चढ़ गये उसके बिस्तर पर कि मैं अपने हाथों से खिला देता हूँ। बस हो गया अब खिलाने के बहाने... थोड़ी देर में कटोरा तो बग़ल के टेबल पर होगा।
इतनी भी ईमानदारी कहाँ होती है ज़्यादातर लोगों में कि वो कह सकें कि मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ शरीर की हवस है। शरीर की हवस भी तो इन्हीं बहानों से मिटायी जाती है न कि तुम्हें बुखार तो नहीं है, तुमने खाना खाया कि नहीं खाया, अरे! बहुत क्यूट लग रहा है तू, अच्छा, यहाँ आ जा, तेरे बाल सेट कर दूँ? तो ये बहुत ही घटिया दर्ज़े के रिश्ते होते हैं जिनमें ये सब चल रहा होता है।
अब न तो अच्छे साहित्य से परिचय है, न ऊँचे लोगों की बायोग्राफीज़, पढ़ी हैं, जीवन कथाएँ, तो ऊँचा रिश्ता हो कैसा सकता है, इसकी ज़्यादातर जवान लोगों को कोई कल्पना ही नहीं है; तो उन्हें लगता है कि ऐसा ही होता है।
जैसा अभी आप कह रहे थे न कि सेक्शुअल रिलेशनशिप का मतलब ही यही है कि जब दोनों एकदम अपना-अपना स्तर गिरा देंगे, तभी सेक्शुअल रिलेशनशिप बनेगा। एक हायर ऑर्डर सेक्शुअल रिलेशनशिप भी हो सकता है, इसका तो कोई अनुमान भी नहीं है, कोई कल्पना भी नहीं है ज़्यादातर लोगों को, क्योंकि कोई एक्सपोज़र ही नहीं है। न ऊँचे लोगों से कोई साथ है, संगत है, न पुराने बीते हुए ऊँचे लोगों की—मैं कह रहा हूँ—कहानियाँ पढ़ी हैं, और न ही ऊँचे दर्जे का लिटरेचर, साहित्य पढ़ा है। तो मन को जो कहानियाँ मिल रही हैं, रोल मॉडल्स (अनुकरणीय व्यक्ति) मिल रहे हैं, वो आस-पास के ही गये-गुज़रे लोग हैं सब, उनका ऐसा ही चक्कर है।
प्र४: शायद इसीलिए ही ऐसे रिलेशनशिप्स में शादियाँ भी होती हैं, तो आजकल डिवोर्स रेट भी काफ़ी बढ़ गया है।
आचार्य: और ज़्यादा होने चाहिए डिवोर्सिज़ , कोई बुराई थोड़े ही है। जिस तरीक़े के ये गठबन्धन हो रहे हैं, ये सर्वप्रथम होने ही नहीं चाहिए थे। इसमें ताज्जुब क्या है कि डाइवोर्स हो रहा है। डाइवोर्स नहीं होगा तो क्या होगा? दो लोग बेवकूफ़ी में मिला दिये गए हों, बिना किसी युक्ति के, बिना किसी समझ के, तो उनका रिश्ता चल कैसे जाएगा? जैसे तुम्हें बिजली के दस-पन्द्रह तार दिख रहे हों और तुम यूँ ही नशे में कोई दो तार उठाओ, बस यूँ ही रैंडम्ली, और उनको आपस में जोड़ दो, तो आग नहीं लगेगी तो और क्या होगा? बत्ती जलेगी?
प्र५: सर, आपने जो उदाहरण दिया, जैसा प्रश्न आया था कि जो कपलज़ होते हैं, वो इस तरह की बचकानी बातें करते हैं, एक-दूसरे के बुद्धि-स्तर को गिरा रहे होते हैं। लेकिन इस तरह के रिश्ते भी होते हैं जिसमें बाहर से अगर आप देखेंगे तो बड़ी बौद्धिक बातें होती हैं और एक तरह की बौद्धिक चर्चा भी होती है। लेकिन फ़िर भी देखकर लगता है कि प्रेम तो उनमें भी नहीं है एक-दूसरे के प्रति। तो इस तरह के रिश्तों में, जिनमें ऊँची-ऊँची बातें होती हों, मानसिक स्टार पर ऊँची बातें भी होती हों, लेकिन एक सूखापन है उनके रिश्तों में, तो वहाँ, उसमें क्या मिसिंग (कमी) है?
अचार्य: वास्तविक प्रेम फिर तीसरे तल की बात है। शरीर से नहीं होता प्रेम — इस बात पर मेरा ज़ोर था जब मैं जवाब दे रहा था। आपने जो मुद्दा उठाया वो ये है कि मन से भी तो नहीं होता है न प्रेम, विचारों से भी तो नहीं होता है न कि एक-दूसरे के विचार मिला रहे हैं और विचारों की ऊँची-ऊँची पतंगें उड़ा रहे हैं — उनसे भी नहीं होता, बिलकुल सही बात है। प्रेम विचारों से भी आगे की बात है, वो कोई और बात है। वो क्या बात है? वो उत्तर में बोली है।
कुछ ऐसी नीयत हो जाना अपनी कि अपने स्वार्थ से कहीं ज़्यादा ज़रूरी लगे दूसरे का हित। हम आमतौर पर ऐसे होते नहीं है कि अपने स्वार्थ से आगे हमें कुछ भी और लगे। अरे हमें अपना ही हित अपने स्वार्थ से बड़ा नहीं लगता, तो हमें दूसरे का हित कैसे अपने स्वार्थ से बड़ा लगेगा?
प्रेम का मतलब होता है — दूसरे की बेहतरी हो, दूसरे की तरक़्क़ी हो, ये चीज़ मेरे लिए ज़्यादा ज़रूरी हो गयी है अपनी सुख-सुविधा से, अपने स्वार्थ से। वो फ़िर आत्मा की बात होती है।
बिलकुल ठीक कहा कि बिलकुल हो सकता है कि दो लोग हों जो बहुत बौद्धिकतापूर्ण बातें करते हों, हाइली इंटेलेक्चुअल इंगेजमेंट रखते हों आपस में, लेकिन फ़िर भी रिश्ता रूखा हो, बिलकुल हो सकता है, बिलकुल मानता हूँ। बात नीयत की है, इरादा क्या है एक-दूसरे के साथ, क्योंकि इंटेलेक्चुअल इंगेजमेंट भी आन्तरिक रुप से बहुत हिंसक हो सकता है, इम्प्लिसिटली वायलेंट हो सकता है, तो वो प्रेम नहीं कहा जा सकता।
आप बहुत ज़बरदस्त इंटेलेक्चुअल डिस्कशन कर रहे हैं जिसमें पीछे अहंकार बैठा हुआ है, तो फिर प्रेम कहाँ है उसमें? वो बात बिलकुल ठीक है। बात नीयत की है, इरादे की है। दूसरा आगे बढ़े तरक़्क़ी करे, अपनी हमें परवाह नहीं है। और जो ये कह देता है, ‘अपनी हमें परवाह नहीं है,’ वो वास्तव में वहाँ पहुँच चुका होता है जहाँ उसे किसी परवाह की ज़रूरत है ही नहीं। क्योंकि जब तक तुम ऐसे हो जिसको अभी ज़रूरत है देखभाल की, परवाह की, तुम ये कह ही नहीं पाओगे कि भाई दूसरे का भला होना चाहिए, हमारी फ़िक्र छोड़ो।
जो ये कह पाये कि हमारी फ़िक्र छोड़ो, समझ लो कि अब वो कुछ हो ही गया है, कहीं पहुँच ही गया है। वरना उसको ये भाव उठता ही नहीं कि हमारी फ़िक्र छोड़ो — ये प्रेम है।
यहाँ पर जो सूक्ष्म विरोधाभास है वो समझ रहे हो? प्रेम कहता है, ‘हमें पीछे रखो, हम छोटे हैं। दूसरे को आगे रखो, दूसरा बड़ा है। दूसरे की बात करो, उसका भला हो रहा है कि नहीं हो रहा है।’ लेकिन वास्तव में प्रेम तब होता है जब तुम बहुत बड़े हो गये होते हो। प्रेम कह क्या रहा होता है? दूसरा बड़ा है, दूसरे की बात करो, दूसरा बड़ा है। लेकिन जो ये कह रहा है कि दूसरा बड़ा है, वो ये कह ही सिर्फ़ तब सकता है जब वो ख़ुद बहुत बड़ा हो गया हो। नहीं तो जो आम आदमी है, छोटे दिल वाला, वो तो अपने ही छोटे-छोटे स्वार्थों में फँसा रहता है, दूसरे को बड़ा कह ही नहीं पाएगा। तो नीयत की बात है। प्रेम में असली चीज़ क्या है? नीयत।
प्र५: आचार्य जी, इस तरह की क्वालिटी कई बार माता-पिता और बच्चों के रिश्तों में भी दिखायी देती है, जहाँ बच्चे वयस्क हो चुके होते हैं फिर भी माँ-बाप उनके साथ छोटे बच्चों जैसे व्यवहार करते हैं।
आचार्य: हाँ, बढ़िया किया कि ये बात उठा दी। ये तीस साल का हो गया है बिलकुल, हुरहुंड, कतई हुड़दंग, तीस साल,बत्तीस साल का, और वो जा रहा है तो उसकी मम्मी उसको ऐसे ही कर रही है जैसे अभी पाँच साल का हो। बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है, बहुत सावधान।
अगर पुराने उदाहरण देखोगे तो भारत में संस्कृति, परम्परा ऐसी रही है कि एक उम्र का हो जाने के बाद माँएँ भी अपने बच्चों को आप कह कर सम्बोधित करती थीं। या अगर उनके पास कोई पदवी या कोई उपाधि होती थी तो वो उस उपाधि का नाम लेकर सम्बोधित करती थीं, ‘तुम’ भी नहीं।
कहते थे कि एक इसकी उम्र थी जब ये ‘तुम’ ही कहलाने का हक़दार था। इस वक़्त इसकी जो उम्र हो गयी है—चेतना के तल पर—इसको ‘तुम’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैं इसको सिर्फ़ शरीर की तरह नहीं देखती। मैं माँ हूँ इसकी, शुभचिन्तक हूँ, मैं इसको देखती हूँ एक चेतना की तरह। और ये जो चेतना है अब वयस्क हो गयी है, इसको तुम कैसे बोलूँ मैं।
तो वो अपने बेटे को भी आप कह कर सम्बोधित कर रही हैं। अपने बेटे से भी एक वयस्क की तरह बात कर रहे हैं, अपने बेटे से भी एक हम-उम्र, एक समवयस्क की तरह बात कर रहे हैं, दोस्त की तरह बात कर रहे हैं। ये एक ज़िम्मेदार माँ का फ़र्ज़ हुआ। ये थोड़े ही कि उसको दुलरा रहे हैं, और ये सब कर रहे हैं, ये सब नहीं।
असल में प्रेम की हमारी परिभाषा ही बहुत अस्पष्ट और विकृत है। कारण उसका सीधा-सीधा ये है कि विज़डम एजुकेशन हमको दी नहीं गयी है। तो जो ज़िन्दगी में शब्द हम सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं, हमें उन्हीं के बारे में सबसे कम जानकारी है।
मैं, तुम, प्रेम, सम्बन्ध, हँसी, सुख, उदासी, यादें, अतीत, भविष्य — यही वो शब्द हैं न जिनका हम सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं अपनी भाषा में? और यही वो शब्द हैं जिनके बारे में हमें कुछ नहीं पता। और इसकी वजह है हमारी गयी-गुज़री शिक्षा प्रणाली। उसमें बदलाव चाहिए।
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