प्रश्नकर्ता: मैं एक आध्यात्मिक संस्था से छः सालों से जुड़ा हुआ हूँ और आध्यात्मिक साधना का अभ्यास कर रहा हूँ। तीन साल तक ये साधना अच्छी चली लेकिन तीन साल पहले मेरी शादी होने के बाद मेरा ध्यान भटकने लगा।
मैंने शादी के जो सपने संजोए थे कि उच्चतम सुख की प्राप्ति होगी, चाहे वो शारीरिक हो या प्रेम हो, लेकिन ऐसा कोई सुख मुझे नहीं मिला। मुझे लगता है इसमें मेरी पत्नी का दोष हो सकता है जिससे मैं सन्तुष्ट नहीं हो पा रहा हूँ। शायद जिन्होंने विभिन्न शारीरिक सम्बन्धों का अनुभव किया है, वे उससे सन्तुष्ट हुए हो। ऐसे में मुझे ये भी खयाल आता है कि शायद मुझे भी इस तरह सन्तुष्टि मिल जाए, ताकि मैं अपनी साधना में फिर से ध्यान लगा सकूँ। लेकिन मैं अपनी पत्नी को धोखा नहीं देना चाहता हूँ।
तो मैं किस तरीके से सन्तुष्टि पा सकता हूँ जिससे मैं अपनी साधना और भक्ति में ध्यान केन्द्रित कर सकूँ?
आचार्य प्रशांत: पूरी बात समझनी होगी। सबसे पहले तो यह कि तुम साधना इत्यादि तो कर ही रहे थे तुमने कहा सब बढ़िया चल रहा था तीन साल तक। कह रहे हो छः साल से साधना कर रहा हूँ, कह रहे हो तीन साल तक सब बढ़िया चल रहा था फिर शादी हो गयी, अब इधर तीन साल से कुछ उलझन है, ऐसा ही?
और उलझन की वजह तुम बता रहे हो कि तीन वर्ष पहले तुमने शादी कर ली है उसके बाद से। छः वर्ष की साधना में पहले तीन साल अगर सब ठीक ही चल रहा होता तो तुम कोई ऐसा निर्णय क्यों करते जो तुम्हें उलझन देगा? ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अभी तुम्हारा इरादा ये है कि तुम सेक्स इत्यादि से छुटकारा पा लो ताकि तुम पुनः अपनी पुरानी साधना के मार्ग पर जा सको। उस पुरानी साधना में अगर दम ही होता तो उस साधना के होते हुए भी, उस साधना के बावजूद तुम आज इस झंझट में, इस उलझन में क्यों फँसे होते?
प्र: उस वक्त साधना के समय भी मतलब मेरा प्लान था कि मैं गृहस्थ जीवन में आऊँगा।
आचार्य बाबा गृहस्थ जीवन में कोई दिक्कत नहीं होती है, दिक्कत होती है मन की परेशानी और उलझन में। तुमने कहा पहले तीन वर्ष तुम्हारी साधना ठीक चल रही थी इतना ही नहीं अभी भी तुम्हारा इरादा यह है कि ये जो सेक्स को लेकर तुम्हें उलझन है ये निपट जाए, तो तुम अपनी साधना में वापस लग जाओ।
सबसे पहले तो ये समझो कि वो साधना तुम्हारे बहुत काम की नहीं है, वो काम की होती तो विवाह का निर्णय तुम उस तरह से लेते ही नहीं जैसे तुमने लिया। साधना का मतलब होता है, साध्य सही है और मन सध गया। जिसको साधा जा रहा है, जिसका लक्ष्य किया जा रहा है वो वही है जो लक्ष्य बनने लायक है, जिसका मूल्य है, जिसकी हैसियत है कि वो जीवन का लक्ष्य बने, उसी को लक्ष्य बनाया है साधना में; साधना का ये मतलब होता है।
और दूसरी तरफ़ से ऐसे देखें तो साधना का मतलब होता है कि मन अब इधर-उधर भागता नहीं, मन सध गया, मन में साधुता गई गयी। ठीक है? तुम्हारी साधना ठीक ही चल रही होती तो तुम कोई इंगा-तिड़ंगा निर्णय ले क्यूँ लेते? बताओ ज़रा?
कोई कहे कि बहुत बढ़िया मेरी साधना चल रही है, बहुत बढ़िया मेरी साधना चल रही है और अपने जीवन के बड़े-बड़े और दूरगामी परिणाम वाले निर्णय वो उल्टे-पुल्टे ले, तो उसकी साधना कैसी चल रही है वास्तव में? कैसी चल रही है? गड़बड़ ही चल रही है। गड़बड़ चल रही है पर उसे भ्रम ये है कि ठीक चल रही है।
क्योंकि शायद संस्था बड़ी है और बहुत सारे दूसरे लोग हैं वो सब भी वैसे ही साधना कर रहे हैं जैसे तुम कर रहे हो। कोई पद्धति बता दी गयी है, उसी पद्धति का, उसी क्रिया इत्यादि का अनुसरण करे जा रहे हो, और अभ्यास करते-करते उस क्रिया में तुम पारंगत हो गए हो तो तुमको ऐसा भ्रम, ऐसा धोखा हो गया है कि हम तो साहब अध्यात्म में बहुत आगे निकल आए।
अध्यात्म में आगे निकल आये हो या नहीं निकल आये हो इसका एक ही प्रमाण होता है—ज़िन्दगी कैसी चल रही है, ज़िन्दगी के निर्णयों में प्रकाश कितना है, ज़िन्दगी के निर्णय कितने सही, कितने सटीक बैठ रहे हैं। कोई कहे मैं बड़ा आध्यात्मिक आदमी हूँ और ज़िन्दगी में सब उल्टे-पुल्टे निर्णय ले रहा हो तो उसका आध्यात्मिक दो कौड़ी का हुआ कि नहीं हुआ? बोलो? बोलो!
तुम एक तरफ़ तो कहते हो बहुत बढ़िया साधना चल रही थी और फिर कहते हो निर्णय ले लिया है कि अब मैं परेशान हूँ, परेशान ही नहीं हूँ, हालत यह है कि वेश्यालय इत्यादि भी जाने को तैयार हूँ। और इतना ही नहीं है संस्था के और लोगों से पूछ रहा हूँ कि भैय्या तुम्हारी क्या हालत है? वो कह रहे हैं हम भी दोस्त तुम्हारे ही जैसे हैं बिलकुल, हमारी भी हालत यही है।
तो ये तुम जो भी साधना कर रहे थे और जो भी संस्था थी, यहाँ मामला चल क्या रहा है? ये कौन सी साधना है जिसमें इतने सारे लोग पूरी भीड़ लगी हुई है, और सच्चाई से कोई वाकिफ़ नहीं। जिन्दगियाँ सबकी बिलकुल अन्दर-ही-अन्दर गोलमगोल, ऊपर-ऊपर लग रहा है कि सब ठीक, अंदर मामला खोखला।
अब आते हैं इस बात पर कि विवाह इत्यादि कर लिया है, पत्नी आ गयी है लेकिन सन्तुष्टि नहीं मिल रही है, तुम इस पूरी बात में पत्नी को बीच में ला ही क्यों रहे हो? ये मामला वास्तव में न पत्नी से सम्बन्धित है, न सेक्स से सम्बन्धित है।
मामला वास्तव में क्या है बताए देता हूँ—एक तड़प होती है हम सब के भीतर, वो उनके भीतर ज़्यादा प्रकट होती है, अभिव्यक्त होती है जो अध्यात्म की ओर थोड़ा रुझान रखते हैं। तुम्हारा रुझान है अध्यात्म की ओर, उसका प्रमाण यह है कि तुम किसी आध्यात्मिक संस्था से जुड़े। आम आदमी कहाँ जाता है जुड़ने, मुश्किल से एक प्रतिशत, दो-चार प्रतिशत जाते हैं, बाकियों का क्या मतलब पड़ा है।
तो तुम वहाँ गये, उन्होंने तुमको जो भी विधि, क्रियाएँ वगैरह बतायी, वो तुमने करी भी, ईमानदारी से करी मैं समझता हूँ। तो ये इस बात का सूचक है कि तुम्हारे भीतर पार की किसी वस्तु की ललक है, यह पहली बात समझना, तुम्हारे भीतर एक ललक है। अब तुम तीन साल तक लगे थे वो क्रिया करने, ये जो संस्था से तुम जुड़े उससे पहले भी तुमने कुछ और भी कोशिशें कर रखी थी अपने तल पर?
प्र: नहीं।
आचार्य: नहीं कर रखी थी, इस संस्था से जुड़े, तीन साल तक कुछ करा। वो ललक जो थी वो मिटी नहीं, तो फिर क्या निर्णय लिया? जो पाना था, भीतर जो तड़प थी, वो वहाँ जो कुछ भी सामग्री दी जा रही थी, जो भी बताया जा रहा था, जो भी तुमको करवाया जा रहा था उससे वो तड़प मिटी नहीं। तो फिर क्या निर्णय लिया? कि शादी कर लेते हैं। शायद शादी से मिट जाए।
अब पत्नी आ गयी है जब पत्नी आती है सामने तो वासना भी जाग्रत होती है। सारी उम्मीद अब पत्नी पर डाल दी है कि इससे सेक्स मिलेगा तो जो भीतर की तड़प, ललक, बेचैनी है वो शांत होगी। काहे को शान्त हो? अब उससे शांत नहीं हो रही तो तुमको लग रहा है कि शायद इसमें कमी पत्नी की है, या कमी तुम्हारे दाम्पत्य जीवन की है।
तुम कह रहे हो कि मुझे लव नहीं मिल रहा, तुम कह रहे हो कि मुझे एक उच्चतर स्तर का सेक्स नहीं मिल रहा। अरे तुमको चाँद के तल का भी सेक्स दे दिया जाए, तुम्हें कहा जाए जाओ वहाँ चढ़ जाओ और वहाँ जा करके तुम्हें जितनी हूर-परियाँ हो उनको सबको जाकर भोग आओ तो भी तुम्हें कौन सी तृप्ति मिल जानी है?
ये तो ऐसी ही बात है कि एक आदमी चिढ़ा बैठा है ज़िन्दगी से और तुम उसके सामने पड़ जाओ तो तुम्हें ही गरियाने लग जाये। जैसे कोई सांड है जिसको पहले तो दो-चार बाल्टी ताड़ी पिला दी गई है, ताड़ी जानते हो क्या? क्या? देशी मामला।
सांड को दो बाल्टी पिला दी ताड़ी और उसके बाद उसको डंडा लेकर कोंच-वोंचदिया। अब जो ही उसके सामने पड़ेगा वो उसी को दौड़ाएगा, उसी को मारेगा। इसका मतलब ये थोड़ी है कि सांड की तुमसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है, उसकी हालत यह थी कि अब उसकी ज़िन्दगी में, उसकी दृष्टि में, उसकी नज़र के सामने जो भी आता वो उसी से भिड़ जाता।
तुम्हारी भी हालत ऐसी है कि तुम्हारे सामने जो आये तुम समझोगे की यही मेरे दुख-दर्द का कारण है। अब संयोग की बात ये है कि तुम्हारे सामने दिन-रात रहता कौन है? बीवी। और वो दिन भर ही नहीं सामने रहती, दुर्घटना ये है कि वो रात को बिस्तर में भी साथ रहती है। तो तुमको लग रहा है कि मेरे दुख-दर्द का कारण यही है, कि इससे मुझे भरपूर सेक्स नहीं मिल रहा, इससे मुझे उस कोटि का सेक्स नहीं मिल रहा, वो जो आजकल के कई गुरु बताते हैं कि वो वाला होता है न सेक्स, वो वाला, एक बार भोग लो उसके बाद सीधे बिलकुल एकदम मुक्ति हो जाती है। ये भी आजकल बड़ा चलन चल रहा है कि अगर तुम हाइटेंड सैक्शुअल एक्सपीरियंस (एकदम उच्च कोटि का संभोग अनुभव) ले लो तो उससे निर्वाण प्राप्त हो जाएगा। भला, ज़रूर! जैसे कि किसी को कह दिया जाए कि खूब ठूँस-ठूँसकर खा लो तो उसके बाद ज़िन्दगी भर खाने की ज़रूरत नहीं रहेगी।
पत्नी को नाहक इस झंझट में मत घुसेड़ो, वो भी तुम्हारी तरह जीव है। पत्नी अगर यहाँ मौजूद होती तो क्या पता वो भी यही कहती कि मैं भी परेशान हूँ, मेरी भी ज़िन्दगी में अपनी कुछ समस्याएँ हैं और समस्याओं में नंबर एक समस्या है ये जो नमूना! मुस्कुरा लो बेटा, जानते हो सही तो बोल ही रहा हूँ मैं! ऐसा थोड़ी है तुम ही उससे परेशान हो, वो भी तुमसे बराबर की ही परेशान होगी।
अरे! मेरी बात का अर्थ नहीं समझे तुम, अगर वो तुम्हारे ही जितनी परेशान होगी तो वहाँ ऐसा न हो कि उसके भी तुम्हारे ही जैसे खयाल हों। ये चीज़ सेक्स से सम्बन्धित है ही नहीं, बात बस इतनी है कि जो जिस अवस्था में होता है वो अपनी अवस्था के अनुसार एक झूठा कारण सोच लेता है, अपनी हालत को किसी तरीके से अभिव्यक्त करने का, समझाने का।
एक बुड्ढा आदमी होगा वो परेशान घूम रहा है, जैसे आम तौर पर देखा है वृद्धों के चेहरे लटक जाते हैं, उनके चेहरे का स्थायी भाव ही ऐसा हो जाता है (उदास सा चेहरा बनाकर)। अब तुम उससे पूछो कि का दादा!काहे परेसान हो, तो वो कहेगा बुढ़ापा, बुढ़ापा। यही आदमी जब तुम्हारी तरह जवान था तो भी बराबर का परेशान था पर तब जब इससे पूछा जाता था काहे परेशान हो, तो बोलता था जवानी। शरीर है कि सेक्स की भूख मिटती नहीं है इसलिए जवानी से परेशान है।
जब जवान हैं तो किस से परेशान है? जवानी से। जब बूढ़ा गया है तो किस से परेशान है? बुढ़ापे से। जब पैसा नहीं आ रहा तो क्यों परेशान है? पैसा नहीं आ रहा है, जब पैसा बहुत आ गया तो क्यों परेशान है? पैसा आ गया। बच्चे पैदा नहीं हो रहे तो काहे परेशान है? बच्चा पैदा हो गया तो क्यों परेशान है? बच्चा पैदा नहीं। शादी नहीं हुई तो क्यों परेशान है? शादी हो गयी तो क्यों परेशान है?
तो जो जिस अवस्था में होता है वो सोचता है उसकी परेशानी उस अवस्था के कारण है। ये बात गौर से समझना, जो जिस अवस्था में होता है शरीर की, अनुभव की, जीवन की जिस भी अवस्था में है वो सोचता है उसकी परेशानी का सम्बन्ध उस खास अवस्था से है, लेकिन अगर हम यह पाएँ कि फ़र्क ही नहीं पड़ता हम किस अवस्था में है, परेशान तो हम सदा रहते हैं। तो निष्कर्ष क्या निकला? हमारी परेशानी का सम्बन्ध हमारी अवस्था से नहीं है, हमारे होने से है।
हम हैं ऐसे की अवस्था कुछ भी रहे हम परेशान ही रहेंगे। तुम चले जाओ किसी वेश्या के पास कोई दिक्कत नहीं है, बस तुम तब एक नयी परेशानी लेकर आ जाओगे, कहोगे ठीक नहीं थी और बेहतर वाली चाहिए, बढ़िया वाली चाहिए। कोई दिक्कत नहीं है, तुम्हें परेशान रहना ही रहना है, बीवी उस परेशानी की वजह नहीं है।
तुम्हारी किसी तरीके से मान लो कामवासना मिटा दी जाए, मान लो तुम्हारा बंध्याकरण कर दिया गया, मान लो, न रहा बाँस, बाँसुरी बजनी बन्द। तो तुम्हें क्या लग रहा है तुम्हारी परेशानियाँ मिट जाएँगी? तुम इतने ही परेशान रहोगे जितने अब हो, बस तब तुम अपनी परेशानी की एक नयी झूठी वजह ढूँढ लोगे, जैसे सब पुरानी जो तुमने वजहें बतायी थी वो झूठी थी। वैसे फिर तुम कोई नयी वजह बता दोगे, वो वजह भी बराबर की झूठी होगी।
हम सबको लगता है हम बड़े होशियार हैं, हम सबको लगता है हम अपनी परेशानी की वजह जानते हैं। कोई कहता है, मैं पड़ोसी से परेशान हूँ, कोई कहता है गाड़ी ठीक नहीं चल रही है परेशान हूँ, कोई कहता है बॉस से परेशान हूँ कोई कहता है ये ना पीठ में बहुत दर्द रहता है, पीठ से परेशान हूँ।
और ये बात सुनने में अटपटी लगेगी, उस आदमी की पीठ में सही में दर्द है और आप उससे कह रहे हो कि नहीं तेरी परेशानी का मूल कारण तेरी पीठ नहीं, तेरी हस्ती है, तेरा होना है, तेरी बीईंग है। तू पीठ से नहीं परेशान है पीठ तो सिर्फ़ बहाना है, दिखावा है, एक तात्कालिक बात है। पीठ का दर्द जाएगा तो कोई नया दर्द आएगा, एक कारण हटेगा दूसरा कारण आएगा, परेशान तो तुझे रहना-ही-रहना है।
जवान हो तो एक बहुत सीधा बहाना मिल जाता है, क्या? सेक्स। और जवान बड़े लम्बे समय तक रहते हैं लोग पंद्रह साल से लेकर पैंतालीस साल तक। तो ज़िन्दगी के तीस सालों के लिए तो एक बढ़िया बहाना मिल जाता है। जिसको देखो वही घूम रहा है, क्या वजह है? परेशान क्यों हो? कुछ कहानी बताएगा जिसका घूम-फिरकर सम्बन्ध सेक्स से ही होगा।
हम जिसको प्रेम कहते हैं, वो भी निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत सेक्स ही तो होता है। तुम अपनी जितनी परेशानियाँ गिना सकते हो बेटा गिना दो और मैं न उनको अभी यूँ करके हटा दूँगा और हैरत में रह जाओगे, तुम्हारी सारी परेशानियाँ हटा दी जाए उसके बाद भी तुम परेशान ही रहोगे। क्योंकि तुम अपनी परेशानियों से नहीं परेशान हो, तुम अपनेआप से परेशान हो।
प्र: मतलब आचार्य जी इस संसार का कोई भी भोग हमें सन्तुष्ट नहीं कर सकता?
आचार्य: नहीं कर सकता।
प्र: अगर आपने, अगर मैंने अगर उसको भोगा हो या न भोगा हो?
आचार्य बात भोग की है ही नहीं न, बात भोगने वाले की है। कोई भी भोग क्या भोगने वाले को बदल देता है? बोलो? बोलो मुझे। कोई भी भोग क्या भोगने वाले को बदल देता है? एक गाड़ी है जिसका इंजन खराब है, बताना। उसमें तुम कितना भी पेट्रोल डालो गाड़ी ठीक हो जाएगी? गाड़ी किसको भोगती है? पेट्रोल को, पेट्रोल को भोगती है, उसी से चलती है, आवाज़ करती है, धुँआ मारती है, उसी से उर्जा पाती है। ठीक है?
पेट्रोल गाड़ी का भोग है और गाड़ी का इंजन खराब है, और तुम कह रहे हो इसको मैं, मैं भोगूँगा तो ठीक हो जाएगा। डालते रहो उसमें जितना पेट्रोल डालना है, उसका तो इंजन ही खराब है। और जिस गाड़ी का इंजन खराब हो उसमें और पेट्रोल डाल-डालकर काहे नाहक ऊर्जा और संसाधन और पैसा खराब करते हो?
इंजन ठीक करो न, इंजन ठीक करने को कहता कहते हैं हैं—अध्यात्म। और खराब इंजन में और पेट्रोल डाले जाने को कहते हैं—सांसारिक जीवन। और याद रखना इंजन जितना खराब होगा वो उतना पेट्रोल माँगेगा। गाड़ी का इंजन जितना खराब है वो उतना पेट्रोल पिएगा, उतना धुआँ फेंकेगा गंदा। इसीलिए संसारी आदमी और और ज़्यादा और ज़्यादा भोग करता है, उससे होता कुछ नहीं।
आध्यात्मिक आदमी इस मामले में अलग है वो कहता है नहीं भाई ये बात और ज़्यादा पेट्रोल पीने की है ही नहीं, दिक्कत दूसरी है। इंजन को ठीक करो और इंजन ठीक हो गया उसके बाद गाड़ी सही चलेगी। इंजन ठीक हो गया उसके बाद गाड़ी वहीं को जाएगी जहाँ उसे जाना चाहिए, बार-बार वर्कशॉप के पास नहीं जाएगी, मैकेनिक-मिस्त्री के पास नहीं जाएगी। फिर गाड़ी बिलकुल ठीक चलेगी। तब गाड़ी को चलाने के लिए अगर पेट्रोल की ज़रूरत पड़ेगी तो फिर उस पेट्रोल का भोग वाजिब है, तब भोग वाजिब हो जाता है।
उसी को फिर 'ईशावास्य उपनिषद' कहता है न "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा।" तब वो सही इंजन के लिए है। जो आदमी सही काम कर रहा हो, सिर्फ़ उसको हक है कि सही काम करने के लिए संसाधनों का भोग कर ले। सड़े हुए इंजन को क्या हक है कि वो कहे कि मुझे और पेट्रोल पिलाओ। हक है उसे? हम सब सड़ा हुआ इंजन हैं, हम कहते हैं और चाहिए भोग, और भोग चाहिए।
मन, बुद्धि ठीक रखो, अध्यात्म की दृष्टि से सेक्स ना अच्छा है न बुरा है। अध्यात्म सिर्फ़ उसकी बात करता है जो सेक्स की ओर लालायित है, जो सेक्स की ओर लालायित है अगर वो ठीक हो गया, सुधर गया, संभल गया, उसके बाद तुम सेक्स करो तो अच्छा, न करो तो अच्छा। अध्यात्म उस विषय में कोई फिर दृष्टि या निर्णय रखता ही नहीं।
कोई ग्रन्थ नहीं है जो कहता हो कि फ़लाना आदमी सर्वोच्च है क्योंकि उसने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी सेक्स नहीं किया, और फ़लाना आदमी निकृष्ट है क्योंकि वो रोज़ दिन में एक बार सेक्स करता है। बात उसकी है ही नहीं, बात इसकी नहीं है कि आदमी दिन में कितनी बार सेक्स कर रहा है, बात इसकी है कि वो आदमी कौन है, कैसा है। जो आदमी सही है वो जो कुछ करेगा सब सही होगा, और जो आदमी सही नहीं है वो भले ही संन्यास ले ले, सब भोगों का ज़बरदस्ती बलपूर्वक परित्याग कर दे, वो आदमी तब भी गलत रहेगा।
तुम सही हो जाओ और अपनी बीमारी को पकड़ो, बीवी पर और इन सब चीज़ों पर दोषारोपण मत करो।
प्र: अचार्य जी मेरी बीमारी ये है कि मैं इन भोगों में मुक्ति ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ।
आचार्य: तो बीमारी का नाम है अज्ञान, बीमारी का नाम है अज्ञान।
प्र: आपने बहुत बार समझाया है कि ये जो चीज़ें हैं ये सिर्फ़ ऑनली फॉर सर्वाईवल एंड प्रोक्रिएशन। ( निर्वाह और जन्माना के लिए)
आचार्य मैंने समझाया है लेकिन वो बात तुम्हारे भीतर बैठ जाए उसके लिए अभ्यास करना पड़ता है, ग्रन्थों का नियमित रूप से पाठ करना पड़ता है।जैसे दुनियादारी हमारी रगों में दौड़ती है न, वैसे ही श्लोकों को और साखियों को नस-नस में समाना पड़ता है। जिस भी संस्था से सम्बन्धित हो वहाँ ये सब हुआ है? जब तक वेदान्त और सन्तवाणी तुम्हारी एक-एक कोशिका में नहीं समा जाएँगे, तुम्हारी ज़बान पर नहीं बैठ जाएँगे, तब तक तुम अपने पुराने ढर्रों पर ही चलते रहोगे।
प्र: मतलब आचार्य जी, मैं जिस संस्था में था वो संस्था गलत नहीं है, मतलब मेरी गलती थी कि कि मैं उसको अच्छे से फॉलो नहीं कर रहा था।
आचार्य - जो भी है, जहाँ भी है, जिसकी भी गलती है, लेकिन गलती क्या है यह समझना।गलती गलत होने में है, हम ही अभी गलत हैं, इंजन ही गलत है, जो आदमी अपनी भावनाओं को, अपने आवेगों को, अपने उद्वेगों को समझने लग जाएगा, उसके भीतर जब किसी तरह की कोई तरंग उठेगी, उसके भीतर जब किसी तरह की कोई सशक्त भावना उठेगी तो वो उस तरंग के साथ बह थोड़े ही जाएगा, वो अच्छे से जानेगा कि अभी क्या हो रहा है और जब वो जानेगा कि यह क्या हो रहा है तो फिर उसे दुख नहीं होगा, वो बंधक नहीं बन जाएगा।
वो जानना चीज़ दूसरी होती है, उसकी गुणवत्ता दूसरी होती है, वो किसी वाक्य में ऐसे अभिव्यक्त नहीं हो सकती कि कुछ सामने आया और तुमने चीज़ दोहरा दी।
इंटरनेट पर बहुत सारे ऐसे वीडियो पड़े हुए हैं, वहाँ देखना कि वहाँ एक बिल्ली है और बिल्ली के सामने खिलौना बंदर ला दिया जाता है, क्या ला देते हैं? खिलौना बंदर, वो खिलौना बंदर बिल्ली की ओर बढ़ रहा है और बिल्ली क्या कर रही है? बिल्ली उसको असली समझ के कभी पीछे हो रही है, कभी उसको पंजा दिखा रही है और बंदर उसकी ओर बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा है, अन्त में बिल्ली डर के भाग जाती है।
ऐसे सैकड़ों इस तरह के जानवरों के वीडियो मिल जाएँगे एक-दो तो ऐसे भी हैं कि कुत्ता दौड़ते-दौड़ते आया घर के अंदर घुसा और घर के अंदर एक झुंझुना बज रहा है और कुत्ता इतनी ज़ोर से डरा वो झुंझुने को देखकर कि पलट कर भागा और धड़ से गिर गया फिसल कर।
समझदारी क्या है, ये मैं तुमको नहीं समझा सकता, नासमझी क्या है, उसके उदाहरण दे रहा हूँ। ये नासमझी है कि जो चीज़ जैसी है, उसको वैसा न जानना। बंदर है और उसको कुछ और ही सोच लिया। इसी तरीके से अपने भीतर जो कुछ भी उठ रहा है, उसकी हकीकत को न जानना ही अज्ञान है।
प्र: तो आचार्य जी अगर मैं उसको नहीं जान पा रहा हूँ तो क्या मैं फोर्सफुली स्प्रिचुअल पाथ ( ज़बरदस्ती आध्यात्मिक रास्ते में) में आगे बढ़ जाऊँ?
आचार्य: उसको जानने के लिए, उनकी संगति करनी पड़ती है जिन्होंने जाना, क्योंकि जिन्होंने जाना वो और तुम वास्तव में अलग-अलग तो नहीं हैं, फिर ऐसा कैसे है कि एक जान जाता है, दूसरा नहीं जान पाता? वो संगति का असर होता है, तुमने ऐसे लोगों की बहुत ज़्यादा संगति कर रखी है जो कुछ जानते नहीं, जो जानते नहीं उन्हीं के साथ रहोगे तो अज्ञानी, अनजाने ही बने रहोगे। इसलिए उनकी संगति करो जो जानते हैं।
अब जो जानते हैं ऐसे लोग जीवित मिल जाएँ, बड़ा दुर्लभ है, नहीं मिलते, तो इसलिए ग्रन्थ होते हैं। और वो जीवित हों भी, तो भी कहाँ ज़रूरी है कि उनके पास समय हो कि तुम्हारे साथ बैठ जाएँगे और कहाँ ज़रूरी है कि संयोग बने कि तुम उनकी शारीरिक संगति कर ही पाओ। तो फिर क्या होती हैं? किताबे।
खेद की बात यह है कि आज के अध्यात्म में किताबों को बड़ा महत्वहीन बता दिया गया है, बल्कि बदनाम कर दिया गया है। और ये सब पिछले तीस-चालीस साल में ज़्यादा हुआ है कि किताबों में क्या रखा है, किताबों में क्या रखा है? बल्कि ये तक कह दिया गया है कि किताबे पढ़कर भ्रष्ट हो जाओगे।
किताबों की संगत करो, संगत करो। दो फ़ायदे होंगे— पहली बात, जो तुम सोच रहे हो, जिस बात में तुम यकीन रखते हो उससे आगे का कुछ जानने को मिलेगा। दूसरी बात, जितना समय किताबों के साथ बिता रहे हो उतने समय में भ्रष्ट संगति से बचे हुए हो, दूना फ़ायदा है। और अगर कुछ ज़िन्दा लोग मिल जाएँ जिनके साथ रोज़मर्रा या कभी-कभार रौशन समय गुज़ार सकते हो, तब तो कहना ही क्या, यही एकमात्र तरीका है।
प्र: जैसे कि गीता में भगवान ने बात बोली है कि संसार जो है, "दुःखालयमशाश्वतम्" है तो क्या इसी लाइन को कि ये संसार में तो :ख दुख-ही-दुख भरा है?
आचार्य: एक लाइन को नहीं, एक लाइन काफ़ी होती तो वो अठारह अध्याय काहे को बोलते भई?
तुम पूरा पढ़ो, एक-एक बात में जाओ, एक-एक बात में जाओ, सबकुछ। सब समझने के बाद फिर तुम कहते हो कि ये जो सबकुछ है वो मेरे लिए किसी एक पंक्ति में, सूत्र में, मन्त्र में या शब्द में समाहित हो जाता है, उसको तुम पकड़ लेते हो, वो एक प्रतिनिधि होता है, शब्द या मन्त्र या सूत्र।
प्रतिनिधि, किसका प्रतिनिधि? पूरी ग्रन्थ का प्रतिनिधि या पूरे अध्यात्म का प्रतिनिधि। पर उस प्रतिनिधि की ताकत या मूल्य सिर्फ़ तब है न, जब पहले वो जो पीछे की पूरी चीज़ हो उसका तुम्हें कुछ पता हो। जो पीछे की पूरी बात है, तुम्हें पता ही नहीं तो प्रतिनिधि मात्र को लेकर क्या करोगे? क्या करोगे? ओम-ओम बोले जा रहे हो और ओम के पीछे की पूरी बात जानते ही नहीं तो ओम तुम्हारे बहुत काम नहीं आएगा। या कोई श्लोक, कोई मन्त्र उच्चारित किए जा रहे हो, पूरा ग्रन्थ पढ़ा ही नहीं जहाँ से वो श्लोक आया है, तो उस श्लोक का भी पूरा सन्दर्भ कहाँ समझ पाओगे।
मेहनत से बचने की कोशिश मत करो, दुनिया में तुमने बहुत मेहनत कर-करके चीज़ें अर्जित करी होती हैं, जो कुछ अर्जित कर रखा है उसको छोड़ने के लिए भी कुछ मेहनत लगती है भाई। होली पर चार-पाँच घंटे रंग खेल करके रंग चढ़ाते हो अपने ऊपर, फिर कम-से-कम घंटा भर तो लगता है न छुड़ाने में भी। तो एक मेहनत तो यह थी कि कूद-कूद कर के रंग और कीचड़ मुँह पर मला और पेंट (रंग) मला, उसके बाद अब इसमें भी मेहनत लगेगी कि वो सब जो मल रखा है, वो छुड़ाओ।
अध्यात्म उस दूसरी मेहनत का नाम है, अध्यात्म इसीलिए हमेशा नकारात्मक होता है, निगेटिव। इसीलिए अध्यात्म उनके लिए नहीं होता जो पॉज़िटिव थिंकिंग (सकारात्मक सोच) के दीवाने हैं। इसीलिए आध्यात्मिक इंसान मोटिवेशनल नहीं हो सकता, जो लोग मोटिवेशन के बड़े कायल रहते हैं, उन्हें अध्यात्म से कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि अध्यात्म तो काटने का, मिटाने का, नकारने का नाम है। अध्यात्म नकारात्मक होता है, मिटाओ, मेहनत करो।
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