अतीत को लेकर पछतावा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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अतीत को लेकर पछतावा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, दो हज़ार एक में मेरा विवाह हुआ था, उसके बाद थोड़ी सी पज़ेसिवनेस थी, बहुत ज़्यादा पज़ेसिवनेस थी। तो विवाह के तीन-चार-पाँच वर्ष बहुत अच्छे नहीं निकले, उस दौरान कई बार मैंने अपनी पत्नी से हाथापाई की। धीरे-धीरे सम्बन्ध सुधरते गए, अभी सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं। डेढ़ वर्ष पश्चात मेरी पुत्री हुई, और जब वो दो साल, तीन साल, चार साल की थी तब तक वैसा चलता रहा लाइफ में। मैं उन सब बातों को भूल चुका था। पर पिछले कुछ समय से, दो सालों से छुट्टियाँ चल रही हैं, घर से पढ़ रही है बेटी! तो पिछले दो-तीन-चार महीनों में कभी भी कुछ बात हुई तो वो बात निकल कर सामने आई कि उसको बचपन की वो सारी घटनाएँ, जो दुर्व्यवहार मैंने किया था, वो उसको बहुत सारी घटनाएँ एज़ इट इज़ (ठीक-ठीक) याद हैं। तो उसके उस समय का जो मन था, बिलकुल सरल मन था; उस पर जाने-अनजाने मैंने गहरे घाव कर दिए।

इसका क्या मार्ग निकालें? कैसे मैं अपनी बेटी को अब उन स्मृतियों और अनुभवों से निकालूँ? और कैसे जो माँ-बाप इस तरह का कुछ व्यवहार कर रहे हैं वो समझें कि इसका बच्चों पर कितना बुरा असर पड़ता है। क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि वो क्या कर रहे हैं। मुझे बीस साल बाद पता चल रहा है कि मैंने क्या कर दिया।

अचार्य प्रशांत: देखिए! कुछ हद तक तो जो आपके साथ हुआ है वह तयशुदा भी है और सार्वजनिक भी। तयशुदा और सार्वजनिक इसलिए है क्योंकि प्रकृति ने हमें रचा ही ऐसा है कि चौबीस, सत्ताईस, तीस, बत्तीस में हम शादियाँ कर लेते हैं। महिलाएँ और कम उम्र की होती है जब उनकी शादियाँ हो जाती हैं। और बाईस, पच्चीस, अट्ठाईस इस उम्र में बच्चे आ जाते हैं।

अब हम पच्चीस के हैं, सत्ताईस के हैं, माँ-बाप बन गए हैं तो क्या होगा? और ये नहीं कि हमारा कोई दोष है कि हम सत्ताईस की उम्र में अभिभावक बन गए, प्रकृति ने देह ही ऐसी बनाई है। कितनी समझदारी होती है किसी भी पच्चीस-तीस साल के व्यक्ति में?

मैं तो देखता हूँ यहाँ बैठे हुए हैं, यहाँ पर आधे लोग उसी उम्र के हैं, आधे से ज़्यादा! कितनी समझदारी है? अब ये माँ-बाप बन जाएँगे! बच्चे के साथ एक नहीं, सौ तरह के अन्याय होंगे, आपको तो एक बात समझ में आयी है जिसका बच्चे के मन पर प्रतिकूल असर पड़ा। पति-पत्नी में अनबन हुई, हाथापाई हुई, दुर्व्यवहार किया पति ने तो बच्ची ने देख लिया और वो बात उसके मन पर छप गयी। ये बात आपको पता चली है, इसका आपको पछतावा हो रहा है।

लेकिन बात यहाँ तक सीमित कहाँ है। अगर मैं पच्चीस-सत्ताईस साल का हूँ और निपट अज्ञानी हूँ, एकदम कोई मुझे समझ नहीं, कोई गहराई नहीं जीवन में तो मैं तो जो कुछ कर रहा होऊँगा, वो सब कुछ ही मेरे बच्चे के लिए घातक होगा ना।

बच्चे हैं छोटा और मैं हूँ जवान, ऊर्जावान और उथला, जैसे सब होते हैं। प्रकृति की रचना है, सब ऐसे ही होते हैं। मैं ऐसा हूँ, मेरी पत्नी भी ऐसी ही है। हम जो कुछ भी कर रहे होंगे हर चीज़ बच्चे को भारी पड़ रही होगी। ये तो चलिए प्रकट दुर्व्यवहार था कि हाथापाई वग़ैरह हो गई, हाथ उठा दिया, ये तो प्रकट दुर्व्यवहार है। जहाँ हम दुर्व्यवहार नहीं भी कर रहे, जहाँ हम अपनी ओर से अच्छा कर रहे हैं, हमारा तो सदव्यवहार भी बच्चे को भारी पड़ता होगा। आप कल्पना कर पा रहे हैं? जैसा आपने कहा, "हमें पता ही नहीं है, हमें पता ही नहीं है।" वो चीज़ें जो हम बच्चों की भलाई के लिए भी करते होंगे वो भी उसे भारी पड़ रही होंगी।

आपको तो बीस साल बाद कम-से-कम पता चल गया कि बच्चे के मन को नुक़सान हुआ। अधिकांश माँ-बाप को तो कभी पता भी नहीं लगने वाला कि उनकी हरकतों से बच्चे को क्या-क्या और कितना गहरा नुक़सान हुआ है। और मैं कह रहा हूँ, सिर्फ़ उन्हीं हरकतों से नहीं जो उन्होंने अपनी दृष्टि में ग़लत करी हैं; आप जो बच्चे के साथ अच्छे काम भी करते हो वो भी तो बच्चों के लिए कितने घातक, ज़हरीले होते हैं। क्योंकि जब मैं स्वयं को नहीं जानता, मेरी ज़िंदगी में कोई गहराई नहीं, तो मुझे क्या पता क्या अच्छाई क्या बुराई। मेरी बुराई में तो बुराई होगी ही, मेरी अच्छाई में भी ख़ूब बुराई होगी।

तो ये जो वर्ग होता है ना जीवों का, जिसको हम कहते हैं 'बालक', जीवों के इस वर्ग के साथ सर्वाधिक अन्याय करता है इंसान। हम कई बार कहते हैं फ़लाना वर्ग शोषित है, फ़लाना वर्ग दमित है, हम कभी कहते हैं पशुओं की रक्षा होनी चाहिए, कभी हम इंसानों के एक वर्ग को कहते हैं कि ये बेचारा सर्वहारा वर्ग है। आप ग़ौर से देखिए तो जो सबसे ज़्यादा शोषित वर्ग है जीवों में, वो है बच्चों का; उनसे ज़्यादा अन्याय किसके साथ होता है! और अन्याय इसलिए होता है क्योंकि माँ-बाप दोनों एक नंबर के अज्ञानी, कुछ उन्हें ना जीवन की समझ, ना मन की समझ, अध्यात्म में कोई रुचि नहीं तो बच्चे की ज़िंदगी तो ख़राब करेंगे ना। और उन्हें पता भी नहीं होगा कि उन्होंने ज़िंदगी ख़राब कर दी। अब?

तो मैंने आपकी समस्या को थोड़ा व्यापक विस्तार दे दिया, ज़नरलाइज कर दिया, है न? समाधान क्या निकालें फिर? क्योंकि हम बच्चे को चोट तो पहुँचा ही देते हैं गहरी। कुछ माँ-बाप होते होंगे थोड़ी कम चोट पहुँचाते होंगे, कुछ ज़्यादा पहुँचाते हैं लेकिन चोट तो पहुँचा ही देते हैं।

मैं पहले कहा करता था, मैं कहता था जिन लोगों में वास्तव में ये काबिलियत है कि वे बच्चे को सही पोषण और सही शिक्षा दे सकें, अक्सर वो बच्चे पैदा करते नहीं; बिचारे बच्चों का दुर्भाग्य। और जिन लोगों को सबसे ज़्यादा ललक रहती है बच्चे पैदा करने की ये बिलकुल वही लोग होते हैं जिनमें कोई काबिलियत नहीं होती बच्चे को सही परवरिश देने की; बच्चों का दुर्भाग्य।

खैर उनका होगा दुर्भाग्य, अब क्या करना है? अब क्या करना है? क्योंकि जो आपकी समस्या है वो हर घर की समस्या है। आपका सौभाग्य है कि आप उस समस्या से अब रूबरू हैं और बहुत लोग हैं जिन्हें उस समस्या का पता ही नहीं, वो समस्या से मुँह चुराएँगे। उनसे अगर कहा जाए कि तुमने अपने बच्चे के साथ घातक अन्याय करा है वो मानेंगे नहीं क्योंकि मानने में अहंकार को ठेस लगती है। और मानने के लिए बहुत प्रेम भी चाहिए, इतना प्रेम भी नहीं होता है माँ-बाप को बच्चों से कि बच्चों से साफ़-साफ़ मान लें कि हमने तुम्हारे साथ बहुत ग़लत किया, हमे माफ़ कर दो। इस स्वीकारोक्ति के लिए गहन प्रेम और बड़ी ईमानदारी चाहिए। ना हमारे पास उतना प्रेम है ना उतनी इमानदारी है। हम तो यही कहते रहेंगे कि नहीं मेरा बच्चा तो ठीक-ठाक ही है, मैंने अच्छी परवरिश दी है।

करे क्या? वही करिए जो आज एक जागृत व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के लिए करना चाहिए। अतीत में जो हुआ सो हुआ, कौन बदलेगा! आज जो अच्छे-से-अच्छा और ऊँचे-से-ऊँचा है उसको अपनी बेटी तक ले कर आइए। वो अगर जीवन में खुली उड़ान भरना चाहती है तो उसका समर्थन करिए। आपने जैसा बताया उससे मुझे लगा कि वो व्यवसायिक शिक्षा का कोई कोर्स कर रही है, उसको और आगे बढ़ने दीजिएगा। जिस भी दिशा में उसको अपना विकास दिखाई दे रहा हो, रोकिएगा मत। ये तो हुई उसके व्यवसायिक जीवन की बात।

व्यक्तिगत जीवन में ऊँचे साहित्य से उसका परिचय कराइए। पिता आप हो चुके, अब कोशिश करिए थोड़ा गुरु होने की भी। जो बातें एक जवान व्यक्ति का जीवन सुधार सकती हैं और जो बातें आमतौर जवान लोगों से कोई करता नहीं, उन बातों को छेड़ने का प्रयास करिए। यही आज का उपाय है।

सदा याद रखिए, पिता या माता होने भर से कोई श्रेष्ठता नहीं आ जाती। श्रेष्ठता अर्जित करनी पड़ती है। बच्चों के साथ बहुत-बहुत-बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पैदा तो कोई भी कर लेता है। उतनी अगर मेहनत नहीं की गई है तो क्षमा कीजिएगा लेकिन हम सब मानवता के गुनहगार है क्योंकि अगली पीढ़ी हम ही से आनी है। मानवता की अगली लहर तो हम ही से आती है न? उस लहर का रूप-रंग, आकार और उसमें शुद्धता और गुणवत्ता कितनी होगी वो तो हम ही तय करते हैं न? मानवता के इस समुद्र में अगर एक के बाद एक दूषित लहरें आ रही हैं तो ज़िम्मेदार कौन है? हम ही तो ज़िम्मेदार हैं न? हर गुज़रती पीढ़ी ज़िम्मेदार है कि उसने अगली पीढ़ी को ऐसा बनाया नहीं जैसा बनाना चाहिए था। इस बात को समझिए, बच्चों का खेल नहीं है ये।

बच्चे को सही परवरिश देना माने अपना जीवन बदल देना क्योंकि हम जैसे हैं वैसा रहते हुए तो बच्चे को सही परवरिश नहीं दे सकते। हाँ, पैसा वग़ैरह दे सकते हैं। वो पैसा सिर्फ़ बच्चे को बर्बाद करने के काम आता है आमतौर पर। बहुत सारे अभिभावक यहाँ बैठे हैं और बहुत सारे ऐसे बैठे हैं जो भविष्य में अभिभावक बनेंगे, सबसे कह रहा हूँ। अगर ये दावा करना है कि बच्चे से प्रेम है तो बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, अपनी ज़िंदगी बदलनी पड़ेगी, सिर्फ़ तब कह पाओगे कि बच्चे से सही रिश्ता रखा। बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है।

तैयार हो लेना, समर्थ-सक्षम हो लेना तब घर में बच्चा लाना; खिलौना नहीं है। और कोई आकस्मिक दुर्घटना का उत्पाद भी नहीं होना चाहिए बच्चा कि यूँही आ गया हमें तो पता भी नहीं चला।

सौ बार पूछ लेना — मैं मानसिक रूप से इस लायक़ हूँ कि किसी जीव को जीवन दे सकूँ? और बिलकुल स्पष्ट गूँजता हुआ उत्तर आए 'हाँ', तभी बच्चे को दुनिया में लाना। और अगर ले आए हो तो अब अपनी ज़िम्मेदारी समझो कि अपने लिए नहीं तो बच्चे के लिए सही, मुझे अपनी ज़िंदगी ठीक करनी है। क्योंकि आप जैसे हैं वैसे रहते हुए तो आप उसको बर्बाद ही करेंगे। उसको बचाना है तो ख़ुद सुधरना होगा।

छोटा सा होता है, उसे कुछ पता नहीं और उसको देख-देख कर हँस रहे होते हैं। तुम्हें पता भी है कि ये क्या चीज़ तुम्हारे सामने आयी है? जैसे हँसी ठट्टा, खेल खिलौना! जिन्हें अभी ख़ुद बाप की ज़रूरत है वो ख़ुद बाप बने बैठे हैं। अभी तो तुम्हारी हालत ये है कि तुम्हारी ज़िंदगी में कोई बाप की तरह मौजूद रहे। तुम ख़ुद मानसिक तल पर अभी बच्चे हो, तुम क्यों बाप बनने जा रहे हो भाई? और इसके समर्थन में बड़े रोचक तर्क आते हैं, वो कहते हैं, देखिए अभी हम बिलकुल ही बेवकूफ़ हैं, मूर्ख हैं, अपरिपक्व हैं, लेकिन हम जैसे ही बच्चा पैदा करेंगे वैसे ही हम मैच्योर (परिपक्व) हो जाएँगे। बच्चा इसीलिए तो पैदा किया जाता है। वो गिनी पिग हैं?

"नहीं वैसे तो हममें कोई गहराई नहीं, कोई बोध नहीं, न धैर्य है, न संयम है, न कुछ है जीवन में, लेकिन बच्चा आएगा तो अचानक से हममें गुरुता आ जाएगी;" कैसे आ जाएगी? ये सब कुछ मैं इसलिए कह रहा हूँ ताकि आप अपनी ज़िम्मेदारी की गहराई को समझें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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