प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जैसा आपने बताया कि जो भी कुछ मन के दायरे में आता है वो सब छिलके हैं, यानि असत्य है। पर असत्यों को हटाने के लिए भी जो डिस्क्रिशन (विवेक) होता है या फ़िर जो कर्म होता है कि ये करना है ये नहीं करना है, वो भी मन से ही निकलता है। तो ये जो डिस्क्रिशन है, ये भी छिलका ही है क्या?
आचार्य प्रशांत: देखिए, दो रिश्ते हो सकते हैं आपके बीच और आपके नकाबों के बीच। एक रिश्ता ये हो सकता है कि आप आनन्द में, स्थिति अनुसार अपने नकाबों को होशपूर्वक पहनें। आप कहें, ‘मैंने अपनें नकाबों का चयन करा है।‘
नकाब तो पहनने ही हैं, जब तक शरीर है क्योंकि शरीर ही पहला नकाब है। तो नकाब तो पहनने ही हैं जिस दिन तक शरीर है लेकिन, ‘मैंने इन नकाबों का, होश में चयन करा है।‘ ऐसी सी बात है कि साहब नौकरी तो करनी है क्योंकि पेट चलाना है पर, ‘मैं कहाँ नौकरी करूँगा, इसका मैंने होश में चयन करा है।‘ और नौकरी और नौकरी एक बराबर नहीं होते।
आप ये नहीं कह सकते कि एक आदमी यहाँ काम करता है, दूसरा वहाँ काम करता है, दोनों एक बराबर हो गये, दोनों काम करते हैं, दोनों तनख़्वाह लेते हैं। साहब ज़मीन-आसमान का अंतर है! एक बेहोशी में काम कर रहा है और दूसरे ने होश में चयन करा है। और देखो, होश में जो भी काम करा जाता है शुरू में उसकी कीमत अदा करनी पड़ती है। तो उसने कीमत अदा करी है।
तो एक चीज़ ये होती है कि मैं अपने नकाबों का मालिक हूँ। ये पहला रिश्ता! हमनें कहा, ‘दो तरह के रिश्ते होते हैं।‘ ये पहला! ‘मैं अपने नकाबों का मालिक हूँ, मैंने उन्हें पहना है, मैं उन्हें उतार भी सकता हूँ; जैसी आवश्यकता होगी।
और दूसरा होता है कि मैं सोया पड़ा हूँ, मैं बेहोश हूँ और नकाब ही मेरी असलियत बन बैठे हैं। ये दूसरा रिश्ता खतरनाक है। ये नहीं होना चाहिए। समझ रहे हैं? बस इससे बचना है। जब नकाब आपके मालिक हो जाते हैं तब आपका जो असली मालिक है, वो खो जाता है।
नकाब हैं, आप हैं, अहम्, आई (मैं) और एक और है, तीसरा! जिसे सच्चाई बोलते हैं, जिसे आत्मा बोलते हैं। जब रिश्तेदारी आपकी और नकाबों की हो जाती है इस तरह कि नकाब आपके मालिक हैं, तो आपका और आत्मा का रिश्ता खत्म हो जाता है। अब नकाब मालिक हैं आप गुलाम हैं, उनके नचाए नाचिए।
दूसरी ओर मैंने कहा कि दूसरी सम्भावना है कि आप अपनी मर्ज़ी के अनुसार, अपने विवेक, अपने बोध, अपने डिस्क्रिशन (विवेक) के अनुसार अपनें नकाबों का चयन करें, चुनाव करें। वो कब होता है? आप नाकाबों के मालिक तब होते हैं जब सच आपका मालिक होता है। अब तीन आ गए समीकरण में। पहले कितने थे? दो थे।
पहले दो कौन थे? आप और आपके नकाब। अहम् और प्रकृति! अहम् और प्रकृति। या जीव और संसार, ऐसे बोल लो। मैं और दुनिया। जब सिर्फ़ मैं और दुनिया होंगे तो निश्चित रूप से इस समीकरण में दुनिया मालिक, आप नौकर होंगे। जब आपके देखे बस दो होंगे, बस दो होते हैं, यही द्वैत चल रहा है। कौन सा द्वैत? दो ही हैं, दुनिया है और साहब हम हैं।
जैसे कि ज़्यादातर लोग कहते हैं, ‘आई लिव इन अ वर्ल्ड (मैं एक दुनिया में रहता हूँ) और इसके अलावा कुछ है नहीं।‘ जब भी ये स्थिति होगी आपके देखे तो इस स्थिति में ये समझ लीजिए कि दुनिया मालिक, आप नौकर। आप मालिक, आप बादशाह सिर्फ़ एक हालत में हो सकते हैं कि दो न हों, तीन हों। दो होंगे तो आप बर्बाद हो गए। तीन होंगे तो आप बादशाह हो गए।
समझ में आ रही है बात? तीसरा कौन है? तीसरा वो है, जो है!
जैसे कोहरा गीत गा रहा हो, जैसे छाया शोर मचा रही हो, जैसे सपने में लड्डू खाया जा रहा हो; इतने असली हैं हम और संसार। सपने में लड्डू तो नहीं मिलता लेकिन फ़िर भी अनुभव सारे हो जाते हैं; दुख का भी! दर्द का भी! उत्तेजना का भी! लोग रो लेते हैं, लोगों की मौत हो जाती है सपने में। नकली है, लेकिन बहुत दर्द दे जाता है, दे सकता है।
तो कोई चीज़ नकली है इससे ये नहीं साबित हो जाता कि बिलकुल अर्थहीन है। सपना नकली होता है लेकिन तुमको नचा जाता है, घंटों। ज़िन्दगी भी हमारी ऐसी ही होती है। है तो नकली ही, पर हमें नचा जाती है। समझ में आ रही है बात? वो तीसरा आ जाता है जब तो फ़िर मज़े हो जाते हैं।
जैसे कि बच्चा छोटा हो कोई और उसको, जो घर के नौकर हैं, वही दौड़ाए रहते हों, पेले रहते हों। सब बिलकुल शैतान, बेईमान नौकर, वो छोटे बच्चे को दौड़ाए रहते हैं। उससे मज़े ले रहे हैं, उसकी खाने की चीज़ें थी, खा गए। उसको झूठ बोल दिया। ज़्यादा उसने कुछ बोला तो उसे कोने में लेजाकर थप्पड़ भी मार दिया।
ये तब होता है जब सिर्फ़ दो होते हैं। कौन? वो बच्चा और वो नौकर। बच्चा तुम हो, नौकर ये संसार है! बहुत बड़ा है, बहुत सारे नौकर हैं बड़े-बड़े से। दुनिया बहुत बड़ी लगती है न? हम तो छोटे से, दुनिया हमारे इर्द-गिर्द इतनी बड़ी। फ़िर बच्चा क्या करता है? बच्चा किसी तीसरे की गोद में जाकर बैठ जाता है, कौन? जो असली है! जो मालिक है! अब वो उसकी गोद में जाकर बैठ गया है बच्चा। अब ये सारे नौकर क्या करेंगे?
तुम मालिक के साथ बैठे हो, दुनिया मालिक के साथ-साथ तुम्हें भी सलाम करेगी। किसी बड़े आदमी के तुम साथ चल रहे हो, बाज़ार से निकल रहे हो, देखा, तुम्हें भी नमस्कार मिल जाते हैं। अकेले निकलो फ़िर क्या मिलेगा? फ़िर वो जूतों वाला पुरस्कार मिलेगा, नमस्कार नहीं मिलेगा। कहा, ‘अच्छा बेटा! बड़ी धौंस बता रहा था कल, उनके साथ आया था, अब बताते हैं तुझे, तू कौन है।‘
पूरी कथा का सार क्या है? बाज़ार में अकेले मत निकलना। लूटोगे तो लूटोगे, पिटोगे भी!
तुम बच्चे हो, दुनिया बाज़ार है। पप्पा के साथ निकला करो। लेकिन पप्पा के साथ अगर बहुत समय से रह रहे हो, बड़ी आदत पड़ गई है, जितनी बार बाज़ार गए हो, पप्पा के साथ ही गए हो। तो तुम्हें ये भ्रम हो सकता है कि दुनिया नमस्कार पप्पा को नहीं तुमको कर रही है। क्योंकि तुम जितनी बार गए हो तुम्हारा अनुभव ये ही रहा है कि लोगों ने नमस्कार कर दिया है। तो तुम्हें ये लगने लग जाता है कि क्या पता हमें ही करते हों। और धीरे-धीरे उमर भी तुम्हारी बढ़ रही है, होंठों के ऊपर मूंछें आ रही हैं, तो एक दिन तुमने कहा, ‘पप्पा को एक तरफ़ रखो, हम ज़रा बाज़ार अकेले घूमकर आएँगे।‘
भई, अब किशोर हो रहे हो तुम, टीनेजर (किशोर), आज की भाषा में निब्बे बन रहे हो। तो निब्बा बहादुर निकल पड़े बाज़ार में अकेले घूमने और वहाँ जो उनका स्वागत हुआ जूतों से, पूछो नहीं। धौंस बता रहे थे इधर-उधर, ऐसा है, वैसा है। लोगों ने कहा, ‘आओ, तुम्हें बताएँ, तुमको आज मौसम कैसा है।‘
समझ में आ रही है बात? तीन!
उस तीसरे से पूछा जाता है। अपने नकाबों से पूछकर ज़िन्दगी के फ़ैसले मत कर लेना। जो असली मालिक है, जो बाप है, जो पूछना है उससे पूछो। फ़िर सब तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे। दुनिया अनुगमन करेगी। मौज रहेगी।
“जब नकाब आपके मालिक हो जाते हैं, तब आपका जो असली मालिक है, वो खो जाता है। आप नकाबों के मालिक तब होते हैं, जब सच आपका मालिक होता है।”