अविवाहित और स्वतंत्र महिला से इतना डरते क्यों हैं पुरुष

Acharya Prashant

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अविवाहित और स्वतंत्र महिला से इतना डरते क्यों हैं पुरुष
अब ये कहना तो नासमझी होगी कि महिला के जीवन में अनिवार्य रूप से किसी पुरुष को होना ही नहीं चाहिए लेकिन महिला किसी पुरुष के लिए नहीं बनी है। महिला एक मनुष्य है, और उसका जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि वो किसी पुरुष को अपने जीवन के केंद्र पर ही रख डाले। महिला अगर मनुष्य है, तो किसी भी मनुष्य की तरह उसके जीवन के लक्ष्य वही होने चाहिए, जो एक मनुष्य को शोभा देते हैं, गरिमा देते हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

स्वयंसेवी: आचार्य जी, आज का टॉपिक है "सिंगल वुमन" यानी अविवाहित महिलाएँ। तो कई सारे सवाल आपके लिए आज लेकर के आई हूँ। लेकिन उन सब में से सबसे पहले एक बेसिक सवाल — कि किसी भी महिला के जीवन में एक पुरुष की कितनी अहमियत है?

आचार्य प्रशांत: अगर एक वरीयता क्रम लें, प्रायोरिटी ऑर्डर, तो एक महिला के जीवन में पुरुष को बहुत सारी अन्य चीज़ों के बाद आना चाहिए, तो पुरुष की अहमियत बहुत सारी दूसरी चीज़ों से कम होनी चाहिए। जीवन को जानना बहुत बड़ी बात है, कोई भी पुरुष उसके सामने छोटी चीज़ है। ज्ञान, साहस, कौशल, अनुभव — ये सब बड़ी बातें हैं।

मैं आपसे पूछूँ कि आपकी ज़िन्दगी में पुरुष कितने हैं, और आप कहें — 10, और किताबें कितनी पढ़ी हैं आज तक? कहें — पाँच। तो ये गड़बड़ बात हो जाएगी, तो किताब की भी, अच्छी किताबों की भी अहमियत, एक महिला के जीवन में किसी भी पुरुष से बहुत ज़्यादा होनी चाहिए। तो मैं कम से कम ऐसी 10–20 चीज़ें आपको गिना सकता हूँ, जिनके बाद पुरुष का नंबर लगना चाहिए।

अब ये कहना तो नासमझी होगी कि महिला के जीवन में अनिवार्य रूप से किसी पुरुष को होना ही नहीं चाहिए लेकिन महिला किसी पुरुष के लिए नहीं बनी है। महिला एक मनुष्य है, और उसका जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि वो किसी पुरुष को अपने जीवन के केंद्र पर ही रख डाले। महिला अगर मनुष्य है, तो किसी भी मनुष्य की तरह उसके जीवन के लक्ष्य वही होने चाहिए, जो एक मनुष्य को शोभा देते हैं, गरिमा देते हैं।

आप ये नहीं कह सकते कि एक पुरुष के लिए तो ज़िन्दगी में ऊँचे–ऊँचे लक्ष्य होने चाहिए, और एक महिला के लिए एक ही लक्ष्य होना चाहिए — पुरुष। ये बात ही बड़ी अजीब है, ना? कि आप तो पुरुष हो, नर हो, लड़के हो — जो भी, आप तो करोगे ऊँचे काम। आप चढ़ जाओ, एवरेस्ट फ़तह करो। आप राष्ट्रपति बनो, आप वैज्ञानिक बनो, खिलाड़ी बनो, आप ये सारे काम करो। और आप महिला हो, आप लड़की पैदा हुई हो, तो आप जो भी काम करो, उन कामों से पहले आप पुरुष को प्राथमिकता दो। तो पुरुष आपके जीवन में पहले आए, उसके बाद और काम होने तो हो जाएँगे।

जैसे कई बार होता है ना, माँ-बाप लड़कियों से बोला करते हैं कि — “अच्छा, अच्छा, ठीक है, कर लेना जो भी करना चाहती हो।” अब लड़कियाँ कुछ अपनी महत्वाकांक्षा दिखाती हैं। कोई बोलती है — “हमें पढ़ना है।” कोई बोलती है — “हमें नौकरी करनी है।”येसब बातें तो कहते हैं —“अच्छा, कर लेना जो भी करना है, सब शादी के बाद कर लेना। पति से पूछ के कर लेना।” तो माने पति पहले आ जाए, पुरुष पहले आ जाए, उसके बाद ये सब चीज़ें अगर आनी हों तो आएँ। लेकिन सबसे पहला स्थान पुरुष का ही होना चाहिए — ये बात नासमझी गई है।

अगर पुरुष के जीवन में स्त्री केंद्र में नहीं होनी चाहिए — और नहीं होनी चाहिए — पुरुष जीवन का जो केंद्र है, वो उसका अपना विकास और विस्तार होना चाहिए। और स्त्री के भी जीवन का जो केंद्र है, वो भी यही होना चाहिए कि — विकास, विस्तार। इसीलिए, समझने वालों ने जब जीवन में सबसे ऊँचा मूल्य हो सकता है, जिसको सत्य बोलते हैं, मुक्ति बोलते हैं, लिबरेशन बोलते हैं, ट्रुथ बोलते हैं — जब उसकी बात करी है, तो कई बार उसे एक रिश्ते का नाम दिया है। ठीक है? और उस रिश्ते का नाम वही दिया है जो घरेलू रिश्तों के नाम होते हैं। तो उसको बोल दिया, उदाहरण के लिए — परमपिता।

तो परमपिता बोलने से आशय क्या होता है? यही होता है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में पिता का जो स्थान होगा, वो होगा। अच्छी बात है। पिता का स्थान हो, ऊँचा स्थान हो। लेकिन उस पिता से ऊँचा स्थान परमपिता का है।

तो सत्य को परमपिता बोला गया। आशय यही था कि — वो जो आपका घरेलू पिता है, उससे ऊपर की जगह रखता है वो। घरेलू जो है, उसको तो आप पिता बोल दोगे। जिसने आपके शरीर को जन्म दिया, उसको आप सम्मान के साथ पिता बोल दो — बहुत अच्छी बात है। लेकिन जिससे आपकी चेतना ही है, जिससे आप कह सकते हो साधारण भाषा में कि — “सारा संसार ही है,” वो परमपिता है। ठीक है?

तो इसी तरह से समझ लीजिए महिलाओं के लिए कि — ठीक है, एक पति है, और एक परमपति है। तो परमपति का स्थान तो पति से ऊँचा ही होगा ना? तो मैंने कहा कि — वो जो परमपति है, उसी के 10–20 नाम लिखे जा सकते हैं। उसके बाद किसी शारीरिक पुरुष का नंबर आना चाहिए। वही जो परमपति है, उसके 10–20 नाम कौन से होंगे? मैंने कहा — ज्ञान। मैंने कहा — करुणा। मैंने कहा — सरलता, सहिष्णुता, गहराई, निरहंकारिता हो गया, निर्भीकता हो गया। ये सब उस परमपिता या परमपति के नाम हैं। तो ये सब पहले आएँ, इसके बाद आपके जीवन में कोई पुरुष आए — तो ठीक है, ना आए तो भी ठीक है।

ख़ैर, आपके पास बहुत सारे प्रश्न हैं। पूछिए। मैं पहला ही जवाब बहुत लंबा नहीं करना चाहता।

स्वयंसेवी: आचार्य जी, जैसे अभी आपने महिलाओं के विषय में बताया कि कैसा होना चाहिए। पर कैसा होता है — अगर आप समाज में, स्पेशली महिलाओं की सोशल पोज़ीशन देखें, तो वहाँ एक बहुत बड़ा गैप है। जो बात आप कह रहे हैं कि "कैसा होना चाहिए", और "कैसा होता है।"

तो कुछ आँकड़े हैं मेरे पास, मैं आपके साथ साझा करना चाहूँगी। उसमें सबसे पहले अगर हम अविवाहित महिलाओं के बारे में बात करें — जापान में तो ये कहा जाता था कि जो अविवाहित महिलाएँ हैं, 25 साल की उम्र के बाद अगर किसी की शादी नहीं हुई है, तो उन्हें अनसोल्ड क्रिसमस केक्स की तरह जो है, बुलाया जाता था।

आचार्य प्रशांत: अच्छा, 25 दिसंबर को क्रिसमस होता है, इसलिए?

स्वयंसेवी: जी।

आचार्य प्रशांत: तो 25 को क्रिसमस होता है। तो जितने केक क्रिसमस पर बने होते हैं, सब के सब नहीं बिकते 25 तारीख को, तो कुछ 26, 27, 28 तक चले जाते हैं अच्छा। तो इसी तरीके से जो लड़कियाँ 25 के होते-होते व्याही नहीं जाती, और 26, 27, 28 तक चली जाती हैं — उनको हम कहेंगे कि — ये अनबिकी क्रिसमस केक हैं। तो अभी डिस्काउंट पे बिकेंगी। है ना?

स्वयंसेवी: या शायद बिकेंगी ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: या शायद बिकेंगी ही नहीं। ये समाज में फेंकी जाएँगी, परित्यक्त हो जाएँगी। बड़ा शानदार तरीका है ये — एक महिला के, एक मनुष्य के पूरे वजूद को देखने का। तारीफ करनी पड़ेगी।

स्वयंसेवी: इसी में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2019–21 का डाटा है कि भारत में 21 साल की उम्र से पहले आज भी 30% महिलाएँ जो हैं, उनकी शादी कर दी जाती है।

दूसरा आँकड़ा बताता है कि 18 साल जो है, लीगल ऐज है मैरिज की। तो आज भी 20 से 24 वर्ष की जो महिलाएँ हैं, उनमें करीबन 23% महिलाएँ जो हैं, उनकी शादी 18 साल की उम्र से ही पहले कर दी जाती है। और अगर ये आँकड़ा 45 से 49 इयर्स में देखा जाए, ज़्यादातर माँ की जो ऐज रहती है, तो उसमें वो आँकड़ा 47% है।

आचार्य प्रशांत: तो आप कह रही हैं कि जो 45–50 साल की आजकल की माएँ हैं जवान लोगों की, तो इनके समय में आधी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती थी। तो जो भी युवा लोग देख रहे होंगे इस बातचीत को, तो वो ये समझेंगे कि उनकी माँ के जमाने में आधी लड़कियों की शादी 18 से पहले ही कर दी जाती थी। और फिलहाल में ये आँकड़ा आपने कहा 23% है।

आजकल भी ऐसा हो रहा है कि चार में से एक लड़की की शादी 18 साल से पहले ही कर दी जाती है। हाँ, तो इसीलिए ना क्योंकि लड़की को माना ही जाता है कि ये सर्वप्रथम विवाह की वस्तु है, तो उसका और वजूद कुछ है ही नहीं।

वही जो जापानियों वाली बात थी ना, क्रिसमस केक की — उसका और नहीं कोई वजूद है। वो किस लिए पैदा हुई है? वो पैदा ही इसीलिए हुई है कि उसकी शादी हो और फिर वो बच्चा पैदा करे। वो पैदा ही इसीलिए हुई है।

तो ये पुरुष की दृष्टि है। मनुष्यता के ही एक वर्ग ने, जिसका नाम है पुरुष, मनुष्यता के ही दूसरे वर्ग को उपभोग की वस्तु की तरह देखा है लगभग पूरे इतिहास में मानवता के। उसमें कोई चौंकने की बात नहीं है क्योंकि आदमी होता ही हिंसक है। नर–नारी दोनों हिंसक होते हैं।

तो जब हम दुनिया में जो कुछ है, उसको अपने स्वार्थ के लिए, अपने उपभोग, अपने कंज़म्पशन, अपने सुख के लिए ही इस्तेमाल करना चाहते हैं — तो सामने अगर कोई लड़की होगी, तो उसका भी तो मैं वही इस्तेमाल करूँगा ना।

आपको एक पेड़ दिखता है, आप पेड़ काट डालते हो। हमने पूरे पेड़ काट डाले पृथ्वी के। क्यों? कहते हो कि — “इसका तो मैं इस्तेमाल करूँगा अपने स्वार्थ के लिए।” आपको एक जानवर दिखता है, आप मार डालते हो। हम प्रतिदिन करोड़ों जानवर काटते हैं। क्यों? “मैं तो इसका इस्तेमाल करूँगा अपने स्वार्थ के लिए।” तो दुनिया की सब प्रजातियों का जब आप अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हो, तो आप अपनी ही प्रजाति को कैसे छोड़ दोगे?

जब दुनिया की सारी स्पीशीज़ जो हैं, उनका इस्तेमाल मैं अपने स्वार्थ के लिए ही करता हूँ, तो मैं अपनी स्पीशीज़ को भी कैसे छोड़ दूँगा अपने स्वार्थ से? तो अपनी स्पीशीज़ में भी मुझे जो महिलाएँ दिखाई दीं, मैंने उनका भी यही कहा कि —“इनका भी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होगा।” ऐसा नहीं कि विपरीत लिंगी का ही, माने जो ऑपोज़िट जेंडर है, उसका ही स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होता है। पुरुष–पुरुषों का भी तो शोषण करते हैं ना, एक्सप्लॉइटेशन। तो पुरुषों ने पुरुषों का भी करा है।

ऐसा तो नहीं है कि, मतलब, गोरे पुरुष ने काले पुरुष का एक्सप्लॉइटेशन नहीं करा क्या, दास प्रथा और क्या आती है अमेरिका में? ठीक है। एक समझ लीजिए, एक क्लास की तरह, महिलाओं का जो शोषण है, वो होता आया है। और इसमें कोई किसी विचारधारा की बात नहीं है।

आप थोड़ा सा भी निष्पक्ष हो के अगर मनुष्य के इतिहास को देखेंगे, तो ये बात बिल्कुल सामने आ जाएगी कि — हाँ, ये बात तो सही है कि इंसान पैदा ही स्वार्थी होता है बिल्कुल आध्यात्मिक बात है ये। इंसान पैदा ही स्वार्थी होता है, और अपने स्वार्थ के लिए वो कुछ भी करता है, किसी का भी शोषण करता है। तो लड़की दिखाई दी, 18 की हो रही है — ठीक है, जल्दी से इसको ले चलो। पहले तो इससे शारीरिक सुख मिलेगा, फिर इससे जितने तरीके के काम वगैरह कराए जा सकते हैं, वो कराए जाएँगे। वो एक फ्री लेबर भी तो होती है। तो उससे शारीरिक श्रम भी लिया जाएगा, शारीरिक सुख भी लिया जाएगा। और फिर एक उसके पास क्षमता होती है, जो उसी के पास होती है — संतान उत्पत्ति की। तो फिर उससे संतान सुख लिया जाएगा।

तो उससे क्या लिया जाता है? उससे शरीर का सुख ले लो — माने संभोग सुख ले लो, श्रम सुख ले लो, फिर संतान सुख ले लो। और संतान में भी, भले ही वो स्त्री है, लेकिन उससे पुरुष को पैदा होना चाहिए। तो स्त्री से उम्मीद ये होती है कि लड़का पैदा करेगी। तो ये सब होता रहा है। और देखिए, आपको इसमें कोई बहुत चौंकने की ज़रूरत नहीं है, हम हैं ही ऐसे। आपको पता है ना हम प्रतिदिन कितनी प्रजातियों को विलुप्त करते जा रहे हैं?

सैकड़ों-हज़ारों प्रजातियाँ, जीवों की पूरी की पूरी प्रजातियाँ, हम प्रतिदिन खत्म कर रहे हैं, हम ऐसे लोग हैं। तो फिर हम अपनी ही महिलाओं को कैसे छोड़ देंगे?

आपने देखा है, लोग किस तरीके से जानवरों की हत्या करते हैं सिर्फ उनका मांस, उसका स्वाद लेने के लिए। तो फिर हमारे सामने एक स्त्री है, वो महिला है, हम उसको भी तो मांस की तरह ही देखते हैं ना? उसके पूरे शरीर में, उसके मांस पर ही नज़र जाती है और उस मांस से जो सुख मिलता है, वो पुरुष लूटना चाहता है। ये चलता रहा है, यही सब।

स्वयंसेवी: जब पेड़ की आप बात करते हैं, या फिर एक जानवर की भी बात करते हैं, क्योंकि अब वो पूरा का पूरा सिस्टम ही उस तरीके से बन गया है किवोउस चीज़ को अपोज़ नहीं कर पाते या एक पेड़ भी जब कटता है, तो उसको वो अपोज़ नहीं कर पाता। पर महिला एक जीती-जागती चेतना है वो उस चीज़ को अपोज़ कर सकती है। लेकिन उसको वो चीज़ें उस तरीक़े से दिखती ही नहीं हैं। उसको वो जो चीज़ है, उसके पास जब आती है तोवोबहुत महत्त्वपूर्ण चीज़ की तरह आती है।

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल सही बोला कि पेड़ कभी साझेदार नहीं बनेगा अपनी कटाई में। पेड़ नहीं कहेगा कि "हाँ, मुझे काटो, मेरे कटने में, मेरे कट जाने में कुछ मेरे लिए सुख या लाभ है।" जानवर भी कभी ये नहीं कहेगा कि "हाँ-हाँ, मैं प्रस्तुत हूँ। मैं स्वेच्छा से प्रस्तुत हूँ। आओ, मुझे काट दो।" पर इंसान ऐसा है कि उसकी कंडीशनिंग की जा सकती है। उसके दिमाग को संस्कारित किया जा सकता है। उसके दिमाग में धारणाएँ, प्रथाएँ, संस्कार — ये सब भरे जा सकते हैं। और फिर ये बिल्कुल हो सकता है कि इंसान स्वयं ही खड़ा हो जाए कि "हाँ, आओ मुझे काट दो।" ये बिल्कुल हो सकता है। बिल्कुल हो सकता है।

तो वो था ना कि भेड़ें भाग जाया करती थीं। भेड़ें भाग जाया करती थीं तो मालिक परेशान था कि भेड़ें भाग जाया करती हैं। तो उसने सब भेड़ों को जाकर के पट्टी पढ़ा दी कि "तुम भेड़ तो हो ही नहीं, तुम तो शेर हो।"

पहले भेड़ें भागा करती थीं क्योंकि उन्हें दिखता था कि मालिक आता है, रोज़ एक भेड़ काट देता है। तो साफ बात देख पाती थीं — जो चीज़ जैसी है, जस की तस देखती थीं — तो भागती थीं बेचारी, अपनी जान बचाने को। तो मालिक ने आकर फिर उन पर जादू किया। उनके दिमाग को संस्कारित किया और बोला, "अरे, भेड़ नहीं हो, सिंघनी हो तुम। और तुम तो पूजा योग्य हो। हम तो तुम्हारी पूजा करते हैं। हम तुम्हें काटते थोड़ी हैं। तुम तो सिंघनी हो।"

और भेड़ें भी फूल गईं —"बिल्कुल बढ़िया बात! हम तो सिंघनी ही हैं। हमें काटा थोड़ी जा रहा है।" तो भेड़ें काहे को भागें? इतना ही नहीं, किसी भेड़ पर जादू न चला हो और वो भागने की कोशिश करे, तो बाकी भेड़ें उसे पकड़-पकड़ के वापस ले आएँ। वो वापस न आए तो जाकर मालिक को ख़बर करें कि "वह एक भाग रही है, पकड़ो उसको। वो अभी अपने आप को भेड़ी समझती है। उसको पता ही नहीं,वोसिंघनी है।"

और मालिक रोज़ आए, आवाज़ दे —"आओ, आज कौन-सी सिंघनी आएगी? उसको भीतर ले आकर उसकी पूजा करेंगे।" और कोई भेड़ एकदम शान के साथ, ताव के साथ, गौरव में अंदर को जाए कि "मैं सिंघनी हूँ। भीतर जा रही हूँ, अपनी पूजा कराने।" और भीतर उसकी पूजा हो जाए।

वापस जब वो आए नहीं, तो बाकी जो शेरनियाँ थीं, वो मालिक से पूछें, "वो अभी-अभी जो पूजनीय सिंघनी भीतर गई थी, वो वापस क्यों नहीं आई?" बोले —"अरे, ये तो सिंघनी है, देवी है। भीतर गई थी, हमने उसकी बड़ी पूजा-वग़ैरह करी तो फिर वो अंतर्धान हो गई, वो अपने देवलोक को चली गई।" समझ में आ रही है बात?

ये काम आप जानवरों के साथ नहीं कर सकते, भेड़ें ऐसी नहीं होती हैं। कहानी में भेड़ ऐसी थी कि पागल बना दी गई नहीं तो असली की भेड़ इतनी पागल नहीं होती है। तो ये काम न तो आप पेड़ के साथ कर सकते हो, न ये काम आप किसी कुत्ते के साथ कर सकते हो, न खरगोश के साथ कर सकते हो, न मुर्गे के साथ कर सकते हो।

कहीं सड़क किनारे कटते हुए किसी मुर्गे को देखना — वो कितना छटपटाता है, कितना अपना पंख फड़फड़ाता है अपनी प्राण-रक्षा के लिए। लेकिन मनुष्य के साथ ये काम कराया जा सकता है — कि मनुष्य को ऐसे कन्विंस कर दिया जाए, उसको आश्वस्त कर दिया जाए कि उसकी गुलामी उसी के लाभ में है।

तो महिलाओं को विभिन्न देशों में, विभिन्न धर्मों में, विभिन्न संस्कृतियों में इसी तरीक़े से संस्कारित किया गया है, इतिहास के पूरे विस्तार में — कि उनको खुद हीयेलगने लगा है कि गुलामी का जीवन जीना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। और "हम भेड़ थोड़ी हैं, हमें भेड़ की तरह थोड़ी रखा जा रहा है! हमें तो सिंघनी की तरह रखा जा रहा है। हमें काटा थोड़ी जा रहा है, हमारी तो पूजा की जा रही है और हमारा शोषण थोड़ी किया जा रहा है, हमें तो देवी माना जा रहा है!"

तो ये चलता रहा है, बिल्कुल। और ये जो चला है, इसका फिर ख़ामियाज़ा पुरुषों ने भी पूरा-पूरा भुगता है। क्योंकि आप उसको क्यों 'स्त्री' वग़ैरह बोल रहे हो? पहले तो वो एक इंसान है और दुनिया की आधी आबादी है। और आपको उसके साथ रहना है। आप पुरुष हो, आप दुनिया की आधी आबादी से बचकर तो नहीं जी सकते न। तो पुरुष को अनिवार्य रूप से जीना तो स्त्री के साथ ही पड़ेगा।

पर जब आप एक स्त्री को दमित और कुंठित रखोगे, तो वो आपको संगति कैसी देगी? जीवन के हर पड़ाव पर, समाज की हर जगह पर, आपका पाला किसी न किसी स्त्री से, किसी न किसी रूप में, किसी न किसी तरह पड़ेगा ही पड़ेगा, क्योंकि आधी आबादी है दुनिया की — भूलिएगा नहीं।

और जब वो आधी आबादी आपने बिल्कुल कुंठित करके रख दी, आपने उनके मन को बेड़ियों से बिल्कुल बांध दिया, आपने उनके पंख कतर दिए — तो आप उनके साथ जिओगे कैसे? अब तो वो आधी विक्षिप्त-सी कर डाली है आपने। आपके सामने जो है न, वो दर्द का एक पिंड है। जिसको एक ऐसा इंजेक्शन लगा दिया गया है कि उसको उसका दर्द अब महसूस भी कम होता है और आपसे कह दिया गया — "इसके साथ अब जियो।" आप कैसे जियोगे उसके साथ?

उसको आपने ही आधा पागल कर डाला, आपने उसकी सारी शक्ति छीन ली, आपने उसकी बुद्धि ख़राब कर दी। अब आप कैसे जियोगे उसके साथ? अब आपके लिए ही नर्क बन जाएगा उसके साथ जीना। तो ख़ामियाज़ा पुरुषों को ही भुगतना पड़ा है।

स्वयंसेवी: आचार्य जी, जैसे ख़ामियाज़ा जो है, वो पुरुषों को भी भुगतना पड़ा है। उन स्त्रियों को भी भुगतना पड़ा है जो रानी की तरह बनीं या इंस्पायर करती हैं बनने के लिए। पर साथ में, इसका जो ख़ामियाज़ा है, वो कहीं हद तक उन महिलाओं को भी भुगतना पड़ता है जो उस फ्रेमवर्क से बाहर निकलने की कोशिश करती हैं।

आचार्य प्रशांत: जो बाहर आना चाहती हैं और वही आपका आज का विषय है।

स्वयंसेवी: जी, तो इसी में मैं जब पढ़ रही थी तो एक आँकड़ा आया कि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में आज भी क़रीब 7 करोड़ महिलाएँ हैं जो कि अविवाहित हैं।

आचार्य प्रशांत: ये जो 7 करोड़ हैं, इसमें मैं मान रहा हूँ कि वयस्क महिलाएँ हैं न? इसमें बच्चियाँ शामिल नहीं हैं?

स्वयंसेवी: जी।

आचार्य प्रशांत: तो माने, वयस्क महिलाएँ —18 वर्ष से ऊपर की। तो यानी ये किसी कारण से — जो भी कारण है — ये वो महिलाएँ हैं जो अविवाहित हैं, 18 वर्ष से ऊपर की हैं, और अविवाहित हैं। और इनकी संख्या आप बता रही हैं, लगभग 7 करोड़ भारत में।

मैं थोड़ा-सा इसमें कुछ आँकड़े दिमाग़ में प्रोसेस करना चाहता हूँ। तो 70 करोड़ तो क़रीब भारत में महिलाएँ हैं क्योंकि भारत की जो आबादी है, अब 140 करोड़ पार कर गई है। तो उसमें 68–70 करोड़ महिलाएँ हैं। तो 7 करोड़ अगर अविवाहित हैं, 2011 के आँकड़ों के अनुसार, तो 10% से ज़्यादा महिलाएँ — 10, 12, 13% — ऐसी हैं जो अविवाहित हैं। इनमें से बहुत-सी तो ऐसी होंगी जो विवाह करना चाहती हैं, अभी उन्हें वर नहीं मिल रहा है। ठीक है, लेकिन फिर भी बड़ा आँकड़ा है।

आगे बढ़िए।

स्वयंसेवी: और इसमें वो महिलाएँ भी हैं जिनका डिवोर्स हो चुका है, या विडो हैं, या सेपरेटेड रह रही हैं पर वे अभी सिंगल हैं। इसमें, आचार्य जी, एक महिला की आइडेंटिटी आज भी मैरीड या अनमैरिड के संदर्भ में ही देखी जाती है — कि महिला जो है, मैरिड है या फिर अनमैरिड है।

अक्सर ये सवाल आपके सामने रखा जाता है कि आपका ”बेटर हाफ” कहाँ पर है, या ”कब सैटल हो रही हो” — जैसे आप खुद में पूरे हो ही नहीं, कोई और आएगा और आपको जो है, पूरा करेगा मैं यहाँ पर अभी एक सोफ़े पर बैठी हूँ। अगर किसी शादी में ये सोफ़ा हो या अगर आपके घर में, आपके रिश्तेदारों के यहाँ यही सोफ़ा हो, तो उनकी नज़र हमेशा यही रहती है कि बगल वाली सीट पर कोई बैठा होना चाहिए। तो ये चीज़ मैं आपके सामने रखना चाहती हूँ।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि आप इस बात को बिल्कुल भी स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि वो वैज्ञानिक हो सकती है, लेखिका हो सकती है, खिलाड़ी हो सकती है, राजनेता हो सकती है, राष्ट्रपति हो सकती है — वो कुछ भी हो सकती है। वो इन सब में कुछ भी न हो, तो भी एक आम, सीधी-सादी इंसान हो सकती है। आप उसकी किसी भी पहचान को कोई तवज्जो देना ही नहीं चाहते।

स्वयंसेवी: इसमें, आचार्य जी, मतलब ये भी रहता है कि महिला जो है, वो साइंटिस्ट हो सकती है, टीचर हो सकती है, फुटबॉलर हो सकती है, क्रिकेटर हो सकती है, सब कुछ हो सकती है, राष्ट्रपति भी हो सकती है — लेकिन अविवाहित नहीं हो सकती है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, लेकिन पहले पुरुष को आगे रखे — पुरुष को आगे रखकर पीछे-पीछे उसको ये सब होना चाहिए। सवाल ये नहीं है कि किसी ने आपको ये बोल दिया। सवाल ये है कि ये इतनी विचित्र और मूर्खतापूर्ण बात आपने स्वीकार क्यों कर ली? आपको क्या पड़ी थी ये बात मान लेने की? क्योंकि ये बात ऐसा भी नहीं है कि किसी बहुत ज़बरदस्त तर्क के साथ आपको दी जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि इस बात को मानने के लिए आपको कोई बहुत ज़बरदस्त लोभ दिया जा रहा है।

तो मैं तो आज की लड़कियों से सवाल करता हूँ कि जब तुम्हें ये तर्क दिया जाता है, तो तुम इस तर्क को मान कैसे लेती हो? तुम ये मुझे बता दो। क्योंकि ये बड़े अचंभे की बात है, आप पढ़ी-लिखी हैं आपके पास बुद्धि है, अनुभव है। आपके पास दुनिया का ज्ञान है। इधर-उधर देख रहे हो, इंटरनेट है। क्या चल रहा है, पूरी दुनिया में — ये सब है, किताबें हैं, पता है आपको। और उसके बाद भी कोई आ के आपको बोल देता है कि आप जो भी हो, हम उससे पहले आपका पत्नी होना ज़रूरी है, या कि अम्मा होना ज़रूरी है, या किसी पुरुष की सहचरी होना ज़रूरी है, मिसेज़ समबडी होना ज़रूरी है।

बाकी आप कुछ भी हो सकती हैं। कुछ भी हो जाओ, लेकिन पहले वो सब करो। तो उसमें आश्चर्य की बात ये है कि वो माना कैसे जाता है? आज की लड़कियाँ क्यों मान लेती हैं? कैसे मान लेती हैं? ये बात सबके लिए घातक है। ये कुछ ऐसा नहीं है कि ये कोई फेमिनिज़्म का आदर्श है और इसमें पुरुषों का नुकसान है। अगर समाज का 50% तबका अपनी पूरी संभावना, अपनी पूरी क्षमता तक नहीं जी पा रहा है, तो इसमें पूरे समाज का, देश का, पुरुष वर्ग का — सबका नुकसान है।

ये बात सबको समझनी पड़ेगी कि अतीत में जो हुआ, सो हुआ।आज आपको एक महिला को सर्वप्रथम एक मनुष्य की तरह देखने की ज़रूरत है — ठीक है? और यही फेमिनिज़्म है, इससे ज़्यादा फेमिनिज़्म कुछ होता भी नहीं है। बाकी फेमिनिज़्म की जो परिभाषाएँ हैं, और फेमिनिज़्म के नाम पर जो कुछ किया जाता है,वो अधिकांश हुड़दंग, उपद्रव है, और उसको बहुत महत्त्व दिया नहीं जाना चाहिए। उसी के कारण फेमिनिज़्म का नाम भी खराब हुआ है। बहुत लोग तो सोचते हैं फेमिनिज़्म का मतलब ही यही है कि पुरुषों को गाली दो, आप ये सब करोगे, तो फेमिनिज़्म का नाम खराब होगा।

वास्तविक फेमिनिज़्म बस इतना सा ही है कि महिला जो है, वो महिला बाद में है — इंसान पहले है।

मत देखो तुम उसका लिंग, जेंडर इत्यादि — वो बहुत पीछे की बात है। सबसे पहले ये देखो कि उसमें ज्ञान कितना है, उसमें साहस कितना है, उसमें करुणा कितनी है, समझदारी कितनी है उसकी ज़िन्दगी में, गहराई कितनी है। ये सब बातें देखने लायक होती हैं, और इन बातों का विकास करो उसकी जी में। तुम्हारी सारी रुचि बस उसके गर्भ के विकास में है, जबकि विकास होना चाहिए उसके मन का, उसकी चेतना का, उसके ज्ञान का। इन चीज़ों का विकास करो।, उसको इंसान बनाओ। यही फेमिनिज़्म है। और इसके अलावा बाकी कोई फेमिनिज़्म है, तो फ़ालतू उपद्रव।

स्वयंसेवी: आचार्य जी, मैं दोबारा उस बात पर आऊँगी कि जैसा आपने कहा कि आप अपनी पोटेंशियल जो है, उसको आप पूरा करो, या जो कुछ भी आप करना चाहते हो, बनना चाहते हो, या जो भी ऊँची से ऊँची चीज़ें अपनी ज़िन्दगी में लाना चाहते हो, उन सबको आप लेकर के आओ। और कहीं न कहीं आपको उस चीज़ के लिए किसी न किसी तरीके से मोटिवेट भी किया जाता है, लेकिन उसके बावजूद जो एक कंडीशन है,वो आपको मीट करनी ही पड़ेगी।

आचार्य प्रशांत: वो तो उन्होंने कह दिया, आप मान क्यों रहे हो?

स्वयंसेवी: क्योंकि अगर आप वो नहीं मानते हो, तो जैसे आपने कहा कि वो तर्क होता है, और वो तर्क को आप मान क्यों लेते हो? असल में एक बहुत ज़्यादा, मैं अगर एक आम महिला के बारे में बात करूँ, मैं उत्तर प्रदेश में रहने वाली एक महिला की बात करूँ, जो बचपन से ही उस तरीके के एनवायरमेंट में पैदा हो रही है, बड़ा हो रही है, और उसके सामने एजुकेशन भी रखी जाती है, तो कोई उस पर इतना ज़्यादा प्रेशर नहीं होता इंडिपेंडेंट होने का। पहले से ही एक जो कमजोरी है,वो बनती रहती है साथ में वो अपने घर में अपनी माँ को देखती है, या अन्य महिलाओं को देखती है, तो उसको अपने आप ही इंटरनली वो इंटरनलाइज होनी शुरू हो जाती है, कि अच्छा जीवन एक महिला का किस तरीके का होता है या किस तरीके का होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल सही बोल रहे हो। पर एक महिला के साथ, या आज के दौर में भी, उत्तर भारत के किसी ग्रामीण या पिछड़े हुए इलाके में पैदा होने वाली और बड़ी होने वाली लड़की के साथ जो कुछ होता है — अभी आप उसका डिस्क्रिप्शन दे रही हैं। तो ये उसका डिफेंस नहीं है। द डिस्क्रिप्शन ऑफ अ फिनोमिना कैन नॉट बिकम इट्स डिफेंस एंड जस्टिफिकेशन। हाँ,ये सब होता है।

प्रश्न ये है कि आप क्यों होने देते हो ये सब?

देखो, समझो बात को। मैं लिंग की दृष्टि से एक पुरुष हूँ, ठीक है? ये मेरा जिम्मेदारी है, मेरा कर्तव्य है कि मैं जो कुछ हो सकूँगा सब करूँगा, सब मनुष्यों की सहायता के लिए जिसमें महिलाएँ भी आती हैं तो मैं महिलाओं की भी सहायता के लिए जितना हो सकता है करूँगा। मान लो वो कोई लड़की है, वो उत्तर प्रदेश के पूर्व उत्तर प्रदेश के या बिहार के या राजस्थान के किसी छोटे से कस्बे में पैदा हुई है, और वहाँ उसको ठीक से पढ़ा-लिखा नहीं पाते, और जैसी रहती है शिक्षा, उसको उल्टे-पुल्टे संस्कार दे रही है, उसके मन में कुंठा, हीन भावना भर रही है, और अभीवो14-15 साल की हुई है और उसकी शादी की तैयारी हो रही है। बिना उसको कुछ काबिल बनाए, पढ़ाए-लिखाए ये सब कर रहे हैं।

अब मैं एक पुरुष हूँ और मैं उससे हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा हूँ। मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य ये है कि मैं अधिकतम जो हो सके उसकी सहायता के लिए करूँ, और मैं कर भी रहा हूँ। हो सकता है अधिकतम नहीं कर पा रहा हूँ, मेरी अपनी सीमाएँ हैं, लेकिन फिर भी कर रहा हूँ। जितना कुछ भी मैं कर सकता हूँ समाज के लिए, उस लड़की के लिए मैं कर रहा हूँ। मेरे जैसे और भी लोग होंगे जो कर रहे होंगे, ठीक है ना? तो ये सब बाहरी सहायताएँ हैं जो उस लड़की को दी जा रही हैं। कुछ सरकारी योजनाएँ होती हैं उस लड़की की सहायता के लिए। वो सरकारी योजनाएँ भी थोड़ी बहुत अपनी ओर से सहायता की कोशिश कर ही रही होंगी। ठीक?

लेकिन अंततः तो उस लड़की को ही अपनी सहायता करनी पड़ेगी। मैं कितनी भी कोशिश कर लें, या और जो सहायक ताकतें हैं, वे भी कितनी भी कोशिश कर लें, अंततः तो उस लड़की को ही अपने जीवन की जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। समझ में आ रही है बात ना? वरना क्या बात होगी? वरना ये बात होगी कि कल तक लोग मेरा शोषण करते थे तो मेरा शोषण हो जाता था, और आज कोई दूसरे लोग आ गए, वो मेरी सहायता कर रहे हैं तो मेरी सहायता हो जाती है। तो तुम्हारी हस्ती, तुम्हारा वजूद, तुम्हारी एजेंसी, तुम्हारी चेतना तो अभी भी कुछ शून्य मात्र है ना? तुम तो अभी भी नहीं हो।

पहले कोई आकर तुम्हारा शोषण करता था तो तुमने क्या कह दिया? लड़की ने कि मैं क्या करूँ, मेरा शोषण हो गया, अच्छा ठीक है। अब कोई बाहर से आ गया, उसने तुम्हारी सहायता कर दी, अब क्या बोल रही है? कोई बाहर से आ गया ने मेरी सहायता कर दी। दोनों ही स्थितियों में तुम्हारा संकल्प कहाँ है? तुम्हारी चेतना कहाँ है? तुम्हारे प्राण कहाँ हैं? तुम्हें भी तो जान लगानी पड़ेगी ना।

और ये सब मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊँ। मैं तो कह ही रहा हूँ कि मेरा धर्म है उस लड़की की पूरी-पूरी सहायता करना, और मुझे मेरा धर्म निभाना होगा। मैं निभा रहा हूँ, और भी लोग होंगे मेरी ही तरह जो अपना काम कर रहे होंगे। वो सब अपना काम कर रहे हैं। लेकिन पहली जिम्मेदारी तो उसी की है जो दुख में है, कष्ट में है, बंधन में है। उसको स्वयं अपनी मुक्ति का प्रयत्न करना पड़ेगा। ठीक है? तो आप उस चीज़ से पीछे नहीं हट सकते। आप बार-बार ये कह करके कि वो बेचारी तो पैदा ही गलत जगह पर हुई, अब क्या कर सकते हैं? उस बेचारी को तो शिक्षा ही नहीं मिली, अब क्या कर सकते हैं? उस बेचारी का तो माहौल ही दमन का है, हम क्या कर सकते हैं? आप ये कह करके उस लड़की की कोई मदद नहीं कर रहे।

और वो लड़की अगर अपने डिफेंस में हम अपने आप को विक्टिम ठहराते हुए ये सब बातें बोलेगी तो हो सकता है ये बातें सही हो, लेकिन सहायक नहीं होंगी। जरूरी नहीं है कि हर बात जो सही हो उससे आपकी सहायता भी हो जाए।आप बिल्कुल ये कह सकते हो कि मैं क्या करूँ, मेरा तो घर ही ऐसा था। मैं क्या करूँ, मैं तो गरीब थी। मैं क्या करूँ, मेरे तो माँ-बाप ने मुझे पढ़ाया नहीं। मैं क्या करूँ, मुझे तो बचपन से ही काम में लगा दिया गया, और मैं क्या करूँ, मैं 15 की थी मेरी शादी कर दी गई। मैं क्या करूँ, मैं माँ बन गई। मैं क्या करूँ, मैं तो दुनिया जहाँ वो जानती नहीं, मुझे कोई अनुभव, कोई एक्सपोज़र, कोई ज्ञान है ही नहीं। मैं क्या करूँ, मैं तो अबला हूँ। मैं क्या करूँ, मेरे साथ तो परिस्थितियों ने, समाज ने, परिवार ने बड़ा अन्याय किया है। आप ये सब बिल्कुल बोल सकती हैं।

मैं पूछ रहा हूँ, ये सब बोलने से क्या आपकी सहायता हो जाएगी? ये सब बोलने से क्या आपको कुछ लाभ हो जाएगा? हाँ, आपने अपने जीवन का अच्छा एक डिस्क्रिप्शन दे दिया है। लेकिन ये जो आपने डिस्क्रिप्शन, माने विवरण दे दिया, उससे आपकी कोई सहायता, कोई लाभ आपको नहीं हो रहा है। तो लड़कियों में, महिलाओं में एक ये प्रवृत्ति भी बहुत होती है, जो कि आमतौर पर किसी भी व्यक्ति में होगी, जो दुख झेल रहा है। महिला में भी होगी, पुरुष में भी होगी। और वो प्रवृत्ति ये होती है कि मेरे साथ तो गलत हुआ। मेरे माँ-बाप ने अगर मुझे शिक्षित और बलवान और समर्थ बनाया होता तो आज मैं किसी दूसरी जगह पर होती।

कई बार विवाह के बाद वो यही बात अपने पतियों को लेकर के बोलती हैं कि, "मैं आई थी घर में, मैंने पतिदेव से बोला था कि अभी तो मेरी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है, मेरी पढ़ाई पूरी करा दो।" इन्होंने मेरी पढ़ाई नहीं पूरी कराई। या कि मैं आई थी, तो मेरा ग्रेजुएशन चल रहा था। फिर मैंने कहा, "अरे, पोस्ट ग्रेजुएशन तो करा दो।" इन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन नहीं कराया या कि मैं आई थी, मुझे अंग्रेज़ी बोलनी नहीं आती थी। मैंने इनसे कहा था, "अंग्रेज़ी बोलने का कोई कोर्स करा दो।" नहीं कराया।

यहाँ तक कि जो थोड़े धनी परिवार हैं, उनमें भी घर में दो-दो गाड़ियाँ होंगी, लेकिन जो घर की महिला होगी उसको गाड़ी चलानी नहीं आती। पूछो, गाड़ी चलानी क्यों नहीं आती? बोली, "अरे, ये नट्टू के पापा को इतनी बार बोला, गाड़ी चलानी सिखा दो। उन्होंने सिखाई नहीं।"

अच्छा फिर, आपका तो नट्टू भी गाड़ी चलाता है? अब 20 साल का हो गया नट्टू, वो भी चलाता है। आप 45-50 की हो रही हैं, अभी भी आप नहीं चलातीं? "हाँ, मैंने नट्टू को भी कई बार बोला, गाड़ी चलाने सिखाया तो उन्होंने सिखाया ही नहीं।"

आप जो बोल रही हो, बात बिल्कुल ठीक है। पतिदेव का बिल्कुल दायित्व था कि वो आपको गाड़ी चलाना सिखाते और अंग्रेज़ी बोलना सिखाते, और जो भी आप ज्ञान उनसे चाहती थीं — आपका पोस्ट ग्रेजुएशन करा देते — वो कराते, बहुत अच्छी बात होती, करना चाहिए था। उन्होंने नहीं किया। नट्टू को भी इतना करना चाहिए था कि माँ को गाड़ी चलानी नहीं आती, घर में दो गाड़ियाँ हैं तो माँ को गाड़ी चलानी सिखा दो। नट्टू ने भी नहीं किया। पर ये सब बोलने से आपको क्या मिल रहा है,ये तो बताइए? ये सब बोल करके आपका पोस्ट ग्रेजुएशन हो गया? आप नई भाषा सीख गईं? आपको गाड़ी चलानी आ गई?

ये सब बोलने से आपको लाभ क्या हो रहा है? और ये प्रवृत्ति बहुत होती है महिलाओं में, कि दुनिया ही नालायक है, हम क्या करें, हमारा तो दुनिया ने बस शोषण, शिकार आदि किया है। वो गलत नहीं बोल रही हैं। आप मेरी बात कभी गलत मत समझ लीजिएगा। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि दुनिया ने आपके साथ कोई अन्याय नहीं करा। मैं सिर्फ ये कह रहा हूँ कि दुनिया है ही ऐसी। दुनिया है ही ऐसी। ठीक है ना? इसीलिए तो अध्यात्म चाहिए होता है, ताकि हम थोड़ी-सी करुणा सीख सकें, थोड़ी निष्कामता सीख सकें। ना हमारे पास करुणा है, ना निस्वार्थता, ना निष्कामता — तो आप दुनिया से क्यों उम्मीद रख रही हैं कि दुनिया निस्वार्थ भाव से आपकी मदद करेगी?

पतिदेव को क्या मिल रहा है आपको ड्राइविंग सिखा के? आप ड्राइविंग सीख लेंगी, गाड़ी ले इधर-उधर भागेंगी, पतिदेव हैरान होंगे — तो कह रहे, "सिखाऊँगा ही नहीं इसको गाड़ी चलाना।"

नट्टू को भी क्या मिल रहा है आपको गाड़ी चलाना सिखा के? नट्टू, बल्कि अपनी गर्लफ्रेंड को गाड़ी चलाना सिखाएगा। गर्लफ्रेंड को गाड़ी चलाना सिखाएगा — गर्लफ्रेंड एहसान मानेगी, जब एहसान मानेगी तो नट्टू भी उससे फिर कुछ एहसान निकलवा लेगा।

आपको गाड़ी चलाना सिखा के — आप 45-50 साल की हो रही हैं — नट्टू को क्या मिलेगा? दुनिया स्वार्थी है। आप इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर रही हैं? माँ-बाप स्वार्थी थे। उन्होंने आपको ना ज्ञान दिया, ना सामर्थ्य दिया पतिदेव भी ऐसे ही हैं, नट्टू भी ऐसे ही है। आप बस दोष देती रह जाइए कुछ दिनों में आप मर जाइएगा।

ये बात महिलाओं को समझनी पड़ेगी। हमने क्या करा है, कि हमने एक काल्पनिक रूमानी जगत में रहना शुरू कर दिया है। अब वो भी हमें सिखा दिया गया है — संस्कारी बातें, कि भैया, घर तो स्वर्ग होता है और घर में सब लोग एक-दूसरे की निस्वार्थ भाव से सेवा-सहायता करते हैं।ऐसा होता है क्या?

आप जब कह रही हैं कि, "अरे, मेरे साथ किसी ने अच्छा नहीं किया," तो मेरा प्रश्न आप से ये है कि — कोई क्यों करे आपके साथ अच्छा? आप क्या मान के बैठी हैं कि दुनिया क्या है? देवलोक है? जहाँ सब लोग घूम रहे हैं बिल्कुल निष्काम हो के — मतलब सेल्फ़लेस हो के — एक-दूसरे की सहायता के लिए, सबके मन में एक-दूसरे के लिए करुणा मात्र है?

दुनिया ऐसी जगह है क्या? कोई क्यों आपकी सहायता करे?

बल — प्रत्येक मनुष्य को चाहिए। और समझाने वाले लोग, जो आपके सच्चे हितैषी थे, जो आपको ज्ञान दे गए थे, वो आपसे इतनी बार बोल के गए हैं ना —

बल के अलावा आपका कोई सहायक नहीं। अपना बल पैदा करो — अपना बल।

ना ये कि पिता के कंधे पर चढ़े हुए हो, ना ये कि पति की बैसाखियाँ बना ली हैं, ना ये कि पुत्र का सहारा ले रहे हो। अपना बल पैदा करो। जिसके पास अपना बल होता है, मात्र वही संसार में गरिमा से जी पाता है और संसार में कुछ अच्छे काम भी कर पाता है।

स्वयंसेवी: आचार्य जी जैसे विवाह हो जाता है, तो आपको वो चीज़ें पता चलती हैं कि आपने जो चीज़ें, जो अरमान लगाए थे या फिर जो आपके अरमान थे या एक्सपेक्टेशंस थीं, वो वैसी नहीं रहीं और चीज़ें कुछ और ही निकल कर के आती हैं। पैकेज कुछ और सोचा था, निकला कुछ और है। लेकिन एक जो महिला होती है, सत्रह – अठारह साल की, उन्नीस साल की, जिसकी अभी शादी नहीं हुई है, वो इतने ज़्यादा प्रेशर से गुजरती है उस समय कि बस यही रहता है कि आपकी ग्रेजुएशन जल्दी से जल्दी पूरी हो जाए। और ग्रेजुएशन के दौरान भी कंटीन्यूअसली आपके सामने — "अरे, यहाँ से रिश्ता आया है। अरे, यहाँ से बात चल रही है। लड़का बहुत अच्छा है।" — तो इस तरीक़े की चीज़ें आप लगातार जो है, सुनते रहते हो।

साथ में अगर ऐसा हो जाए कि उस महिला ने उस समय, उस समय नहीं शादी हुई है या फिर वो डिसाइड करती है कि वो नहीं शादी करना चाहती या किसी पुरुष से इस तरीके से नहीं संबंध रखना चाहती है, अविवाहित महिला है, तो उनके साथ एक बहुत एसोसिएटेड, एक पूरा का पूरा उनका कैरेक्टर अससिनेशन कर दिया जाता है।

आचार्य प्रशांत: कैरेक्टर अससिनेशन कोई करे तो करें, आप पर फर्क पड़े क्यों? सवाल ये है देखो जब कोई आपके साथ और कुछ नहीं कर सकता, तो वो जो आपका ये तथाकथित चरित्र का गुब्बारा है ना, उसको फोड़ने की कोशिश करता है। क्योंकि चरित्र क्या चीज़ होती है? असली चीज़ तो आत्मा है, ये चरित्र क्या होता है? भारत में अध्यात्म ने बात करी है — बोध की, आत्मा की, मुक्ति की। लेकिन समाज और संस्कृति — ना बोध, ना आत्मा, ना मुक्ति — किसी की बात नहीं करते। वो तो बस चरित्र की बात करते हैं क्योंकि चरित्र सार्वजनिक और सामाजिक होता है।

आत्मा सामाजिक और सार्वजनिक नहीं होती। किसी की आत्मा पर आप कीचड़ नहीं उछाल सकते, क्योंकि आत्मा कोई शरीर के भीतर नहीं होती, कोई वस्तु नहीं होती। कोई ऐसी चीज़ तो होती नहीं है कि जिस पर आप जाकर के पकड़ के कीचड़ उछाल दोगे। तो कोई वस्तु ही नहीं होती है — उस पर क्या तुम दाग लगाओगे?

लेकिन चरित्र बिल्कुल सामाजिक होता है। आप चरित्रवान हैं, अगर समाज आपको चरित्रवान मानता है। तो चरित्र जो है,वो समाज की चीज़ होती है, वो समाज के हाथ की चीज़ होती है। आत्मा समाज के हाथ की चीज़ नहीं होती। सच्चाई समाज के हाथ की चीज नहीं होती। आपका बोध, आपकी अंडरस्टैंडिंग, आपकी कॉन्शियसनेस की गहराई — ये समाज के हाथ की नहीं होती हैं। तो समाज आपको काबू में रखने के लिए ये"चरित्र" नाम की चीज पकड़ता है। और महिलाओं को बता दिया गया है कि जीवन में सबसे बड़ी बात है चरित्रवान होना। ये दो-चार चीजें उनके दिमाग में डाल दी गई हैं — "चरित्रवान होना बेटा", "लज्जावान होना" —येसब जो है, उनको अपना, उसी को पकड़ के बैठी रहती हैं।

शीलवती, लज्जावती, चरित्रवती। मैं पूछूँ — ज्ञानवती? बलवती? बोधवती? कुछ नहीं। ये सब कुछ भी नहीं। आत्मवती नहीं बिल्कुल भी नहीं। ब्रह्मवती नहीं। शीलवती होनी चाहिए। शील से बड़ा तो कुछ होता ही नहीं। और शील अगर आप बिल्कुल ज़मीन की भाषा में, पड़ोस की आंटी से आकर पूछेंगे कि "शील माने क्या होता है?" — तो बोलेगी, "वर्जिनिटी", उसको शील का भी इससे आगे कोई अर्थ ही नहीं समझ में आता। उसको लगता है शील माने कौमार्य — और कुछ नहीं।

तो जब मान लीजिए कहीं पे आप पाते हैं कि कोई सेक्सुअल घटना घटी है, तो उसको अख़बारों में ऐसे लिखते हैं कि फिर लड़की का शील भंग हो गया। आपको शील का अर्थ भी पता है? ऐसे ही शील, आचरण, चरित्र — ये इन सब चीज़ों को समाज इस्तेमाल करता है महिला को पकड़ के रखने के लिए। हम तो — अगर आगे बढ़ना हो — तो इन सब चीज़ों की फिक्र बिल्कुल छोड़ दीजिए। एकदम छोड़ दीजिए।

एक बार मैंने कहा था — अंग्रेज़ी में बात हो रही थी, एक देवी जी ने प्रश्न पूछा था — तो मैंने कहा था, "कोई आपको स्लट बोल रहा हो, आपको वो स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।"

क्योंकि ज़माना आप पर ऐसे ही अधिकार बनाता है। वो कहता है, "हमारी बात मानो, नहीं तो हम तुम्हें स्लट बोल देंगे।" आप कहिए, तुम बोलो — स्लट? हाँ, मैं हूँ स्लट। लेकिन मैं तुम्हारे अधिकार में नहीं आऊँगी। मैं अपनी आज़ादी नहीं बेचूँगी। मैं एक चेतना हूँ और मुक्त मेरा स्वभाव है। तुम मुझे दबाने के लिए, मुझे बंधन में डालने के लिए, मेरे ऊपर इस तरीके की चीजें लगा रहे हो कि — तू अपना आचरण हमारे कहे अनुसार रख।"

मेरा आचरण, मेरे बोध, मेरी आत्मा से उठेगा ना, वहाँ से आएगा मेरा आचरण। मेरा आचरण — तुम्हारे हिसाब से, तुम्हारे सामाजिक नियम-कायदों, तुम्हारी रूढ़ियों, परंपराओं, तुम्हारे अंधे रिवाज़ों के हिसाब से थोड़ी मेरा आचरण चलेगा! मैं अपना देख लूँगी। समझ में आ रही है बात? जब तक आपके मन में एक तरह की उपेक्षा नहीं आ जाती — सामाजिक दबाव के प्रति, सामाजिक लांछनों के प्रति — तब तक आप भूल जाइए कि आप कोई आज़ादी पा सकती हैं।

जो लड़की बार-बार यही देखती चल रही है कि, "हाय, मुझे कहीं कोई छोटे चरित्र का ना बोल दे!" — उस लड़की के लिए ज़िन्दगी में कहीं कोई उम्मीद नहीं है। क्योंकि उसको तो बहुत आसानी से दबा दिया जाएगा, पकड़ लिया जाएगा, क़ैद कर लेंगे, बाँध लेंगे — ये बोल के, "हमारी बात मान, नहीं तो हम उड़ा देंगे कि तू छोटे चरित्र की है। हमारे हिसाब से जी नहीं — तो हम कैरेक्टरलेस बोल देंगे तुझको, स्लट बोल देंगे, कुछ बोल देंगे, बहुत तरीके हैं, बिच बोल देंगे, जो भी है।"

ये सब चलता रहता है और लड़की बिल्कुल घबरा जाती है — "अरे अरे अरे! मेरे को स्लट बोल दिया, मुझे कैरेक्टरलेस बोल दिया, चरित्रहीना बोल दिया!" अरे, बोलने दो। जो बोलता है ना, उनका काम है बोलना, लेकिन तुम्हारा काम सुनना नहीं है। सुनना बहुत, बहुत ऊँची बात होती है। सिर्फ उसको सुना जाता है, जो सुनने के लायक हो।

आप जैन धारा से हैं — वहाँ पे आप जानते हो ना, श्रावक-श्राविका को कितना ऊँचा स्थान देते हैं। वो कहते हैं, "श्रवण से भी जो उत्तम पद है,वो हासिल हो सकता है।" श्रवण — इतनी ऊँची बात है। तो फिर आप कैसे इधर-उधर के लोगों की बातें सुन लेती हो? सुननी नहीं है। बोल — तेरा काम है बोलना, मेरा काम सुनना थोड़ी है। और आपकी सबसे बड़ी कमजोरी यही हो सकती है — कि उन्होंने बोला, आपने सुना, और सुन के आपने प्रतिक्रिया कर दी।

तो मैं बोला करता हूँ — मैं पुणे गया था वहाँ पर बड़े-बड़े उच्च कोटि के समाज सुधारक रहे करवे साहब — डी.के. करवे साहब — तो उनके नाम पर एक ऑल गर्ल्स कॉलेज है। तो उन लोगों ने आमंत्रित करा, बड़ा अच्छा लगा था। पूरा ऑडिटोरियम भरा हुआ है, उसमें सब लड़कियाँ, महिलाएँ ही थीं।

तो मैंने उनको यही कहा — कि जब तक आपके मन में, एक उपेक्षा का भाव नहीं आएगा, जब तक आप ये नहीं जानेंगी कि किसकी बात सुननी है, किसकी नहीं सुननी है; जब तक आप अपनी छवि समाज से उधार लेती रहेंगी, आप अपना कैरेक्टर सर्टिफिकेट आप समाज से माँगती रहेंगी — तब तक आप भूल जाइए कि आपके लिए आज़ादी जैसी कोई बात हो सकती है। आपको कुछ नहीं मिलने वाला।

लड़की सब बर्दाश्त कर सकती है — क्या हुआ? फेल हो गई? हाँ, कोई बात नहीं, बर्दाश्त कर लिया। क्या हुआ? कुछ नहीं आता, ज़िन्दगी में करने लायक नहीं आता? वो भी वो बर्दाश्त कर लेगी। लेकिन जैसे ही उसको बोल दो कैरेक्टरलेस, वो एकदम रोना शुरू कर देती है। और ये बात उसके दिमाग में डाल दी गई है कि दुनिया में सबसे बड़ा मूल्य तो कैरेक्टर होता है। मैं आपको बताना चाहता हूँ — सब समझदार लोगों ने, ऋषियों ने, मुनियों ने, जो आपके सच्चे हितैषी थे, उन्होंने आपसे कहा है —

आपके लिए सबसे बड़ा मूल्य बोध का और मुक्ति का होना चाहिए। किसका? ज्ञान और मुक्ति।

ये दो चीज़ें हैं जो सबसे मूल्य की हैं। ये सब बातें — चरित्र, आचरण, शील — ये सब बहुत पीछे आते हैं। और अगर जीवन में बोध है, तो चरित्र अपने आप ठीक चलता है। जीवन में बोध है, तो चरित्र उसके पीछे अपने आप ठीक चलता है। तो चरित्र वग़ैरह की नहीं परवाह करनी होती — बोध की परवाह करनी होती है।

स्वयंसेवी: आचार्य जी, इसमें जो कैरेक्टर है, कैरेक्टर में भी जो सबसे सेंट्रल चीज़ रहती है, वो रहती है उसका शरीर। और शरीर से संबंधित जितनी भी बातें हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ-हाँ। लड़की के कैरेक्टर में और तो कुछ आता ही नहीं है। लड़की क्रूर हो — कोई नहीं कहे कैरेक्टरलेस है। लड़की एकदम महा हिंसक हो, कोई नहीं कहेगा कैरेक्टरलेस है। रोज़ एक बकरा चबाती हो — कोई नहीं कहेगा कैरेक्टरलेस है। लेकिन वो कैरेक्टरलेस कब हो जाएगी? जब अगल-बगल के पाँच-सात लोग मिलकर उड़ा दें कि — "अरे, इसका तो फलाने लड़के से चक्कर चल रहा है।" तो फिर कैरेक्टरलेस हो गई।

वो झूठी है, नाकाबिल है, निकम्मी है, आलसी है, ईर्ष्यालु है, द्वेशी है, आसक्त है — जितने तरीक़े के उसमें दुर्गुण हो सकते हैं, सब हैं — कोई नहीं कहेगा वो कैरेक्टरलेस है। कैरेक्टरलेस होने का बस एक मतलब होता है — कोई लड़का है क्या? इसका इधर-उधर कुछ चल रहा है क्या? कुछ सेक्स का मसला है क्या? बस, इससे ही पूरा कैरेक्टर निर्धारित हो जाता है। सारा का सारा जो कैरेक्टर है,वोशरीर के निचले हिस्से में ही वास करता है।

ऋषियों ने समझाया है कि कैरेक्टर यहाँ (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) वास करता है। यहाँ — ये ऋषियों की दृष्टि है। उन्होंने आपके शरीर के भी उच्चतम बिंदु को देखा। उन्होंने कहा, कैरेक्टर का संबंध इससे है। और समाज — आपके कैरेक्टर का संबंध आपके शरीर के भी जो सबसे निचला हिस्सा है, उससे लगाता है। कहता है — सेक्स? अगर सेक्स है तो कैरेक्टर खराब है। सेक्स नहीं है — तो बाकी तुम कुछ करो, वो चोर भी है लड़की — तो चलेगा। वो कैरेक्टर लेकिन सेक्स से ही तय होगा। ये क्या बात है?

अगर आगे बढ़ना है — तो ये साफ़ समझना होगा कि यही सब लोग हैं अगल-बगल वाले, जिन्होंने आपको आज तक पीछे बाँध कर रखा था। और यही लोग हैं — जिन्होंने पीछे बाँध कर रखा था — तो आगे बढ़ने के लिए इनकी उपेक्षा तो करनी पड़ेगी ना, बाबा। वो भेड़ है। वो आज़ाद होना चाहती है — तो क्या जो उसका मालिक है, उसकी कंसेंट लेकर आज़ाद होगी? और मालिक उसको बोल देगा — "जितनी भेड़ें यहाँ से भागती हैं, सब कैरेक्टरलेस हैं।" तो कहेगी — "हॉ…जो भेड़ बेचारी जान बचा के भाग गई, वो चरित्रहीन थी?" ऐसे थोड़ी होता है देखा करो — किसको सुनना है, किसको नहीं सुनना है।

जिसको सुनना है, उसको बिल्कुल निहत्थे होकर के, समर्पित होकर के, नमित होकर के सुनो। और जिनको नहीं सुनना — उनको ज़रा भी कान नहीं देना है। "तुम्हें जो बोलना है, बोलते रहो — हम तुमको नहीं सुनते।" इसका मतलब ये नहीं है कि हम अहंकारी हैं। इसका मतलब ये है कि हमारे पास विवेक है। हम जानते हैं — किसकी बात सुननी है। और जब हम जानते हैं — किसकी सुननी है — जहाँ हम सुनते हैं, वहाँ हम पूरी श्रद्धा से, तन्मयता से और समर्पण से सुनते हैं। लेकिन जिनकी बात हमें नहीं सुननी — उनकी एकदम नहीं सुनते।

स्वयंसेवी: आचार्य जी, जो एक चीज़ और ये रहता है कि जो विवाहित महिलाएँ हैं, वो एक तरीके से थोड़ी सुपीरियर देखी जाती हैं अविवाहित महिलाओं के कंपैरिज़न में।

आचार्य प्रशांत: किसके द्वारा?

स्वयंसेवी: लोगों के द्वारा ही।

आचार्य प्रशांत: तो लोगों को देखने दो ना! हर चीज़ का देखो, मेरे पास एक ही जवाब होगा — लोगों का तर्क मत दो। लोग देखते हैं ऐसे, देखने दो। कि कोई विवाहित है तो सुपीरियर, कैसे भाई? कैसे हो गया? विवाहित से सुपीरियर का क्या ताल्लुक है?

विवाह का क्या अर्थ होता है? विवाह की परिभाषा करो। विवाह का क्या अर्थ है? विवाह का अर्थ होता है — एक पुरुष और एक स्त्री अब समागम करने लग गए हैं। हम वो अब साहचर्य करने लग गए हैं, एक ही कमरे में अब रहने लग गए हैं, एक ही बिस्तर पर सोने लग गए हैं। तो आप कहते हो विवाह! इससे आप में श्रेष्ठता कैसे आ गई?

स्वयंसेवी: क्योंकि अब आपका जो शरीर है, वो किसी एक पर्टिकुलर व्यक्ति के साथ बंध गया। आपका कैरेक्टर एक पर्टिकुलर व्यक्ति के साथ बंध गया।

आचार्य प्रशांत: ठीक है। आपका शरीर एक दूसरे विपरीत लिंगी के साथ अब बांध दिया गया रस्सरा ले के। तो इससे आप श्रेष्ठ कैसे हो गए? मैं समझना चाहता हूँ।

स्वयंसेवी: समाज की नजर में उस चीज को कंप्लीशन की तरह देखा जा रहा है।

आचार्य प्रशांत: ये कंप्लीशन कैसे हो गया? मुझे किसी औरत के साथ बांध के एक बिस्तर पर डाल दिया गया — ये कंप्लीशन कैसे हो गया है? मैं समझना चाहता हूँ परिभाषा क्या है इस पूरी चीज़ की? मैं इसका विरोध नहीं कर रहा हूँ। जिन्हें विवाह करना है, वो करें। और इतिहास में विवाह से बहुत फायदे भी रहे हैं। बहुत लोग ऐसे हैं दुनिया में, ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं, जिनको अगर विवाह नहीं करोगे तो उपद्रव करेंगे। ठीक है? तो विवाह के होंगे अपने फायदे। लेकिन मैं येजानना चाहता हूँ कि विवाह किसी को श्रेष्ठ कैसे बना देता है?येतो समझा दो मुझको।

स्वयंसेवी: वो स्टीरियोटाइप ही बन गया है कि एक महिला की जो एक तरीके से डेस्टिनी है या जो सबसे इंपॉर्टेंट चीज़ है, वो चीज़ ही एक पुरुष है और पुरुष के साथ जो संबंध है वो विवाह है।

आचार्य प्रशांत: ये स्टीरियोटाइप जो है,ये किसकी नजर में है?

स्वयंसेवी: लोगों की नजर में।

आचार्य प्रशांत: लोगों की नजर में? तो लोगों की नजर में रहने दीजिए ना, आपकी नजर में नहीं होना चाहिए।

** सारी समस्या तब आती है जब आप लोगों की नजर को अपनी नजर बना लेती हैं। लोग जो कहते हैं, कहने दो। आप अपना काम करो ना।**

आज आपके पास दुनिया भर की सूचना है, इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी है, ज्ञान है। क्या आपको नहीं पता है कि दुनिया में ऊँचे लोग क्या हैं और ऊँचे काम क्या हैं? आप उन पे ध्यान दीजिए ना। आप ऊँचे इंस्टीट्यूशंस के पास जाइए। आप ऊँची किताबें पढ़िए। आपको भीड़ के शोर पर इतना ध्यान देना क्यों है? या देना है?

जहाँ सार है, जहाँ श्रेष्ठता है, जहाँ रस है, आप उधर को जाइए ना। ये सब तो लोग हैं, ये तो क्या हैं? ऐसे ही हैं। दुर्भाग्य की बात है। मैं कोई उनके प्रति अवमानना से नहीं बोल रहा हूँ, ये मैं उनका कोई अपमान करने के लिए नहीं बोल रहा हूँ कि सब लोग घटिया हैं। ये दुर्भाग्य की बात है। लेकिन यथार्थ यही है, यथार्थ यही है कि अधिकांश लोग — 80–90% लोग — जीवन के बड़े ही निचले, साफ़ बोलूँ तो घटिया तलों पर जीते हैं।

उनकी बातों पर ध्यान क्यों देना? भले ही उनका आपसे कोई भी रिश्ता हो, भले ही वो कोई भी हो आपके। लेकिन अगर आपको दिखे कि किसी व्यक्ति की चेतना का स्तर ही बड़ा गिरा हुआ है, तो आप उसकी बात पर ध्यान क्यों देना चाहेंगे?

स्वयंसेवी: इसमें जी एक तर्क और दिया जाता है कि क्योंकि महिला के पास रिप्रोडक्टिव सिस्टम होता है तो प्रकृति ने उसको बनाया ही इस तरीके से है कि उसका काम ही है और एक बहुत इंपॉर्टेंट काम है बच्चे को जन्मना।

आचार्य प्रशांत: अरे! प्रकृति को आप बहुत पीछे छोड़ आए हो। कौन सी प्रकृति? प्रकृति में तो ये कोट नहीं होता। प्रकृति तो पीछे छोड़ आए, प्रकृति में कौन जी रहा है? आपके जीवन में प्रकृति वाली बातें कितनी हैं, भाई ये बताइए ना।ये जो माइक रखा है,ये प्रकृति से, किस पेड़ से आया है?

ये प्रकृति, जिस प्रकृति की आप बात कर रहे हो, फिजिकल नेचर — उससे ही तो आगे बढ़ने को विकास कहा जाता है ना, उससे ही आगे बढ़ने को सभ्यता, संस्कृति कही जाती है। जो बिल्कुल प्रकृतिस्थ रहते हैं, क्या आप उन्हें सभ्य बोलते हो? कुछ दो-चार के नाम बताओ जो बिल्कुल प्रकृति के साथ एक होकर रहते हैं। उनका नाम बताओ एक-आध का।

स्वयंसेवी: जानवर।

आचार्य प्रशांत: लप्पू बंदर, ठीक। ये लप्पू बंदर है वो बिल्कुल प्रकृति का बेटा है। वो कुछ भी ऐसा नहीं करता जो प्रकृति से हटकर हो। उसको आप सभ्य बोलते हो? उसको आप सुसंस्कृत बोलते हो? तो प्रकृति को तो इंसान बहुत पीछे छोड़ चुका है ना, इसीलिए इंसान कहलाता है। आप प्रकृति की कितनी चीजों पर चलते हो?

प्रकृति में बाल कटते हैं क्या? प्रकृति में शौच भी करी जाती है। प्रकृति में तो जानवर ऐसे घूमते रहते हैं। जानवर गंदे मल त्याग किया कुछ किया, वो थोड़ी है कि अपने आप को साफ़ रखते हैं।प्रकृति में भाषा होती है? होती भी है तो बहुत ही एकदम आरंभिक स्तर की भाषा होती है — पक्षियों की, पशुओं की।प्रकृति में विचार होते हैं क्या? प्रकृति में घर होते हैं? प्रकृति में पंखा होता है क्या?

तो प्रकृति में तो विवाह भी नहीं होता। अगर यही कहना है कि प्रकृति पर ही चलना है और स्त्रियाँ अपना प्राकृतिक काम करें, तो प्रकृति में तो विवाह भी नहीं होता। तो फिर प्रकृति का क्या आप क्या तर्क दे रहे हो?

इंसान को प्रकृति पर नहीं, बोध पर चलना होता है।

पूरी भगवद गीता आपको बार-बार यही सिखा रही है कि बेटा, तुम्हारे सामने दो रास्ते हैं — या तो प्रकृति की ओर चले जाओ, या श्री कृष्ण की ओर चले जाओ। प्रकृति को ही माया कहते हैं और श्री कृष्ण को ही आत्मा कहते हैं। तो या तो माया को चुन लो, या सत्य को चुन लो, पूरी भगवद गीता यही है। और आप तर्क दे रहे हो कि स्त्री को तो जो अपना प्राकृतिक काम है, वही करना चाहिए। स्त्री का प्राकृतिक काम चलो, बच्चे पैदा करना हो गया। पुरुष का प्राकृतिक काम क्या है? फिर पेड़ पर चढ़ना? खरगोश के पीछे भागना? तो फिर पुरुष भी अपना प्राकृतिक काम करे। वो बैंक में जाकर के मैनेजर क्यों बन रहा है? प्रकृति में तो बैंक मैनेजर नहीं होते। प्रकृति में तो मंदिर भी नहीं होते। प्रकृति में तो धर्म भी नहीं होता। प्रकृति में तो कुछ नहीं होता।

तो आप महिला को क्यों बोल रहे हो कि तेरा प्राकृतिक काम है बच्चे पैदा करना? तू वही कर सबसे पहले? प्रकृति का तर्क दोगे तो ये सब जितने भवन हैं, इमारतें हैं, बैंक हैं, तुम्हारी लोकसभा है — सब कुछ दुनिया का गिरा दो, ध्वस्त करो। जंगल खड़े करो, प्रकृति में सिर्फ जंगल होता है। ये बहुत घटिया तर्क होता है। अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए हम प्रकृति को तर्क की तरह इस्तेमाल करते हैं।

हाँ भाई, तू क्यों इतना मांस खाता है? क्योंकि शेर भी तो मांस खाता है। क्या तर्क है ये? मूर्खता का। जा जंगल में, अगर प्रकृति का तर्क देना है, तो सबसे पहले घर छोड़ दे और जंगल में जा और कपड़े उतार। शेर कपड़े पहनता है क्या? तूने कपड़े क्यों पहने?

तो ये सब कुछ नहीं है कि —"महिला तो होती ही है, देखो, प्रकृति ने उसको तैयार किया है गर्भधारण के लिए।" तो पुरुष को काहे के लिए तैयार किया? फिर तो पुरुष को प्रकृति ने तैयार किया है कि वो अधिक से अधिक महिलाओं को गर्भ दे सके, तो पुरुष को फिर क्यों रोकते हो? पुरुष से क्यों कहते हो कि तुम्हें एक पत्नीव्रता होना चाहिए? प्रकृति में तो जो पुरुष होते हैं — माने नर — वो जितनी महिलाएँ पाते हैं — माने मादा — वो उनके सबके साथ जोड़ा बनाते हैं। तो फिर मनुष्यों के समाज में पुरुष को क्यों रोका जाता है कि नहीं, तुम 20 महिलाओं के साथ जोड़ा मत बनाओ?

प्रकृति का तर्क व्यर्थ है।

स्वयंसेवी: इसमें ऐसे ये रहता है कि एक जोड़ा जो है वो स्टेबिलिटी लाता है पूरी सोसाइटी के अंदर।

आचार्य प्रशांत: देखो, आप स्टेबिलिटी के लिए नहीं पैदा हुए हो, आप लिबरेशन के लिए पैदा हुए हो। ठीक है न? स्टेबिलिटी अपने आप में अच्छा मूल्य हो सकता है अगर आप सही जगह पर स्टेबल हो। ये (कप) यहाँ पर स्टेबल है कि नहीं है? यहाँ मैं छोड़ दूँ, तो 20 घंटे भी यहाँ रहेगा, गिर नहीं जाएगा, हो सकता है, एक साल भी यहाँ पड़ा रहे, छोड़ दूँ तो। तो स्टेबल तो है ये यहाँ पर, अब मेरी पहुँच में तो आ नहीं रहा। तो स्टेबिलिटी सबसे बड़ी बात कैसे हो गई?

स्टेबिलिटी सबसे बड़ी बात नहीं होती। ये गलत जगह स्टेबल हो गया है। पहली बात तो, स्टेबल अगर होना भी है तो सही जगह हो जाओ और दूसरी बात, तुम यहाँ स्टेबल हो, और खुल रहा नहीं है ढक्कन। तुम मेरे काम नहीं आ रहे, तुम्हारी स्टेबिलिटी भी किसी काम की नहीं है।

स्टेबिलिटी दो तरह से खराब हो सकती है। पहली बात, तुम गलत जगह स्टेबल हो गए, तब तो उसे तामसिकता बोलते हैं — कि गलत जगह हो, लेकिन वही मुर्छित पड़े हो, मस्त पड़े हो, बेहोश पड़े हो, नशे में पड़े हो। गलत जगह पर पड़े हो, लेकिन मस्त हो एकदम, उसे तामसिकता बोलते हैं। तो तामसिक आदमी बहुत स्टेबल होता है। वो बेहोश पड़ा हुआ है — स्टेबल है। एक शराबी शराब पीकर बहुत स्टेबल होकर गटर में पड़ा हुआ है कोई अनस्टेबल थोड़ी है वो। उसको छोड़ दो जैसे पड़ा है, पड़ा रहेगा वो — स्टेबल है। एक आदमी सोया पड़ा है अपने बिस्तर पर स्टेबली। ऐसा होता है क्या? बिस्तर से गिर जाते हो — अनस्टेबल इक्विलिब्रियम होता है क्या?

बिस्तर पर सो रहे हो, 3:00 बज गए दिन के, अभी भी सो रहे हो, स्टेबल तो हो ही। स्टेबिलिटी अपने आप में हाईएस्ट वैल्यू नहीं होती कि आप कहो कि मेरी मैरिज स्टेबल है, इसलिए वाह क्या बात है! भारत ने यही गुनाह कर दिया न, हमने स्टेबिलिटी को सबसे ऊँचा मूल्य बना दिया। हम सबसे खुश हो जाते हैं कि हमारा डिवोर्स रेट सबसे कम है — मैरिज स्टेबल है। अरे स्टेबल है तो क्या हो गया?

मनोवैज्ञानिकों से जाकर पूछो, तो वो कहेंगे कि भारत को बहुत ज़रूरत है कि यहाँ पर मैरिजेस थोड़ी कम स्टेबल हो, क्योंकि ये जो मैरिजेस की स्टेबिलिटी है यहाँ पर, वो मानसिक रोगों का बहुत बड़ा कारण है। दो व्यक्ति हैं जो गलत तरीके से एक दूसरे के साथ फँस गए हैं और उसको आप एक स्टेबल रिश्ता बोल रहे हो। दोनों पागल हुए जा रहे हैं एक दूसरे के साथ।

स्टेबिलिटी बहुत बड़ा मूल्य नहीं होती। स्टेबिलिटी माने स्थायित्व। स्थायित्व बड़ा मूल्य नहीं होता, बड़ा मूल्य होता है लिबरेशन, ज्ञान, प्रेम — यह बड़ी बातें होती हैं। आपको ये देखना है कि वो जो रिश्ता है, उसमें परस्पर मुक्ति है कि नहीं है। उसमें परस्पर प्रेम है कि नहीं है— ये बड़ी बातें हैं। इनके बाद आती है स्टेबिलिटी। स्टेबिलिटी न भी हो तो चलेगा, लेकिन प्रेम नहीं है तो नहीं चलेगा। स्टेबिलिटी न हो तो चलेगा, लेकिन अगर मुक्ति नहीं है, मुक्ति की जगह बंधन है, तो नहीं चलेगा। ये बात समझनी पड़ेगी।

हमने बड़ी गलती कर दी है। हमने कह दिया शादी तो माने सात जन्म का रिश्ता, उसे स्टेबल होना ही पड़ेगा सात जन्म तक। ये गलत बात है — बहुत गलत बात है। इसके मारे इंसान कहीं का नहीं बचता। एक तो तुम उसकी शादी कर देते हो बिना उसको बहुत बताए, जाने, पूछे। कुछ को पता तो होता नहीं, विशेषकर लड़की को तो कुछ भी नहीं पता होता।

आज भी, तुम जो विकसित शहर हैं और जहाँ पर थोड़ा उदार विचार आ गया है, उसको छोड़ दो, तो आज भी भारत में — कम से कम उत्तर भारत में — 90% लड़कियों को शादी से पहले अपने वर के बारे में बहुत ज़्यादा नहीं पता होता। एक-आध मुलाकात हो गई, ऐसे ही फोन पे पूछ लिया, आमने-सामने एक-आध बात हो गई। इससे ज़्यादा की अनुमति ही नहीं होती। और वर के घर के बारे में तो और कुछ नहीं पता होता।

ज़्यादा विस्तार में पूछे तो कहेंगे, बेशर्म है, जासूसी कर रही है। ज़्यादा घुलने मिलने की कोशिश करे अगर अपने भावी पति से, तो कह दिया जाएगा — ये देखो निर्लज्ज, चरित्रहीन है। पता नहीं क्या करने जा रही है, मिलने जा रही है। बोल रही, दस बार जाऊँगी, मिलूँगी उसके साथ। क्या करेगी मिलके? जितना मिलन करना हो, शादी के बाद करना।

अब उसे कुछ पता तो है नहीं। तुमने उसको बाँध दिया है, और अब तुम कह रहे हो — स्टेबल भी रहो। तो माने पहले तो इग्नोरेंस है — इग्नोरेंस माने ज्ञान का अभाव। तो पहले तो उसको कोई ज्ञान दिया ही नहीं पति के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम, कोई जानकारी नहीं। और फिर कह रहे हो कि अब ये जो इग्नोरेंस का रिश्ता है, इसको स्टेबल भी रखो। माने अज्ञान को स्थायी बना लो — अज्ञान को ही स्थायी बना लो। ये कहाँ की बुद्धिमानी है? बताओ न।

और अब इस तरह के विवाह से जो बच्चे पैदा होंगे, वो एकदम ही मानसिक रोगी होंगे कि नहीं होंगे? ऐसे विवाहों से बच्चे पैदा कराना पूरी इंसानियत के प्रति अपराध है कि नहीं है? बोलो। उस बच्चे ने क्या गुनाह किया था? उसको ऐसे घर में पैदा होना पड़ रहा है। और अब उसका किस तरीके का मानसिक विकास होगा उस घर में बड़े होकर?

स्टेबिलिटी बड़ी बात नहीं होती है।

स्वयंसेवी: इसमें आचार्य जी एक तर्क और आता है कि जो अविवाहित महिलाएँ होती हैं, उनको इस तरीके से नेम कर दिया जाता है कि ये मैस्कुलिन ज़्यादा हैं, इनका जो फेमिनिन पोर्शन है वो थोड़ा सा कम है — ये मैस्कुलिन ज़्यादा हैं। तो उनको उनका पूरा का पूरा जो फिर से चरित्र जो है, उसी के अराउंड एक तरीके से फ्रेम कर दिया जाता है।

और इस सब की वजह से प्रॉब्लम ये होती है कि कहीं न कहीं, जो आम नागरिक होते हैं, वो सोशल आइडेंटिटी पर जीते हैं या उस पर ज़िंदा रहते हैं। एक महिला के साथ क्या होता है — कि उसकी जो सोशल आइडेंटिटी है, वो इस तरीके से बाँध दी गई है कि ये-ये चीज़ें आपकी ज़िन्दगी में होंगी तो वो सही डायरेक्शन में जा रहा है। और अगर इनमें से कुछ भी है जो नहीं हो पा रहा है, स्पेशली विद रिस्पेक्ट टू द प्रेज़ेंस ऑफ अ मैन इन अ वुमन'स लाइफ, तो वहाँ पर एक इंटरनल क्राइसिस आ जाता है। एक इंटरनल डिवाइड हो जाता है — कि एक्ज़ैक्टली चीज़ फिर है क्या?

क्योंकि एक तरफ तो आपके पास वो सोशल आइडेंटिटी पहले से आपके लिए डिफ़ाइन कर दी गई है, और भीतर ही कुछ ऐसा भी है जो मुक्ति की तरफ भी भागता है। तो भीतर ही एक इंटरनल डिवाइड क्रिएट हो जाती है।

आचार्य प्रशांत: वो हर मनुष्य में होता है, वो जो भी चैतन्य मनुष्य है, उसके साथ होगा। गौतम बुद्ध के साथ यही तो हुआ था। उनको एक पहचान दे दी गई थी — तुम राजकुमार हो, तुम पति हो और बड़ी सुंदर उनके लिए पत्नी चुन के ले आए थे उनके पिता। और दूसरी ओर, उनके भीतर कुछ था जो मुक्ति के लिए भाग रहा था। तो फिर आपको निर्णय करना पड़ता है कि आपको वहीं राजमहल में पड़े रहना है या निकल पड़ना है साधना की ओर और मुक्ति की ओर, अपना रास्ता नया बनाने की ओर। ये तो आपको तय करना है।

देखो, वही बात मैं दोहरा रहा हूँ — थोड़ी देर पहले बोली थी। दूसरे लोग कितनी भी कोशिश कर लें, एक सीमा से ज़्यादा सहायता नहीं कर सकते। ऐसा नहीं कि वो करना नहीं चाहते। ये नियम है जीवन का कि दूसरा व्यक्ति आपकी बहुत सहायता नहीं कर पाएगा, भले ही उसकी नीयत कितनी भी अच्छी हो, भले ही उसके मन में कितनी भी करुणा हो।

मैं कितनी भी कोशिश करूँ, मैं बहुत नहीं आपकी सहायता कर सकता। अंततः तो अपने पैरों पे चलना पड़ेगा और अपने पंखों से उड़ना पड़ेगा। दूसरा आके हाथ थाम सकता है, प्रेरणा दे सकता है, धक्का दे सकता है। आपके लिए कुछ कष्ट सह सकता है चलिए, आपके लिए बहुत कष्ट भी सह लेगा। लेकिन आपके लिए दूसरा कोई बहुत कष्ट भी सह ले, तो भी वो आपके पाँव नहीं बन सकता न। आपको ही अपने पाँवों का और अपनी मांसपेशियों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। दूसरा आपको उड़ने के उदाहरण दिखा सकता है, उड़ने की सीख बता सकता है। लेकिन पंखों पर ज़ोर तो आपको ही लगाना पड़ेगा उड़ने के लिए, और उड़ने पर जो खतरे होते हैं, वो जोखिम भी सब आपको ही उठाने पड़ेंगे।

तो ले-दे के बात तो उसी व्यक्ति पर, माने उसी महिला पर ही आती है — कि बेटा, आगे बढ़ो। हम साथ हो सकते हैं तुम्हारे, और हम तुम्हें भरोसा दिला रहे हैं — हम तुम्हारे साथ हैं। लेकिन जी तो तुम्हें अपनी स्वयं ही जीनी है न। यही तो चैतन्य जीव होने का आनंद है — कि अपने अनुसार जी जीनी होती है। आप कोई कुर्सी थोड़ी हो कि आप एक गलत जगह रखी हुई थी। लड़की है, कुर्सी है, वो बेचारी गलत जगह फँस गई थी तो आचार्य जी गए, कुर्सी को उठा के सही जगह रख दिया। अगर मैं उसको उठा के सही जगह भी रख दूँ, तो भी कुर्सी तो कुर्सी रह गई न, उसमें प्राण तो नहीं आ गए। उसमें चेतना तो नहीं आ गई।

चेतना की गरिमा तो इसी में है कि वो स्वयं उठकर गलत जगह से सही जगह जाए।

मेरे जैसा कोई आकर के अधिक से अधिक रोशनी दिखा सकता है, ऋषियों की बात बता सकता है, दार्शनिकों की राय बता सकता है, कुछ प्रेरणा दे सकता है, बगल में खड़ा रह सकता है। लेकिन इस कुर्सी को चलना अपने पाँवों से ही पड़ेगा। नहीं तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो कुर्सी नीचे एक सड़े हुए तहखाने में पड़ी हुई थी, उस पर जाले लगे हुए थे ऐसी कुर्सी थी। कोई गया हितैषी, उसने उस कुर्सी को उठा के मंदिर में रख दिया अब वो कुर्सी पूजी जा रही है। लेकिन है तो अभी भी वो एक प्राणहीन कुर्सी ही न।

तो स्त्री को प्राणहीन कुर्सी नहीं बनना है। अपना दम होना चाहिए — अपनी जान, अपना जोश, अपनी जी, अपनी चेतना, अपना बोध, अपना विकास, अपनी मुक्ति — आत्मा, आत्मा माने वो जो पूरे तरीके से हमारा है, मेरी असली पहचान।

स्वयंसेवी: इसमें आचार्य जी, महिलाओं को अक्सर इनकैपेबल देखा जाता है ज़िन्दगी के बड़े डिसीज़न्स लेने में। चाहे फ़ाइनेंस की बात हो, रियल एस्टेट की बात हो, बिज़नेस रन करने की बात हो — जितनी भी इस तरीके की चीज़ें होती हैं, वहाँ पर अक्सर ही उन्हें इनकैपेबल देखा जाता है एंड वो खुद भी कहीं ना कहीं खुद को इनकैपेबल पाती हैं।

आचार्य प्रशांत: देखो, देखो तो वो महिलाएँ फिर उन महिलाओं का उदाहरण क्यों नहीं लेतीं? इतिहास में दर्जनों-सैकड़ों उदाहरण हैं महिलाओं के, जो बहुत ऊँचा गईं। विज्ञान के क्षेत्र में ले लोगे तो तुम मैरी क्यूरी को ले लो। तुम राजनीति के क्षेत्र में अगर लेना चाहते हो तो पीछे रज़िया सुल्तान से लेकर वर्तमान में इंदिरा गांधी तक कितने उदाहरण तुमको मिल जाएँगे। विदेशों में चले जाओगे तो वहाँ पर तुमको मार्गरेट थैचर बैठी हुई मिल जाएँगी। और अभी अगर वर्तमान में देखोगे तो वहाँ पर वो कमला हैरिस आ गई हैं। इनकी ओर आप क्यों नहीं देखेंगी?

आप खेल के क्षेत्र में देखें तो अब तो कोई खेल ऐसा नहीं है जो महिलाएँ नहीं खेल रही हैं। और कई बार तो जो महिलाओं के मैच होते हैं वो ज़्यादा रोमांचक होते हैं पुरुषों के मैच से। तो आपने पी. वी. सिंधु का वो जो ओलंपिक्स में मैच हुआ था — वो हार गई थीं उसको, लेकिन वो स्पेन की खिलाड़ी हैं, उनके ख़िलाफ़ उन्होंने खेला था — वो मैच मैंने पूरा लाइव देखा था, पिछले ओलंपिक्स में। तो क्या मैच था वो और बैडमिंटन के मैं और भी मैचेस देखता हूँ जहाँ पे जो मेडल मैचेस होते हैं, और वो ज़बरदस्त मैच था। वैसे ही क्रिकेट में ले लो क्रिकेट को तो हाल तक पुरुषों का ही खेल माना जाता था। अब जो भारत में ही महिलाओं की क्रिकेट टीम है, उसके मैचेस देखने लायक होते हैं। हम क्या छक्के मारती हैं वो!

तो अगर आप महिलाओं के उदाहरणों से प्रेरणा लेना चाहती हैं तो अब तो सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं। आपको लेखिका चाहिए? आपको लेखिका मिलेंगी। आपको गायिका चाहिए? गायिका मिलेंगी। कलाकार चाहिए? कलाकार मिलेंगी। आप बताइए आपको क्या चाहिए? आपको जिस भी क्षेत्र में महिला को देखना है अग्रणी, वहाँ आपको एक नहीं, पचास महिलाओं का उदाहरण मिल जाएगा। और उसके बाद भी कोई कहे कि हमको तो माना ही यही जाता है कि आपको घर में चूल्हा-चौका ही करना है — तो फिर देखिए आप गलत आवाज़ों को सुन रही हैं। आप गलत लोगों को सम्मान और महत्व दे रही हैं। जो सही उदाहरण हैं, उनकी ओर देखिए ना।

स्वयंसेवी: इसमें, आचार्य जी, NCRB का डाटा है — *(नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) *का — कि जो मेजॉरिटी ऑफ़ क्राइम्स होते हैं महिलाओं के अगेंस्ट, वो ज़्यादातर उनके आसपास के क़रीबी लोगों के थ्रू ही होते हैं। या तो घरों में होते हैं या कोई ना कोई जानने वाला व्यक्ति ही होता है। तो एक चीज़ ये रहती है कि — या तो अपने शरीर की ओनरशिप हमको दे दो, या फिर हम आपके शरीर पे ही अटैक कर देंगे। वहाँ रेप्स होते हैं, ऑनर किलिंग होती है, एसिड अटैक्स होते हैं।

आचार्य प्रशांत: तो देखो ना, आपने अभी जो समस्या का विवरण दिया, उसी में समाधान भी है। आप कह रहे हो महिला पर 70% जो अत्याचार और अपराध होते हैं, वो उसके नज़दीकी लोग ही करते हैं — परिवार के लोग, चाहे उसके प्रेमी लोग — यही लोग करते हैं। ठीक है? अगर मैं आपको ये बताऊँ कि ऐसा होता है — ये डाटा मैं आपको बता दूँ — और फिर कहूँ कि तो अगर लड़की को अपने ऊपर अपराध रोकने हैं, तो उसे क्या करना चाहिए, तो क्या उत्तर आएगा? सीधे तर्क लगाइए।

अगर मैं कहूँ कि आपके ऊपर अपराध होने की 70% संभावना आपके निकट के लोगों से है, तो आप अगर अपराध से बचना चाहती हैं, तो आपको क्या करना होगा?

स्वयंसेवी: बाहर।

आचार्य प्रशांत: बस यही बात है। आप अपने निकट के लोग वही रखिए ना जो तमीज़ के, ढंग के हों। आपने गलत लोगों से घिरे रहने का निर्णय क्यों कर रखा है? अब यही गलत लोग हैं, फिर जो आप पर 100 तरह के अत्याचार करते हैं। दहेज हत्याएँ हो रही हैं। प्रतिदिन तो न जाने कितनी — बीस तो दहेज हत्याएँ हो रही हैं प्रतिदिन — और ये वो हैं सिर्फ जो हम जानते हैं। और भी और पता नहीं कितने तरह के अपराध हो रहे हैं। महिलाएँ युद्धों में तो मरती नहीं, महिलाओं का ये तो होता नहीं कि वो वहाँ जा रही हैं और सीमा पर गोली खा रही हैं। तो महिलाओं की मौत सब कहाँ हो रही है?

और प्राकृतिक तौर पे, प्रकृति ने महिला को थोड़ा ज़्यादा मज़बूत बनाया है। वो पुरुष से ज़्यादा जीती है तो वो बीमारियों से भी कम मरती है। ना तो फिर वो युद्ध में मर रही है, ना वो बीमारी में मर रही है, तो कहाँ मर रही है? वो सड़क पर भी कम मर रही है क्योंकि वाहन कम चलाती है, तो सड़क दुर्घटनाओं में भी उसकी इतनी नहीं मौत हो रही। वो घर के अंदर मर रही है। और ये मैं नहीं — ये आँकड़े बोल रहे हैं। ये बात जिनको इस बात पे बहुत अचरज हो रहा हो या क्रोध आ रहा हो, वो आँकड़ों को देख लें। महिला घर के अंदर मर रही है, और घर के अंदर वो उन्हीं के द्वारा मारी जा रही है, जिनको वो अपना कहती है। कई तरीकों से मारी जा रही है। तो फिर अगर वो बचना चाहती है, तो वो ग़ौर से देखे ना कि किसको अपना कहना है और किसको अपना नहीं कहना है।

आप जिसको अपना कह रहे हो, वही आप पर अत्याचार कर रहा है, कभी हत्या कर रहा है तो बेकार में क्यों बेवकूफ़ लोगों को अपना बोल देते हो? किसी से भी विवाह कर लेते हो, किसी को भी अपना प्रेमी घोषित कर देते हो, वही प्रेमी फिर तुम्हारी हत्या कर रहा है। तुम्हें कुछ भी अपनी सुधबुध नहीं है क्या? विवेक कहाँ है? बुद्धि कहाँ है?

स्वयंसेवी: इससे थोड़ा सा अलग बात है कि भारत में हमेशा से ही देवियों को पूजा गया है। देवियाँ तो किसी पर डिपेंडेंट नहीं रही हैं बहुत करेजियस ही उनको हमेशा दिखाया — बोल्ड दिखाया है। लेकिन जो वर्च्यूस एक वुमन में जनरली प्रेस किए जाते हैं समाज में, वो ऐसे रहते हैं जो कि सबमिसिव हों। लड़की थोड़ी सुनती हो, ज़्यादा आर्ग्युमेंटेटिव ना हो, या फिर शायद आपके घर में आए तो बाहर जॉब करना ज़्यादा पसंद ना करती हो, थोड़ी ट्रेडिशनल तरीक़े की हो। तो एक तरफ़ तो आप पूजते उन्हें हो, जो कि उन सारी वैल्यूज़ को रिप्रेज़ेंट करती हैं, और दूसरी तरफ़ आप अपने घर में जो चाहते हो, वो बिल्कुल ही अलग चीज़ है। तो ये इतना बड़ा गैप क्यों है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, आडंबर है बस, दोगलापन और कुछ नहीं। दो ही बात है — कि आप जिन देवियों को पूज रहे हो, उनके तो हाथ में आप बल भी दिखाते हो, ज्ञान भी दिखाते हो, शस्त्र भी दिखाते हो, शास्त्र भी दिखाते हो। भारत में जो देवी का सिद्धांत है, सब देवियाँ उसी एक आदि शक्ति का रूप हैं। तो नौ दुर्गा उदाहरण के लिए आती हैं, उसमें आप नौ देवियाँ लेते हो — वो जो नौ देवियाँ हैं, वो वास्तव में एक ही शक्ति के नौ रूप होते हैं। और नौ ही रूप नहीं होते हैं आप दुर्गा सप्तशती के पास जाओगे अगर, देवी महात्म्य में, तो वहाँ आपको देवियों के कुछ नहीं तो दो दर्जन नाम मिलेंगे। ठीक है? और वो सब की सब बड़ी सबल, सुदृढ़, ज्ञानी, शक्तियाँ हैं।

तो एक ओर तो हम उनकी पूजा कर रहे हैं और दूसरी ओर जो घर की महिला है, हम चाहते हैं कि वो बिल्कुल हमारे चरणों में लोटे। वहाँ पर जो महिला है, वो ऐसी है कि सब देवता आकर उसकी स्तुति कर रहे हैं। और देवता कह रहे हैं कि — "देवी, हमसे ये नहीं संभाले जा रहे महिषासुर और शुभ-निशुंभ और इनकी सेना — ये इतने नालायक हैं, हमसे नहीं संभाले जा रहे।" तो जो काम हम पुरुष नहीं कर सकते, देवी आप वो काम करके दिखा दो ना। तो एक ओर तो आपको ये सिद्धांत दिया गया है कि महिला की यहाँ तक पात्रता और शक्ति होती है कि जो पुरुष नहीं कर सकता,वो महिला करेगी।

और ये कोई गर्व रखने की बात नहीं हो रही है कि आप कहें कि — "हाँ, एक काम तो है ही ना जो महिला करती है, पुरुष नहीं करता — कि वो संतान पैदा करती है।" नहीं, आपका जो शक्ति का सिद्धांत है, उसमें जो देवियाँ हैं, उनको ये ज़िम्मेदारी थोड़ी दी गई है कि आप संतान पैदा करिए। उनको ज़िम्मेदारी दी गई है दुनिया के सबसे ऊँचे काम करने की — अधर्म हटाना है, और जो धार्मिक लोग हैं उनकी रक्षा करनी है, हर तरीक़े से जगत में कल्याण का संचार करना है। ये ज़िम्मेदारी देवियों को दी गई है।

और लेकिन जो घर की "देवी" है, देखो हम उससे क्या कराते हैं—कहते हैं कि "तू घर में रह और बिस्तर साफ़ कर दे, और चाय बना दे, और बर्तन और कपड़े धो दे। यही सब तू घर में कर दे और फिर जब ख़ाली टाइम मिले तो बैठ के महिलाओं वाले सब सीरियल देख ले दोपहर में, और अपना दिमाग़ ख़राब कर।" तो ये कुछ भी नहीं है। ये तो फिर बस पाखंड, हिपोक्रेसी है और कुछ नहीं।

स्वयंसेवी: इसमें, आचार्य जी, जो पैट्रियार्की है — पैट्रियार्की को अगर एक व्यक्ति की तरह देखा जाए तो ऐसा मालूम होता है कि वो व्यक्ति बड़ा डरा हुआ है भीतर से। वो दिखने में बहुत डॉमिनेंट दिखता है, वायलेंट भी दिखता है, अग्रेसिव दिखता है। लेकिन मूल में काफ़ी भीतर से डरा हुआ है। तो इसमें एक कोट है, एक फ्रेंच दार्शनिक का — सिमोन डि बोउवार का: "नो वन इज़ ऐरोगेंट टुवर्ड्स वुमन मोर अग्रेसिवली एंड स्कॉर्नफुली दैन द मैन हू इज़ ऐन्शस अबाउट हिज़ विरिलिटी।"

आचार्य प्रशांत: वो तो है ही। देखो, स्त्री की ओर जब आप इसी भाव से देखोगे कि ये मेरे सेक्सुअल कंजम्पशन की चीज़ है, क्योंकि उसको आप चेतना तो मान ही नहीं रहे ना। अब ये तो मान ही नहीं रहे कि मेरे सामने बैठकर के साहित्य की कोई बात कर सकती है, या ये जी की चुनौतियों का सामना मुझसे कंधे से कंधा मिलाकर कर सकती है, ये तो आप मान ही नहीं रहे।

घर में कहीं पे कोई महत्वपूर्ण बैठक चल रही होती है, उसमें सब दादा, ताऊ, चाचा बैठ गए होते हैं, और जो घर की महिला होती है उसका काम ये होता है कि बस वो जब बैठे हैं तो आके उनको चाय सबको सर्व कर दे। घर में किसी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे पे बातचीत चल रही है, तो उसमें पाँच मर्द, पाँच पुरुष बैठे होंगे और गोष्ठी कर रहे होंगे। और महिलाएँ सब या तो पीछे से कहीं कमरों से सुन रही होंगी या कोई एक महिला बीच में आकर पानी रख जाती होगी, उनका इतना ही रहता है। ऐसा थोड़ी है कि पाँच पुरुष बैठे हैं तो पाँच महिलाएँ बैठी हैं और बिल्कुल बराबर की बातचीत हो रही है, सबसे राय ली जा रही है। ऐसा तो नहीं होता।

तो पुरुष ने महिला को ये माना ही नहीं है कि ये मेरे सामने बैठकर दर्शन की, ज्ञान की, विज्ञान की, साहित्य की, विश्व की चर्चा कर सकती है। ये मेरे सामने बैठने लायक नहीं है। क्यों मेरे सामने बैठने लायक नहीं है? क्योंकि मैंने इसको एक ही काम दिया है — तू मेरे सामने नहीं बैठेगी, तू मेरे बगल में लेटेगी। सामने क्या बिठाना है? जब बगल में लिटा करके ही मेरी सारी स्वार्थ पूर्ति हो जाती है, तो सामने क्या बैठाऊँ? और सामने बैठाऊँगा तो इसको पर और निकल आएँगे। जब पर निकल आएँगे तो फिर मैं जब बिस्तर पर लिटाना चाहूँगा अपने बगल में, तो हो सकता है ना-नुकुर कर दे। हो सकता है फिर जो मेरी काम-इच्छा है, जो मेरी शारीरिक इच्छा है, उसकी पूर्ति से इंकार कर दे। या अपनी मर्ज़ी बताने लगे कि नहीं-नहीं, आज नहीं मन कर रहा। तुझसे तेरी राय किसने पूछी?

तेरा काम है कि जब पति आए हम, तो तू पति के चरणों में अपना शरीर अर्पित कर दे, तेरा तो काम येबहै। अब पति की देह को अपनी देह अर्पित करने का काम दिया गया है, तो उसको सामने बैठा के कौन बात करेगा फिर? और बात कराओ तो खतरनाक हो जाती है। इसीलिए तो ज़्यादातर लोग फेमिनिस्ट्स को, या थोड़ी सुलझी हुई महिलाओं को, या थोड़ी जागृत महिलाओं को पसंद ही नहीं करते। वो कहते हैं, बहस बहुत करती हैं, ज़बान लड़ाती हैं। जो बोलो चुपचाप मानती नहीं है। बोलो कि लेट जा चुपचाप और कपड़े उतार, तो सुनती नहीं है। तो बड़ा गुस्सा आता है — अरे ये कैसे? हमारी बात सुन। और उल्टे सामने आकर के ऐसे खड़ी हो जाती है जैसे हमारी बराबरी की हो। बहस कर रही है। ज़बान कैंची की तरह चलती है। इस तरह? तुझे तो मौन होना चाहिए। तेरा सद्गुण तो ये है कि तू पति को परमेश्वर माने, और वो जैसा भी हो — भला है, बुरा है — जैसा भी है, मेरा पति तो मेरा देवता है। यही गाया कर दिन-रात।

तो ये बात, ये बात समझने की है। हालाँकि ये बात पूरी तरह मूर्खता की है, और मैं ये भी कहूँगा कि इस बात ने पुरुषों का भी भरपूर नाश करा है। क्योंकि जब तुम घर में एक शिक्षाहीन, बोधहीन, बलहीन स्त्री तैयार कर लेते हो, तो तुम्हारे ऊपर भी बोझ ही बनती है। और वो तुम्हारी भी जी खराब ही करके रख देती है। लेकिन पुरुष को ये बात समझ में नहीं आई। पुरुष को लगा — मेरी जी खराब हो तो हो, ये मेरी मुठ्ठी के नीचे रहनी चाहिए बस। भले ही फिर ये खुद भी मेरे लिए एक परेशानी का कारण बनती है, वो तो बने, लेकिन रखूँगा मैं इसको दबा के ही।

तो ये सोच रही है, मूर्खतापूर्ण सोच। जिनकी आपने बात करी, वो बहुत प्रसिद्ध नारीवादी हैं फ्रांस की — सिमोन द बोऊआर। और नारीवादी ही नहीं हैं कि बस नारीवादी से हम समझते हैं नारावादी, कि वो नारे लगाती होंगी इधर-उधर। तो नारावादी हैं, वो दार्शनिक हैं, वो उच्च कोटि की अस्तित्ववादी दार्शनिक हैं। वो सार्त्र के बराबर के क़द की दार्शनिक हैं वो। और सार्त्र के साथ वो जीवन भर रहीं और दोनों ने आपसी सहमति से कहा था कि हम ये जो वंशवाद की आइडियोलॉजी है, इसको मानते ही नहीं। ये जो बात होती है न कि बच्चा पैदा करो — ये अपने आप में एक सिद्धांत है। ये आइडियोलॉजी है। हम सोचते हैं कि ये कोई प्राकृतिक अर्ज़ है। नहीं, ये प्राकृतिक अर्ज़ से ज़्यादा एक सोशल आइडियोलॉजी है — वंशवाद। बोले, हम वंशवाद नहीं मानते। हम नहीं मानते।

दोनों ने उत्कृष्ट कोटि के काम करे अपने जीवन में — अद्भुत किए। दोनों ही की मृत्यु अभी 40 साल पहले हुई है लगभग, तो दोनों ने अपनी जी में उत्कृष्ट काम करे। किताबें लिखीं, दर्शन शास्त्र के पूरे विषय को ही दोनों ने आगे बढ़ाया। और सार्त्र तो मुझे मेरे कॉलेज के समय से प्रिय हैं, क्योंकि मैं उनके नाटक अभिनीत किया करता था। तो उनके जो सैडिस्ट थीम्स पर उनके नाटक होते थे, तो मुझे पसंद आते थे। तो उनको ले के मैं फिर मंच पर निर्देशन भी करता था, अभिनय भी करता था।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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