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अतीत के दुष्कर्म के मानसिक घाव

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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अतीत के दुष्कर्म के मानसिक घाव

प्रश्नकर्ता: मेरे अतीत में मुझ पर हुए दुष्कर्म, मुझे चैन से जीने नहीं दे रहे हैं। मानो मैं अपने बचपन में ही जिए जा रही हूँ। वही ख्याल, वही सपने। मुझे उस भयानक अतीत से पूरी तरह बाहर आना है। कैसे होगा?

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो समझना होगा कि वह जो घटना है दुष्कर्म की जो शायद दस-पंद्रह, बीस साल, पच्चीस साल पहले घटी होगी, आज भी मन पर इतनी छाई हुई क्यों है? मन किसी भी विषय को, स्मृति को, घटना को, क्यों पकड़ता है? इतना कुछ होता है दिन भर, प्रतिदिन, मन उसको तो नहीं याद रखता न। कुछ विशेष घटनाओं को ही मन क्यों छपने देता है अपने ऊपर? क्या बात है?

मन वही सब कुछ याद रखता है जो कि सी भी तरह से उसके बचे रहने में, उसके आगे बढ़ने में, सहयोगी हो।

सुख एक तरह की उत्तेजना है। उत्तेजना में मन प्राण पाता है। मन सुख याद रखना चाहता है। दुःख भी एक उत्तेजना है। उत्तेजना में मन प्राण पाता है, मन दुःख को भी याद रखना चाहता है। और याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि दुःख और सुख हमेशा एक दूसरे के संदर्भ में ही याद रखे जाते हैं। सुख आप बिलकुल याद ना रखें अगर दुःख की तलवार आपके सर पर ना लटक रही हो। सुख आप याद रखते ही इसलिए हैं क्योंकि संभावना दुःख की भी थी। दुःख आया नहीं, अनीश टल गया, वाह! क्या राहत मिली; इसी बात की तो उत्तेजना है।

कोई साधारण सा दृश्य हो। ट्रेन पटरी पर दौड़ रही है, आपको याद रह जाएगा ये क्या कभी? कितनी ही बार ट्रेन पटरी पर दौड़ी होगी। आपको बिलकुल नहीं याद रहेगा। लेकिन कभी ऐसा हो जाए कि आप पटरी पार कर रहे थे, थोड़ा सा गुमशुदा थे मन से, देखा ही नहीं कि ट्रेन आ रही है, ट्रेन ने सीटी इत्यादि मारी नहीं, बीच पटरी पर दिखाई दिया कि ट्रेन बस ज़रा सी दूर है, छलांग मारकर आप दूर हुए, बचे। ये दृश्य आपको बिलकुल याद रह जाएगा। वो इजंन, उसका रंग, अंकित हो जाएगा स्मृति पटल पर। और आप जितने ध्यान से देखेंगे गुज़रती हुई इस ट्रेन को उतने ध्यान से आपने ज़िंदगी में किसी ट्रेन को देखा नहीं होगा। क्योंकि घोर दुःख आ सकता था, आया नहीं बच गए। यही उत्तेजना है, इसी को सुख कहते हैं। घोर दुःख आ सकता था, आया नहीं। परीक्षा फल जब घोषित होता है तो अक्सर हम दिखा देते हैं उन लोगों को जिन्होंने बहुत ऊँचे अंक हाँसिल किए हैं। उनकी तस्वीरें खींच ली जाती है। उनसे बातचीत, साक्षात्कार कर लिया जाता है। उनसे पूछ लिया जाता है “कैसा लग रहा है आपको? बिलकुल शीर्ष पायदान पर बैठे हुए हैं, इतने आपके नंबर आ गए।” और हम मानते हैं कि इन लोगों को बड़ी खुशी हो रही होगी। लेकिन नहीं, उन्हें बहुत ज़्यादा खुशी नहीं हो रही होती। मैं उस मुकाम से गुज़रा हूँ इसलिए बता रहा हूँ। कुछ अच्छा लग रहा होता है क्योंकि थोड़ी बहुत तो सदा ही चीजें अप्रत्याशित होती हैं। कुछ भी पूरे तरीके से निश्चित तो होता नहीं परिणाम के घोषित हो जाने तक। आपने कितनी भी मेहनत करी हो, कितना भी अच्छा आपने पर्चा लिखा हो, लेकिन जब तक घोषित ही ना हो जाए कि आप सफल हो गए या आपने शीर्ष स्थान हाँसिल कर लिया तब तक कुछ निश्चित नहीं होता। तो ठीक है, थोड़ी बहुत राहत तो मिलती ही है जब परिणाम औपचारिक रूप से घोषित होकर के सामने लग जाता है। लेकिन फिर भी ज़बरदस्त सुख इनको नहीं मिलता जो अव्वल स्थान हाँसिल करते हैं। जानते हैं सबसे ज़्यादा सुख किनको मिलता है? सबसे ज़्यादा सुख उनको मिलता है जो बस किसी तरीके से पास हो गए होते हैं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं होता।

आपको अगर वाकई उत्सव देखना है, सेलिब्रेशन , तो आप टॉपर्स के पास मत जाइएगा। वहाँ आपको बस ऐसे थोड़ा-बहुत कुछ, एक-दूसरे को बधाई देते लोग मिल जाएँगे। हाँ ठीक है, उसको पहले ही पता था कि इतना बढ़िया करके आया हूँ, होना ही है। आपको अगर वाकई एकदम जंगली, वाइल्ड सेलिब्रेशन देखना है तो उनके पास जाइए जिनके चालीस प्रतिशत आए हैं। जिनको नब्बे प्रतिशत पता था कि हम उत्तीर्ण होने के नहीं, अटकेंगे ही अटकेंगे। लेकिन पर कुछ ऐसी हवा चली है, कुछ आसमानी ऐसी कृपा उतरी है, कुछ ऐसा धक्का लगा है कि एकदम बस सीमा रेखा पार ही कर गए हैं। उनके आह्लाद का कोई ठिकाना नहीं होता। सुख ऐसा ही है। वह दुःख पर निर्भर करता है। और दुःख भी ऐसा ही है फिर, गौर से समझिएगा, वह सुख की आशा पर निर्भर करता है। कुछ हुआ आपके साथ, क्यों आप मान रहीं हैं कि वह नहीं ही होना चाहिए था? क्योंकि आपको आशा था कि कुछ और चलेगा जीवन में। अच्छा क्यों थी वह आशा? मैं पूछूँ तो।

यहाँ तक बात समझ में आई है? सुखी आदमी को सुख इसलिए है क्योंकि दुःख सर पर मंडरा रहा था, बस किसी तरह टल गया। और दुःख की जितनी घोर घटा मंडरा रही होती है सर पर, उसके टलने पर सुख उतना ही ज़्यादा तीव्र होता है। तो सुख एक तनाव है। दुःख का छट जाना भी तनाव है, दुःख का बचे रह जाना भी तनाव है। सब अनुभूतियाँ एक तरह का तनाव ही होती हैं।

यहाँ तक कि तनाव से राहत की अनुभूति भी तनाव पर ही निर्भर करती है। तनाव से राहत की अनुभूति कैसे होती आपको, अगर आपने तनाव ना झेला होता? सब अनुभूतियाँ इसलिए तनाव हैं। इसीलिए अध्यात्म किसी तरह की अनुभूति, किसी अनुभव को प्रश्रय नहीं देता, प्रोत्साहन नहीं देता। अध्यात्म अच्छे से जानता है कि कोई भी अनुभव हो, है तो वह तनाव ही। सब एक ही पात के पंछी हैं। सब एक ही मिट्टी से बने घड़े हैं, सुख हो, दुःख हो, तनाव हो, राहत हो। इसी तरीके से दुःख भी सुख की अपेक्षा पर निर्भर करता है।

हमें क्यों लगे कि जो कुछ हमारे साथ हो रहा है हम उसके अधिकारी नहीं हैं? देखिए, थोड़ा सा ध्यान से सुनिएगा मेरी बात को।

सहानुभूति मैं आपके प्रति व्यक्त करूँ तो यह आपको मीठा लगेगा, पर आपके लिए उपयोगी नहीं होगा। जो बात आपके लिए उपयोगी है, मैं आपसे वह बात कर रहा हूँ। दुनिया में इतना कुछ चल रहा है, क्या वह हमें दुखी कर रहा है? आप जिस गाय, जिस भैंस, जिस जीव का दूध पी रहे हैं, वह दूध बलात्कार से ही आ रहा है। यह बात आपको दुखी कर रही है? अगर आप दूध पीते हैं तो निन्यानवे प्रतिशत संभावना है कि आपका दूध बलात्कार की उपज है। मादा जानवर को, गाय को या भैंस को ज़बरदस्ती गर्भाधान कराया जाता है। कृत्रिम रूप से उसके यौनांग का छेदन करके उसमें नर पशु का शुक्राणु स्थापित किया जाता है। इससे स्पष्ट बलात्कार तो दूसरा नहीं हो सकता न? यह तो वो बलात्कार है जिसमें, बलात्कार तो बलात्कार ही है, यह शर्त रखी गई है कि बलात्कार के पश्चात गर्भ भी धारण करना पड़ेगा। यह दोहरा बलात्कार है। तो यह जो हम चाय-कॉफी पीते हैं, यह बलात्कार से ही आ रहा है। ये बात तो हमें बहुत दुःख नहीं देती न? क्योंकि हमें इसके विरुद्ध कोई अपेक्षा ही नहीं है। हाँ, अपने जीवन को लेकर के हमें बड़ी अपेक्षाएँ रहती हैं। जब हमारा जीवन उस तरीके से आगे नहीं बढ़ता तो हम बड़े दुःख का अनुभव करते हैं। और हमें जितनी अपेक्षाएँ थीं, आप गौर से देखिएगा, अपनी उम्मीदों को, अपेक्षाओं को, वह सब सुख की थीं। उन सब में कहीं-न-कहीं भीतर सुख निहित था। वह सुख जब मिला नहीं, कुछ और हो गया तो उसको आप दुःख का नाम दे देते हैं। वास्तव में दुखी अनुभव करके भी आप अपने सुख को ही याद कर रहे हैं, अपने सुख की धारणा को ही जायज़ ठहरा रहे हैं।

"मेरे साथ बचपन में दुष्कर्म हो गया।" अच्छा, दुष्कर्म माने क्या? दुष्कर्म माने वही बहुत कुछ जो दुनिया में सर्वत्र हो रहा है। और आपके साथ हिंसा सिर्फ दुष्कर्म के माध्यम से तो नहीं हो रहा है न? आपको अगर यह भी कहना है कि मेरे साथ जो व्यक्तिगत रूप से होगा, मैं बस उस से दुखी अनुभव करुँगी, तो आप ही के साथ व्यक्तिगत रूप से ना जाने कितने और भी अन्याय हो रहे हैं, आप उन पर क्यों नहीं दुखी अनुभव कर रहीं? और उनमें से कोई भी अन्याय बचपन में हुए दुष्कर्म से कम घातक या कम तीव्रता का हो आवश्यक नहीं है।

आपके शरीर में किसी ने आपकी अनुमति के बिना, अपना शरीर प्रविष्ट करा दिया तो उसे आप दुष्कर्म या बलात्कार कह देते हैं। लेकिन आपके नथुनों में कोई आपकी अनुमति के बिना ज़हर घोल रहा है, ज़हर घुसेड़ रहा है, प्रविष्ट करा रहा है, यह बलात्कार क्यों नहीं है? अगर शरीर में किसी अमान्य वस्तु का प्रवेश ही बलात्कार कहलाता है, तो आप जो साँस ले रहे हैं उसके माध्यम से आपका निरंतर बलात्कार क्यों नहीं हो रहा? आपके शरीर के छिद्रों में लगातार किसी ऐसी चीज़ को प्रवेश दिया जा रहा है जो आपने माँगी नहीं थी। जिसको आप अनुमति नहीं दे रहे और जो चीज़ आपके लिए ज़हरीली है। यह बलात्कार क्यों नहीं है? कहिए। यौनांगों में ही ऐसा क्या खास है जो नाक में नहीं है?

इसी तरीके से आपके मुँह के माध्यम से आपके शरीर में ना जाने क्या-क्या प्रविष्ट कराया जा रहा है, जिसकी आपको जानकारी भी नहीं है। यौन बलात्कार अगर हो भी जाता है तो वो तो पाँच मिनट, दस मिनट, आधे घंटे, चार घंटे की अवधि का होता होगा। लेकिन मुँह से हम जो खा रहे हैं, पी रहे हैं वह तो ज़िंदगी भर के लिए निरंतर हमें बलात स्वीकार करने को विवश किया गया है न। वह क्यों नहीं है बलात्कार?

यह मैंने शरीर की बात करी, दो उदाहरणों से- नाक और मुँह। अब मन की बात करता हूँ- आपके कानों से जो आपके मन में प्रविष्ट कराया जा रहा है, क्या वह सब कुछ आप की अनुमति से हो रहा है? और जो कुछ प्रवेश कर रहा है क्या वह आपके लिए अच्छा है? क्या प्रेम के कारण वो आपके भीतर प्रविष्ट हो रहा है? बोलिए। स्त्री के शरीर में पुरुष का शरीर प्रवेश करे हम उसको सदा तो बलात्कार नहीं कहते न? यदि प्रेम के माहौल में घट रही हो वह घटना तो हम उसको संयोग कहते हैं। हम उसे मधुर मिलन कहते हैं। कहते हैं न? इसी तरीके से आपके कान में जो चीज़ प्रवेश कर रही है, अगर वह प्रेम के कारण और बोध के कारण प्रवेश कर रही है तब तो ठीक है। और अगर वह अज्ञान में और बैर में और स्वार्थ में प्रवेश कर रही है, तो क्या वह भी बलात्कार नहीं है? बोलिए। आपकी आँखों से आपके भीतर जो चीजें प्रविष्ट कराई जा रही हैं, क्या वह आपका बलात्कार नहीं है? बचपन में हुई एक घटना को हम क्या याद रखें जब दिन-प्रतिदिन पूरी आबादी का, हम सभी का, भिन्न-भिन्न तरीकों से भीषण बलात्कार होता है। बोलिए।

निश्चित रूप से अति अमानवीय है किसी का यौन शोषण करना। निश्चित रूप से घोर अपराध है किसी के शरीर का उत्पीड़न करना। लेकिन हम भूल क्यों जाते हैं कि बलात्कार के तरीके और भी हैं और उन दूसरे तरीकों के ख़िलाफ हम कभी आवाज़ नहीं उठाते।

(व्यंग करते हुए ) आपके शरीर में जो चीजें प्रवेश कराई जा रही हैं, उनके ख़िलाफ आपको कुछ नहीं बोलना। आपके मन का दिन-रात बलात्कार कर रही है दुनिया, आपको उसके ख़िलाफ कुछ नहीं बोलना। हाँ, बचपन में एक घटना घटी थी वह आपको याद रखनी है। वह चीज़ यही बताती है कि दिन-प्रतिदिन आपके साथ क्या हो रहा है इससे, या तो आप अनभिज्ञ हैं, या आपने इस तरह के शोषण को अपनी मूक सहमति दे दी है। और आपने मूक सम्मति दे दी है तो मुझे यह बताइए कि यह बलात्कार अगर दिन-रात वाला स्वीकार करना ही है, इसको सम्मति दे ही देनी है, तो वह जो बचपन में हुआ था उसको भी सहमति दे दीजिए। फिर और अगर शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ खड़े होना ही है तो बचपन की एक घटना के ही ख़िलाफ मत खड़े होइए। फिर तो यह जो निरंतर सर्वव्यापक-सार्वजनिक बलात्कार है, इसके ख़िलाफ आवाज़ उठाइए न।

यह जो वृहद स्तर पर बलात्कार चलता है, दिन-रात, उसी के ख़िलाफ आवाज़ उठाने का नाम अध्यात्म है। और एक बात अच्छे से समझिएगा, दैहिक तल पर भी जो बलात्कार होता है, वह मात्र अभिव्यक्ति है आंतरिक बलात्कार की। यह जो आंतरिक बलात्कार दिन रात चल रहा होता है, यही जब ज़रा स्थूल हो जाता है तो दैहिक रूप से प्रकट हो जाता है। उदाहरण के लिए कोई कामुक फिल्मी गीत हो, वह दिन-रात किसी व्यक्ति का बलात्कार कर रहा हो। कानों से उसमें प्रवेश करके भीतर-ही-भीतर उसका बलात्कार कर रहा है वह गीत। यह घटना सूक्ष्म है क्योंकि इसमें दिखाई नहीं पड़ रहा न कि क्या हो रहा है। अगर आप एक फिल्मी गाना सुनते क सी व्यक्ति का चित्र खीचेंगे तो उस तस्वीर में बलात्कार जैसा कुछ कहीं नज़र नहीं आएगा। तो आपको लगेगा यह तो साधारण घटना घट रही है। व्यक्ति बैठा हुआ है और ईअर-फोन लगा कर के गाना सुन रहा है या रेडियो पर गाना सुन रहा है। क्या फर्क पड़ रहा है? इसमें कहाँ कुछ शोषण जैसा या हिंसक है? लेकिन इस व्यक्ति का यह जो आंतरिक बलात्कार हुआ है, इसी के फलस्वरूप जब ये जाकर के किसी स्त्री का दैहिक और स्थूल बलात्कार करेगा, तो सुर्खियाँ बन जाएँगी।

मैं नहीं कह रहा कि बिलकुल सीधा नाता है। निश्चित रूप से व्यक्ति के पास चुनाव होता है। एक ही गीत दो लोग सुन रहे हों, ज़रूरी नहीं कि दोनों बलात्कारी बन जाएँ। एक बलात्कार करेगा दूसरा नहीं करेगा, क्योंकि बीच में व्यक्ति की चेतना भी है और चुनाव भी है। लेकिन फिर भी जो सूक्ष्म बलात्कार का योगदान है, जो सूक्ष्म बलात्कार का काम है, उसको हम कैसे भूल सकते हैं? वह दिन-रात आपके चित्त को दूषित कर रहा है। तो वर्तमान के प्रति ज़रा सजग हो जाएँ। क्या हो रहा है, उसको वास्तव में जानें। देखिए आपसे पूरी संवेदना रखते हुए भी मैं यह आग्रह करूँगा कि कोई ऐसा नहीं है जिसके अतीत में कोई-न-कोई दुखदाई बात ना हो। लेकिन अतीत में जो कुछ भी दुखदाई होता है, यकीन मानिए उससे कहीं ज़्यादा दुःख तो वर्तमान में है। हम बैठकर रो रहे हैं कि अतीत में पाँच लाख का घाटा हो गया था, और वर्तमान में हमारे सामने पाँच करोड़ में आग लग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस पाँच करोड़ की आग को बुझाने में जो श्रम लगेगा उसी श्रम से कतराने के लिए, उसी श्रम से मुँह चुराने के लिए, बीते हुए पाँच लाख का रोना रोते रहते हैं।

मैं सहानुभूति रखता हूँ, पूरी रखता हूँ आपसे। कृपा करके मुझ पर पाषाण हृदय होने का आरोप न लगा दीजिएगा। किसी बच्चे के साथ बचपन में दुष्कर्म हो, कुकृत्य हो, महापाप है। और जो ऐसा करे, दोषी हो, उसको सजा ज़रूर मिलेगी। अगर कानून सज़ा नहीं दे पाएगा तो अस्तित्व सज़ा देगा। तो मैं, ना जायज़ ठहरा रहा हूँ दुष्कर्म को, ना ही दुष्कर्म जैसे घोर अपराध की गंभीरता को कम करके आँक रहा हूँ। जो मैं कह रहा हूँ वह समझने की कोशिश करिए।

हमारे साथ हज़ार तरीके से दुष्कर्म हो रहे हैं, और हमारे साथ आज, हमारे सामने, दुष्कर्म हो रहे हैं। हम उनसे बचें या अतीत की बात करें? कहिए। लेकिन मैंने कहा न, दुःख भी एक उत्तेजना है और उत्तेजना में अहंकार को सातत्य मिलता है। हम दुःख याद रखना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हम सुख याद रखना चाहते हैं, तो हम याद रखे बैठे हैं।

अतीत के साथ एक बड़ी हमको सुविधा मिल जाती है। जानते हैं क्या? अतीत बदला नहीं जा सकता। “कल मेरी पतंग कट गई”, इस बात पर आप हज़ार साल तक रो सकते हैं। अतीत बदला तो अब जा नहीं सकता। पतंग तो कट चुकी है। “कल मेरी पतंग कट गई”, इसमें बड़ी सुविधा मिल गई। हज़ार साल तक रो सकते हो। कटी हुई पतगं लुट चुकी है, अब वह लौट कर नहीं आएगी। कितनी सुविधा की बात है कि कोई अब आकर नहीं कहेगा कि "भाई तुम जिस बात पर रो रहे थे न, वह बात सुधार दी गई है। उस बात का कुछ मुआवजा मिल गया। वह बात बदल दी गई।" बदल ही नहीं सकती। पतंग कट गई कल यदि तो कट गई। अब सुविधा है, हज़ार साल तक रोओ, तुम्हें रोका जा नहीं सकता। लेकिन अगर तुमसे कहा जाए “संभाल तेरी पतंग कटने वाली है”, तो अब सुविधा नहीं है। क्योंकि यह जो कटने वाली पतंग है यह बचाई जा सकती है। और गड़बड़ यह कि बचाने की ज़िम्मेदारी तुम्हीं पर आ गई, तो इसलिए तुम कटती हुई पतंग पर ध्यान नहीं दोगे। तुम ध्यान दोगे कटी हुई पतंग पर। कटी हुई पतंग पर ध्यान देना, कटी हुई पतंग को याद रखना, बड़ा अनुकूल लगता है हमको। क्योंकि पतंग कट गई। अब हम ठाट से कहेंगे, “मेरी पतंग कट गई। अब मैं उस बात पर रोता हूँ। बड़ी प्यारी पतंग थी, और धोखे से काटी गई थी।” और अभी जो तेरी चार पतंग कट रही हैं इन पर कौन गौर करेगा? इन्हें कौन बचाएगा? यहाँ कौन ज़िम्मेदारी निभाएगा? इसकी हम बात नहीं करना चाहते।

अगर आपका वर्तमान आनंदप्रद होता तो क्या आपको अतीत का दुःख याद आता? नहीं आता। माने वर्तमान में तो गड़बड़ है ही, तभी अतीत का दुःख याद आ रहा है। जब आप आनंद में डूबे होते हैं, आपको अतीत के दुःख याद आते हैं क्या? कहिए। आनंद में नहीं हैं आप, इसका प्रमाण ही यह है कि अतीत बहुत याद आता है, अतीत के दुःख सताते हैं। और अगर आनंद में नहीं हैं आप तो माने वर्तमान में दुःख है। तो आप किसका निवारण करना चाहते हैं, अतीत के दुखों का जिनका अब कुछ बदला नहीं जा सकता या जो सामने दुःख खड़ा है, उसका निवारण करना है? कहिए। जो सामने है, उसकी बात करो न। “बीती ताहि बिसार दे”, इसीलिए कहा गया है। क्या करोगे पीछे की बात याद करके? पर हम बहुत कुछ करते हैं पीछे की बात याद करके। आनंद में तनाव नहीं होता। आनंद में एक तरह का लय होता है, लीनता होती है। उसमें तनाव विसर्जित हो जाता है, तो अहंकार भी गल जाता है, तनाव के साथ। यह हम चाहते नहीं।

हम आनंद में जीना नहीं चाहते, क्योंकि आनंद हमें मिटा देगा। दुःख बढ़िया चीज़ है। दुःख हमें एक ठोस पिडं जैसा बना देता है। दुखी आदमी में भी एक अकड़ आ जाती है। जैसे सुखी आदमी बहुत निश्चिन्त रहता है न कि, "मुझे सुख है", अगर आपको पूरी निश्चिंतता ना हो, अगर आपको पूरा भरोसा ना हो कि आपको सुख है, तो क्या आप सुख मना सकते हो? बोलो। सुख में एक भरोसा होता है, "अभी जो हो रहा है वह बिलकुल बढ़िया हो रहा है।" तो सुख में एक अकड़ है, ठसक है। इसी तरीके से अगर आप बिलकुल निश्चित नहीं हैं कि कुछ गलत हो गया, तो क्या आप दुःख मना सकते हो? तो दुःख में भी एक भरोसा है, एक अकड़ है, "मैं जानता हूँ, कुछ गलत हुआ है मेरे साथ।" तुम क्या जानते हो? तुम इतने बड़े ज्ञानी हो कि तुम जानती हो कि क्या गलत क्या सही? तुम्हें कुल तस्वीर का कुछ अनुमान भी है? और जिन्हें कुल तस्वीर का अनुमान हो जाता है वह पाते हैं कि उनके पास न सुख मनाने के लिए अवकाश है, न दुःख मनाने के लिए समय। उनके पास समय बचता है बस धर्म और कर्तव्य के लिए। तीन तरह के जीवन होते हैं, सुखवादी, दुःखवादी, जो दोनों एक ही तरह के हैं, और तीसरा धार्मिक जीवन; ये न सुख की ख़ातिर जीता है ना दुःख का रोना रोता है। ये कहता है, "सुख भी है, दुःख भी है, हमें तो वह करना है जो करना है, धर्म का पालन करना है। क्या रोएँ सुख को, क्या रोएँ दुःख को; जहाँ धर्म है वहाँ आनंद है।" आनंद सुख-दुःख से पार की हालत है। बात समझ में आ रही है?

YouTube Link: https://youtu.be/3kqXCm5O3nk

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