बाहरी प्रभाव सदा रहेंगे || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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बाहरी प्रभाव सदा रहेंगे || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: पहला हिस्सा है सवाल का कि हम वही सब कुछ तो जानते हैं जो हमें बचपन से अब तक बताया गया है। और दूसरा हिस्सा है, कि अगर यह सब ना हो तो होगा क्या?

अंकित, पहली बात यह कि जो कंडीशनिंग है तुम्हारी वह दो माध्यमों से होती है।

पहला, फिजिकल (शारीरिक)दूसरा, सोशल (सामाजिक)

जिसको तुम अपना जन्म कह रहे हो उसके बाद सिर्फ और सिर्फ सोशल कंडीशनिंग ही होती है। फिजिकल तो पहले से चली आ रही है। वह तुम्हारे DNA में बैठी है। एक छोटा बच्चा भी पूरी तरह खाली स्लेट नहीं होता। छोटा बच्चा भी रौशनी को जानता है कि रौशनी है। उसको भी रौशनी और अँधेरे में अंतर दिख रहा है ना? मतलब वह भी कंडिशन्ड है। वह कंडीशनिंग लाखों सालों से चली आ रही है। यह विकास प्रक्रिया का नतीजा है। तो पहली बात तो यह कि हम खाली स्लेट कभी हैं ही नहीं।दूसरी बात यह कि वह नॉलेज और फीडिंग जो होती है वह ना हो तो होगा क्या? हो ही नहीं सकता के ना हो। क्योंकि पूरी फीडिंग बाहर से होती है और तुम जहां कहीं भी जाओगे एक बाहर हमेशा मौजूद रहेगा। तुम इस हॉल में नहीं बैठोगे तो कहीं और जाओगे। जहाँ भी जाओगे एक बाहरी हमेशा मौजूद रहेगा। और वह अपना प्रभाव तुम पर छोड़कर रहेगा। तुम किसी पहाड़ की चोटी पर भी जाओगे तो वहाँ पर भी कुछ न कुछ बाहरी बना ही हुआ है। लगातार बना हुआ है। तो इसलिए फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम यहाँ हो कि कहाँ हो। बाहरी तुमको लगातार मिल ही रहा है।

यह विचार कि अगर मैं किसी ख़ास परिस्थिति में हूँ तो मैं इन्सुलेट हो जाउंगा, यह हो नहीं सकता और ना उसकी कोई क़ीमत है। यह जो बाहरी प्रभाव है यह हमारे काम का है। यह हमारे काम का है एक ख़ास उम्र तक। एक उम्र तक तो हमें इस पर निर्भर ही रहना पड़ेगा। क्योंकि मस्तिष्क अभी विकसित नहीं हुआ है। तब तक तो तुम्हे दूसरे पर निर्भर करना ही पड़ेगा। कोई और ही होगा जो तुम्हे आकर बताएगा कि इस सॉकेट में ऊँगली मत डालो, सड़क पर किस तरफ चलो। तुम यह ज्ञान लेकर पैदा नहीं होते। और अगर यह सोचा जाए कि अपने अनुभव से सीखोगे, तो तुम बहुत छोटे हो। तो एक ख़ास उम्र तक ज़रूरी भी है कि तुम बाहर की परिस्थितियों के गुलाम बनके ही रहो, तुम्हे रहना ही पड़ेगा, यह एक अनिवार्यता है।

तुम चाहो भी तो बच नहीं सकते क्योंकि तुम्हारा मस्तिष्क अभी विकसित नहीं हुआ है। आठ-दस साल तक की उम्र तक ठीक है और ऐसा होगा भी। पर तुम में से कोई आठ-दस साल का नहीं है। अब वह तुम्हारी स्थिति नहीं है कि तुम बाहरी पर निर्भर रहो, अब तुम्हारी स्थिति नहीं कि अब भी जो बाहर से आये उसे सोखते रहो। अब तुम्हारी यह स्थिति है कि बाहर से तुम्हे मात्र जानकारी मिले। हाँ यह ज़रूरी है कि जनकारी तुम्हे बाहर से ही मिले पर जानकारी से कहीं ज़यादा जो कीमती है वह तुम्हारा अपना रहे। तुम्हारी समझने की शक्ति। अब वह तुम्हारी अपनी रहे। दुर्भाग्य हमारा यह है कि वह प्रक्रिया जो आठ-दस साल में बंद हो जानी चाहिए थी वह अभी तक चल रही है। विवेक अभी तक जागृत नहीं हुआ है। देखो इसमें होता क्या है:

आठ, दस, बारह साल की उम्र तक आते-आते धीरे-धीरे यह शुरू हो जाना चाहिए कि जो लोग तुम्हे पाल पोस रहे हैं वह तुम्हे थोड़ा सा आत्मनिर्भर बनाना शुरू करें। आत्मनिर्भर बनने में बच्चे को डर लगता है क्योंकि अभी तक का उसका अनुभव यह है कि मैं बड़े मज़े से सहारे पर चल रहा हूँ। तब तुम्हे चाहिए होता है कोई गुरु, कोई ऐसा जो जानता हो कि इसकी उम्र आ गयी है। लेकिन आम तौर पर हमारे घरों में कोई ऐसा होता नहीं जिसको कुछ भी पता हो। तो जो प्रक्रिया ख़त्म होनी चाहिए थी दस साल के आस पास वह चलती ही जाती है , चलती ही जाती है। उम्र भर चलती जाती है!

ऐसा समझलो कि जैसे कुकून से तितली कभी बाहर ही ना निकले। जन्म भर उस ही के भीतर पड़ी रहे। कुकून की कीमत थी एक कवच के रूप में, शुरुआती कुछ सालों में। तितली की अगर बात कर रहे हो तो कुछ हफ़्तों के लिए. कुकून की कीमत थी। पर उसके बात उसकी सारी सुरक्षा ख़त्म होनी चाहिए। उसके बाद उसे उड़ना ही पड़ेगा। तुम अभी तक नहीं उड़ रहे, दिक्कत बस यह है।यह बाहर से सब कुछ आ रहा है, यह अच्छा है आ रहा है। जानकारी सदा बाहर से ही आएगी।

पर सिर्फ जानकारी बाहर से आए। जीवन जीने का तरीका ना बाहर से आ जाए। समझ ना बाहर से आ जाए। इनफार्मेशन बाहर से आए, डिसिशन नहीं!

हमारे तो निर्णय ही बाहर से आ जाते हैं।

छात्र: यह बदलाव की उम्र है। कैसे पता चले कि हम बदल रहे हैं?

वक्ता: बेचैनी होगी। वह बेचैनी हम सबके जीवन में है। हम सब रेस्टलेस रहते हैं ना? बैठते हैं तो शान्ति से बैठ नहीं पाते, ऊबे-ऊबे रहते हैं। ऐसा लगता है जीवन में कुछ कमी है। कुछ पाने की चाहत रहती है, एंटरटेनमेंट की बहुत चाहत रहती है। यह सब बताता है कि गहरी बेचैनी है। यह बेचैनी तब तक नहीं जाएगी जब तक अपनी आँखों से देखोगे नहीं और अपने पाँव पर खड़े नहीं होगे। जब तक गुलाम बनके रहोगे यह बेचैनी लगी ही रहेगी, लगी ही रहेगी। यह बेचैनी अच्छी है, यह तुम्हे लगातार अहसास कराएगी कि तुम्हारा सफ़र ठीक नहीं चल रहा है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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