आत्मा का क्या रूप है? (2018)

Acharya Prashant

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आत्मा का क्या रूप है? (2018)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) मूलतः बात ये पूछी है कि “आत्मा को कहा तो निर्गुण जाता है, और निर्गुण का अर्थ हुआ कि कोई एट्रिब्यूट (गुण) नहीं, कोई उपमा-उपाधि नहीं। तो फिर आत्मा को निर्गुण के साथ ही निर्विकार, निर्मल, निराकार, अविनाशी, नित्य, शुद्ध, अजर-अमर इत्यादि क्यों कहा जाता है? क्योंकि ये सब तो कह कर के हम आत्मा के साथ गुण और उपाधियाँ और विशेषण जोड़ रहे हैं न?” ये शंका उठी है।

ये बताओ पहले कि ये सारी बातें कही किससे गईं हैं, आत्मा से कही गईं हैं क्या? क्या आत्मा को बताया जा रहा है कि “तुम निर्गुण, निराकार, अविनाशी, अजर-अमर हो”? ये सारे ग्रंथ किसके पाठ हेतु रचे गए? परमात्मा के? बुद्ध पुरुषों के? उन्हें आवश्यकता थी? किसको कहा जा रहा है कि “आत्मा को सदा निर्गुण ही जानना” ये बात किसको कही जा रही है?

प्रश्नकर्ता: जीव को।

आचार्य: अरे हमको कही जा रही है! हर बात को उलझाना है, सीधा जवाब ही नहीं न।

ये बात किससे कही जा रही है? हमसे कही जा रही है, और हम कैसे लोग हैं?

प्र: अज्ञानी।

आचार्य: हम वो लोग हैं जो हर चीज़ में गुण देखते हैं। हम प्रकृति-बद्ध लोग हैं, और जहाँ प्रकृति है वहाँ गुण है। चूँकि हमें हर जगह गुण देखने की आदत है, तो हमसे कहा गया कि “बेटा! परमात्मा निर्गुण है। अपनी आदतों को परम-सत्ता पर मत चला देना।“

ठीक उसी तरीके से, हम वो लोग हैं जो जन्म लेते हैं और फिर बुढ़ाते हैं। तो हमने तो जिस भी चीज़ को देखा है, उसका एक नियत काल-खंड देखा है, उसे आते और जाते देखा है, जीवों को वृद्ध होते और फिर मरते देखा है। हमारे हिसाब से तो जो कुछ होता है वो कभी-न-कभी जाता ज़रूर है। तो हमसे कहा गया कि “थमो बेटा! परमात्मा को अजर-अमर जानना। न उसकी वृद्धि है, न उसका क्षय है, और फिर न उसकी मृत्यु है।” जिस चीज़ का क्षय नहीं है, उसको कहेंगे ‘अक्षय’। जो चीज़ वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाए, उसको कहेंगे कि वो ‘जर’ हो गई। जिसको बुढ़ापा न आता हो, उसे कहेंगे ‘अजर’। और हमने तो जिसको देखा, बूढ़ा ही होते देखा। तो हमारी आदत बन गई है ये मानने की कि जो होता है वो काल का ग़ुलाम ही होता है; काल के साथ पैदा होता है, फिर वृद्धि लेता है, फिर उसका क्षय होता है, और अंततः उसकी विलुप्ति हो जाती है। ऐसा हमने देखा। हम अपने अनुभवों को परमात्मा पर न लाद दें, इसलिए हमसे कहा गया कि परमात्मा को अजर जानो। ये परमात्मा का कोई गुण नहीं बताया जा रहा है, कि “परमात्मा अजर है,” ये हमें काटा जा रहा है, हमारी आदत को काटा जा रहा है। समझो बात को।

इसी तरीके से, हमने जिस भी चीज़ को देखा, सदा उसे दोषयुक्त, विकारपूर्ण ही पाया न! कोई है यहाँ पर जिसने दुनिया में कुछ भी ऐसा देखा हो जो शत-प्रतिशत, पूर्णतया दोषहीन हो? कुछ भी देखा है ऐसा? नहीं देखा होगा। कैसे देख लोगे, जहाँ खोट होती नहीं वहाँ भी खोट निकाल लेते हो, तो ऐसा कैसे देख लोगे कुछ जो पूर्णतया निर्दोष हो? कुछ मिल गया पूर्णतया निर्दोष तो निंदा, बुराई किसकी करोगे? और निंदा, बुराई नहीं करोगे तो नींद कैसे आएगी? तो हमारी दुनिया में जो कुछ है वो दोषयुक्त है, वो विकारयुक्त है, कुछ भी शत-प्रतिशत नहीं है, कुछ भी पूर्ण नहीं है। तो हमारी आदत ही हो गई है कि जिसको भी देखें, उसे इस दृष्टि, इस भावना के साथ देखें कि “इसमें कुछ-न-कुछ दोष होगा ज़रूर, खोट होगी ज़रूर।” तो समझाने वालों ने फिर हमारे सर पर हाथ रखा और कहा, “बच्चे! परमात्मा को इस दृष्टि से मत देख लेना, वो निर्विकार है।” इसका अर्थ ये नहीं है कि परमात्मा का गुण हो गया निर्विकार, इसका अर्थ बस ये है कि हमारी आदत को काटने के लिए बोला गया है।

जब भी कभी कहो कि “ये क्यों कहा गया?” तो साथ में ये भी ध्यान रखो कि किससे कहा गया। तुमसे कहा गया भई! तुमसे कहा गया। एक मोटा आदमी घर में घूमता हो, तोंद पर हाथ फेरता, ज़ोर-ज़ोर से सूँघता, तो उसको तुरंत यही बोलोगे न, “यहाँ खाने का कुछ नहीं है।” अब उसने कहा तो नहीं कि वो खाना खोज रहा है, पर ये भी तो देखो कि कौन घूम रहा है! बात किससे कही जा रही है? जिससे कही जा रही है वो और क्या ढूँढेगा, खाना ही ढूँढ रहा होगा, तो फिर उससे कहा जाएगा कि यहाँ भोजन नहीं है; निषेध की भाषा में बात की जाएगी, नकार की भाषा में। तो इसीलिए इन सारे शब्दों में देखो क्या साझा है — निर्विकार, निर्मल, निराकार, अविनाशी — क्या साझा है? नकार साझा है; मना करा जा रहा है, कि “भाई! जिस इच्छा से तू इधर-उधर देख रहा है, तेरी वो इच्छा यहाँ पूरी नहीं होने वाली।” इसी तरह समझाने वालों ने हमसे कहा है कि “जिस तरीके से तुम परमात्मा को देख रहे हो, उस तरीके से परमात्मा नहीं मिलने वाला।” तुम ढूँढोगे किसी ऐसे को जिसका रूप हो, रंग हो, आकार हो; और वो है निराकार। और तुम्हारी तो आदत बनी हुई है सिर्फ़ आकार देखने की, आकार न दिखे तो तुम कहते हो, “कुछ है ही नहीं।”

(पानी का गिलास उठाते हुए) मैं तुम्हें ये दिखाऊँ तो तुम बोलोगे, “हाँ भाई, पानी है।” (पानी का गिलास देते हुए) मैं तुमसे कहूँ, “ये लो”, तुम खुश हो जाओगे। (खाली हाथ से कुछ देने का इशारा करते हुए) और मैं तुमसे कहूँ, “ये लो”, तुम कहोगे, “ये देखो, पहले ही शक़ था ठग रहे हैं।” आकार मिल गया, कितने खुश हो गए, और निराकार? तुरंत ताज्जुब और सतर्कता और गुस्सा, “कुछ गड़बड़ हुआ!” तो इसीलिए किसी को परमात्मा देना बड़ा मुश्किल है। किसी को पदार्थ देना बड़ा आसान है, (गिलास उठाते हुए) “ले भाई! पी ले।” और परमात्मा देने में यही तो अड़चन है, जिसको दो वो कहता है, “दिया क्या?” अब कैसे समझाएँ क्या दिया? न उसका वज़न है, न रूप है, न रंग है, न नाम है, न सीमा है; इंद्रियों की पकड़ में वो आता नहीं, व्याख्या उसकी हो नहीं सकती, सिद्धान्त वो है नहीं, लिखा उसे जा नहीं सकता, गाया उसे जा नहीं सकता; न सूँघ सकते हो, न पहन सकते हो, न जेब में धर सकते हो, न खा सकते हो; तो कैसे बताएँ तुम्हें क्या दिया?

पर तुम तो उसी को पाया मानते हो जिसको पकड़ सको और सूँघ सको। भौतिकता है, पदार्थ कुछ मिले तो मानेंगे कुछ मिला। प्रेम मिले तो कौन माने कुछ मिला, क्योंकि प्रेम का वज़न तो होता ही नहीं। तराज़ू पर रखा था प्रेम, पाँच-ग्राम भी नहीं निकल रहा है, बड़ी आफ़त है, क्या मिला? और देने वाला कह रहा है, “मैंने तुम पर प्रेम लुटा दिया, न्योछावर हो गया”, और यहाँ तौले पड़े हैं और वो पाँच-ग्राम भी नहीं निकला। तो कहे, “चलो अच्छा, हो सकता है वज़न ज़रा कम हो, बुलबुले की तरह हो। कुछ आकार दिखा दो। बुलबुले में वज़न नहीं होता, आकार तो होता है।” अब आकार ढूँढ रहे हो, उसका आकार ही नहीं मिल रहा। तो कुछ निकले सूरमा, उन्होंने आकार भी बना दिया, उन्होंने दिल के आकार का प्रेम बना दिया, बोले, “यही होता है।” तो ऐसों के लिए संत-जन समझा गए हैं, कि “बेटा! वो निराकार है। ये जो तुम बना रहे हो इसमें तीर ही मार दो। इसकी कोई सत्ता नहीं, ख़त्म करो इसे।”

आ रही है बात समझ में?

तो ये मत समझ लेना कि ये सब-कुछ परमात्मा के विवरण के लिए कहा गया, उसका कोई विवरण नहीं होता। वो अगम्य की बात है, वो कहने-सुनने की बात नहीं है। ऋषियों से ले कर संतों तक ने एक चीज़ के विरुद्ध चेताया है, कि “उसको (परमात्मा को) अपनी छवियों में क़ैद करने की कोशिश न कर लेना”, क्योंकि तुम्हारी कोशिश सफल होने वाली है। और जैसे ही तुम्हारी कोशिश सफल हुई, तुम ख़त्म हुए, अब तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं। ज्यों तुमने परमात्मा को ले कर छवि, सिद्धान्त बनाए, त्यों ही तुम अपने-आप को मालिक समझने लग गए; खेल सारा समर्पण का था, तुम हो गए मालिक। बात ख़त्म।

(प्रश्न पढ़ते हुए) दूसरा सवाल पूछा है कि “आत्मा यदि वास्तव में निर्गुण, नित्य, निराकार, निर्मल, अविनाशी है, तो उसका बोध कैसे हो?”

अरे पागल! मैं फिर पूछ रहा हूँ; किसको बोध होगा? कह रहे हो, “आत्मा का बोध करना है,” कौन करना चाहता है आत्मा का बोध? आत्मा आत्मा का बोध करना चाहती है? दस-बीस तरह की आत्माएँ होती हैं? कौन आत्मा का बोध करने को उत्सुक है?

प्र: साक्षी।

आचार्य: साक्षी उत्सुक होगा? फिर वो साक्षी कैसे है? जिसमें उत्सुकता आ गई वो साक्षी रह गया क्या?

प्र: जीव।

प्र२: मन।

प्र३: जीवात्मा।

आचार्य: उसको मन कहते हैं।

अब आत्मा; हम किसकी बात कर रहे हैं? आत्मा की। आत्मा, ठीक है? (दोनों हाथों से विशालता प्रदर्शित करते हुए) आत्मा — विराट, असीम, अनंत। उसका बोध करने को कौन उत्सुक है? मन (उँगली और अँगूठे से न्यूनता प्रदर्शित करते हुए)। और ये मेरी उँगली और अँगूठे की सीमा है कि मैं इससे छोटा कुछ दिखा नहीं सकता। इससे भी क्षुद्र और टुच्चा कुछ होता हो, तो मैं उसकी ओर इशारा करके कहता – मन। अब इसको (आत्मा को) ये (मन) जाँचना, परखना, पकड़ना, अनुभूत करना चाहता है। लगाना है इस पर सट्टा? जीत मिलेगी इसको? पर देखो सवाल देखो।

मन और बोध कभी साथ चलते हैं? बताओ! मन को कभी बोध होता है? मन में विचार उठते हैं, मन में कल्पनाएँ उठती हैं, मन में शंकाएँ उठती हैं, मन में निष्कर्ष उठते हैं। बोध का अर्थ ही है मन का झुक कर मिट जाना। जब तुम नहीं, तब बोध है, और तुम कह रहे हो, “मुझे बोध चाहिए।” ये तुम क्या माँग रहे हो! कभी मिलेगा? इस माँग को अहंकार कहते हैं। तुम मुट्ठी में आकाश भर लेना चाहते हो, तुम प्याले में समुंदर भर लेना चाहते हो, तुम मन में आत्मा भर लेना चाहते हो। तुम स्वयं तैयार नहीं आत्मा में समाने को, समर्पण को राज़ी नहीं, झुकने को, मिटने को, ठहरने को राज़ी नहीं; हाँ, आत्मा चाहिए। सोचो तो सही, कि मन सोचने के अलावा क्या कर सकता है, मन क्या करेगा? सोचेगा। और जब सोच नहीं रहा, तब मन मन नहीं।

जो मन सोच में गतिमान न हो, बताओ वो बचा कहाँ? मन का पता ही कब चलता है? जब सोच शुरू होती है, ठीक? जिस मन में सोच नहीं चल रही वो है कहीं? कहीं नहीं है न? अब मन कह रहा है, “आत्मा को जानना है,” तो वो आत्मा के बारे में सोचेगा। और समझाने वाले तुमसे कह गए, “आत्मा अचिंत्य है।” जिसका चिंतन हो नहीं सकता सो आत्मा, सो सत्य, और तुम ठीक वही करना चाहते हो जो हो सकता नहीं। तो ये न पूछो कि “आत्मा का बोध कैसे होगा,” आत्मा ही बोध है। ऋषियों से तुम पूछो कि तुम कौन, कि वो कौन, तो वो बोलेंगे, “बोधोऽहम्।” बोध ही स्वरूप है, बोध ही स्वभाव है। बोध का अहसास नहीं होता, अहसासों के नीचे बोध बैठा है। टूटे-फूटे, खंडित अहसासों से जब तुम ऊब जाते हो, उलझे-उलझे जब तुम ऊब जाते हो, तब सुलझ जाने का नाम है बोध।

जब तक उलझे हो, तब तक कहलाओगे मन; जब सुलझ गए, तब तुम्हारा ही नाम है आत्मा।

इसको ऐसे भी कह सकते हो कि सुलझे हुए मन को ही आत्मा कहते हैं। बस ऐसा कहने में एक छोटी-सी दिक़्क़त है, वो ये कि जब तुम सुलझ गए तब तुम बचते ही नहीं। तुम, तुम्हारी हस्ती, तुम्हारी सारी दुनिया बस एक विशाल, विस्तृत उलझाव का नाम है, इसीलिए हम सुलझने से बहुत डरते हैं, सुलझे नहीं कि मिटे। ग़ौर करा है कभी तुमने, कि कुछ सुलझ भी रहा होता है तो तुम उसमें एक गाँठ छोड़ देते हो, “पूरा न सुलझने पाए, पूरा सुलझ गया तो बाद में हम उपद्रव कैसे करेंगे?” कहीं पर कोई विवाद हुआ हो और दो पक्ष बैठे हैं, कि “चलो अब विवाद सुलझा ही लें।” वो विवाद सुलझा देंगे, पर इतना-सा कुछ छोड़ ज़रूर देंगे, कि “बाद में कभी इस बच्चू के कान पकड़ने हों तो कोई तो नुक्ता होना चाहिए न, अगर बिलकुल ही सुलझा दिया तो फिर छोड़ेंगे कैसे इसको!”

मन को सुलझना पसंद नहीं, और सुलझे हुए ही मन को आत्मा कहते हैं। दूसरे छोर पर देखो तो सुलझने के अलावा मन की कोई ख़्वाहिश नहीं। बातें परस्पर विरोधी हैं पर हैं नहीं। मन की सतह को सुलझना बिलकुल पसंद नहीं, और मन की गहनतम इच्छा है सुलझ जाने की। इसीलिए मन सदा द्वंद में रहता है, ऊपर-ऊपर से एक तरफ़ को भागना चाहता है, और दिल की गहराइयाँ दूसरी तरफ़ को भागती हैं। देखा है, कभी कदम चलते हैं, कभी ठिठकते हैं? देखा है, भीतर कैसा गृहयुद्ध मचा रहता है – “जाऊँ कि न जाऊँ, उठूँ कि न उठूँ, मिलूँ कि न मिलूँ, करूँ कि न करूँ?” इस द्वंद का ही नाम है मन। और मन ही जब अपने द्वंदों से ऊब जाता है, तो वो कहता है, “बहुत हुआ!” अब उसे उलझन से मोह नहीं।

जिस मन को उलझन से वैराग्य हो गया, सो मन आत्मा हुआ।

हमें उलझनों से वैराग्य नहीं है, हमें उलझनों से बड़ी प्रीति है। वास्तव में हमें जिससे प्रीति हो, उसी को उलझन जान लेना। हम उलझनों के अलावा किसी और की ओर आकर्षित होते नहीं, प्रमाण इसका ये है कि आज तुम्हारे जीवन में जितनी उलझनें हैं वो सब वही हैं जिनकी ओर तुम कभी-न-कभी आकर्षित हुए थे; और आज जिधर को आकर्षित हो रहे हो, ये सोच कर के कि कुछ सुलझेगा मामला, वो कल की उलझन है। मन का काम है उलझन से उलझन तक की यात्रा करना। पुरानी उलझन उलझन कहलाती है, नयी उलझन आशा कहलाती है। आत्मा है यात्रा से थक जाना।

“दौड़त-दौड़त दौड़िया, जेती मन की दौड़। दौड़ थका मन थिर भया, वस्तु ठौर की ठौर।”

~संत कबीर

इस मन का थकना, ऊबना बहुत ज़रूरी है। इस मन का हकीक़त से रू-ब-रू होना बहुत ज़रूरी है। हकीक़त से मेरा तात्पर्य हक़ से, सत्य से नहीं है यहाँ पर। जब यहाँ हकीक़त कह रहा हूँ तो उससे मेरा आशय मात्र तथ्य है। अपने जीवन के तथ्यों से हम ज़रा वाकिफ़ रहें। क्या है, कैसा है, क्यों है, और कितना है — इसका भान रहे, बहुत है। लोग कहते हैं कि उन्हें परमात्मा का पता नहीं। ये बात ही अजीब है, क्योंकि उसका तो पता हो भी नहीं सकता। मैं कहता हूँ परमात्मा की बात छोड़ो, ये बताओ तुम्हें अपनी ज़िंदगी का कुछ पता है? तुम उसका पता तो करने निकल पड़े जिसका पता लगाया ही नहीं जा सकता, लेकिन जिसका पता लग सकता है और जिसका पता होना चाहिए, उसका तुम्हें कुछ पता नहीं। मैं तुमसे पूछूँ कि “तुम क्यों रोज़ सुबह दफ़्तर जाते हो?” तो ये बात तुम्हें पता होनी चाहिए लेकिन ये बात तुम्हें पता है नहीं। तुम या तो इसका कोई बहुत ही सतही और बेहूदा उत्तर दोगे, या फिर तुम सोच में डूब जाओगे क्योंकि तुम्हें उत्तर पता नहीं।

मैं तुमसे पूछूँ, “तुम्हारा जीवन वैसा क्यों है जैसा अभी है?” तो फिर यही होगा, कि या तो तुम कुछ बहुत ही उथला जवाब दे दोगे, या फिर तुम अवाक् खड़े हो जाओगे, कि “हमें तो कुछ पता नहीं।” पर एक सहज, सरल, सुलझा हुआ जवाब नहीं होगा तुम्हारे पास, क्योंकि तुमने कभी जिज्ञासा ही नहीं करी है। तुमने कभी जानना ही नहीं चाहा है कि तुम्हारा चित्त किसी दिशा को क्यों भाग उठता है। तुमने जानना ही नहीं चाहा है कि तुम जैसे हो, जिसको तुम अपना व्यक्तित्व कहते हो, जिसको तुम अपना होना कहते हो, वो वैसा क्यों है। क्यों तुम किसी बात पर क्रोधित हो जाते हो, क्यों तुमको लुभाना आसान है, क्यों पाँच तरह के डर तुम्हारा पीछा करते हैं — इनका तो पता लगना चाहिए न, क्योंकि इन्हीं में जी रहे हो दिन-रात। पर इनका हमें कुछ पता नहीं, और जब इनका हमें पता नहीं तो भरपाई हम ऐसे करना चाहते हैं कि कहते हैं, “ज़रा परमात्मा का पता लग जाए।” तुम किधर को चल रहे हो? और चलने से मेरा कोई काव्यात्मक अर्थ नहीं, मैं पूछ रहा हूँ, “तुम्हारे ये भौतिक पाँव किधर को चल रहे हैं, इस भौतिक ज़मीन पर?” तुमसे पूछूँ कि “बताओ भाई! जिधर को जा रहे हो, क्यों जा रहे हो?” तो फिर यही होने वाला है, या तो तुम कोई बहुत सतही जवाब दे दोगे, कि “जलेबी लेने जा रहे हैं”, या फिर तुम बिलकुल हक्के-बक्के खड़े रह जाओगे, कि “ध्यान ही नहीं दिया कि क्यों जा रहे हैं।” हम तो यूँ जा रहे हैं जैसे कोई मशीन जाती है। जाती तो है, पर उसे कहाँ पता होता है कि जा रही है? क्यों जा रही है ये भी बात छोड़ दो, उसको ये भी नहीं पता होता कि वो जा रही है। ऐसी हमारी गति, ऐसा हमारा जीवन है। मन जो जान सकता है, उसको जान लें इतना बहुत है। सत्य को जानने की कोशिश मत करो, आत्मा को जानने की कोशिश मत करो। आत्मा कोई ज्ञेय वस्तु नहीं है, आत्मा समस्त ज्ञान का अधिष्ठान है, बुनियाद है। आत्मा कमरे में रखी हुई चीज़ नहीं है, आत्मा कमरे की बुनियाद है। तुम आत्मा को खोज रहे हो कमरे में, तुम कह रहे हो, “उधर गेंद रखी है, उसको आत्मा कहते हैं? वो गमला है, उसको आत्मा कहते हैं? ये छत पर पंखा टँगा है, इसको आत्मा कहते हैं?” तुम वस्तुओं में आत्मा को खोज रहे हो, तुम सिद्धांतों में और ज्ञान में आत्मा को खोज रहे हो, और आत्मा है कहाँ? वो तुम्हारे पाँव के ठीक नीचे है। वो वो है जिसकी हस्ती से तुम खड़े हो, वो वो है जिसकी हस्ती से तुममें सवाल पूछने की ताक़त आयी है। वो तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं हो सकती, वो तुम्हारे सवाल का आधार है। आत्मा न हो तो ऐसा नहीं है कि तुमको जवाब नहीं मिलेंगे; आत्मा न हो तो तुममें सवाल ही नहीं उठेंगे।

तो ये मत पूछो कि “आत्मा का बोध कैसे हो?” आत्मा का बोध नहीं होता, आत्मा ही बोध होती है। मन तुम्हारा उत्सुक है जानने को तो उन चीज़ों को जानो जिन्हें जानना चाहिए। अपने मन से पूछो, “क्यों तुझमें ऐसे सवाल उठते हैं?” अपने मन से पूछो, “तू क्यों लौट-लौट कर एक ही जगह पर आता है?” अपने मन से पूछो, “जो तू भविष्य की योजनाएँ बना रहा है, क्यों बना रहा है?” ये सारे सवाल पूछने लायक हैं, इन्हें पूछो! आत्मा को ले कर प्रश्नोत्तरी नहीं चलानी।

(प्रश्न पढ़ते हुए) फिर पूछा है आगे, “प्रेममय हो जाने पर सारे प्रश्न विलुप्त क्यों हो जाते हैं?”

तुम्हारा तो नहीं हुआ विलुप्त, तुम तो पूछे ही जा रहे हो, अब तीसरा है ये! और वो तो किसी ने रोक दिया होगा, नहीं पक्का है कि तुम अभी पाँच-सात और दागते। अरे ग़ौर तो करो पगले! कह रहे हो, “प्रेममय हो जाने पर सारे प्रश्न विलुप्त क्यों हो जाते ?” और ये तुम क्या कर रहे हो? प्रश्न ही कर रहे हो, प्रश्न कर के तुम ख़ुद ही बता रहे हो कि तुम्हारे पास प्रेम नहीं है। तो असली सवाल क्या होना चाहिए? “प्रेम क्या है? प्रेम कैसे पाऊँ?” वो नहीं पूछ रहे, पूछ रहे हैं, “सारे प्रश्न विलुप्त क्यों हो जाते हैं?” अगर प्रश्न विलुप्त हो गए होते तो तुमने ये पूछा नहीं होता! तुम्हारा हुआ नहीं विलुप्त, इसका अर्थ, जिस विलुप्ति की तुम बात कर रहे हो वो विलुप्ति तुम्हारे लिए क्या है — सिर्फ़ एक सिद्धान्त है, सुनी-सुनाई बात है। उस विलुप्ति को तुमने कभी अनुभव तो किया नहीं न! तुम उस विलुप्ति में जी रहे होते तो ये सवाल आया नहीं होता। तो ये पूछो न, कि “मेरे सवाल बने क्यों हुए हैं?” ये पूछो!

तुम्हारे सवाल इसलिए बने हुए हैं क्योंकि ‘तुम्हें’ बने रहना है। सवाल माने उलझन। हमारे पास जो कुछ भी है वो किसी उलझन का जवाब देने के लिए है। ग़ौर से देखना, तुम्हारे पास जो कुछ भी है वो किसी समस्या का उत्तर देने के लिए है, किसी सवाल का जवाब देने के लिए है। तुमने चश्मा पहन रखा है, क्यों पहन रखा है? ताकि किसी समस्या का उत्तर दिया जा सके। ये पंखा क्यों चल रहा है? ये कपड़े क्यों पहन रखे हैं? नहाते क्यों हो? खाते क्यों हो? बोलो! पैसा क्यों है तुम्हारे पास? ज्ञान क्यों इकट्ठा करते हो? हमारे पास जो कुछ है वो किसलिए है? किसी सवाल का जवाब दिया जा सके। अस्तित्व सवाल करता है, हम कहते हैं, “अरे बाबा रे! जवाब तो होना चाहिए न, ज़रा मेहनत करो, कुछ इकट्ठा करो। तो जब उधर से गोला दगेगा तो जल्दी से ऐसे दिखा देंगे, ये देखो हमारे पास ये जवाब है।”

सवाल ही हमारी पहचान हैं। सवाल न हो, उलझन न हो, समस्या न हो, तो हम बचेंगे कहाँ? तुम्हें खौफ़ न हो तो तुम कैसे समझाओगे कि क्यों इतना धन इकट्ठा किया, क्यों इतनी दीवारें खड़ी कीं, और घर में बंदूक क्यों रखी? बोलो! तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए तुम्हें ये भी मानना ही पड़ेगा कि बाहर उलझन है और समस्या है। अगर ज़माना खूबसूरती से भरा हो, और संसार अगर सौहार्द से भरा हो, और दुनिया स्वर्ग-तुल्य हो, तो फिर क्या औचित्य रह गया तमाम तरह का बल और सत्ता इकट्ठा करने का, बताओ? फिर तो प्रेम काफ़ी है न? तो सवाल ज़रूरी हैं ताकि हमारे पास सत्ता बनी रहे। जिस आदमी के पास बंदूक हो, उससे पूछो, “बंदूक क्यों है तेरे पास?” तो वो क्या जवाब देगा? “बाहर उलझन-ही-उलझन है तो उस उलझन का जवाब देने के लिए, समस्याएँ-ही-समस्याएँ हैं तो उन समस्याओं का जवाब देने के लिए ये बंदूक है।”

और हमारे पास बंदूकों के अलावा कुछ है नहीं! हमारे पास जो कुछ है वो हिंसा का ही उपकरण है, हमारे पास जो कुछ है, उसका हिंसात्मक ही तो उपयोग है। चाहे कान का झुमका हो, चाहे घर की तीसरी मंज़िल हो, कार हो, व्यापार हो — ये सब हिंसा के ही तो उपकरण हैं न? इनका महत्व बनाए रखने के लिए सवालों का होना ज़रूरी है। सवाल माने समझ रहे हो न, सवाल माने? उलझाव। उलझाव यदि नहीं है तो फिर क्यों इतना श्रम करना? श्रम का तो अर्थ ही होता है कि कहीं कोई समस्या है जिससे मैं लड़ रहा हूँ, कहीं कोई दुश्मन है, मैं जिसके खिलाफ़ मेहनत कर रहा हूँ। हम जैसा जीवन जी रहे हैं, उस जीवन को तुम सार्थक सिद्ध कैसे करोगे अगर तुम अपने सवालों को तिरोहित कर दो? दंगे हो रहे हों, किसी दंगाई को पकड़ लो, वो ये थोड़े ही कहेगा कि ‘हिंसा के वशीभूत हो कर के मारने निकला हूँ लोगों को’। वो कहेगा, “जिनको मार रहा हूँ, ये सब नालायक हैं, दोषी हैं, कमीने हैं, तो इसलिए इनका वध कर रहा हूँ।”

तुम जैसे हो, उसको जायज़ ठहराने के लिए सवालों का, चुनौतियों का, समस्याओं का होना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो ये तुरंत ही साबित हो जाएगा कि हमारा जीवन पूरी तरह से नाजायज़ है। नाजायज़ तो खैर है ही! इसलिए तुम इन सवालों को कभी मिटने नहीं दोगे। सवाल माने उलझन, उलझन मिटती हो तो चौंक जाओगे, ख़बरदार हो जाओगे। इसीलिए अध्यात्म में, ध्यान में कई बार लोगों को गहरे भय का अनुभव होता है। वो भय मिट जाने का भय है। वो भय उलझनों के, सवालों के न रह जाने का भय है। फिर तुम कहते हो, “जिएँगे किसकी खातिर? हम तो जी ही इसीलिए रहे थे कि एक दिन पड़ोसी का सर फोड़ेंगे। अब वो उलझन ही नहीं रही, अब वो चुनौती ही नहीं रही, तो जीने की हसरत भी लगता है नहीं रहेगी।” “ज़माना बड़ा ख़तरनाक है, कातिल है, उससे अपना छोटा-सा घरौंदा बचा कर रखना है, इसी खातिर जी रहा हूँ मैं। ये मेरा घोंसला, इसमें मेरे छोटे-छोटे चूज़े; और ज़माना ख़तरनाक है, इसमें चील हैं और साँप हैं, और बहेलिए हैं, और उनसे बचाना है अपने घोंसले को, इसीलिए जीता हूँ मैं।” और अगर साबित हो जाए कि तुम्हें बचाने की कोई ज़रूरत ही नहीं, जिसे बचाना है वो बचा रहा है, और तुम्हारे बचाए कुछ होता नहीं, तुम्हारे बचाए खेल ज़रूर ख़राब होता है, तो फिर तुरंत तुम्हारे पास से जीने का मकसद ही छिन जाएगा। तुम कहोगे, “अब जियूँ किसके लिए? मैं तो जीता ही इसलिए था कि एक दिन दुनिया के सामने ढाल बन कर खड़ा हो जाऊँगा।”

इसलिए तुम इन सवालों को जाने नहीं दोगे, इसलिए तुम इन प्रश्नों को विलुप्त नहीं होने दोगे। अब ये भी बताए देता हूँ कि प्रश्न विलुप्त कब हो जाते हैं। डर में रस होता है, उलझन में रस होता है, हिंसा में रस होता है, अहंकार इन सबसे तृप्ति पाता है। लेकिन अहंकार की गहरी-से-गहरी तृप्ति किसी और रस में है, जब उस रस का ज़रा स्वाद मिल जाता है तो आदमी कहता है, “वही वाला चाहिए।” अब ये जो छोटे-मोटे, घटिया, नकली रस थे, ये नीरस हुए। तब आदमी एक सीध में भागता है – सच्चाई की ओर। ये अवस्था प्रेम कहलाती है, इस अवस्था में सवाल-जवाब सब पीछे छूट जाते हैं। आदमी कहता है, “तेज़ी से भागना है तो ज़रा हल्के हो कर भागना पड़ेगा, ये सवालों की गठरी कौन ढोए! हट रे तू! भागने दे! उधर जाना है, वहाँ प्रियतम प्रतीक्षा करता है। ये सवाल-जवाब ले कर भागेंगे तो गति कम हो जाएगी, थक जाएँगे।” तब आदमी सब...

बुल्लेशाह इश्क़ की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं, “रह्या न कोई सवाल-जवाब।“

प्र: “कुछ ना रहिया सवाल-जवाब।“

आचार्य: “कुछ ना रहिया सवाल-जवाब।” आदमी को कुछ ज़्यादा कीमती मिल गया भई! सवालों में कीमत लगती थी, सवालों में रस लगता था, उससे ज़्यादा कीमत का कुछ मिल गया, “हटाओ सवाल-ववाल, क्या रखा है!”

आ रही है बात समझ में?

तब सवाल पीछे छूटते हैं, विलुप्त हुए। कौन पूछे! समय कौन ख़राब करे ये पूछताछ में! प्यासा हूँ, प्यास लगी है, (गिलास उठाते हुए) अब मैं पूछूँ तुमसे इसमें हाइड्रोजन-बॉन्ड में कितनी एनर्जी (उर्जा) है? दिमाग ख़राब हुआ है सवाल करूँगा? पूछ रहे हैं, “इसकी ज़रा विस्कोसिटी बताना और सरफ़ेस-टेंशन बताना, और पहले ये निकाल कर लाओ कि इसकी थर्मल-कैपेसिटी कितनी है।” और कोई आ कर सवाल छोड़ दो, इस तरह के जवाब बताता हो उसको भी चाँटा मारूँगा, “तू, तेरे जवाब, ले कर जा यहाँ से सब, ये जितने ग्रंथ-व्रन्थ हैं, हटा। बताने आया है कि इसमें बड़े जवाब होते हैं। मुझे पानी चाहिए, जवाब थोड़े ही चाहिए! और वो हमें बता रहे हैं कि कोवैलेंट-बॉन्ड कैसे बनता है।”

प्र: “जद्दो हज़ूरों प्याला पीता, कुछ ना रहिया सवाल-जवाब।”

आचार्य: (गिलास उठाते हुए) “जद्दो हज़ूरों प्याला पीता, कुछ ना रहिया सवाल-जवाब।” प्याला पियो, ये क्या सवाल-जवाब, बकर-बकर लगा रखी है?

प्र२: आपने बोला कि अहंकार डर का रस भी लेता है। अहंकार डर का रस कैसे ले सकता है?

आचार्य: डर जब बढ़ता है तो तुम्हारा ‘मैं’ सघन हो जाता है।

डर किसको लगा? ‘मुझे’। जब तुम शांत होते हो तो ‘मैं’ का अहसास होना बहुत कम हो जाता है। मान लो तुम कहीं बैठे हो, निर्भीक बिलकुल। तुम्हारी पचास चीज़ें यहाँ बिखरी हुईं हैं, तुम्हें अभी न ‘मैं’ का पता है, न ‘मेरा’ का पता है। तुम्हारा एक हाथ यूँ पड़ा हुआ है, तुम आराम से विश्रांति में हो। और तुम्हारी दस चीज़ें यहाँ बिखरी हुईं हैं, तुमने अपनी सोने की चेन भी उतार कर के यहाँ ऐसे नीचे रख दी है। शोर मचता है, क्या? चोर है कि डाकू है, लूट मच रही है। तुरंत तुम्हारा ‘मैं’ का अहसास जागृत हो जाएगा। तुरंत तुम “मेरी, मेरी, मेरी, मेरी, मेरी, मेरी कौन-कौन सी चीज़ है”, उसको क्या करोगे? तुरंत इकट्ठा करोगे, उसको बंद, पैक करोगे; सतर्क हो गए। कौन जागृत हो गया? ‘मैं’ जागृत हो गया। ख़तरा किसको आया है? ‘मुझे’ आया है। तो डर का बड़ा रस होता है। डर में ‘मैं’ जागृत हो जाता है, शांति में ‘मैं’ सो जाता है।

डरे हुए आदमी के साथ सहानुभूति रखना ठीक है, पर सिर्फ़ सहानुभूति मत रखना, ये भी याद रखना कि डर बड़ी कुत्सित चाल है। ये जो डरे हुए लोग होते हैं, एक तल पर तो इनके साथ संवेदना रखनी चाहिए, और दूसरे तल पर ये भी याद रखना चाहिए कि ये आदमी चालाक बहुत है, क्योंकि हर डर एक तल पर ढोंग होता है, स्वांग होता है, भीतरी षड़्यंत्र होता है। अहंकार अपने-आप को बचाने के लिए डर का सहारा लेता है। तो इतना ही मत कर देना कि डरे हुए लोगों को बिलकुल सहारा दे दिया, कि “अरे-अरे, डरो मत! डरो मत!” ये भी करना, लेकिन साथ-ही-साथ डर का फिर मूलभूत इलाज भी करना। सिर्फ़ अगर तुम उसे सहानुभूति दे रहे हो, तो तुम उसके डर को प्रोत्साहन ही दे रहे हो। सहानुभूति दे लो, और फिर इलाज भी करो।

प्र३: गीता में श्रीकृष्ण बोल रहे हैं कि स्थितप्रज्ञ हो जाओ। तो उस अवस्था को एक जैसा माना जा सकता है, जो आप बोल रहे हैं और जो श्रीकृष्ण बोल रहे हैं?

आचार्य: हाँ, वो सब एक ही शब्द हैं। पर क्या करोगे? तुम्हें शब्द मिल गया — स्थितप्रज्ञ मिल गया, स्थितधी मिल गया, गलितधी मिल गया।

प्र३: परिधि से किसी केंद्र पर आ कर स्थित होना है बस।

आचार्य: चलो ठीक है! ये सब इशारे हैं। जिधर को इशारे किए जा रहे हैं वहाँ पहुँचो भी, नहीं तो ये सब सिर्फ़ शब्द हैं – ब्रह्मलीनता, ब्रह्मविदता, स्थितप्रज्ञता।

पाँच-सात शब्द हम भी गढ़ सकते हैं, आओ बैठो!

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र४: आचार्य जी, दूसरों के प्रति जो दायित्व हैं उन्हें हम कैसे निभाएँ? वो दायित्व बहुत महत्वपूर्ण लगते हैं जैसे कृष्ण भी अपना दायित्व निभा रहे थे।

आचार्य: दूसरों के प्रति कोई दायित्व नहीं होता।

अभी उन्होंने बात करी कि “असली जो तत्व है, सत्य है, वो अद्वैत है।” तो दूसरे जब हैं ही नहीं, द्वैत है ही नहीं, तो दूसरों के प्रति क्या दायित्व होगा! दूसरे सांयोगिक हैं, दूसरे बस व्यावहारिक हैं, व्यवहार में दिखते हैं। अभी मुझे दिख रहे हैं बहुत सारे दूसरे, व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं है। तो दायित्व भी दूसरों के प्रति नहीं होता। पहला और केंद्रीय दायित्व अपने प्रति होता है, और वो ये होता है कि “मैं जिसको ‘मैं’ बोलता हूँ, उसकी जलन को शीतल कर दूँ। मैं तपता-जलता पैदा हुआ हूँ, तपता-जलता ही न मरूँ।” जिसने अपना ये दायित्व पूरा कर लिया, उसी को — तुम गीता से उद्धृत कर रहे थे — कृष्ण ने बहुत सुंदर शब्द दिया है – विगत-ज्वर; वो विगत-ज्वर हो गया, उसका ताप मिट गया, उसका ज्वर ढल गया।

तो यही दायित्व है, कि ज़िंदगी हमारे लिए अंगारे जैसी है, जिधर देखो उधर जलन ही मची हुई है। कभी कहीं कुछ धुआँ उठ रहा है, कहीं फफोले पड़ रहे हैं, कहीं उबाल है। यही तो है न ज़िंदगी – जल उठे, दर्द हुआ, फफोले पड़ गए, भावना उठी, धुआँ उठा। हर वक़्त हम ताप में ही रहते हैं, तो दायित्व ये है कि ताप से मुक्ति पाओ, विगत-ज्वर हो जाओ। अहंकार जैसे एक शोला है, अंगारा है, वो लगातार धधकता रहता है, सुलगता रहता है। उसे ठंडा कर देना, यही दायित्व है तुम्हारा, यही जीवन का ध्येय भी है, इसीलिए जन्म हुआ है। समझ लो जैसे गर्भ से अंगारा पैदा होता है, तो उसके जीने का मकसद एक ही तो होगा न – शीतल हो जाना। इस दायित्व को पूरा कर लो, फिर तुम पाओगे कि इस संसार के प्रति भी तुम्हारा जो दायित्व है वो अपने-आप पूरा हो रहा है; वो फिर पूरा करना नहीं पड़ता, वो स्वयमेव होता है। प्रथम दायित्व को प्रथम रखो।

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