प्रश्नकर्ता: सर, रिलिजन (मज़हब) को मानने का रीज़न (कारण) सिक्योरिटी (सुरक्षा) के अलावा कुछ और...
आचार्य प्रशांत: बिलकुल भी कुछ और नहीं है। तुम देखो न, पुराना आदमी है आदिमानव... सूर्यग्रहण आया, सोलर इक्लिप्स तो वो क्या बोलेगा? वो बोलेगा कि आज किसी राक्षस ने सूरज को पकड़ लिया है तो इसलिए सूरज दब गया उसके सामने। इग्नोरेन्स (अज्ञान) से क्या पैदा हुआ?
श्रोतागण: फियर
आचार्य: गॉड! आदिमानव का जो गॉड है वो कहाँ से निकला? इग्नोरेन्स से।
ज़ोर की बारिश हुई और ज़ोर से बिजली कड़की तो वो क्या बोलेगा? तो क्या बोलेगा? वो बोलेगा, ‘कोई ऊपर भगवान बैठा हुआ है जिसे गुस्सा और जिसके कड़कते हुए दाँत दिखाई दे रहे हैं, सफ़ेद चमक रहे हैं बिजली।‘ तो फियर से क्या निकला? गॉड! इग्नोरेन्स से निकला — गॉड, फियर (भय) से निकला — गॉड। अब वो कह रहा है, ‘मेरी गाय है बहुत दूध नहीं दे रही है और दुश्मन आते हैं वह मेरी फ़सल काटकर ले जाते हैं।‘ तो वो डिज़ायर (इच्छा) उसमें उठ रही है कि मेरे खेत में और फ़सलें हों, मेरे जानवर और दूध दें, मेरे दुश्मनों का नाश हो जाए और इन डिज़ायर्स (इच्छुक) को लेकर वह कहाँ जाता है?
तो इग्नोरेन्स से क्या निकला? गॉड। फियर से क्या निकला? गॉड। डिज़ायर से क्या निकला? गॉड। ये तो आदिमानव ने करा, एन्शियन्ट (प्राचीन) आदमी ने और तुम आज भी क्या करते हो? तुम गॉड के पास कब जाते हो? जब डिज़ायर उठती है तब जाते हो... जब डिज़ायर होती है तब जाते हो न तुम, जब फियर होता है तब जाते हो और जब इग्नोरेन्स होता है तब जाते हो।
तो जो हमारा गॉड है ये हमेशा से ही किस चीज़ से निकलता है? फियर, इग्नोरेन्स, डिज़ायर से। गॉड तो दूर है फियर , इग्नोरेन्स , डिज़ायर कहाँ पर है? इसी माइंड में। गॉड के पास जाने से अच्छा है फियर , इग्नोरेन्स , डिज़ायर इनको समझ लो जो अपने ही मन में है क्योंकि अगर फियर न रहेगा तो गॉड की ज़रूरत ही क्या है फिर। अगर डिज़ायर न रहे तो तुम क्या कभी गॉड के पास जाओगे? प्रेयर (प्रार्थना) भी करते हो गॉड से तो क्या करते हो? कुछ दे दो! यही तो बोलते हो न।
इस गॉड के पास नहीं जाता जो इग्नोरेन्स से निकलता है, जो फियर से निकलता है, जो डिज़ायर से निकलता है।
ज़रूरत क्या है नाम देने की कि गॉड है, ये है... कुछ भी करने की। इतनी चीज़ों को हम नाम देकर के उनकी इमेज (छवि) बनाते रहते हैं। ये एक और इमेज बना लेंगे उससे मेरा क्या फ़ायदा हो जाएगा और वो इमेज कैसी बनेगी? मैं हिन्दू हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ तो मैं कैसी इमेज बनाऊँगा? बोलूँगा, ‘या तो राम हैं या कृष्ण हैं।‘ यहाँ पर कोई मुस्लिम है? कोई क्रिश्चियन? उनसे पूछो तो वह कहेंगे, ‘कैसी इमेज? कैसी मूर्ति? कैसा रूप?’ तो इस तरीके की इमेज बनाने से फ़ायदा क्या जो कन्डीशनिंग (अनुकूलन) से ही निकलती है।
तुम मानते हो कि काकाडोवा होता है, काकाडोवा? नहीं मानते न ऐसे ही मैं गॉड नहीं मानता।
श्रोता: सर वर्ड ये है ही नहीं कुछ भी नहीं है।
आचार्य: अरे यार, वर्ड (शब्द) आदमी का क्रिएट (निर्माण करना) किया हुआ है, उसमें मीनिंग (अर्थ) भी आदमी की भरी हुई है और मैं उसकी मान भी लूँ तो उसमें क्या मतलब है? मैं सपने में देखूँ एक पन्द्रह सिर वाला जानवर और सुबह उठकर मैं उसको मानना शुरू कर दूँ, तो ये कोई बात है। मैंने ही तो ड्रीम (सपना) किया, उसकी कोई वास्तविकता थोड़े ही है। गॉड मैं ही बना रहा हूँ फिर मैं कहूँ, ‘अब मैं गॉड को मानता हूँ।‘ अरे! तुम्हीं ने बनाया है, तुम ही मान रहे हो, मानते रहो उससे क्या हो जाएगा। तुम ही सपना देख रहे हो और फिर तुम ही उसको मानना शुरू कर दे रहे हो।
ये जो अब्राह्मिक रिलिजन होते हैं इस्लाम, क्रिश्चिएनिटी, इसमें कहते हैं भगवान ने छ: दिन तक, गॉड ने छ: दिन तक दुनिया बनाई और संडे को आराम किया इसीलिए संडे को छुट्टियाँ होती है। ये उसी की वजह से होता है कि छ: दिन तक उसने काम किया, दुनिया बनाई और सातवें दिन आराम किया। तो छ: दिन तक उसने आदमी को क्रिएट किया एक तरह से, तो इस पर किसी बड़े मस्त आदमी ने एक लाइन जोड़ दी है वो कहता है, ‘छ: दिन तक भगवान ने आदमी को बनाया और सातवें दिन आदमी ने भगवान को बनाया।’
प्र3: सर लोग कुछ भी कह देते हैं...
आचार्य: पर इस बात... नहीं पर इस बात में इशारा बड़ा ज़बरदस्त है, इशारा ये है कि जो हम जिसे भगवान बोलते हैं वो हमारी ही इमेजिनेशन (कल्पना) है। हम खुद ही तो इमेजिन किया जा रहे हैं। अब तुम पूछो कि तुम मानते हो? किसको! कोई सब्सटेन्स (पदार्थ/तत्त्व) तो होना चाहिए न मानने के लिए, किसको? अपनी इमेजिनेशन को मानता हूँ, किसको?
श्रोता: ईश्वर को मानना गलत है?
आचार्य: कुछ भी गलत नहीं है, बिलकुल कुछ भी गलत नहीं है इसीलिए तो इतने लोग मानते हैं। तुम गॉड को मानो, मैं कहता हूँ, ‘मैं काकाडोवा को मानता हूँ, मैं गुड़फू को मानता हूँ, मैं चीकूलोको को मानता हूँ।‘ नाम इन्वेन्ट (आविष्कार करना) करो उनको मानते चलो। गलत क्या है सिर्फ़ स्टूपिडिटी (मूर्खता) है गलत कुछ नहीं है, सिर्फ़ स्टूपिडिटी है।
श्रोता: टाइम पास हो जाता है।
आचार्य: टाइम पास हो जाता है। अच्छा है!