और पिटने का उत्साह! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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और पिटने का उत्साह! || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: आम आदमी की पूरी ज़िन्दगी देख लो। और हम कुछ कर ही नहीं रहे। ऊपर-ऊपर से लगेगा कि अभी हम पढ़ाई कर रहे हैं, ठीक है? अब हम ब्याह कर रहे हैं, अब हम व्यापार कर रहे हैं, अब हम घर बना रहे हैं, अब हम तरक्की कर रहे हैं, अब हम बच्चे पाल-पोस रहे हैं। ऊपर-ऊपर से लगेगा ये सब कारोबार चल रहा है; भीतर-ही-भीतर वास्तव में बस एक काम चल रहा है लगातार, क्या? किसी तरीक़े से दुख से पीछा छुड़ाने की कोशिश।

और दुख से पीछा छुड़ाने की कोशिश वैसी ही है कि जैसे कोई कुत्ता कोशिश कर रहा हो अपनी दुम को चाटने की। वो गोल-गोल, गोल-गोल घूमता जाता है, दुम तक पहुँच ही नहीं पाता क्योंकि वास्तव में वो जो मुँह है उसका, वो दुम से भिन्न नहीं है; वो दुम से जुड़ा हुआ है, वो दुम का ही विस्तार है। या ऐसे कह लो कि कुत्ते की जो दुम है, जो पूँछ है, वो उसके मुँह का विस्तार है। दोनों ही तरीकों से कह सकते हो। कह सकते हो कि पूँछ आगे को बढ़ी तो क्या बन गई? मुँह, या उसकी वो ज़बान बन गई जो पूँछ चाटना चाहती है। या ऐसे भी कह सकते हो कि कुत्ते की जीभ ही थी जो पीछे को बढ़ी तो क्या बन गई? उसकी पूँछ बन गई।

अद्वैत की यही बात है। दो चीज़ें होती हैं जो होती वास्तव में एक हैं, दिखाई अलग-अलग, दूर-दूर पड़ती हैं। एक चीज़, दूसरी चीज़ से अपने-आपको पृथक मानकर उसको नष्ट कर देना चाहती है। पूँछ में खुजली हो रही होगी, और कुत्ता सोच रहा है कि ज़बान से पूँछ का काम कर लूँगा, ठीक? नहीं कर पाएगा। ठीक इसी तरीक़े से, दुख वो खुजली है जिसको सुख मिटाना चाहता है। दुख हो गई कुत्ते की पूँछ में खुजली, और सुख हो गई कुत्ते के मुँह में ज़बान, और कोशिश चल रही है कि काम हो जाए। और आदमी कुत्ते की तरह, जीवनभर लट्टू की तरह नाचता रहता है।

कभी देखना किसी कुत्ते को जो अपनी पूँछ पकड़ना चाह रहा हो, बिलकुल गोल-गोल घूमता है लट्टू की तरह एक ही जगह पर। ये आम आदमी का जीवन है — दुख से झूठी मुक्ति की अहर्निश कोशिश। "ये कर लें तो मुक्ति मिल जाए, ये कर लें तो…"

तो माया इसमें नहीं है कि दुख से हम मुक्ति माँगते हैं और मिलती नहीं; माया इसमें है कि हम दुख से मुक्ति माँगते हैं और थोड़ी-थोड़ी देर के लिए हमें वो मुक्ति मिल भी जाती है। अगर आपने दुख मिटाने की कोशिश की होती, और वो कोशिश पूरे तरीक़े से विफल हो गई होती, तो आपको दुख से मुक्ति मिल जाती क्योंकि आपको आपकी कोशिश से मुक्ति मिल जाती। आप जान जाते कि ये मेरी कोशिश तो बिलकुल ही नाकामियाब है। इस तरह की कोशिश आगे नहीं करूँगा, ये कोशिश विफल हो गई।

लेकिन आपकी कोशिश पूरी तरह विफल नहीं होती। माया का यही काम है। माया आपको पूरी तरह विफल नहीं होने देती। वो बीच-बीच में आपको सफ़लता देती रहती है। कितनी सफ़लता? बस इतनी सफ़लता कि आपके भीतर उत्साह बचा रहे। आप प्रेरित, मोटिवेटेड अनुभव करते रहें। ये है माया का काम। वो अपने कैदियों को मरने नहीं देती। वो उन्हें कंकाल की तरह सुखा ज़रूर देती है, लेकिन इतना देती रहती है कि वो जीवित रहें।

मर ही गए तुम, तो मज़ा क्या है? तो वो अपने गुलाम को मारती नहीं है, ज़िंदा रखती है, लंबी आयु देती है, खूब नचाती है। समझ में आ रही है बात?

भाई, गुलाम कोई इसलिए थोड़े ही बनाता है कि उसको दो दिन में मार दें। गुलाम किसलिए बनाया जाता है? कि इसको कम-से-कम राशन-पानी दो, कम-से-कम दाना दो इसको, लेकिन इतना ज़रूर दे दो कि ये गुलामी करता रहे। ये माया का काम है। वो तुमको इतना सुख ज़रूर चटाती रहेगी कि तुम नाचते रहो कि अभी इतना मिला है तो थोड़ा तो और मिल ही जाएगा। और जब तुम बिलकुल उत्साहहीन होने लग जाओगे, जब निराशा एकदम छाने लगा जाएगी, तो तुम पाओगे कि थोड़ी सी सफ़लता या थोड़ा सा सुख तुमको परोस दिया गया है और तुम्हारे भीतर फिर से शक्ति का संचार हो गया। तुम बिलकुल भूल गए कितनी लातें पड़ी थीं, तुम बिलकुल भूल गए कि तुमको कैसे धूल में रौंदा गया, लुटाया गया। तुम तत्काल खड़े हो जाओेगे थोड़ा सा सुख लेकर के, धूल-वूल झाड़ कर, कहोगे, "और बताओ! अब क्या करना है?" ये आम आदमी का जीवन है। समझ में आ रही है बात?

अध्यात्म क्या कहता है? अध्यात्म कहता है, "बात समझ में आ गई।" बस, ये अंतर है। अध्यात्म का मतलब है, "बात समझ में आ गई।"

ये चल रहा है यहाँ पर खेल। ये सारा सिस्टम, पूरी व्यवस्था ही आ गई समझ में। एक बार ठगे गए, दो बार ठगे गए, वो तो चलो हमारे शारीरिक अस्तित्व का तकाज़ा था। एक बार, दो बार मूर्ख बने, इसकी माफ़ी है क्योंकि शरीर ही ऐसा लेकर आए हैं, मस्तिष्क ही ऐसा लेकर के आए हैं, जन्मजात रूप से मन ही ऐसा है कि उसको धोखा हो ही जाएगा। तो एक बार, दो बार ठगे गए, इसकी माफ़ी है, जीवन भर नहीं ठगे जाएँगे। ये बात अध्यात्म है। दो बार ठगे गए, आगे नहीं ठगे जाना, इस बात को कहते हैं अध्यात्म।

और सांसारिकता क्या है? खूब लात खाएँगे और उत्साह से भर जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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