अतीत के ढ़र्रे तोड़ना कितना मुश्किल? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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अतीत के ढ़र्रे तोड़ना कितना मुश्किल? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: आचार्य जी, बीस साल से जिन ढर्रों पर चलता आ रहा था, आपने आकर बोल दिया कि वो ठीक नहीं हैं। तो अब मैं उन्हें ठीक करने की कोशिश करूँगा। दो-चार दिन चलूँगा, फिर पाँचवें दिन लगेगा सब ऐसे ही चल रहे हैं तो ठीक है रहने दो, मैं भी पुराने ढर्रों पर वापस आ जाता हूँ।

आचार्य प्रशांत: बड़ा मजबूरी भरा सवाल है। चलो समझते हैं इसे। क्या नाम है तुम्हारा?

प्रश्नकर्ता: यथार्थ।

आचार्य प्रशांत: यथार्थ का मतलब होता है ‘वास्तविकता’। अब यथार्थ ने कहा है कि बीस साल से एक ढर्रे पर चल रहा हूँ, अब किसी और ढर्रे पर कैसे चल पाऊँगा? पहली बात तो ढर्रा तोड़कर एक नया ढर्रा नहीं बनाना है। हम बिलकुल भी ये नहीं करने वाले हैं कि एक संस्कार से दूसरे संस्कार की ओर जाएँ, एक तरह की योजना से दूसरे तरह की योजना में जाएँ। हम कह रहे हैं कि बोध ढर्रारहित होता है।

दूसरी बात ये कि बहुत लम्बे समय का ढर्रा है। वो टूटेगा कैसे?

इस कमरे में ये लाइटें बंद हैं और बीस साल से बंद हैं। कितने साल से बंद हैं?

प्रश्नकर्ता: बीस साल से।

आचार्य प्रशांत: (लाइटें खोलते हुए) अब बताना कितना समय लगा जल जाने में?

अँधेरा बीस साल से हो या दो सेकंड से हो, लाइट जलती है तो, जल गई। बत्ती जल गई तो जल गई। हो सकता है बीस साल का अँधेरा हो, हो सकता है दो हज़ार साल का अँधेरा हो, तो क्या फ़र्क पड़ता है। जल गई तो जल गई।

कृपया छोटा समझने की कोशिश मत कीजिए। असहाय समझने की ज़रूरत नहीं है कि – “हम बहुत गहराई से संस्कारित कर दिए गए हैं। अब इस तल पर हमारे साथ क्या हो सकता है!” ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी भी हो सकता है। अपने चेहरों की तरफ देखो, अभी कितने ध्यानस्थ हो।

ध्यान का प्रत्येक क्षण, बोध का क्षण है।

अभी बत्ती जली हुई है। यदि बत्ती अभी जल सकती है, तो बची हुई ज़िंदगी में भी जल सकती है। कृपया इस बात को लेकर निःसंदेह रहें। अगर अभी जली रह सकती है, तो आगे भी जली रह सकती है। हाँ, उसके लिए थोड़ा-सा सतर्क रहना होगा।

अभी जब ये सत्र समाप्त होगा और बाहर निकलोगे, तो भीड़ का हिस्सा मत बन जाना। ठीक जैसे अभी हो – चैतन्य, सतर्क, सुन रहे हो – वैसे ही रहना। जो बातें अभी तुमने कागज़ों पर उतारी हैं, ये हम पर निर्धारित तो नहीं करी गई हैं। ये हमने ख़ुद लिखी हैं न? तुम्हारी अपनी बातें हैं न? तो इनको भूलना नहीं।

और बत्ती जली ही रहेगी, बस तुम उसे बंद करते हो।

ये जो बत्ती है, वो एक तरह से सूरज की रोशनी है; वो हमेशा रहती है। हम अपने खिड़की-दरवाज़े बंद कर लेते हैं। खिड़की-दरवाज़े बंद मत करो, रोशनी उपस्थित है।

बात समझ में आ रही है?

बोध हमेशा है तुम्हारे भीतर, आप हो जो सही वातावरण में नहीं रहते हैं। बोध को ध्यान के माहौल की ज़रूरत होती है। ध्यान में रहो, और बोध अपना काम स्वयं कर लेगा। और फिर सब कुछ रोमांचक होगा। आप आज़ादी भरा एवं आनंदित महसूस करेंगे। और फिर एक ऊर्जा रहेगी, एक हल्कापन रहेगा, एक स्थिरता रहेगी। हिले हुए नहीं रहेंगे।

(पास ही बैठे एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) आज जब सत्र शुरू हुआ था तो मैंने इसे कितनी बार डाँटा था?

प्रश्नकर्ता: दो बार।

आचार्य प्रशांत: और अब ये कैसे बैठा है? जैसे कोई बुद्ध हो। अफ़सोस बीस ये है की ये दोबारा दो मिनट बाद वही यथार्थ (प्रश्नकर्ता) बन जाएगा, जो इस सत्र में आया था। कैसे आया था? क्या कर रहा था?

प्रश्नकर्ता: गपशप।

आचार्य प्रशांत: गपशप! अभी क्यों नहीं कर रहे?

प्रश्नकर्ता: काम की और ज्ञान की बात हो रही थी।

आचार्य प्रशांत: अभी शांति है?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: पर कायम नहीं रहेगी?

प्रश्नकर्ता: नहीं। यही तो समस्या है।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे हाथ में है न कायम रखना।

अभी जो वातावरण मैंने दिया है, क्यों तुम इसे बनाए नहीं रख सकते? बनाए रखो इस माहौल को अपने लिए। कोई कठिन बात नहीं है। जो तत्व अभी तुम्हें मदद दे रहे हैं, उन तत्वों को अपने साथ बनाए रखो। चल भी रहे हो, तो थोड़ा चैतन्य रहो कि क्या हो रहा है। अगर कोई आ रहा है, तो सीधे ही उसके प्रभाव में मत आ जाओ। कोई आया ज़ोर से चिल्लाते, “ओ भाई! क्या कर रहा है? चल,” और तुम चल दिए उसके साथ।

अभी आप ‘आप’ हैं। अभी आप व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हैं।

इस व्यक्तिगत रूप को कायम रखें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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