
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चेप्टर 158: “द वन हू नोज़ दैट द क्लॉक इज़ टिकिंग विल नॉट लैट द मोमेंट रिटर्न एम्प्टी। टू रिस्पेक्ट लाइफ़ इज़ टू रिस्पेक्ट टाइम।” जब मैं ख़ुद का जीवन देखती हूँ, मैं मिड-थर्टीज़ में हूँ अपने, तो पूरा लाइफ़ जैसे फ़ेल्यर ही दिखता है पास्ट, और रिलेशनशिप हो, चाहे करियर हो। और अब भी जब आपको सुनना शुरू किया, तो काफ़ी कुछ समझ में आ रहा है, उसको सुधारने की कोशिश करती हूँ। टाइम को ट्रैक करने की कोशिश करती हूँ। कॉन्शस हूँ उसको लेके।
लेकिन जो पास्ट लूप ऑफ थॉट प्रोसेस है, वो बार-बार आ रहा है। खो जाती हूँ मैं उसमें, और जब बार-बार ऐसा होता है, तो काफ़ी निराशा हो जाती है। लगता है कि मैं कर ही नहीं पाऊँगी। और एक भय हो गया है कि आधा जीवन तो ऐसे ही निकल गया, अगला भी ऐसे ही निकल जाएगा क्या? मतलब डर-सा हो गया है।
आचार्य प्रशांत: आप किसी गर्म सतह को छूते हो, तो तुरंत हाथ पीछे खींच लेते हो न? ऐसे ही होता है न? और अगर नहीं खींच रहे, तो इसका क्या मतलब है?
प्रश्नकर्ता: गर्म लग नहीं रहा है या सेंसेशन नहीं हो रहा है?
आचार्य प्रशांत: या फिर कुछ उसमें मज़ा आ रहा होगा। भले ही मान लिया है कि कुछ मज़ा है, भले हो न मज़ा, धारणा बना ली होगी कि मज़ा आ रहा है, कुछ होगा, कुछ है। कुछ न होता, तो ऐसे छूते ही वापस आ जाते। तो वैसे ही आप जिन चीज़ों का दावा कर रहे हो कि आपके लिए यूज़लेस हैं, व्यर्थ हैं, अगर आप उनके साथ रहकर भी तुरंत छिटक नहीं जाते। तो इसका मतलब आप कह रहे हो भले ही कि वो व्यर्थ हैं, पर भीतर ही भीतर आपको उनमें कुछ मज़ा है।
मज़ा है, वरना बात गर्म तवे को छूने जितनी ज़ाहिर हो जाती और तात्कालिक हो जाती, इंस्टैंटेनियस हो जाती, कि गर्म चीज़ है वो जैसे ही छुई, प्रक्रिया शुरू हुई नहीं कि ख़त्म हो गई। छूना शुरू हुआ और छूना ख़त्म भी हो गया, ऐसे ही होता है न? तो फिर हम यह क्यों कहते हैं कि कुछ गड़बड़ चीज़ है, वह भीतर चलती रहती है। मुझे पता है, वो गड़बड़ है फिर भी चलती रहती है।
नहीं, नहीं, नहीं, आप कह रहे हैं कि आपको पता है कि गड़बड़ है। आप झूठ नहीं कह रहे हैं, पर आप आधी बात कह रहे हैं। आप ये तो बता रहे हैं कि वो गड़बड़ चीज़ है, पर आप ये नहीं बता रहे हैं कि उसमें आपके लिए सुख कितना है। जो कुछ भी मन में चलता रहता है, व्यर्थ है, और आप उसको चलाते रहते हैं। चाहे वो पुरानी यादें हों, चाहे भविष्य के डर हों, वो यूँ ही नहीं चल रहे भीतर। ईगो उनमें कहीं न कहीं कुछ मौज ले रही है, मज़े ले रही है, इसलिए चल रहे हैं।
अब उससे जो तकलीफ़ है, वो तो हम आकर बता देते हैं, कि गड़बड़ चीज़ भीतर चल रही है, नहीं चलनी चाहिए, ये तो आपने बता दिया, कन्फ़ेस कर लिया एक तरह से। पर हम कह रहे हैं, ये आधी बात बताई आपने। बाक़ी आधी बात ये है कि उसके कुछ मज़े भी हैं, छुपे हुए। और जब आप उन छुपे हुए सुखों की व्यर्थता देख लोगे, तो फिर वो सब जो भी चीज़ें चलती हैं, वो चलनी बंद हो जाएँगी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा कि मतलब अगर मैं उसको गहराई से देखती हूँ, तो उसमें यही पाती हूँ कि भविष्य के लिए असुरक्षा और अतीत का जो भी है उसका गिल्ट यही सब रहता है। तो देख पा रही हूँ कि ये गलत है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, गलत नहीं। गलत देख पाना भी मज़े की बात होती है। व्यर्थ है। "आई एम नॉट इंटरेस्टेड।" सही में भी इंटरेस्ट आएगा और गलत में भी इंटरेस्ट आएगा। बल्कि कई बार तो सही से ज़्यादा गलत में आएगा। आपको जो चीज़ें अट्रैक्ट करती हैं, वो ज़्यादा क्या हैं, सही या गलत?
श्रोता: गलत।
आचार्य प्रशांत: तो गलत चीज़ें तो बहुत इंटरेस्टिंग होती हैं। "लैक ऑफ इंटरेस्ट" चाहिए — "लैक ऑफ इंटरेस्ट।” न सही कहना है, न गलत कहना है। और वो "लैक ऑफ इंटरेस्ट" तब होता है, जब सामने कुछ होता है जो आपका पूरा अटेंशन ले ले। तब आप कहते हो कि मैं पास्ट की गिल्ट या जो भी हैं, यादें या जो भी हैं पीछे की घटनाएँ, स्मृतियाँ, मैं क्या कर रही हूँ वहाँ पर? मेरा असली काम तो अभी है, सामने।
अभी आप यहाँ बैठे हो, आपको अतीत याद आ रहा है क्या? क्यों नहीं याद आ रहा है? क्योंकि यहाँ आप मौजूद हो और आप ध्यान दे रहे हो, कुछ यहाँ ज़रूरी चल रहा है। हमेशा ऐसा ही कुछ ज़रूरी चल रहा होता है, प्रतिपल ज़िंदगी में। जब आप देखोगे कि ये कितना ज़रूरी है, तो बाक़ी सब बातों में एक डिसइंटरेस्ट आ जाएगा। फिर वो न सही लगेंगी, न गलत लगेंगी, बस व्यर्थ लगेंगी।
आप कहोगे, उस पोर्टफोलियो के लिए, जो पास्ट वाला पोर्टफोलियो है, उस पूरे क्षेत्र के लिए ही मेरे पास समय, ऊर्जा नहीं है, क्योंकि मुझे अपनी सारी ऊर्जा, अपना सारा समय कहाँ लगाना है? यहाँ पर, कुछ बहुत ज़रूरी है जो यहाँ चल रहा है। मैं वहाँ जाकर अपने आप को कैसे बाँटती फिरूँ। तो
ये मत कहिए कि पीछे से कुछ आ जाता है, आपको ले जाता है। जो सामने है न, आप उससे चुराते हो अपने आप को, आप उससे बचा लेते हो अपने आप को।
जो आप बचा लेते हो, वही फिर पीछे से कोई आकर ले जाता है, क्योंकि बचाया है, तो कोई तो ले जाएगा। अगर आपने अपने आप को पूरा-पूरा, जैसा जीवन है सामने प्रत्यक्ष, उसको सौंप दिया होता, तो फिर कुछ बचता ही नहीं न, जिसको भूत या भविष्य ले जा पाए। आपने अपने आप को बचा कर रखा है, यहाँ गड़बड़ है। ज़िंदगी में जो ज़रूरी है, उसको स्वीकार करिए और उसमें कूद जाइए, फिर इधर-उधर की झंझटें ख़ुद ही याद आनी बंद हो जाएँगी।