अष्टावक्र और आदि शंकराचार्य के मुक्ति मार्ग में अंतर क्यों? || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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अष्टावक्र और आदि शंकराचार्य के मुक्ति मार्ग में अंतर क्यों? || तत्वबोध पर (2019)

प्रश्नकर्ता: तितिक्षा क्या है?

आचार्य प्रशांत: तितिक्षा है कि साधक इधर-उधर के संवेगों के प्रति उदासीन हो जाता है। उसको एक चीज़ चाहिए, बाकी सबके प्रति वह अनासक्त हो जाता है, अक्रिय हो जाता है, जैसे बहुत सारी चीज़ें उसके लिए अदृश्य हो गई हों। बहुत कुछ हो जो दिखाई ना देता हो, बहुत कुछ हो जो सुनाई ना देता हो, बहुत सारे विचार हैं जो उसको आने ही बंद हो जाते हैं, क्योंकि एक बात को उसके मन ने पकड़ रखा है, किस बात को? सारी साधना किसलिए है? मुक्ति के लिए। तो अब वह कहाँ ख़्याल करेगा कि सर्दी है, कि गर्मी है, कि मीठा है, कि खट्टा है, कि चटपटा है, काला है, कि सफ़ेद है। वह एक धुन में लगा हुआ है, बाकी चीज़ों को कितना ख़्याल करे?

बहुत सारे पीरों-फ़क़ीरों, संतों के क़िस्से नहीं पढ़ते हो कि कोई थे जो बिना वस्त्र पहने ही निकल पड़े कभी, कोई थे जो बाज़ार गए सौदा लाने और वहाँ जा करके मंदिर में बैठ गए, महीने भर लौटे ही नहीं, कोई थे जिनको पैसा मिला था कि जाकर इससे फलानी चीज़ खरीद लाना, वे गए, उस पैसे को बाँट आए इधर-उधर?

बाकी चीज़ों का होश रहना ज़रा कम हो जाता है, यह साधक की निशानी है। वरना साधक कैसा? उसको हर चीज़ ही अभी आकर्षित कर रही है, प्रभावित कर रही है तो वह साधक कैसा? साधक वही है जिसको पचास चीज़ों में रुचि न्यून हो जाए, अन्यथा साधना में प्रवेश ही नहीं होगा। बस यही है तितिक्षा।

सहनशीलता भी बहुत बढ़ जाती है। तुम अपने-आपको यह अनुमति ही नहीं देते कि प्रतिक्रिया करने में या विरोध करने में अपनी ऊर्जा का व्यय करो। तुम कहते हो, "सह लो, सहना आसान है, प्रतिक्रिया करेंगे, उलझेंगे तो उसमें जो अपव्यय होगा ऊर्जा का, ध्यान का, समय का, वह ज़्यादा कठिन बात है। सहना ठीक है, हम सह जाएँगे।" तितिक्षा में सहनशीलता एक प्रमुख तत्व है।

प्र२: अष्टावक्र और आदि शंकराचार्य के मोक्ष की परिभाषा में भेद क्यों है?

आचार्य: अंतर है। आदि शंकराचार्य जिससे बात कर रहे हैं और अष्टावक्र जिससे बात कर रहे हैं, दोनों में अंतर है। शंकराचार्य ने तत्वबोध, आत्मबोध लिखे हैं बिलकुल शुरुआती साधकों के लिए, पहले चरण के शिष्यों के लिए, तो उनको वो कह रहे हैं, “तुममें तो तीव्र मुमुक्षा होनी चाहिए।”

और जब अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि “तुममें जो मुक्ति की इच्छा है, जो तुम यह समाधि के तमाम तरीक़े के आयोजन करते रहते हो, यही तुम्हारा अब आख़िरी बंधन है”, तो वे बात कर रहे हैं एक पहुँचे हुए साधक से जो सिद्धि के लिए, जो मुक्ति के लिए बिलकुल तैयार था और आख़िरी सीढ़ी पर खड़ा था, उसे अष्टावक्र का स्पर्श हुआ नहीं कि वह पार ही निकल गया।

तो सौ क़दमों की इस यात्रा में शंकराचार्य बात कर रहे हैं उससे जो पहले क़दम पर है, अष्टावक्र बात कर रहे हैं उससे जो निन्यानवे क़दम पर खड़ा हुआ है। पहले क़दम पर मुमुक्षा चाहिए, आख़िरी क़दम तक मुमुक्षा की आवश्यकता पूरी है, भरपूर है, उसके बिना आगे नहीं बढ़ोगे। क्यों बढ़ोगे आगे? मुक्ति चाहिए ही नहीं, तो क्यों बढ़ोगे आगे? बात सीधी है।

आख़िरी सीढ़ी पर पहुँच करके फिर कहा जाता है कि “अब जब सब छोड़ आए हो तो मुक्ति किससे चाहिए? अब तो तुम्हारे पास बस एक ही चीज़ बची है छोड़ने के लिए, यह तुमने जो मुक्ति की इच्छा पकड़ रखी है।” और साधक हँस पड़ता है, वह कहता है, “बिलकुल सही बात है। मुक्ति की इच्छा के चलते सब कुछ ही हम छोड़ आए। मुक्ति की इच्छा बड़ी लाभप्रद थी, उसके माध्यम से, उसका उपयोग करके सब कुछ ही छोड़ दिया।”

सब कुछ छोड़ दिया, अब आख़िरी एक ही चीज़ बची है, क्या? मुक्ति की इच्छा। तो अब मुक्ति इसमें है कि अब मुक्ति की इच्छा भी छोड़ दो। तो वह आख़िरी बात है, वह पहली बात नहीं है। दोनों को एक मत समझ लीजिएगा, इसमें भ्रमित मत होइएगा।

आपके लिए और समस्त साधकों के लिए मुमुक्षा अति आवश्यक है। आग लगातार जलनी चाहिए, “मैं बंधन में हूँ, बंधन में रहना स्वभाव नहीं, नियति नहीं। मुझे मुक्ति चाहिए।” यही मुमुक्षा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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