एक बार जब कृष्ण और अर्जुन भ्रमण के पश्चात हस्तिनापुर वापस लौट रहे थे, तो उन्हें रास्ते में बहुत ही दयनीय अवस्था में एक गरीब ब्राह्मण दिखाई दिया। उसने अर्जुन से भिक्षा देने को कहा। अर्जुन को उस ब्राह्मण की अवस्था पर दया आ गई, तथा उन्होंने उसे एक स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली दे दी। उस थैली को पाकर ब्राह्मण अति प्रसन्न हो गया, तथा अपने सुखों के बारे में सोचते हुए तेज़ी से घर की ओर जाने लगा।
परन्तु दुर्भाग्यवश मार्ग में एक लुटेरा ब्राह्मण के सामने आ गया, तथा उसने डरा-धमकाकर ब्राह्मण से स्वर्ण मुद्रा से भरी थैली छीन ली। ब्राह्मण अत्यंत दुखी हुआ तथा उसे फिर से लोगों से भिक्षा माँगने के लिए विवश होना पड़ा।
एक दिन जब वह भिक्षा माँग रहा था, तो अर्जुन की नज़र उस ब्राह्मण पर पड़ी, तथा अर्जुन ने आश्चर्य करते हुए, ब्राह्मण से पूछा — मैंने तो आपको पर्याप्त मात्रा में धन दिया था, परंतु फिर भी आप भिक्षा क्यों माँग रहे हो? ब्राह्मण ने अर्जुन को बताया कि किस तरह एक लुटेरा मार्ग में उसे लूट गया। अर्जुन ने फिर से दया दिखाते हुए, उसे एक मूल्यवान हीरा दिया। ब्राह्मण ने अर्जुन का धन्यवाद करते हुए वह हीरा लिया, तथा एक सुरक्षित मार्ग से अपने घर पहुँच गया।
ब्राह्मण ने चोर आदि के भय से उस हीरे को एक पुराने घड़े में छिपा दिया। उस घड़े का प्रयोग उसके द्वारा बहुत दिनों से नहीं हुआ था। थकान के कारण ब्राह्मण की आँख लग गई, और वह गहरी नींद में सो गया। परंतु यह उसका दुर्भाग्य था कि उसकी स्त्री जब पानी भरने नदी गई, तो उसका घड़ा मार्ग में टूट गया। जिस कारण उसने पानी भरने के लिए, वह घड़ा उठा लिया जिसमें ब्राह्मण ने हीरा छुपाकर रखा था। जब ब्राह्मण की स्त्री नदी से पानी भर रही थी, तो वह हीरा पानी में डूब गया और नदी के साथ बह गया। ब्राह्मण ने जब उस घड़े को जल से भरा देखा, तो वह समझ गया कि क्या हुआ होगा, तथा फिर से वह अपने भाग्य को कोसते हुए भीख माँगने निकल गया।
जब उस ब्राह्मण को श्रीकृष्ण और अर्जुन ने पुनः भीख माँगते देखा, तो उन्होंने उससे उसका कारण पूछा। ब्राह्मण ने जब पूरा वृत्तांत सुनाया, तो अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले — इस ब्राह्मण के भाग्य में तो सुख लिखा ही नहीं है, चाहे कोई इसके समक्ष दुनिया का समस्त धन ही लाकर क्यों न रख दे। तब भगवान अर्जुन को देख मुसकुराए, और अपनी लीला चलाते हुए, उस ब्राह्मण को दो पैसे दान में दिए।
अर्जुन आश्चर्य से बोले — जब मेरे द्वारा दी गई स्वर्ण मुद्राओं और मूल्यवान हीरे से भी यह व्यक्ति दुर्भाग्यवश दरिद्र ही रहा, तो आपके ये दो पैसे इसकी मदद कैसे कर सकते हैं? भगवान फिर मुसकुराए और बग़ैर कुछ कहे, अर्जुन को उसके पीछे जाने का इशारा किया।
ब्राह्मण दुखी मन से सोच रहा था कि आख़िर कृष्ण ने उसे ऐसा तुच्छ दान क्यों दिया; क्योंकि इन पैसों से तो वो अपने लिए, एक समय का भोजन भी प्राप्त नहीं कर सकता। तभी उसे एक मछुआरा दिखाई दिया, जिसके जाल में एक मछली अब भी ज़िन्दा थी, और तड़प रही थी। ब्राह्मण ने सोचा कि मेरे पास जो पैसे हैं, उससे मेरा तो भला हो नहीं सकता, क्यों न इस मछली की जान बचा ली जाए।
उस ब्राह्मण ने दो पैसे में वह मछली खरीद ली, और उसे अपने कमंडल में डाल पास ही नदी की ओर बढ़ने लगा। तभी उसने देखा, कि मछली के मुँह से एक चमकीला पदार्थ निकला। यह वही हीरा था, जो उसे अर्जुन से प्राप्त हुआ था। ब्राह्मण खुशी में चिल्लाने लगा, कि 'मिल गया! मिल गया!'
ब्राह्मण के भाग्य से वह लुटेरा, जिसने ब्राह्मण को लूटा था, उसी नदी के किनारे से निकल रहा था। जब उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना, तो उसे लगा ब्राह्मण को पता चल गया, कि वही वो लुटेरा है, जिसने ब्राह्मण को लूटा था। ब्राह्मण कहीं राज-दरबार इत्यादि में उसकी शिकायत न कर दे, इस डर से उस लुटेरे ने ब्राह्मण को उसका धन लौटाते हुए, उसके चरणों में गिर माफ़ी माँगी।
यह सब देख अर्जुन, भगवान कृष्ण को हाथ जोड़कर बोले — भगवान ये आपकी कैसी लीला है? मेरे द्वारा ब्राह्मण को दिए गए मूल्यवान हीरे और स्वर्ण मुद्राओं के बाद भी ब्राह्मण पहले की भाँति ही, अपनी दरिद्र अवस्था में ही बना रहा, लेकिन आपके द्वारा दिए गए दो पैसों ने उसका भाग्य ही बदल डाला।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा, कि अर्जुन यह चमत्कार सिर्फ़ सोच के अंतर के कारण हुआ। जब उस ब्राह्मण ने स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान हीरा प्राप्त किया था, तो वह सिर्फ़ अपने सुखों के बारे में सोच रहा था, परंतु जब उसके पास मात्र दो पैसे थे तब उसने अपना दुःख भुलाते हुए, दूसरे के सुख के बारे में सोचा। जो व्यक्ति दूसरों की भलाई के बारे में सोचता है, उसका भला स्वतः ही होता है।
~ भागवत पुराण
आचार्य प्रशांत: क्या कह रही है कहानी, समझिए।
एक ब्राह्मण है; एक गरीब है। गरीब कौन? जिसे लगता है कि वह गरीब है। प्रतीक को समझिएगा। जिसे निर्धनता की धारणा हो सो निर्धन है। आप जब निर्धन बनकर संसार के सामने जाते हैं, तो आप संसार से माँगते हैं धन। संसार से आपकी अपेक्षा होती है धन की। संसार से धन माँगकर आप यही सिद्ध कर रहे होते हैं कि आप निर्धन ही हैं।
और अकसर ऐसा होता है, प्रयत्नवश चाहे संयोगवश, कि संसार से आपको वह मिल भी जाता है जो आप माँग रहे होते हैं। आपने कोशिश करी है, या यूँ ही क़िस्मत चल निकली है। आप जो चाहते थे आपको मिल गया, और जैसे ही आपको वह मिला जो आप चाहते थे दुनिया से, सिद्ध हो गया कि आप वही हैं जो आप अपने-आपको मान रहे थे।
धन मिल जाने पर जो हर्षित हो जाए, वह यही सिद्ध कर रहा है कि उसकी निर्धनता असली थी। वह यही सिद्ध कर रहा है कि उसके लिए निर्धनता कितनी बड़ी और गंभीर बात थी। इतनी बड़ी और गंभीर बात, कि जैसे ही धन हासिल हुआ है, उसका मन आपा खो बैठा है। वह उत्सव मनाने लगा है, गीत गाने लगा है, नाचने लगा है।
यह सब करके वह यही दिखा रहा है कि निर्धनता में उसका यकीन, निर्धनता की उसकी धारणा, अभी कायम ही है, कुछ बदला नहीं है। जब कुछ बदला नहीं है तो आप क्या रह गए? निर्धन के निर्धन।
ग़ौर से देखिए कहानी में क्या हो रहा है। ब्राह्मण को अर्जुन से कुछ मिलता है; अर्जुन प्रतिनिधि है संसार का। कहने को मिल गया अर्जुन से कुछ, लेकिन फिर भी ब्राह्मण क्या रह गया? निर्धन का निर्धन।
कथा इस बात को ज़रा रोमांचक तरीके से बताती है। बीच-बीच में चरित्र आ जाते हैं। कोई लुटेरा आ जाता है, कभी पत्नी आ जाती है, कभी घड़ा आ जाता है, कभी हीरा आ जाता है। आप कथानक में उलझ मत जाइएगा।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।
सार पर ध्यान दीजिएगा। एक निर्धन व्यक्ति है जो संसार से धन पा रहा है लेकिन फिर भी निर्धन ही रह जा रहा है। फिर कह रहा हूँ, एक निर्धन व्यक्ति है जो संसार से धन पा रहा है लेकिन फिर भी... यह दुनिया के हर निर्धन की और हर धनी की कहानी है।
जो निर्धन है वह अपने-आपको क्या मान रहा है? निर्धन। जो धनी है वह अपने-आपको क्या मान रहा है? धनी। दोनों ने ही अपनी व्याख्या किस बात को केन्द्र में रखकर की है? संसार से पाए हुए धन को। अतः दोनों ही अपने-आपको क्या मानते हैं? निर्धन ही तो मानते हैं न।
मूल रूप से हम निर्धन हैं। एक कह रहा है, 'मैं मूल रूप से निर्धन हूँ और मुझे संसार से धन नहीं मिला।' दूसरा कह रहा है, 'मैं मूल रूप से तो निर्धन हूँ परंतु मुझे संसार से धन मिल गया है इसलिए आज मैं अपने-आपको धनी कह सकता हूँ। मैं जो अपने-आपको धनी कह रहा हूँ वो कोई सदा की बात नहीं है। एक दिन ऐसा था जब मुझे संसार से धन नहीं मिला था, तब मैं क्या था? निर्धन। और एक दिन ऐसा आएगा जब संसार से जो धन मिला है वो छिन जाएगा, तब मैं पुनः क्या हो जाऊँगा? निर्धन।' तो दोनों ही मूलतः क्या हैं? निर्धन।
क्योंकि धन मात्र वह है जो आपका अपना हो। धन मात्र वह है, जो आपसे छिन ना सकता हो। जो निर्धन है वह भी यही कह रहा है न, "मेरे पास कुछ अपना नहीं। हे संसार! कुछ दे दे।" जो धनी है वह क्या कह रहा है? "मेरे पास अपना तो कुछ नहीं है, हाँ संसार से कुछ मिल गया है। जो मिल गया है संसार से, मुझे अब उसकी रक्षा इत्यादि करनी है।" दोनों ही इसीलिए क्या हुए? निर्धन।
क्योंकि दोनों ने ही अपने-आपको परिभाषित किया है धन को केन्द्र में रखकर। और धन को केन्द्र में रखना माने किसको केन्द्र में रखना? संसार को केन्द्र में रखना। संसार को केन्द्र में रखना माने किसको केन्द्र में रखना? अनात्म को केन्द्र में रखना; किसी ऐसे को केन्द्र में रखना, जो तुमसे बाहर का है। संसार माने क्या? जहाँ तुम ख़त्म होते हो वहाँ संसार शुरू होता है। जहाँ आत्म ख़त्म होता है वहाँ संसार शुरू होता है। यही निर्धनता है। मुझे जो मिलेगा वह बाहर से मिलेगा, यह निर्धनता है।
अतः कहानी कहती है कि पा-पाकर भी ब्राह्मण निर्धन ही रह गया। कहानी इसको ज़रा मसाला लगाकर सुनाती है। कहानी ऐसे सुनाती है ज्यों घटनाओं ने ब्राह्मण को बार-बार निर्धन बना दिया; ज्यों किसी बाहरी ताक़त ने, किसी संयोगवश घटना ने ब्राह्मण को निर्धन बना दिया। बात संयोग की नहीं है। बात बाहर की भी नहीं है; बात अंदर की है।
संसार से माँगोगे तो निर्धन हो, अंतर नहीं पड़ता कि जो माँगा वह मिला या नहीं मिला। मिला तो भी निर्धन, नहीं मिला तब तो हो ही निर्धन। फिर से कहता हूँ, मिला तो भी निर्धन। तो कहानी यही बता रही है। गरीब को अर्जुन से बार-बार मिलता है। एक दफ़े नहीं, कई दफ़े मिलता है। लेकिन कई दफ़े मिलने के बाद भी वह क्या रह जाता है? गरीब का गरीब।
यही तुम्हारी हालत होनी है अगर संसार से माँगोगे। नहीं मिलेगा तो गरीब रह ही गए और मिला तो भी गरीब रह गए क्योंकि काल छीन ले जाएगा, संयोग छीन ले जाएगा, दैव छीन ले जाएगा। हीरा भी मिला तो कोई हीरा है ऐसा जो तुम्हारे साथ अनंतता तक चलेगा? देखो न क्या हुआ। मिला हीरा, छुपा कर रखा, फिर भी काल छीन ले गया।
अर्थ समझ रहे हो न? घटनाओं की बारीकियों में मत पड़ जाना। घड़ा इत्यादि बस कहानी को आगे बढ़ाने के माध्यम हैं। पात्र ही भर हैं। क्या कहा जा रहा है इसको समझो।
संसार ने दिया और छीन लिया। अर्जुन क्या है? संसार। लुटेरा क्या है? संसार। जो कुछ संसार देगा उसको छीन भी कौन लेगा? संसार। अर्जुन कौन? संसार; संसार ने दिया, तुम प्रसन्न हुए। लुटेरा कौन है? संसार; संसार ने दिया और संसार ने ही ले भी लिया। कहानी सिखा रही है, जो संसार से मिलेगा... अब ब्राह्मण की कोई बहुत पात्रता तो थी नहीं। उसकी पात्रता इतनी ही थी कि गरीब दिखता था और अर्जुन ज़रा बड़े दिल का है। कोई बड़े दिल वाला दया करके दे देगा, कोई छोटे दिल वाला छीन लेगा।
अब यूँ ही मिल गया था अर्जुन, और यूँ ही फूट गया उसकी पत्नी का घड़ा। कालचक्र में एक बिंदु आएगा जब यूँ ही कुछ मिल जाएगा, और कालचक्र में एक दूसरा बिंदु आएगा जब यूँ ही जो मिला था वो छिन जाएगा। मूर्ख हो तुम, अगर मिले हुए पर प्रसन्न हो जाते हो और छिन जाने पर अफ़सोस मनाते हो। दोनों एक ही बातें हैं। जैसे आया है वैसे ही जाना है। हाँ एक बात पक्की है इस आने में, इस जाने में, इस पाने में, इस छिन जाने में - तुम्हारी निर्धनता यथावत रहेगी। तुम नहीं बदले। तुम जो थे वही अभी भी रह गए। फिर कुछ और होता है।
याद रखना, तुम संसार से जब भी माँगने जाते हो, तो लगता यह है कि जैसे तुम याचक हो, लेकिन तुम याचक हो नहीं, तुम अभी भी बड़ी अकड़ में हो। प्रमाण क्या है इसका? प्रमाण इसका यह है, कि अभी भी तुम्हें चाहिए वही जो तुम निर्धारित कर रहे हो। एक भिखारी भी तुम्हारे पास आता है तो खेल उसकी शर्तों पर चलता है। ऊपर-ऊपर से देखोगे तो ऐसा लगेगा जैसे देने वाले तुम हो। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा जैसे तुमने तय किया कि उसको कितना देना है। तुमने तय किया उसको कितना देना है, लेकिन उसने तय किया कि तुम्हें उसे क्या देना है।
बात को समझना। भिखारी तुम्हारे पास आता है, तुम दो रुपया दोगे या दो हज़ार रुपये दोगे ये तुम तय करते हो। लेकिन तुम दोगे रुपये ही ये भिखारी तय करता है। तुम भिखारी को कभी रुपयों की जगह आशीर्वाद देकर देख लो, प्रसाद देकर देख लो, प्रेम भी देकर के देख लो। सौ में से निन्यानवे भिखारी प्रेम को भी ठुकरा देंगे, क्योंकि उन्हें जो चाहिए अपनी शर्तों पर चाहिए।
कृष्ण के सामने जब तुम जाते हो तो तुम्हारी शर्तें नहीं चलती। निर्धन व्यक्ति है, कृष्ण के सामने गया है, उम्मीद इस बार भी उसकी क्या है कि क्या मिलेगा? धन। वह तो अपनी ही शर्तें चलाना चाहता है। वह तो सोच रहा है, अर्जुन तो राजा ही भर है, कृष्ण तो राजाओं के राजा हैं। अर्जुन यदि कुछ पैसे दे सकता है तो ये तो खज़ाना दे देंगे। अर्जुन एक हीरा दे सकता है तो ये तो हीरों के ढेर लुटा देंगे।
यहाँ पर खेल दूसरा है, यहाँ आयाम दूसरा है। अर्जुन और यह जो भिखारी ब्राह्मण है, ये एक तल पर हैं। इसीलिए दोनों एक दूसरे की शर्तों को पूरा करते हैं। इसीलिए ब्राह्मण को अर्जुन से वह मिल जाता है जिसकी उसे अर्जुन से अपेक्षा थी। कृष्ण ज़रा अलग बैठे हैं। वो इस भिक्षुक की शर्त को पूरा नहीं करेंगे। यह क्या माँगने गया है? धन। उन्होंने धन नहीं दिया, उन्होंने दो पैसे दे दिए। दो पैसे का अर्थ समझना। दो पैसे का अर्थ है — धन नहीं। दो पैसे को धन नहीं मानेंगे।
अब किसी लुटेरे की ज़रूरत नहीं ब्राह्मण को उदास करने के लिए। अब यूँ ही उदास हो गया। पहले तो जब छिना था तब उदास होता था। अब कब उदास हो रहा है? जब मिला है।
ग़ौर करो। संसार देता है, तुम प्रसन्न हो जाते हो; सत्य देता है, तुम्हें लगता है कुछ नहीं मिला। संसार देता है तुम आरंभ में ही प्रसन्न हो जाते हो; सत्य देता है तुम आरंभ में हमेशा बुरा मानते हो, तुम्हारा चेहरा उतर जाता है, तुम्हें लगता है कुछ मिला नहीं। यह अलग बात है संसार देता है, तुम खुश हो जाते हो, समय की बात है थोड़ी ही देर बाद सारी खुशी फ़ाख्ता हो जाती है।
अब देखते हैं सत्य देता है तब क्या होता है। सत्य देता है तो आरंभ में तुम्हें निराशा होती है, तुम कहते हो कुछ मिला ही नहीं। जो चाहते थे वो कहाँ मिला। जो चाहते थे वो तो तुम्हें बाज़ार से मिलता था, जब भीख माँगते थे, या अर्जुन से मिलता था जब वो दान देता था। कृष्ण से मिला ही नहीं। वो तो तुम कृष्ण की मर्यादा रखने के ख़ातिर बिना गाली-गलौज किए आ गए, वरना दिल में तो तुम्हारे ऐसी आग उठी होगी वो दो पैसे देखकर, कि तुम ही जानते हो। "कहलाते तो इतनी बड़ी तोप हो, दिए दो पैसे। अरे अपने नाम की लाज रखी होती।" ना जाने कितने-कितने विचार आए होंगे उस ब्राह्मण के मन में। भली बात है उसने कुछ कह नहीं दिया।
तो वहाँ से दो पैसे लेकर चल रहा है। आगे की कहानी जो है किसी कलाकार की कल्पना जैसी है। अब वो जा रहा है, मछुआरा मिलता है, मछली तड़प रही है। कहता है, 'यह दो पैसा, इसकी वैसे ही कोई औकात नहीं।'
देख रहे हो उसके मन में असम्मान कितना है? वह यह भी नहीं कहता कि 'मैं इस दो पैसे को प्रभु का प्रसाद समझकर रख लूँगा'। वह यह भी नहीं कहता कि 'मैं इस दो पैसे को जाकर के मंदिर में चढ़ावा चढ़ा दूँगा'। वह कहता है, 'इस दो पैसे की कोई कीमत तो है नहीं, चलो इस मछली की ही जान बचा देते हैं।'
पर इतना उसने करा है कि वह दो पैसे फेंक ही नहीं दिए, या उस दो पैसे की शराब नहीं पी ली। भले ही उस दो पैसे को लेकर के उसके मन में कीमत नहीं थी, श्रद्धा नहीं थी फिर भी उस दो पैसे का किया उसने सदुपयोग ही। करुणावश किसी प्राणी की जान बचाने निकला है।
वह जाता है, मछली की जान बचाता है। आगे कल्पना और उड़ान लेती है। कल्पना कहती है कि जान बचा लेता है, मछली को कमंडल में डालता है, मछली के मुँह से हीरा सामने आ जाता है। हीरा सामने आता है, ब्राह्मण उत्तेजना में चिल्लाता है — अरे मिला! मिला! तभी वहाँ से लुटेरा जा रहा था, लुटेरा कहता है — अरे बाप रे! लगता है इसने मुझे ही पकड़ लिया, कहीं सज़ा न दिलवा दे। तो आता है, जितना पैसा लूटा होता है पहले अर्जुन का दिया हुआ, वो लाकर चरणों में रख देता है, माफ़ी माँगता है इत्यादि-इत्यादि।
यह सब किधर को इशारा कर रहा है यह देखना। यह इशारा इधर को कर रहा है कि सत्य साथ है, तो संसार की जितनी निधियाँ हैं सब उपलब्ध हो जाएँगी। वैसे नहीं उपलब्ध होंगी जैसे कहानी बताती है। अब कहानी को तुम्हें एक संदेश देना है, तो कहानी कुछ तो माया जाल फैलाएगी न। माया जाल में मत उलझ जाना। सीधे कहानी की आत्मा तक जाओ।
कहानी कह रही है, जब सत्य से मिलेगा तो तुम्हें लगेगा कुछ नहीं मिला; परंतु यदि श्रद्धा रखी, जैसे ब्राह्मण ने रखी कि पैसे फेंक ही नहीं दिए, जाकर के उन पैसों का कुछ सदुपयोग किया, किसी के काम आया, एक मछली की ही जान बचा ली — यदि ज़रा-सी श्रद्धा रखोगे, ज़रा धीरज रखोगे, यदि एकदम ही बावले नहीं हो जाओगे, तो अनपेक्षित परिणाम आएँगे। जादू-सा हो जाएगा। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा ये क्या हुआ। तुम कहोगे 'मिला तो कुछ नहीं था पर जो कुछ नहीं मिला उससे सब कुछ मिल गया।'
अजीब बात है। जिन्हें कुछ नहीं मिलता, उन्हें उस कुछ नहीं से सब कुछ मिल जाता है। दो पैसे मिले थे, दो पैसे से सब कुछ मिल गया। अर्जुन ने सब कुछ दिया था, उससे कुछ नहीं मिला। जब असली के पास पहुँचोगे, जब खरे स्रोत के पास पहुँचोगे, तो कभी वो नहीं पाओगे जिसको पाने की उम्मीद बाँधकर गए थे, पर जो भी पाओ या जो भी ना पाओ, उसके आगे सिर झुका देना। वास्तव में सिर झुका देना। तुम्हें निराशा उठेगी पर इस भिक्षुक का उदाहरण सामने है। अपनी निराशा के साथ भी तुम सिर को झुका देना। तुम्हें बुरा लगेगा, लगता रहे बुरा, तुम धीरज मत खोना। और फिर कुछ होगा, "मिल गया, मिल गया!" कैसे मिल गया? राम जाने। क्या मिल गया? वो भी राम जाने। लेकिन ये पक्का है कि तुम्हारी निर्धनता जाती रहेगी।
अब ग़ौर करो कि निर्धनता गई कैसे। निर्धनता उसकी ऐसे नहीं गई कि उसे वो सब मिल गया, जो उसका लुट गया था — हीरा, पैसे वगैरह। निर्धनता उसकी ऐसे जाती रही कि उसे अब अर्जुन की अपेक्षा कृष्ण में यकीन हो गया। मज़ेदार बात है। मिला उसे वह सब कुछ जो दिया अर्जुन ने था। ग़ौर करो। आख़िर में भी उसे मिला क्या है? जो सब कुछ अर्जुन ने दिया था; कृष्ण ने दिए थे कुल दो पैसे। लेकिन पहले वाले ब्राह्मण में और आख़िर वाले ब्राह्मण में, एक मूलभूत बदलाव आ गया है। क्या बदलाव आ गया है? पहले वाले की श्रद्धा थी?
श्रोतागण: अर्जुन में।
आचार्य: और आख़िरी वाले की श्रद्धा है?
श्रोतागण: कृष्ण में।
आचार्य: कृष्ण में श्रद्धा रहेगी तो वो सब कुछ मिल जाएगा जो दुनिया के तमाम अर्जुन दे सकते हैं, और अर्जुनों में श्रद्धा रहेगी तो वो भी नहीं मिलेगा जो अर्जुन दे सकते हैं। कृष्ण में श्रद्धा रहेगी तो वो सबकुछ मिल जाएगा जो दुनिया के तमाम अर्जुन दे सकते हैं और अर्जुन में श्रद्धा रहेगी तो...
ठीक वैसी-सी बात है जैसे किसी से गले मिलो तो उसकी परछाई से स्वतः ही गले मिल जाओगे। और परछाई से गले मिलने भागोगे तो राह की धूल मिलेगी, मुँह पर कालिख और पुत जाएगी, और गले-वले तो मिल भी नहीं पाओगे। कृष्ण से गले मिल लो, कृष्ण की परछाई है अर्जुन। सत्य की परछाई है संसार। कृष्ण से गले मिल लो, अर्जुन से गले अपने-आप मिल लिए। कृष्ण को पा लिया, संसार भर का धन-धान्य अपने-आप उपलब्ध हो गया।
इसलिए उपलब्ध हो गया क्योंकि अब उसकी चाह ही नहीं। अजीब बात है! मुझसे पूछना नहीं इसका अर्थ क्या है। ऐसा ही है लेकिन। जिसकी तुम्हें चाह नहीं वह उपलब्ध हो जाता है। जिसको चाहते रहते हो, वह तुम्हारे चाहने के कारण अनुपलब्ध है। तुम चाहना छोड़ दो, तुम पाओगे सब बिछा हुआ है।
प्रभुता को सब कोई भजै, प्रभु को भजै न कोय। कहैं कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय।।
कृष्ण को भज लो, अर्जुनों की भीड़ लग जाएगी। सत्य को भज लो, अनन्य संसार, अनंत संसार तुम्हारे सामने पंक्तिबद्ध खड़े हो जाएँगे। और संसार के पीछे-पीछे भागोगे तो संसार तो नहीं ही मिलेगा, सत्य को तुम पीछे ही छोड़ आए। दोनों से हाथ धोओगे; माया मिली न राम।
अंत में ब्राह्मण को क्या मिल गया? ब्राह्मण को कृष्ण मिल गए। ऐसे मत पढ़ लेना कहानी को कि ब्राह्मण को सोना-चाँदी मिल गया। सोना-चाँदी मिल भी सकता है, नहीं भी। याद रखना तुम्हें वह मिलेगा जो तुम्हारी वास्तविक ज़रूरत है, वह नहीं जो तुम्हारी माँग है।
कहानी को ज़रा लुभावना बनाने के लिए, ज़रा रंगीन और आकर्षक बनाने के लिए अकसर ये सब कह दिया जाता है, कि भगवान आए और निर्धन भक्त का घर हीरे-जवाहरात से भरकर चले गए। ऐसा होता नहीं। भगवान तुम्हें वो नहीं देंगे जिसकी संसार कीमत करता है। भगवान तुम्हें वो भी नहीं देंगे जिसको तुम कीमत देते हो। भगवान तुम्हें वो देंगे जो तुम्हें भगवान के करीब ला दे, जो तुम्हें भगवान समान ही बना दे।
अपनी कसौटी पर भगवान को मत कस लेना। अपनी उम्मीदों के अनुसार भगवान से माँग मत कर लेना। सबको अलग-अलग मिलेगा। अँधे को आँख मिलेगी, भूखे को रोटी मिलेगी। अब अँधे को रोटी दें और भूखे को चश्मा, तो गड़बड़ हो जाएगी न। जिसकी जो वास्तविक ज़रूरत है, उसे वो मिलेगा।
तुम्हारी अगर वास्तविक ज़रूरत है पैसा, तो ही मिलेगा तुम्हें, और उतना ही मिलेगा जितना वास्तविक ज़रूरत है। तुम्हारी यदि वास्तविक ज़रूरत यह है कि तुम्हारा पैसा छिन जाए, तो भगवान यही करेंगे। फिर पछताना मत कि भगवान के पास क्यों गए थे कि, "हे प्रभु! मुझे वो दे दो जो मुझे चाहिए।" कहेंगे, "ठीक है। तेरे लिए तो अभी सबसे ज़रूरी है कि तू ज़रा पैसे से हल्का हो जा, बहुत बोझ है। तू कुबड़ा हुआ जा रहा है बोझ तले।"
जब हरि से माँगने जाओ, तो हरि को हरने का अधिकार दो। जब उनसे माँगने जाओ तो बस इतना ही कहना (आचार्य जी हाथ जोड़ते हुए) — "अब मेरे हाथ में नहीं है। मेरे दोनों हाथ तो नमित हो गए, बद्ध हो गए, अब किसके हाथ में है? अब आपके हाथ में है। अब आप जानिए, मेरे लिए जो ठीक हो कर दीजिए।"
तुम मत बड़े ज्ञाता, बड़े विद्वान बन जाना कि 'हम बताएँगे हमारे लिए क्या ठीक है, अब आपका काम है उस सबकी पूर्ति करना।' कृष्ण तुम्हारे अनुचर नहीं लगे हैं कि तुम जाकर वहाँ निर्देश दोगे, वो उसका पालन करेंगे। पा जाओगे जो पाना है। कहानी पढ़कर लालच में मत आ जाना कि सोना मिल जाएगा कि हीरा मिल जाएगा। कुछ भी मिल सकता है।
रावण हो तो राम के हाथों मौत पाओगे। यही अच्छा है, तुम्हारे लिए यही अच्छा है। रावण हो, तो भी तुम्हें राम से कुछ मिलेगा ही। क्या मिला? मौत। क्योंकि वही उचित था तुम्हारे लिए, मिल गया तुम्हें। विभीषण हो तो राम के हाथों राज्य पाओगे क्योंकि वही उचित था तुम्हारे लिए। जिसके लिए जो उचित है उसे वो मिल जाएगा। लक्ष्मण हो यदि, तो जानते हो राम के हाथों क्या पाओगे? चौदह साल का वनवास। याद रखना, लक्ष्मण को वनवास दशरथ ने नहीं दिया था। दशरथ ने तो मात्र राम को वनवास दिया था। लक्ष्मण को वनवास किसने दिया? और सीता को किसने दिया? ये दोनों तो स्वेच्छा से चले गए थे। जिसे जो चाहिए वो मिल जाता है। देख लो राम का वरदान है; तो लक्ष्मण को चौदह साल की जंगल यात्रा मिल गई, भरत को गद्दी मिल गई।
कहानी कभी-कभी भ्रामक हो सकती है। कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि जो कोई ईश्वर की शरण में आता है वो धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। हो जाता है धन-धान्य से परिपूर्ण, लेकिन धन की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग है। तुम्हें वही मिलेगा जो तुम्हें मिलना चाहिए।
और ये अच्छी बात है न। तुम्हें प्यास लगी है और कोई तुम्हें मखमल लाकर दे, तो क्या करोगे? पीयोगे उसे? तुम्हें भूख लगी है, कोई तुम्हें कंगन लाकर दे, क्या करोगे, चबाओगे उसे? जो ज़रूरत है तुम्हारी वो तुम्हें मिल ही जाएगा। यही प्रभु का चमत्कार है।