क्या सनातन धर्म सबसे पुराना धर्म है?

Acharya Prashant

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क्या सनातन धर्म सबसे पुराना धर्म है?

प्रश्नकर्ता: सबको प्रणाम। आज की इस धर्म चर्चा में आपका स्वागत है। आज हमारे बीच में एक ऐसी विभूति या कहें शख्सियत आचार्य प्रशांत जी हैं। आपके बारे में मैं थोड़ा सा बताना चाहूँगा। आप बहुत ही ज्ञानी और पढ़े-लिखे एक आचार्य हैं। इन्होंने आइआइटी से इंजीनियरिंग की, आइआइएम से एमबीए किया, सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा भी पास की। फिर बिज़नेस में भी कुछ संस्थाओं की मदद की। परन्तु फिर भी जो जिज्ञासा आपके मन में शायद बचपन से ही वेदों के प्रति थी, उनके बारे में शोध के करने के बारे में, धर्म के बारे में जानने की रही होगी, उसके कारण आज आचार्य जी पूर्णकालिक रूप से धर्म की सेवा करने में रत हैं, लगे हैं; देश और समाज को तथ्यों के आधार पर एक मार्गदर्शन देते हैं।

ऐसे आचार्य जी का, आपका स्वागत है। हम आपके बहुत आभारी हैं।

आचार्य जी, ये प्रश्न बहुत से लोगों के मन में आता है कि असली धर्म क्या है। और बहुत से लोग एक ही परिवार में रहते हुए भी, कोई किसी प्रकार की साधना करता है, कोई किसी प्रकार की पूजा करता है, कोई कुछ करता है। तो बहुत दुविधा है लोगों के मन में कि सच्चाई, धर्म की सच्चाई क्या है?

आचार्य प्रशांत: इतने तरह के जीव होते हैं, मनुष्यों के अलावा भी करोड़ों-अरबों प्रजातियाँ हैं, लेकिन उनके सन्दर्भ में हम कभी भी ‘धर्म’ शब्द की बात नहीं करते। तो पहली चीज़ तो हम ये ग़ौर करते हैं कि धर्म जो कुछ भी है, लागू सिर्फ़ मनुष्य पर होता है।

प्र: बिलकुल ठीक।

आचार्य प्रशांत: शेर के लिए, हिरण के लिए, पेड़-पौधे के लिए या हवा के लिए, पानी के लिए धर्म शब्द बेतुका हो जाएगा, एब्सर्ड हो जाएगा। उनके पास उनकी प्रकृति है और वो प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं, आचरण करते हैं। और उनसे न तो कोई अपेक्षा रखता है कि अपनी प्रकृति छोड़ दो, न उनकी प्रकृति का पालन करने पर उनकी प्रशंसा या निन्दा करी जाती है।

शेर यदि हिरण को मारता है, तो हम उसको हिंसा नहीं कह सकते, वो उसकी प्रकृति है। न हम ये कह सकते हैं कि शेर को भी किसी धर्म का पालन करना चाहिए और जीव हत्या नहीं करनी चाहिए।

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: इसी प्रकार जितने भी प्रकृति में तत्व हैं मनुष्य के अलावा — जड़, चेतन, सारे — सब-के-सब अपनी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार ही गति करते रहते हैं। और वहाँ मामला एकदम सुलझा हुआ है, वहाँ कभी कोई समस्या ही नहीं है।

प्र: कोई कंफ़्यूज़न भी नहीं है।

आचार्य प्रशांत: कोई कंफ़्यूज़न नहीं है, कोई समस्या नहीं है — पानी की प्रकृति है बहना नीचे की ओर; भाप की प्रकृति है उठना ऊपर की ओर; खरगोश घास ही खाएगा और बाघ माँस ही खाएगा। तो उसमें कहीं कोई समस्या ही नहीं है। मनुष्य अकेला है जिसके सामने ये प्रश्न आता है कि मैं क्या करूँ, कैसे जियूँ। मनुष्य अकेला है जो बेचैन है। मनुष्य अकेला है जो पूछता है कि मैं हूँ कौन, मेरा जन्म क्यों हुआ है और मैं क्यों आया हूँ यहाँ पर, ये जगत, ये चीज़ क्या है। तो प्रश्न की शुरुआत हुई थी कहने से कि धर्म क्या है, और हमने पूछ लिया कि धर्म किसके लिए है — *फॉर हूम*।

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: तो धर्म सारा-का-सारा मनुष्य के बेचैन मन के लिए है। वो बेचैनी अस्तित्व में कहीं और पायी ही नहीं जाती जो बेचैनी मनुष्य में रहती है। हम विशेष हैं, वो हमारा सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी है कि जो बेचैनी मनुष्य के मन में रहती है, वो और कहीं नहीं पायी जाती। पशुओं को आप उनकी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार आहार और चीज़ें दे दीजिए, वो अपना सन्तुष्ट पड़े रहते हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं ज़िन्दगी में। लेकिन मनुष्य का मन कुछ तलाश रहा है।

धर्म का अनिवार्य सम्बन्ध उस तलाश से है। और क्या तलाश रहा है हमारा मन? अगर बेचैन है हमारा मन तो स्पष्ट सी बात है, चैन तलाश रहा है। अशान्त हैं तो शान्ति तलाश रहे हैं, उलझन में हैं तो सुलझाव तलाश रहे हैं, समस्या में हैं तो समाधान तलाश रहे हैं। और ये सारे ही जो शब्दों के जोड़े हैं, ये इशारा एक ही ओर को कर रहे हैं — कि मन को कुछ चाहिए, मन अपूर्ण है, अतृप्त है, और मन को एक पूर्णता चाहिए, तृप्ति चाहिए।

प्र: तो आचार्य जी, क्या ये अतृप्ति कहें या उसको जो असन्तुष्टि है, क्या वो मनुष्य के अपने कर्मों के कारण पैदा होती है — असन्तुष्टि, विवाद, चिन्ता इत्यादि-इत्यादि?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो जो मनुष्य की शारीरिक संरचना है, सीधे-सीधे वहीं से आ रही है।

प्र: अच्छा!

आचार्य प्रशांत: वो असन्तुष्टि अगर एक चीता या एक खरगोश, या एक नारियल का पेड़ अनुभव नहीं करता, तो इसमें उसके कर्म की कोई बात नहीं है। इसमें उसकी जो प्राकृतिक व्यवस्था है, जो उसकी दैहिक संरचना है, बात उसकी है। देखिए, मनुष्य का बच्चा पैदा होते ही रोता है। हमें कोई न भी सिखाये परेशान होना, हम तब भी परेशान रहेंगे। जो कौतूहल, जो उत्सुकता हमारे पास है वो अन्य जीवों में पायी ही नहीं जाती।

तो हमारी जो शारीरिक संरचना ही है, हमारा जो मस्तिष्क ही है, वही ऐसा है कि हम सिर्फ़ शरीर होकर के और खाकर-पीकर या प्रजनन करके सन्तुष्ट नहीं रह पाते, हमें अर्थ चाहिए। हमें समझना है, हमें जानना है। उस जानने की अभिलाषा का नाम ‘धर्म’ है। मुझे जानना है और मैं अगर अपनेआप को जानने से वंचित करूँगा, तो मैं अधर्मी हो गया।

मुझे शान्ति चाहिए, पर मैं जीवन ऐसा जियूँगा जो अशान्ति की बुनियाद पर खड़ा हो, तो मैं अधर्मी हो गया। समय में जो कुछ भी घट रहा है, वो मुझे कभी तृप्त नहीं कर पाता क्योंकि कुछ आता है तो कुछ चला जाता है। मुझे निरन्तर उसकी तलाश है जिस पर पूरा भरोसा किया जा सके, जो नित्य हो, जो कभी बदले नहीं, जिसके सम्बल पर खड़ा हुआ जा सके।

अगर मैं फिर भी, जो जगत की क्षणभंगुर चीज़ें हैं, आवत-जावत जो खेल है सारा, मैं सिर्फ़ उसमें ही लिप्त रह जाऊँ, तो ये अधर्म हो गया। धर्म है अपने आप को वो देना जिसकी आपको गहनतम अभिलाषा है, और हम सबको कुछ है जो चाहिए। जो चाहिए वो प्रकृति में आसानी से मिलता नहीं, क्योंकि अब तो बाज़ार पटे हुए हैं हज़ार तरह के उत्पादों से और सेवाओं से।

मनुष्य एक तरीक़े से आज जितना समृद्ध है, उतना इतिहास में कभी भी नहीं था। लेकिन उससे हमारी बेचैनी चली तो नहीं गयी, उससे तो हम ये पा रहे हैं कि?

प्र: और बढ़ती जा रही है।

आचार्य प्रशांत: बढ़ती जा रही है। मानसिक तनाव और बीमारियाँ और बढ़ ही रहे हैं, तो कुछ विशेष है जो हमको चाहिए। उस विशेष की तलाश का ही नाम ‘धर्म’ है।

प्र: ये आचार्य जी, बड़ा अच्छा कहा आपने। जैसे कहा, ‘चाहिए’, तो चाहत तो आचार्य जी, बचपन में जैसे बच्चा पैदा होता है, तो रोते-रोते पैदा होता है। उसको चाहिए, क्योंकि उस समय में उसको माँ से पोषण चाहिए, हवा चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। उसके बाद और बढ़ता है तो कुछ-न-कुछ चाहिए। सारी उम्र हम चाहते रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जीवन भर चाहते ही रहते हैं।

प्र: तो क्या वो डिज़ायर (इच्छा) के प्रति क्लिंगिंग या उसके प्रति आसक्ति, उसके कारण से ये समस्याएँ हैं क्या?

आचार्य प्रशांत: हमें चाहिए, लेकिन अगर हम अपनेआप को वो न दें जो हमें सचमुच चाहिए, और कुछ और देते रहें तो धर्म नहीं हुआ न?

प्र: वो धर्म नहीं हुआ। जी, ठीक है।

आचार्य प्रशांत: भाई, मुझे प्यास लगी है और मैं अपनेआप को पकौड़ा दूँ, खीर दूँ, कोई पकवान दूँ।

प्र: उससे कोई अर्थ नहीं है, मुझे तो पानी चाहिए।

आचार्य प्रशांत: मुझे तो पानी चाहिए। समस्या ये है कि हमें प्यास का तो अनुभव होता है, लेकिन हमें ये ज्ञान नहीं होता कि वो प्यास सचमुच मिटेगी किससे। तो इसलिए हम ज़िन्दगी भर चाहत का खेल खेलते रहते हैं। कभी ये पकड़ते हैं, कभी वो पकड़ते हैं, पचास चीज़ों में हाथ डालते हैं, ये आज़माते हैं, अनुभवों में डूबते-उतराते रहते हैं। इस चीज़ का अनुभव ले लो, क्या पता प्यास मिट जाए!

और थोड़ी देर के लिए प्यास मिट भी जाती है, ऐसा नहीं है कि नहीं मिटती। कोई बहुत ही आपको तृप्तिदायक अनुभव हो, तो मन थोड़ी देर के लिए तो ऐसा हो ही जाता है कि वाह, तर गये!

प्र: जी, ऐसा अनुभव होता है।

आचार्य प्रशांत: अनुभव होता है, लेकिन वो अनुभव फिर चला जाता है और पीछे फिर एक रिक्तता छोड़ जाता है।

प्र: पर आचार्य जी, आम व्यक्ति जो इतना अध्यात्म में या इन विषयों में जानकार नहीं है, वो तो देखता है साधु-सन्तों की तरफ़, जो टीचर हैं, अध्यापक हैं, उनसे प्रश्न पूछता है। वो दस लोगों से प्रश्न पूछता है, तो उनको आठ अलग-अलग चीज़ें मिलती है। तो उसमें वो कैसे निर्णय करे कि ये धर्म है और यही चीज़ मुझे चाहिए, और यही, इसी दिशा में चलना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: देखिए, धर्म के दो पंख होते हैं — एक पंख होता है ‘विद्या’ का, और एक होता है ‘अविद्या’ का। एक पंख होता है कि जाओ और ज्ञानियों के पास बैठकर के ज्ञान प्राप्त करो या उनकी लिखी किताबें वगैरह पढ़ो, या जो परम्परा से ज्ञान चला आ रहा है, तुम उसको अर्जित करो, एक तो पक्ष ये होता है धर्म का।

प्र: जी, बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: लेकिन जो दूसरा पक्ष होता है, वो बहुत आवश्यक होता है और वो अक्सर उपेक्षित रह जाता है। दूसरा पक्ष होता है — अपने दम पर जीवन को जानना सीखो, जीवन का अवलोकन करो, अपने अनुभवों को देखो। तुमने ऐसा करा, पूछो, ‘इससे मिला क्या?’ तुमने कोई ग़लती करी, तुम्हें कष्ट हुआ, पूछो कि क्या तुमने वो ग़लती पहली बार करी है जीवन में या तुम पुरानी ही ग़लतियों को नये-नये रूपों में दोहरा रहे हो।

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: तो ये दोनों ही काम करने पड़ते हैं। इसे ज़मीन की भाषा में बोल देंगे — सत्संग और स्वाध्याय।

प्र: दोनों ही आवश्यक हैं?

आचार्य प्रशांत: दोनों ही आवश्यक हैं। एक तो ये है कि जितने मिल सकें, जिनसे पूछा जा सकता है, उन सबसे पूछो। और दूसरा स्वाध्याय है, पर स्वाध्याय का मतलब ये भी नहीं कि अकेले में बैठकर किताब पढ़ रहे हो। स्वाध्याय का जो और मौलिक अर्थ हुआ, वो ये हुआ कि अपनी ही ज़िन्दगी का अवलोकन करो। अपनेआप खड़े हो जाओ और तटस्थ होकर के देखो कि ये दुनिया कैसे चल रही है; ज़िन्दगी से सीखो, ज़िन्दगी से सवाल पूछो।

प्र: जी, बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: और जब ये दोनों चीज़ें होती हैं, तब जाकर के धर्म घटित होता है।

प्र: बड़ी अच्छी बात कही आचार्य जी आपने।

मैं अब आपके लिए प्रश्न पूछ रहा हूँ (दर्शकों को सम्बोधित करते हुए), तो शायद साधारण रूप से प्रश्न पूछूँगा। आचार्य जी शायद मुझे समझे भी कि मैं ज़्यादा जानते नहीं हूँ, परन्तु फिर भी आपके लाभ के लिए।

एक साधारण रूप से आचार्य जी, जब आपने कहा, सत्संग भी आवश्यक है और स्वाध्याय भी आवश्यक है। दोनों बातें ठीक हुईं और इन दोनों के मिश्रण से ही धर्म उदित होता है। लेकिन जब एक साधारण व्यक्ति सत्संग के लिए किसी ज्ञानी पुरुष के साथ बैठता है, तो वो कहते हैं कि भई, सनातन धर्म ही तुम्हारा धर्म है।

और आज के युग में, मुझे नहीं पता कब से ये हुआ, सनातन धर्म को केवल मन्दिरों में मूर्ति पूजा के साथ जोड़कर देखा जाती है। जो व्यक्ति मूर्ति पूजा करता है, जो हरिद्वार, ऋषिकेश में जाकर स्नान करता है इत्यादि-इत्यादि, उसी को सनातन धर्म मान लिया। जबकि मैंने आपकी भी कुछ चीज़ें सुनी हैं, आपने सनातन की बड़ी अच्छी व्याख्या की है। तो एक बार हमारे दर्शकों के लिए ये बताएँ कि सनातन का धर्म के साथ क्या सम्बन्ध है।

आचार्य प्रशांत: मन जब से रहा है, तब से वो प्यासा और व्याकुल ही तो रहा है न?

प्र: जी, ठीक, वो तो तय है।

आचार्य प्रशांत: तो समय की पूरी धारा में, क्योंकि जब हम सनातन बोलते हैं तो उससे आशय होता है ऐसी चीज़ जो समय में शुरू और ख़त्म न होती हो।

प्र: बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी ऐसा हो कि समय में उसका आदि-अन्त न हो, तो सनातन का उससे सम्बन्ध है। तो जब से समय शुरू हुआ है, मनुष्य के लिए, और आज तक, और जब तक काल की धारा बहेगी हमारे लिए, तब तक मनुष्य का मन तो उपद्रव में ही रहेगा, अपूर्ण ही रहेगा और कहें तो कलपता रहेगा। जो आदिमानव था, आप अगर पढ़ें तो उसके ऊपर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शोध हुए हैं।

और वहाँ भी यही बात निकलकर आ रही है कि वो भी कुछ तलाश रहा था, वो भी बस इससे सन्तुष्ट नहीं था कि शिकार कर आया, जोड़ा बना लिया, समूह बना लिया, अपनी सुरक्षा कर ली और जीवन यापन कर लिया।

वो न जाने क्या कर रहा था! वो अपनी गुफाओं की दीवारों पर कुछ उकेर रहा था, वो जो लोग मरने लग जाते थे, उनके शरीरों को देखता था, कई बार उनसे जुड़ी चीज़ों का संग्रह करने की कोशिश करता था।

प्र: ऐसा पढ़ने में आता है।

आचार्य प्रशांत: है न?

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: और उसके प्रमाण मिलते हैं, और ये सब काम पशु कभी भी नहीं करते। तो मनुष्य बेचैन हमेशा से रहा है। थोड़ा और आगे आइए, जबसे हमने भाषा विकसित कर ली और जब से हमारा किसी प्रकार का संग्रहित इतिहास मिलता है, तो उसके अनुसार हम लड़ रहे थे या हम राज्य में व्यवस्था कर रहे थे। आप पुराने राजाओं को पढ़ते हैं, हम जिन मुद्दों पर तब लड़ रहे थे, उन्हीं मुद्दों पर आज भी लड़ रहे हैं और शायद आगे भी वही मुद्दे चलते रहेंगे। हाँ, लड़ने के तरीक़़े बदल गये हैं। हम जैसे तब अपने स्वार्थ के लिए सन्धियाँ कर लेते थे, वैसे ही हम आज भी अपने स्वार्थ के लिए सन्धियाँ कर लेते हैं, गठबन्धन बना लेते हैं और वही आगे भी चलता रहेगा।

तो क्या चीज़ है जो समय की धारा में नहीं बदल रही है? मन की बेचैनी। तो सनातन धर्म है कि ये जो बेचैनी है, ये निरन्तर है, इसको वो चाहिए जो काल की धारा के बाहर है। काल की धारा में, मतलब जब से समय शुरू हुआ है तब से पूरा आज तक, और आगे भी, पूरे इतिहास में और आगे भविष्य में, मन बेचैन है। और मन बेचैन है ज़रूर ही आवश्यक रूप से किसी ऐसी चीज़ के लिए जो काल की धारा से बाहर की है, जो पहचानी नहीं जा सकती, जो जानी नहीं जा सकती। और चूँकि वो जानी नहीं जा सकती, इसलिए मिलती ही नहीं है इस धारा में।

आचार्य प्रशांत: नदी की धारा में वो चीज़ कैसे मिलेगी जो नदी के तट पर है? नदी के तट पर है, वो धारा में कैसे मिलेगी? तो सनातन धर्म है — शाश्वत खोज मनुष्य की, उस वस्तु की जो कालातीत है।

हमारी एक शाश्वत, अनवरत खोज है और वो जो खोज है, वो किसी पन्थ विशेष या समुदाय विशेष के ही लोगों की नहीं है, वो मनुष्य मात्र की है। तो नहीं फ़र्क पड़ता कि वो जो पुराना आदमी था, वो यूनान का था कि भारत का था, कि चीन का था, कि मेसोपोटामिया का था, वो था तो आकुल ही, वो था तो व्यग्र ही।

और जैसे-जैसे हम पाते हैं कि विचार ने भारत में जड़ पकड़ी और फिर विस्तार पाया, उसी के समक्ष पाते हैं कि ग्रीस में भी वैसे ही विचार हो रहा था और लोग सोच रहे थे। और कई बार तो हैरत होती है कि लगभग वही मुद्दे, जिन मुद्दों पर भारत में विचार हो रहा था, लगभग बिलकुल उसी समय पर ग्रीस में भी उन्हीं मुद्दों पर विचार हो रहा था। तो मनुष्य का मन सोचना चाहता है, समझना चाहता है। उस सोच को उसके परिणाम तक, निष्पत्ति तक पहुँचाना ही सनातन धर्म है।

प्र: तो आचार्य जी, ये फिर जो बात हम कहते हैं कि भगवान बुद्ध ने मोक्ष प्राप्त किया, आज भी बहुत से साधु-सन्त मृत्यु प्राप्त करते हैं तो उनके अनुयायी उनको बहुत अच्छे रूप से सजाते हैं, उनकी अर्थी को कहिए या जो भी कहिए, और सब मानने लगते हैं कि उनको मोक्ष प्राप्ति हुई है। तो ये सब क्या है आचार्य जी?

आचार्य प्रशांत: मोक्ष इतना सस्ता नहीं है कि मरने से मिलेगा! तो मोक्ष और मुक्ति तो जो सबसे बड़ा मूल्य है उसको चुकाकर के मिलते हैं। ये हमारी समझ का फेर है कि हम श्मशान को मोक्ष धाम बोल देते हैं और जो शव वाहन होता है उसको हम लिख देंगे कि ये ‘मुक्ति रथ’ है।

प्र: हाँ, मुक्ति रथ सब जगह ही लिखते हैं।

आचार्य प्रशांत: उसको लिख देते हैं ‘मुक्ति रथ’ है। शव वाहन है वो ‘मुक्ति रथ’ है, श्मशान ‘मोक्ष धाम’ है। और कोई मर जाता है तो हम कह देते हैं कि अब ये ब्रह्मलीन हो गये या निर्वाण को प्राप्त हो गये या मोक्ष हो गया। इतना आसान नहीं है मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण या ब्रह्मलीनता। इतना आसान थोड़े ही हैं कि बस शरीर गिरेगा और मुक्त हो जाएँगे।

तो भारत ने इस विषय में बहुत अनूठी बात जानी है। वेदान्त इसीलिए पूरे विश्व में पूज्य है कि मुक्ति अगर मिल सकती है, तो बस जीते जी मिल सकती है। और यही जीवन का उद्देश्य है कि जीते जी मुक्त हो जाओ।

प्र: बड़ी अच्छी बात!

आचार्य प्रशांत: जीते जी मुक्त हो जाओ।

प्र: ये बड़ी अच्छी बात कही है आचार्य जी। तो ये क्या हम माने कि वेदों में हमें ये दिशा बताई गयी हैं कि ये मुक्ति का रास्ता है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल।

प्र: तो वेदों को क्या हम धर्मग्रन्थ कहेंगे या वैज्ञानिक ग्रन्थ कहेंगे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, विज्ञान तो ज्ञान को पाने का एक तरीक़ा है, एक क़ायदा है, एक विधि है। विज्ञान क्या है? साइंटिफ़िक मेथड (वैज्ञानिक विधि)। वो क्या है? वो ये है कि तटस्थ रहकर के अवलोकन करो और परीक्षण करो।

प्र: जी, बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: और उसके आधार पर ज्ञान की उत्पत्ति होगी।

प्र: जी, बिलकुल ठीक।

आचार्य प्रशांत: पहले तो देखो प्रकृति को, और जब देखोगे तो उससे तुम्हारे मन में कुछ विचार आएँगे, कार्य-कारण को लेकर के कोई सम्बन्ध तुम हायपॉथिसाइज़ (परिकल्पना) करोगे, फिर उसको टेस्ट करो, उसका परीक्षण करो, ये विज्ञान है।

तो जिसको हम विज्ञान बोलते हैं, वो मटीरियल साइंस (भौतिक विज्ञान) है। और जिसको हम अध्यात्म बोलते हैं, वो एक तरह से मेंटल साइंस (मानसिक विज्ञान) या इनर साइंस (आन्तरिक विज्ञान) है। पर जो साइंटिफिक मेथड है, जो वैज्ञानिक विधि है, ठीक वैसे जैसे वो लगती है रसायन शास्त्र में या भौतिकी में, वैसे ही वो अध्यात्म में भी लगती है।

तो साइंस और स्पिरिचुआलिटी (अध्यात्म) ये कोई दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। देखिए, अगर आपको जानना हो, उदाहरण के लिए, एक पेड़ के बारे में, ठीक है न? अब आप वनस्पति विज्ञान में आ गये हैं, आप पेड़ के बारे में जानना चाहते हैं, तो आप कैसे जानते हैं? आप कहते हैं, ‘मैं देखूँगा क्या हो रहा है — अच्छा, पहले बीज था।’ फिर आप कहते हैं, ‘अब ये बीज उठा, अब इसमें मैं कोपले देख रहा हूँ। फिर मैं देख रहा हूँ कि अच्छा, जब बारिश हुई तो उस मौसम में इसमें ज़्यादा बढ़त हुई। और फिर मैंने देखा कि गर्मी के मौसम में वो एकदम ठहर सा गया और झुलस सा गया। वो इन्तज़ार कर रहा था कि बारिश हो।’ और फिर आपने देखा कि उसमें फल आ गये कुछ सालों बाद। ये सब आप ऑब्ज़र्वेशन (अवलोकन) से देख रहे हैं। और फिर आपने वही चीज़ उसी तरह के सब पौधों में होती देखी। और वहाँ से फिर आपका ज्ञान निर्मित हुआ। अब आप कह सकते हो कि मेरे पास ज्ञान आ गया है कि बीज के विकास की आगे की प्रक्रिया क्या होती है।

प्र: जी, बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: ठीक वैसे ही स्वयं को जाना जाता है, वही अध्यात्म है।

प्र: वेदों को अध्यात्म का ज्ञान कहेंगे, विज्ञान कहेंगे?

आचार्य प्रशांत: वेदों को आप कहेंगे आत्मज्ञान।

प्र: आत्मज्ञान।

आचार्य प्रशांत: वैज्ञानिक तरीक़े से ही आत्मज्ञान। असल में जिसको आप अध्यात्म कहते हो न, अध्यात्म स्पिरिचुआलिटी नहीं है, अध्यात्म का अर्थ ही आत्मज्ञान होता है — स्वयं को जानना। तो जिसको हम साइंस कहते हैं, वो जानती है जगत को, जगत को कि यहाँ जगत में क्या चल रहा है। कि यहाँ पर ये भौतिक जगत है, इसमें क्या चल रहा है; संसार में ये है, ऐसी चीज़ है, ऐसा होता है। फिर उसमें आप घुसते हैं तो अणु-परमाणु की खोज कर लेते हैं, या आप टेलिस्कोप (दूरबीन) लेकर बैठ जाते हैं तो दूर आकाशगंगाओं को देखना शुरू कर देते हैं। तो छोटी चीज़ को देखें, बड़ी चीज़ को देखें, ले-देकर आप देख तो रहे हैं भौतिक जगत को।

इसी तरीक़े से उसको देखने वाला यहाँ (सिर की ओर इशारा करते हुए) मौजूद है कोई। अध्यात्म कहता है, ‘जो देख रहा है, अब मुझे उसको जानना है।’ विज्ञान कहता है, ‘जो दिख रहा है मुझे, उसको जानना है।’ विज्ञान टेलीस्कोप लेता है, कहता है, ‘जो दिख रहा है, उसको जान रहा है।’ या माइक्रोस्कोप (सूक्ष्मदर्शी यन्त्र) लेता है, कहता है, ‘छोटी सी चीज़, बैक्टीरिया है, मुझे इसको जानना है।’

विज्ञान कहता है, ‘जो दिख रहा है, मुझे उसको जानना है।’ अध्यात्म कहता है, ‘जो देख रहा है यहाँ भीतर, उसको जानना है।’ लेकिन चाहे वो दृश्य हो बाहर और चाहे द्रष्टा हो भीतर, दोनों को जानने की विधि एक ही है। ये विधि है अवलोकन, परीक्षण, और कोई विधि नहीं है।

प्र: और आचार्य जी, ये जो जान रहा है, देख रहा है, क्या वो मैं नहीं हूँ?

आचार्य प्रशांत: वो तो मैं ही हूँ। उसी का नाम तो अहंकार है, वही तो अहम् हैं। वो जो कहता है, ‘मैं देख रहा हूँ, मैं द्रष्टा हूँ, मैं करता हूँ, मैं भोक्ता हूँ’, वही तो अहम् है।

प्र: आचार्य जी, तो वो अहम् ही कहीं हमारी जो वेदना कहें या जो बेचैनी कहें, उसका कारण है?

आचार्य प्रशांत: उसी को होती है, वो कारण नहीं है, वो भोक्ता है। वो ख़ुद ही भोग रहा है। हाँ, जब आप उसकी वेदना का अनुसन्धान करते हैं, तो आपको पता चलता है कि शायद उसकी तकलीफ़ का कारण कोई और है ही नहीं, वो स्वयं ही अपनी तकलीफ़ का, अपने कष्ट का कारण है। तो फिर इसको कैसे कहते हैं अध्यात्म में? कि दुखी ही दुख है। दुखी अपना दुख आप है। बीमार अपनी बीमारी स्वयं है।

बहुत सारी चीज़ें हम कह रहे हैं, अभी सुनने वालों को शायद पूरी तरह से स्पष्ट न हों।

प्र: नहीं, हमारे दर्शकों को शायद कम समझ में आएगा, लेकिन आगे चर्चा करते रहेंगे, आपका समय लेते रहेंगे, उसमें और स्पष्ट भी होगा। कोई बहुत सी बातें लोगों को समझ में आएँगी भी। परन्तु क्या कहेंगे आचार्य जी, कि यदि ‘मैं’ जो है, जिसको आपने ‘अहम्’ कहा, अगर वो द्रष्टा भाव से उस चीज़ को देखे, ‘मैं’ के भाव से न देखे, तब क्या वो दुख से दूर रह सकता है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, उसे तो सबसे पहले अपनी ही गतिविधि को देखना पड़ेगा। और जब वो अपनी ही गतिविधि को देखता है, तो वो पाता है कि वो है ही नहीं। सिर्फ़ प्रकृति के गुण हैं, समाज के संस्कार हैं और इन्होंने एक नाम पकड़ लिया है, ‘मैं’।

प्र: जी, बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: जब ये पता चलता है तो फिर वो मुस्कुरा उठता है, बोलता है कि मैं हूँ ही नहीं, तो मैं परेशान किस बात पर हो रहा हूँ। जो भी घटनाएँ घट रही हैं, वो घट रही हैं या तो मेरी शारीरिक संरचना के कारण, या मुझ पर जो सामाजिक प्रभाव पड़े हैं उनके कारण, या कि प्रकृतिगत संयोग जो हैं उनके कारण।

प्र: जी, बिलकुल ठीक।

आचार्य प्रशांत: तो ‘शरीर, समाज, संयोग,’ जो कि तीनों प्रकृति के ही अधीन हैं।

प्र: शरीर, समाज और संयोग।

आचार्य प्रशांत: तीनों जो प्रकृति के अधीन हैं। तो शरीर, समाज, संयोग, इनके कारण जो हो रहा है सो हो रहा है, मैं बेमतलब में कर्ता बना बैठा हूँ। मुझे लग रहा है कि मैं कर रहा हूँ। और मुझे क्यों लग रहा है, मैं कर रहा हूँ? क्योंकि मैं कर्ता बनकर आगे फल का भोक्ता बनना चाहता हूँ।

प्र: बिलकुल यही है।

आचार्य प्रशांत: तो आगे फल को भोगने के लालच में मैं आज न जाने कितने दुख उठा रहा हूँ।

प्र: ख़ुद ही दुखों का कारण बन रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: ख़ुद ही दुखों का कारण बन रहा हूँ — अज्ञान और कामना। और इन दोनों में भी जो ज़्यादा मौलिक है, मूलभूत है, वो ‘अज्ञान’ है।

प्र: तो दोस्तों (दर्शकों की ओर इशारा करते हुए), आपने समझा कि अज्ञान के वश ही हम, कोई भी जो चीज़ हमारे साथ घट रही है, जो हो रही है, उस अज्ञानता वश हम समझने लगते हैं कि ये मैं कर रहा हूँ, या मैं कर रही हूँ। और उसके कारण ही सब दुख और तकलीफ़ें आती हैं। ऐसा एक दिशा, इंडिकेशन (इशारा) आचार्य जी ने दिया।

आचार्य जी, ये सब बातें तो बड़ी अच्छी आपने दिशा बतायी हमें, लेकिन इन सब चीज़ों में ईश्वर की परिकल्पना कहाँ से हुई, कब हुई, कैसे हुई? क्या ईश्वर वाक़ई है? या है तो कैसे और क्यों उसकी परिकल्पना की गयी होगी?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो वैदिक धर्म है, उसका जो सर्वोच्च मन्तव्य है, बल्कि कहिए उसका जो एकमात्र प्राप्तव्य है, ऑनली डेस्टिनेशन (एकमात्र गन्तव्य), ऑनली ऑब्जेक्टिव, पर्पज़ (केवल मात्र उद्देश्य) है, वो ‘सत्य’ है, ईश्वर नहीं।

प्र: सत्य को प्राप्त करने की जो इच्छा है, उसके लिए जो कर्म किया जाए, उसके लिए जो प्रयास किया जाए, वही धार्मिक जीवन है?

आचार्य प्रशांत: वही धार्मिक जीवन है। तो वेदों का, उसमें मन्त्रों वाला भाग है, ठीक है? फिर किस विधि-विधान से अलग-अलग देवताओं को तृप्त किया जाए, वो भाग है, वो उपासना में आ जाता है। और फिर जो वेदों का दार्शनिक भाग है, ‘ज्ञानकांड’, वो उपनिषद् हैं।

तो उपनिषदों से आप पूछेंगे कि किसलिए हो, क्या चाह रहे हो, तो उपनिषद् कहेंगे, सत्य। ईश्वर नहीं।

प्र: ईश्वर नहीं कहेंगे।

आचार्य प्रशांत: उस सत्य के लिए दो और नाम हैं — ब्रह्म और आत्मा।

प्र: ये ‘ब्रह्म’ और ‘आत्मा’ सत्य के ही दूसरे नाम हैं?

आचार्य प्रशांत: सत्य के ही दो नाम हैं। और तीनों एक के बराबर दूसरे हैं। ‘ए’ बराबर ‘बी’, ‘बी’ बराबर ‘सी’।

प्र: अच्छा।

आचार्य प्रशांत: इसमें कहीं कोई भेद नहीं है। ब्रह्म-आत्मा-सत्य, ये तीनों एक हैं और धार्मिक जीवन का लक्ष्य है, अहम् — जो कि झूठ है, जो कि मिथ्या है — उसका विगलन, विसर्जन और सत्य में जाकर के समर्पित हो जाना। ये धार्मिक जीवन है, कुल-मिलाकर।

अब प्रश्न आपका ये है कि फिर मनुष्य ने ईश्वर की क्यों परिकल्पना करी। देखिए, हम अपनी आँखें खोलते हैं, हम इधर-उधर देखते हैं, तो हमें दिखाई देता है कि ये एक जगत है जो चल रहा है। हम कहते हैं, ‘चल रहा है, तो कोई चलाने वाला भी होगा।’

प्र: बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: ठीक है? अब अगर श्रीमद्भगवद्गीता के पास जाएँ, तो वहाँ हमें एक बड़ी अच्छी अन्तर्दृष्टि मिलती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति के गुण सारी गति कर रहे हैं, लेकिन जो शब्द प्रयोग करते हैं श्रीकृष्ण, ‘अहंकार विमूढ़ात्मा'। कहते हैं कि अहंकार से मोहित होकर के तुम ये सोचने लग जाते हो कि तुम कर रहे हो, जबकि वो हो स्वयं रहा है।

प्र: हो स्वयं रहा है।

आचार्य प्रशांत: हो स्वयं रहा है। जैसे साँस का चलना।

प्र: जी बिलकुल।

आचार्य प्रशांत: अब साँस के चलने में तो हमें दिख जाता है कि हम नहीं कर रहे हैं, ख़ुद ही हो रहा है या दिल के धड़कने में भी दिख जाता है। खाना पच रहा है, वो भी दिख जाता है।

प्र: आचार्य जी, वो भी बहुत लोग नहीं मानते। वो भी कहते हैं, ‘मैं ही साँस ले रहा हूँ (सभी हँसते हैं)।’ साँस स्वयं चल रही है, जबकि बहुत से लोगों को पूछो कि भाई, आप श्वास का आना-जाना, चलना जान रहे हो क्या? वो भी नहीं जानते।

आचार्य प्रशांत: तो इस दृष्टि से — अभी मैं चर्चा कर रहा था, कल-परसों ही, तो कर्मयोग के जो सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें श्लोक हैं, वो आपके प्रश्न का एकदम सटीक उत्तर हैं। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘देखो, जो कुछ हो रहा है वो प्रकृति के गुणों के अधीन स्वयं ही हो रहा है।’ स्वयं हो रहा है, प्रकृति कर रही है। लेकिन तुम कहते हो, ‘मैंने किया।’ और अपनेआप को कर्ता बनाकर के तुम झूठ-मूठ ही, एक ‘मैं’ का आविष्कार कर लेते हो जो है ही नहीं। जैसे कि गाड़ी स्वयं चल रही हो, पर आप जानते ही न हों कि गाड़ी स्वयं चल रही है, तो आप ये कल्पना कर लें कि यदि गाड़ी चल रही है, तो अन्दर उसमें एक चालक होगा-ही-होगा।

तथ्य ये है कि वो गाड़ी स्वयं चल रही है, कोई चलाने वाला नहीं है, वो गाड़ी स्वयं चल रही है। और श्रीकृष्ण — अध्याय तीन के सत्ताइसवें और अठ्ठाईसवें श्लोक आप देखेंगे, तो बड़ा आपको आनन्द आएगा — श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘गाड़ी स्वयं चल रही है भाई, कोई नहीं चला रहा। लेकिन तुम पॉज़िट करते हो, तुम कल्पना करते हो, एज़म्पशन करते हो कि यदि गाड़ी है, तो चालक होगा। तो इस कारण तुम एक ‘मैं’ का निर्माण करते हो जो फ़िक्टीशियस है, काल्पनिक है।’ ठीक इसी सिद्धान्त को लगाकर के तुम कहते हो, ‘ये चाँद-तारे भी तो चल रहे हैं, तो इनको चलाने वाला भी कोई होगा!’ जैसे आपने कहा कि दिल की धड़कन चलती है, तो हम कहते हैं, ‘मैं चला रहा हूँ', जबकि चला आप नहीं रहे हो।

प्र: नहीं चला रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: उसी तरह से चाँद-तारे भी चलते हैं। तो आप कहते हो, ‘वो भी चल रहे हैं, तो कोई चला रहा होगा।’ दिल की धड़कन का कर्ता आप बना लेते हो अहंकार को।

प्र: अपनेआप को।

आचार्य प्रशांत: और चाँद-तारों को चलाने वाला आप बना देते हो ईश्वर को। और श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘दोनों ही स्थितियों में चलाने वाला कोई नहीं है, प्रकृति स्वयं अपनी संचालिका है।’ अब अगर आपको प्रकृति को ही ईश्वर का नाम देना है तो ठीक है। फिर ठीक है। अगर आपको ये कहना है कि प्रकृति ही ईश्वर है, तो फिर ठीक है। लेकिन ये न कहिएगा कि प्रकृति का संचालक या रचयिता कोई ईश्वर है।

प्र: अच्छा, ये कोई नहीं है, ये मिथ्या है?

आचार्य प्रशांत: ये मिथ्या है। प्रकृति अपने आप में ईश्वर है, यहाँ तक ठीक है।

प्र: तो आचार्य जी, फिर एक बात और मुझे ध्यान में आती है। आज हम जब भी बात करते हैं, चाहे पश्चिम में जाऍं, चाहे भारत में भी, किसी के विषय में मान लीजिए। बहुत सी बातें होती हैं। श्मशान में जाते हैं किसी के मरने पर तो बड़ी चीज़ें सीखने को मिलती हैं। आपस में लोग चर्चा करते हैं कि कोई अच्छा व्यक्ति था, चला गया। बहुत ज़्यादा लोग होंगे तो आप समझेंगे कि लोकप्रिय व्यक्ति था। इसकी मय्यत में बहुत से लोग आये।

लोग बात करते हैं, ‘यार, ही वाज़ अ गॉड फ़ियरिंग मैन’ (वो ईश्वर से डरने वाला व्यक्ति था)। ये जो आपने अभी बात की, मैं उससे इसको जोड़कर के देख रहा हूँ और आपसे प्रश्न पूछ रहा हूँ। क्या केवल मनुष्य मात्र, मनुष्य जाति ईश्वर को इसलिए तो नहीं मान रही है कि उनको डर लगता है ‘ईश्वर’ नाम की किसी चीज़ से कि मेरे साथ कहीं बुरा न हो जाए?

इसीलिए क्या वो पूजा-याचना, अर्चना सब करता है? क्योंकि मैं समझता हूँ, यदि लोग आपकी बातें, ज्ञान सीखकर के गॉड लविंग (ईश्वर प्रेमी) हो जाएँ, गॉड फ़ियरिंग (ईश्वर से डरने) की जगह, तो शायद ज़्यादा अच्छा होगा। आप क्या दिशा देंगे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, भय बहुत प्राकृतिक परिणाम होता है अज्ञान का। जिस चीज़ को आप नहीं जानते, उससे डरना एकदम लाज़मी है, प्राकृतिक बात है; डर लगेगा-ही-लगेगा। जहाँ अज्ञान है, वहाँ डर है।

अब आपको पता तो है कि आप जानते नहीं, लेकिन आप अपने अज्ञान के ऊपर यूँही किसी काल्पनिक सिद्धान्त का मुखौटा लगा दो, कपड़ा पहना दो, इससे आपका अज्ञान हट तो गया नहीं, अज्ञान तो है ही।

प्र: हम दिखाना चाहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ।

आचार्य प्रशांत: स्वयं को ही दिखाना चाहते हैं। लेकिन आप जानते तो हो ही कि आप कुछ नहीं जानते, तो डर लगा ही रहता है। चूँकि हम जीवन को, जीव को और जगत को समझते ही नहीं है, इसलिए फिर हमको तमाम तरह की कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं। हम कितनी भी कल्पनाएँ कर लें, डर लगा ही रहेगा। वहाँ से फिर वो बात आती है, गॉड फ़ियरिंग।

इस पर सन्तों, ज्ञानियों ने एक बड़ी रोचक बात कही है। वो कहते हैं, ‘डरना तो तुम्हें चाहिए, इस बात से डरो कि कहीं अज्ञानी रहते हुए ही, बन्धन में रहते हुए ही जन्म न गँवा दो।‘

प्र: अच्छा, इसलिए डरो।

आचार्य प्रशांत: ‘इसलिए डरो कि जैसे पैदा हुए थे, कहीं वैसे ही न मर जाओ! पैदा तो तुम पशु की भाँति ही हुए थे और वही पशु की भाँति मर ही न जाओ, इस बात से तुम डरो!’

प्र: जी, ये अच्छी बात कही है।

आचार्य प्रशांत: तो सन्त कबीर, उदाहरण के लिए, कहते हैं, “भय पारस है जीव को, निर्भय हो न कोय।” वो कहते हैं, ‘भय बड़ी अच्छी चीज़ है।’

प्र: भय पारस है मनुष्य के लिए!

आचार्य प्रशांत: भय पारस है, निर्भय किसी को नहीं होना चाहिए। लेकिन वो सही भय होना चाहिए। वो भय ये नहीं होना चाहिए कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं जाएगी। वो भय ये होना चाहिए कि कहीं मैं चोर बने-बने मर न जाऊँ। ये दो अलग-अलग भय हैं।

प्र: ये दो अलग-अलग भय हैं, लेकिन एक-दूसरे के विपरीत हैं।

आचार्य: विपरीत हैं। एक भय ये है कि चोर तो मैं बना ही रहूँगा, मेरी नीयत ही ख़राब है और मुझे भय ये लगता है कि कोई मेरी चोरी पकड़ न ले। और दूसरा भय ये है कि एक जन्म मिला हुआ है और इस जन्म को क्या चोर बने-बने ही गँवा देना है! तो सन्तों ने आग्रह करा है कि तुममें सही भय पैदा हो। सही भय! और हमारा उल्टा खेल है, जो भय हमें लगना चाहिए, वो भय हमें लगता नहीं है और जो भय व्यर्थ का है, उसको हम पाले रहते हैं, उससे दबे रहते हैं।

प्र: ये एक बड़ी अच्छी बात बतायी आपने। तो इसीलिए आचार्य जी, ये भी कहेंगे क्या कि ब्रह्म, ईश्वर और देवता, ये तीनों अलग-अलग शब्द हम इस्तेमाल करते हैं।

आचार्य प्रशांत: बहुत अलग-अलग हैं।

प्र: तो क्या तीनों एक ही हैं या अलग-अलग रूप से, अलग-अलग, भिन्न हैं?

आचार्य प्रशांत: मन के पार, मन के न रहने पर, मन की कल्पनाओं से अतीत, कहीं आगे, जो एकमात्र सत्य है, उसको ब्रह्म कहते हैं। वो एकमात्र सत्य है।

प्र: एकमात्र सत्य को ब्रह्म कहते हैं।

आचार्य प्रशांत: ईश्वर की परिकल्पना की गयी है प्रकृति के रचयिता और संचालक के रूप में जिसकी अभी चर्चा हुई थी। ब्रह्म प्रकृति के पार का है, प्रकृति से परे जो है, उसको ब्रह्म कहते हैं। तो जहाँ ब्रह्म आता है, वहाँ पर ये बात साथ में आ ही जाती है कि प्रकृति ही मिथ्या है। प्रकृति के लिए ही दूसरा जो नाम है वैदिक, वो है माया।

प्र: उसको माया कहा है!

आचार्य प्रशांत: उसी को माया कहा गया है। तो यदि प्रकृति, माने ये पूरा संसार ही माया है, तो इसको रचने वाला असली कैसे हो सकता है? तो अगर आप अद्वैत वेदान्त में जाएँगे, तो वहाँ पर आचार्य शंकर सीधे यही बोलकर गये हैं। वो बोलकर गये हैं, ‘ब्रह्म पर जब माया आरोपित हो जाती है, तो इसको ईश्वर कहते हैं।‘

तो माने जीव को आराधना भी करनी चाहिए तो ब्रह्म की। लेकिन लोग ईश्वर की आराधना करना शुरू कर देते हैं। ठीक है? लेकिन कोई बात नहीं, अगर ईश्वर की आराधना शुरू करके फिर ब्रह्म आराधना तक जाया जा सकता है तो ठीक है। तो ईश्वर माने जिसका सम्बन्ध प्रकृति से है, ब्रह्म माने वो जो प्रकृति से कहीं आगे का है। और देवी-देवता सब कौन हैं? वो प्राकृतिक शक्तियों के प्रतिनिधि हैं, व्यक्ति रूप में।

व्यक्ति रूप में प्राकृतिक शक्तियों के जो प्रतिनिधि हैं, वो सब देवी-देवता हो गये। और कई बार प्रकृति की शक्ति को ही देवी के रूप में अभिव्यक्त कर दिया जाता है। कि समूची प्रकृति को ही देवी कह दिया जाता है।

प्र: तो क्या ये कहें आचार्य जी कि जैसे वनस्पति देवता, वर्षा के देवता को इन्द्र कह दिया?

आचार्य प्रशांत: हाँ, ये जो आप बोल रहे हैं, ये ऋग्वैदिक सिद्धान्त है, ऋग्वेद में ऐसा ही था। वहाँ पर जो आपके पूज्य थे, वो व्यक्तियों के रूप में नहीं थे। जब आप पुराणों पर आते हैं, और पुराण बहुत बाद के हैं, तो पुराणों में आप पाते हैं कि जिनको पूजा जा रहा है, वो सब व्यक्ति हैं, उन्होंने जन्म लिया है और उनकी मनुष्य रूप में आगे एक कथा है।

वेदों में जबकि आप जाते हैं जब, ख़ासकर जहाँ आरम्भ ही हो रहा है ऋग्वेद में, तो वहाँ पर जो प्रकृति की शक्तियाँ हैं, उनका पूजन हो रहा है ― अग्नि का, वरूण का, सूर्य का, इन्द्र का, मित्र का, इनका पूजन हो रहा है।

प्र: ये एक उसका एक प्रारूप है। तो ये आचार्य जी, जो हमारा स्वभाव बन गया कि ईश्वर की आराधना-पूजा करते हैं, इसके बजाय ब्रह्म की हम आराधना करें। आपने कहा कि ठीक है अगर ईश्वर की उपासना से शुरु करें, उससे फिर ब्रह्म तक जाया जा सकता है। तो आचार्य जी, हम अपने स्वभाव को किस प्रकार सही रूप से पहचानें? क्या ये कोई विधि है अपने स्वभाव को ठीक से पहचानने की?

आचार्य प्रशांत: स्वयं को देखकर के ही। हमारे ही भीतर आदतें हैं — एकदम ज़मीनी शब्द दे रहा हूँ। हमारे ही भीतर आदतें हैं, अब मैं उसको शास्त्रीय तौर पर वृत्ति भी बोल सकता हूँ, पर शायद सब लोग न समझें तो आदत बोल रहा हूँ। तो हमारे ही भीतर बहुत गहरी आदतें हैं और हमारे ही भीतर आदतों को तोड़कर के किसी और लक्ष्य के प्रति प्रेम भी है।

तो ये हमें अपने आप को देखकर पहचानना पड़ेगा, अपने ही विचारों को, कर्मों को, भावों को, प्रतिक्रियाओं को देखकर के कि कहाँ मेरी आदतों का खेल चल रहा है और कहाँ वास्तव में मेरे पास बोध है, प्रेम है और स्पष्टता है कि मुझे किस दिशा जाना है। तो स्वभाव तभी पता चल सकता है जब पहले आदतों का हम नकार कर पायें।

प्र: नकार कर पायें या उनका विश्लेषण कर पायें?

आचार्य प्रशांत: विश्लेषण कर पायें। नहीं तो क्या होगा कि जो आम तौर पर होता है सबके साथ, आप अपनी आदत को ही अपना स्वभाव बोल देते हो।

प्र: हाँ यही, आम बात आज के युग में यही है कि उसी को ही स्वभाव कहते हैं।

आचार्य प्रशांत: उदाहरण के लिए, अगर कोई जल्दी-जल्दी गुस्सा करता है तो हम कह देते हैं, ‘वो क्रोधी स्वभाव का है’, ये बिलकुल ग़लत व्याकरण है। ये बात आध्यात्मिक तौर पर बिलकुल ग़लत है कि अगर आप कहें कि कोई क्रोधी स्वभाव का है। किसी को कह देते हैं, ‘ये प्रेमी स्वभाव का है’, ये बिलकुल ग़लत बात है, ऐसे नहीं बोला जाता।

पर हमारी भाषा, हमारी संस्कृति ऐसी हो गयी है कि वो अध्यात्म से दूर छिटक गयी है और वो चीज़ फिर हमारी बोलचाल में भी परिलक्षित होती है। तो कोई क्रोधी है, ये बात उसकी प्रकृति की है, उसकी आदत की है या उसके ऊपर जो प्रभाव पड़ गये समाज से, उसकी है। ये उसकी आदत है, स्वभाव बिलकुल दूसरी चीज़ है।

स्वभाव क्या है? इस पर कुछ हम प्रश्न ले लेंगे तो उससे स्पष्ट हो जाएगा।

प्र: जी बताऍं।

आचार्य प्रशांत: कोई झूठा हो सकता है, एकदम झूठा आदमी, वो सबसे झूठ बोलता है दुनिया में।

प्र: उसकी आदत बन चुकी है, एक स्वभाव बन चुका है।

आचार्य प्रशांत: स्वभाव नहीं, आदत (प्रश्नकर्ता को टोकते हुए)।

प्र: जी, क्षमा चाहूँगा।

आचार्य प्रशांत: तो कोई बहुत झूठा आदमी है, वो दुनिया भर से झूठ बोलता फिरता है। लेकिन वो भी ये नहीं पसन्द करेगा कि उससे झूठ बोला जाए।

प्र: हाँ, दूसरा कोई उससे झूठ न बोले, ये वो कहेगा।

आचार्य प्रशांत: और ये बात दुनिया के एक-एक इंसान पर लागू होती है। कोई नहीं चाहता कि उससे झूठ बोला जाए बार-बार। तो इससे हमें हमारे स्वभाव के बारे में थोड़ा इशारा मिलता है। ज़रूर हमारे स्वभाव का सम्बन्ध झूठ से नहीं है, झूठ से नहीं है।

एक और उदाहरण ― कोई भी आदमी हो दुनिया का, छोटा-बड़ा, काला-गोरा, स्त्री-पुरुष, अमीर-ग़रीब कैसा भी। वो ये नहीं पसन्द नहीं करेगा कि उसको बेड़ियों में जकड़कर बन्धन में रखा जाए, यहाँ तक कि पशु भी नहीं पसन्द करते।

ज़रूर हमारे स्वभाव का सम्बन्ध बन्धन से नहीं है। बन्धन के विपरीत मुक्ति से है। हम आप बात कर रहे हैं, मैं भी ये चाहूँगा कि आपकी बात मुझे समझ में आये और आप भी चाहेंगे मेरी बात आपको समझ में आये। अगर आप जो बोल रहे हैं, मुझे समझ में ही नहीं आ रहा, तो मुझे उकबीक होगी, छटपटाहट होगी।

मैं भी जो बोल रहा हूँ, आपको समझ में नहीं आ रहा तो या तो आप ऊब जाओगे या भ्रमित हो जाओगे। जैसा भी होगा, आपको अच्छा अनुभव नहीं होगा। हम समझना चाहते हैं, हमें पसन्द नहीं आता अगर हमें ये सब चीज़ें समझ में नहीं आ रहीं। ज़रूर हमारे स्वभाव का सम्बन्ध बोध से है।

अगली बात, दुनिया का कोई आदमी पसन्द नहीं करता कि उससे घृणा की जाए, कोई उसे अपशब्द बोले, कटु बोले, नफ़रत करे। कोई भी नहीं, यहाँ तक कि जानवर भी पसन्द नहीं करते कि आप उन्हें दुत्कार दो। ठीक है? हर व्यक्ति प्रेम का प्यासा है। ज़रूर हमारे स्वभाव का सम्बन्ध प्रेम से है। और ये बात आज की ही नहीं है, किसी एक देश की, किसी जगह की बात नहीं है, ये तो काल के आरम्भ से ऐसा ही चल रहा है। हर परिस्थिति में यही है, ये तो जैसे एक नियम है कि हर आदमी सच्चाई की तलाश में है, हर आदमी मुक्ति की तलाश में है, हर आदमी प्रेम की तलाश में है। ये स्वभाव हैं हमारे। तो इसीलिए जानने वालों ने कहा, ‘सच्चिदानन्द’।

कोई भी व्यक्ति दुख भी पसन्द नहीं करता न? कोई नहीं मिलेगा आपको जो कहे, ‘मुझे दुख दो।’ आनन्द चाहिए हमको, आनन्द चाहिए। हमें सत्य चाहिए, हमें बोध चाहिए — सत्-चित्-आनन्द। और हमें आनन्द चाहिए, ये स्वभाव है हमारा। बाक़ी सब आदतें हैं, बाक़ी सब आदतें हैं उन्हें स्वभाव नहीं बोला जाना चाहिए।

प्र: तो ये कहेंगे कि जो चीज़ हमें चाहिए, हम जो अपेक्षा करते हैं, वही हमारा स्वभाव है।

आचार्य प्रशांत: वही हमारा स्वभाव है; स्व-भाव। वही हमारा स्वभाव है।

प्र: स्व-भाव। आदत और स्वभाव में…

आचार्य प्रशांत: बहुत अन्तर है।

प्र: पूरा अन्तर है।

आचार्य प्रशांत: बहुत अन्तर है, ज़बरदस्त अन्तर है।

प्र: तो आचार्य जी, क्या धर्म के भी कई प्रकार होते हैं? जिस प्रकार से ये स्वभाव और आदत में फ़र्क रहा, ब्रह्म और ईश्वर में फ़र्क हुआ। और भी कई जो चर्चाएँ की, उसमें अन्तर जो हमें समझ में आने लगा, तो क्या धर्म के भी कई प्रकार होते हैं?

आचार्य प्रशांत:: देखिए, स्थितियाँ बदलती रहती हैं। मैं कभी छोटा था, बेचैन तो मैं तब भी था। मैं आज इस उम्र का हो गया हूँ, मैं कल को और होऊँगा, मैं बेचैन तो तब भी हूँ। तो बहुत सारी चीज़ें बदलती रहती हैं, पर मानव मन की व्याकुलता तो नहीं बदलती न? वो तो वैसी-की-वैसी है। व्याकुल होने की वजहें बदल जाती हैं।

कल मैं इसलिए परेशान था कि मैं बहुत छोटा था। तो मुझे लगता था, सब मुझ पर रौब झाड़ते हैं। आज मैं इसलिए परेशान हूँ, मैं बड़ा हूँ। मुझे लग रहा है, सबकी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी है। परेशान होने की वजह बदल गयी, परेशान तो तब भी हूँ।

तो जब बीमारी एक ही बनी हुई है, तो धर्म भी तो एक ही है न! उस बीमारी के कारण अलग-अलग हैं, वो बीमारी अलग-अलग लोगों में अलग-अलग लक्षण लेकर के प्रस्तुत होती है, लेकिन मूल बीमारी तो एक ही है। तो धर्म भी एक ही है।

जीवन की कोई भी परिस्थिति हो, धर्म तो एक ही है — अशान्त मन को शान्ति की ओर ले जाना, मात्र यही धर्म है। पचास धर्म नहीं होते, पचास मान्यताएँ होती हैं। पचास धारणाएँ, कल्पनाएँ होती हैं, पचास प्रकार के आग्रह होते हैं, धर्म तो एक ही होता है।

धर्म एक ही है, क्योंकि मन की मूल दशा एक ही है। और क्या है वो मन की मूल दशा? व्यग्रता, बेचैनी, अज्ञान, अन्धकार! तो “तमसो मा ज्योतिर्गमय”, यही धर्म है। ये प्रार्थना है।

प्र: ये आपने समझा दोस्तों! आज आचार्य जी ने जो हमारी अज्ञानता है, उसके बारे में बताया कि धर्म केवल एक ही है और वो है अपनी अज्ञानता को ज्ञान की तरफ़ ले जाने का। तो इस चर्चा को फिर अभी आगे चालू रखेंगे।

आचार्य प्रशांत जी का भी अपना एक चैनल है यूट्यूब इत्यादि पर। उनका अपना ऐप भी है, उस पर भी आप उनकी धर्म चर्चा को सुन सकते हैं, उसको देख सकते हैं, उससे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आज के लिए केवल इतना ही, जल्दी ही फिर मिलेंगे। धन्यवाद, नमस्कार!

YouTube Link: https://youtu.be/FXf7FcIFc90?si=adYYPpjWE0aGr-47

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