प्रश्नकर्ता: अर्जुन को कृष्ण मिल गये, हमें क्यों नहीं मिलते? ये बात हमारे कर्मफल और बुरे प्रारम्भ की है?
आचार्य प्रशांत: कर्मफल, प्रारब्ध कोई अपनेआप में वस्तुएँ नहीं होतीं। चेतना प्रमुख होती है। तुम्हें निर्णय करना होता है। निर्णय सब कर्मफलों को काट सकता है। कोई ऐसी विवशता नहीं होती कि आपको कर्मफल कटने तक बन्धनों में रहना ही पड़ेगा। कर्मफल की ही अवधि को अगर भुगतना है तो फिर अध्यात्म किसलिए है? कर्मफल उसके लिए होता है, जो अभी कर्म के फल का भोग करने को इच्छुक हो। कर्मफल, दोहरा रहा हूँ, सिर्फ़ उसके लिए होता है, जो अभी कर्म के फल का बोझ भोग करने को इच्छुक हो। जो अभी वही हो, जिसने कर्म करा था। वो ही विवश होता है, कर्मफल भोगने को। अध्यात्म एक भीतरी मृत्यु है। बाहरी को मृत्यु कहते हैं तो भीतरी वाली को महामृत्यु कहे देते हैं। महा मृत्यु का अर्थ होता है, जिसने कर्म करा था, वो नहीं बचा, तो अब फल कौन भोगेगा? अध्यात्म इसलिए होता है ताकि तुम अपने अतीत से अलग हो जाओ। जब अतीत से अलग हो गये तो अतीत के कर्मों का परिणाम अब क्यों भोगोगे, भाई?
तो इसमें बात न प्रारब्ध की है, न भाग्य की है। बात अर्जुन के चैतन्य चुनाव की है और वो चैतन्य चुनाव आप भी कर सकते है। नहीं अन्तर पड़ता कि आपका अतीत कैसा रहा है और उसमें कर्म कैसे रहे हैं। अतीत के प्रति मृत हो जाएँ, इसी का नाम मुक्ति है। जो अतीत के प्रति मृत नहीं हो सकता वो अतीत को ही आगे ढोता रहेगा। इसी का नाम तो भविष्य है। भविष्य किसको कहते हैं? अतीत की लाश को भविष्य कहते हैं। अतीत खत्म हो चुका है। उसकी लाश बची हुई है, उसको तुम ढो रहे हो, इसका नाम भविष्य है।
अतीत में कर्म है, भविष्य में कर्मफल है। अतीत में जो था, वो फिर भी जीवित था। भविष्य में जो है, वो उसकी लाश है, वो गंधाती है। ठीक वैसे जैसे कर्मफल की सड़ान्ध में अनुभव होती है। जब कर्म करते हो तब तो इसी दृष्टि से करते हो न कि इसका कुछ बहुत अच्छा परिणाम मिलेगा। करते बेहोशी में हो। फिर परिणाम जब आता है तो पछताते हो। बात समझ रहे हो? तो इस तरह के सिद्धान्तों में नहीं फँसना है कि अर्जुन इसलिए बचकर निकल पाये क्योंकि अर्जुन को कोई वरदान प्राप्त था या अर्जुन फ़लाने तरीके से विशिष्ट थे या कोई और बात थी। वेदान्त बस एक विशिष्टता सिखाता है। वो विशिष्टता है, सही चुनाव। जो सही चुनाव कर ले गया वो विशेष है। ओर नहीं कोई विशेष होता। न कोई जाति से विशेष है, न जन्म से, न आयु से, न अनुभव से। किसी भी प्रकार से कोई विशेष नहीं होता। न किसी का कोई विशेषाधिकार होता है।
सत्य मात्र है, जिसको आप अपनी दृष्टि से विशेष कह सकते हो। क्योंकि आप साधारण हो तो वो विशेष है, उस दृष्टि से। सत्य मात्र है जो विशेष है। तो एकमात्र विशेषता है, फिर सत्य का चयन करना और नहीं कुछ विशेष। और सत्य के बिन्दु से देखो तो सत्य निर्विशेष है। इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि कहीं-न-कहीं वो पढ़ोगे फिर भ्रमित हो गये कि सत्य तो निर्विशेष है, आचार्य जी बोले गये, सत्य विशेष है। क्या हो गया ये?
प्र: लेकिन जब तक अहम हैं तब तक तो सत्य विशेष है।
आचार्य: हाँ, तो आपकी दृष्टि से तो विशेष है। इसीलिए तो उसको पूजते हो आप। नहीं तो काय को पूजोगे? क्यों नमन करोगे? तात्विक दृष्टि से निर्विशेष है।
प्र: वृत्ति विचार को उठा देती है। और विचार अनुमति माँग के नहीं आता तो विचार आ गया। अब जब विचार आ गया तो एक दूसरा विचार आता है कि मैंने ये सोचा। या ये मेरा विचार है। ये जो, ये जो दूसरा विचार है यही ममता का, मतलब यही बन्धन है?
आचार्य: नहीं, पहला, दूसरा, तीसरा सब विचार एक होते हैं। सारे विचार एक होते हैं। वो एक ही पेड़ के फल हैं। कोई थोड़ा छोटा हो सकता, है कोई बड़ा हो सकता है। कोई हरा है, कोई थोड़ा पीला हो गया। उससे नहीं बहुत अन्तर पड़ता। वो सब एक ही है। हाँ, जब कोई ये विरल निर्णय करता है कि मैं विचार को उसकी वृत्ति के विरुद्ध मोड़ दूँगा। मैं ये नहीं कहूँगा कि मैं क्या चाहता हूँ, मुझे किधर जाना है, मैं पूछ लूँगा, ‘मैं हूँ कौन?’ तब कुछ अनहोनी घटती है। इसको हम कह रहे हैं, ये आत्मविचार हो जाता है फिर। आमतौर पर हम ‘मैं’ को तो मान कर रखते हैं। ठीक है? ‘मैं’ तो केन्द्र ही है। ‘मैं’ पर विचार नहीं करना है। अब ‘मैं’ से चलकर के, ‘मैं’ से उठकर के दुनिया भर के और मुद्दों पर विचार करना है। ये साधारण व्यवस्था होती है।
आध्यात्मिक इस साधारण व्यवस्था का प्रतिकार करता है। वो कहता कि नहीं, ऐसा नहीं करना है कि मैं को तो अग्रिम मान्यता दे ही दी और अब वो कह रहे है कि मैं यहाँ जाऊँ, मैं वहाँ जाऊँ, मुझे ये चाहिए, मुझे ये पाना है, मुझे ये छोड़ना है, नही नही। ये नहीं। पहले तो ये बताओ, ‘मैं हूँ कौन?’ ये आत्म विचार है। और मैं हूँ कौन का मतलब ये नहीं कि आप अपने अस्तित्व से सम्बन्धित सिद्धान्तों की बात करने लगे। मैं हूँ कौन माने अभी जिस केन्द्र से ये विचार उठ रहा है, वो केन्द्र क्या है। क्या मैं प्रयास कर सकता हूँ, जानने का कि मैं अभी कौन हूँ?
मेरी ईर्ष्या मुझे बोल रही है कि फ़लानी दुकान पर जाओ और फ़लानी चीज़ खरीद लो। ठीक है? तो विचार क्या कह रहा है? विचार कह रहा है, ‘भागकर जाओ और वहाँ से कोई चीज़ खरीद लो।’ किसी और के पास कोई चीज़ है, उससे तुम्हें ईर्ष्या हो रही है। तो उसके फल में तुम कह रहे हो कि तुम भी किसी दुकान पर जाओ। कोई वस्तु खरीद लो। ये साधारण विचार है। आत्मविचार कहता है, मेरे पूरे वक्तव्य में ईर्ष्या नामक तो कोई शब्द है ही नहीं, मेरा पूरा वक्तव्य क्या कह रहा है? फ़लानी दुकान पर जाके फ़लानी चीज़ खरीद लो। इसमें ईर्ष्या शब्द हैं कहीं पर? कहीं नहीं है। पर मैं मुड़कर के देखूँगा और मैं कहूँगा, मैं ईर्ष्यालु हूँ। मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वो बात बाद में आती है। सबसे पहले कौनसी बात आती है? मैं ईर्ष्यालु हूँ। ये आत्मविचार की प्रक्रिया है।
प्र: तो कभी ये बात आया, देखने को मिलेगा कि मैं लोभी हूँ ऐसा लगेगा या मैं कामुक हूँ।
आचार्य: हर विचार के केन्द्र में विचार की एक दशा बैठी होती है। और ये सारी दशाएँ एक तरह से नकली होती हैं। तुम्हें उस दशा को पकड़ना होता है। ज्यों ही तुम उस दशा को पकड़ते हो, ज्यों ही तुम्हारे जानने का, तुम्हारे बोध का प्रकाश तुम्हारी अपनी आन्तरिक दशा पर पड़ता है, तुम उस दशा से मुक्त हो जाते हो। वो दशा पिघल सी जाती है।
प्र: वो जो दशा से मुक्ति है, वो सिर्फ़ उस पल के लिए है। अगले पल फिर आती है?
आचार्य: अगले पल फिर कोई दशा आ सकती है। तुम्हे फिर अभ्यास से उस दशा को पकड़ लेना है। विचार समझ लो, वो सैनिक की तरह है, जो एक दीवार के पीछे से गोलियाँ चला रहा हो। और दीवार मज़बूत है। उस दीवार के पीछे से वो पूरी दुनिया का शिकार कर सकता है। उस दीवार में वो एकदम छुपा हुआ है। अब ज़रूरी हो जाता है कि उसके पीछे से उसको पकड़ा जाए। विचार भी ऐसा ही है। उसके आगे जो कुछ है, वो उस पर गोलीबारी करता चलता है। फँसता वो सिर्फ़ तब है, जब ये देखा जाए कि उसके पीछे क्या है। उसको पीछे से पकड़ो।
उसके आगे से तुम उसका विरोध करोगे, विचार के उत्तर में, विचार के प्रतिकार में। तुम दूसरे विचार दोगे तो बस एक अन्तर युद्ध चलता रहेगा। भीतर फँसे रहोगे। उसको हराने का सबसे अच्छा तरीका है, उसके पीछे जाकर खड़े हो जाओ। उसकी बन्दूक किस दिशा में है? आगे की दिशा में है। तुम उसके पीछे जाकर खड़े हो जाओ। वो फँस गया। वहीं से उसको हरा सकते हो बस। ‘तू आ कहाँ से रहा है?’ और उसकी बन्दूक ऐसी है, जो पीछे को नहीं मुड़ सकती। तो डरो मत। विचार बहिर्गामी होता है। उसकी बन्दूक पीछे को नहीं मुड़ती।
प्र: एक और बात है। जैसे बताया कि सबसे नीचे है, आत्मा। उसके ऊपर है, वृत्ति। अभव्यक्ति के तल पर। उससे ओर बाहर है कोश। और बाहरी कोश है विचार। उससे बाहर है संसार। ये जो विचार का तल है, यही है मोरैलिटी (नैतिकता) का तल? जो आम, नैतिकता है?
आचार्य: हाँ, बिलकुल, बिलकुल।
प्रश्नकर्ता: और जो वृत्ति का तल है ये है पाशविकता? क्योंकि हम देखते पाशविकता को, मोरलिटी को।
आचार्य: बिलकुल, बिलकुल, बिलकुल। बढ़िया।
प्र: और ये जो पाशविकता है, यही क्राइम (अपराध) है? जैसे पाशविकता की वजह से ही जितने सारे अपराध हैं वो होते हैं।
आचार्य: नहीं।
प्र: लेकिन, लेकिन जो लॉ (कानून) है, वो विचार के माध्यम से वृत्ति को पकड़ना चाहता है। इसलिए लॉ हारता है। इसलिए आध्यात्मिकता की जरुरत है क्योंकि वो और नीचे और आत्मा से वृत्ति को।
आचार्य: ठीक है, ठीक है, ठीक है। बढ़िया पकड़ रहे हो। इसलिए कितने भी तुम नियम कानून बना लो, जिसको तुम अपराध बोलते हो, वो समाप्त नहीं होता। पहले परम्परा थी कि ज्ञानियों को राजाओं का संरक्षण प्राप्त होता था। और गाँव, गाँव में जो साधु सन्त घूम रहे होते थे, इनको रोटी दी जाती थी, छाँव दी जाती थी। उसकी वजह थी। बहुत सारी वजह थी। लेकिन अभी हम जिस सन्दर्भ में बात कर रहे हैं, एक वजह ये भी थी कि ये लोग कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक रखते थे।
विचार कर-करके या नैतिकता बताकर करके तुम पाशविक,आपराधिक वृत्ति को काबू नहीं कर सकते। लेकिन जब आत्मा सामने आती है तो अपराध रुक जाता है। जो काम पचास सैनिक नहीं कर पाते थे, वो एक साधु कर देता था। वो अपराध कम कर देता था। क्योंकि सैनिक वृत्ति को जीतना चाहते थे तलवार से और नियमों से। सैनिक वृत्ति को जीतना चाह रहे हैं, नियम-कायदों का भय बताकर और दंड वगैरह का। उससे बस आंशिक सफलता मिल सकती है। साधु वृत्ति को प्रेम में डाल देते हैं। तो फिर उसको अपराध करने की फ़ुर्सत नहीं रह जाती। तो एक तरीके से जो प्रश्रय और संरक्षण दिया जाता था, ज्ञानियों को और ऋषियों को, साधु सन्तों को, वो व्यर्थ ही नहीं था। आप उनको जो एक कुटिया और दो रोटी दे देते थे, उसके बदले में वो आपका बहुत सारा खर्चा और आपकी बड़ी तकलीफ़ें बचा देते थे। सिर्फ़ मानसिक तकलीफ़ ही नहीं वो आपका आर्थिक खर्चा भी बचा देते थे। आप पचास सैनिकों को तनखाह देते न? वो तनख्वाह आपकी बच गयी। उस गाँव में एक साधु रहता है,वहाँ अपराध बहुत कम है। तो राजकोष से जो सैनिकों को खर्चा जाता, वो खर्चा नहीं गया फिर। बच गया न?
प्र: तो इस सन्दर्भ जब अभी मैं देखता हूँ लॉ को भी, उसमे जैसे चोरी, चोरी करने पर वो कहते है: चोरी करोगे तो दंड मिलेगा। लेकिन एक्यूमुलेशन (संचय) पर कोई रोक नहीं है। लेकिन जब तक एक्यूमुलेशन होता रहेगा, तब तक चोरी भी होगी एक्यूमुलेशन मतलब सारा धन एक तरफ़ कर लिया, अब तो चोरी होगा ही। क्योंकि जो जहाँ से धन लिया है, वो लोग चोरी करेंगे। तो
आचार्य: नहीं, एक्यूमुलेशन है इसलिए चोरी होगी, ये बात उतनी ठीक नहीं है। एक्यूमुलेशन ही चोरी है। संचय ही चोरी है। कैसी चोरी है? थोड़ा समझना पड़ेगा। आपका असली काम था, अपने जीवन में मुक्ति की ओर प्रयास करना। और आपने उस काम से चोरी करके अपना समय किसी और जगह लगा दिया। तो चोरी पहले हुई, संचय बाद में हुआ। भाई, मैं तुम्हें कुछ समय दूँ पढ़ने के लिए। और तुम समय चुराकर के जाओ। और कोई और चीज़ इकट्ठा कर लो, मैंने समय किसलिए दिया था तुम्हें? पढ़ने के लिए। तुमने उस समय से चोरी करके जाकर कोई और चीज़ इकट्ठा कर ली। तो वो इकट्ठा तुमने पहले करी या चोरी पहले हुई?
प्र: पहले चोरी।
आचार्य: हाँ, तो ये नहीं है कि संचय होता है, उसके परिणाम स्वरूप चोरी होती है; चोरी होती है उसके परिणाम स्वरूप संचय होता है। आप जीवन में जो भी कुछ उल्टा-पुल्टा कर रहे हैं, उससे पहले चोरी की एक घटना घटती है। अगर आप चोर न होते तो कुछ भी उल्टा-पुल्टा करने का आपको समय कहाँ से मिलता? कुछ भी व्यर्थ करने के लिए आपने दो चीज़ें निश्चित रूप से चुरायी होंगी, एक समय और एक ऊर्जा। और जिसने आपको समय दिया है और जिसने आपको ऊर्जा दी है, उसने आपको बता रखा है कि समय और ऊर्जा का क्या इस्तेमाल करना है। लेकिन आपने चोरी करी और आपने अपने समय का और अपनी ऊर्जा का कुछ और ही प्रयोग कर लिया। तो चोरी पहले आयी न? उसके बाद फिर जो कुछ भी आया सो आया।
प्र: धन्यवाद।
प्र २: अभी हमने जो बात की कि विचारों से वृत्ति तक नहीं पहुँच सकते तो वृत्ति के बारे में जो भी लोग बातें किया करते हैं वो एक प्रकार से विचार ही है।
आचार्य: अवलोकन। विचार को देखकर पहुँचते हो, विचार पर सवार होकर नहीं पहुँचते। विचार की सवारी निकल रही है, तुम उसमे बैठ जाओगे तो वृत्ति तक नहीं पहुँचोगे। तुमसे बैठ जाओगे तो संसार की तमाम अन्धी दिशाएँ हैं, वहाँ पहुँच जाओगे। पर ये जो विचार की गति है उसको देख कर के तुम कुछ समझ सकते हो। तुम्हारे पास विचार ही भर नहीं है न, तुम्हारे पास ध्यान की भी क्षमता है। वो क्षमता तुम्हे वृत्ति तक पहुँचाएगी, विचार नहीं पहुँचाएगा।
प्र २: समय का बहाव, जो हमेशा आगे की तरफ़ ही होता है, जिसका भी इशारा है।
आचार्य: आगे का मतलब होता है कि अभी और चाहिए। पीछे कैसे जाओगे? अनुभव अपना थोड़े ही दोहराओगे। आगे का मतलब होता है, पीछे जो कुछ था, उससे कुछ मिला नहीं। तो समय के रूप में अपने लिए एक क्षण, माने एक अवसर और पैदा कर रहा हूँ कि क्या पता इसमें कुछ मिल जाए। अपनेआप को पीछे पाँच क्षण दिये, उसमें बात बनी नहीं। तो अब मैं अपने लिए एक छठ्ठा क्षण पैदा कर रहा हूँ कि क्या पता इसमें बात बन जाए।
प्र २: क्योंकि स्पेस में हमें पीछे जाने का मौका रहता है।
आचार्य: पीछे कहाँ जा सकते हो? बताओ।
प्र २: मतलब मुझे अगर अपने फ्लैट में नहीं मिला तो मैं यहाँ पर आ गया कि मुझे यहाँ पर मिल जाए।
आचार्य: ठीक है। जब तुम दोबारा वहाँ जाओगे तब तुम वो हो ही नहीं, जो तुम पहले थे, जब पहली बार खोजा था। जिसने पहली बार खोजा था, क्या उसको ये पता था कि बाहर भी नहीं मिलेगा? तो अब जब तुम दोबारा खोजने गये हो अपने फ्लैट में, तो क्या तुम वही व्यक्ति हो, जिसने पहली बार फ्लैट में खोजा था? तो कोई और है। तो पीछे कहाँ जा पाये तुम? ये सबकुछ इसीलिए है, इतना विस्तृत, इतना भूल-भुलैया जैसा क्योंकि खोज अभी बाकी है। और ये कहने से काम नहीं चलेगा कि ये जो कुछ है इतना बड़ा विस्तार लिये हुए, इसमें नहीं है, भीतर है।
प्र २: तो मैं दुबारा लेकिन अपने फ्लैट भी जा सकता हूँ।
आचार्य: बहुत परिणाम नहीं देती ये जो बाहर है, यहीं मिलेगा। बस यहाँ खोजने के लिए विवेक चाहिए। यहाँ खोजने के लिए भीतर एक अदम्य में भावना चाहिए कि मैं यहाँ भोगने के लिए नहीं, खोजने के लिए हूँ। पुरानी फ़िल्म में होता था न? मेले में भाई खो जाता था। होता था न? कुम्भ के मेले में भाई खो गया। अब वहाँ इतने लोग घूम रहे हैं, मेले में तरह-तरह की चीज़ें बिक रही हैं, और ये है, वो है, आकर्षण, मनोरंजन है। ज़्यादातर लोग वहाँ क्या कर रहे हैं? भोग रहे हैं। वो मेले में इधर-उधर घूम रहे हैं भोगने के लिए। एक है जिसको पता है कि कोई खो गया है। वो मेले में क्यों घूम रहा है? खोजने के लिए।
तो मिलेगा तो मेले में ही, मिलेगा तो संसार में ही। तुम्हारी नज़र भोगी की नहीं, खोजी की होनी चाहिए। इसी खोजी की नज़र रखने को कहते हैं, ‘अपने भीतर खोजना।’ अपने भीतर खोजने का मतलब ये नहीं है कि चुपचाप बैठ जाओगे और ऐसे आँख मूँदकर विचार करने लगे तो भीतर कोई दिया वगैरह जल जाएगा। संसार है। संसार में व्यक्ति हैं, वस्तु हैं, घटनाएँ हैं, अनुभव है। सीखोगे तो वहीं से। लेकिन तुम्हें विवेकपूर्वक चयन करना पड़ेगा कि कौनसे व्यक्ति को निकट रखना है, कौनसी वस्तु अपनानी है, कौनसी पुस्तक पढ़नी है। घटनाओं को कैसा प्रतिसाद देना है। अपने विचारों और भावों से कैसा सम्बन्ध रखना है। इन सबका तुम्हें एक चैतन्य निर्णय करना पड़ेगा।
प्र ३: प्रणाम, आचार्य जी। अर्जुन कहते है कि कृष्ण से कि धृतराष्ट्र पुत्र चाहे मुझे मार भी दें, पर ये तो गलत ही है, लड़ना उनसे। हमारे आम जीवन में भी ऐसे ही चलता रहता है कि हम इमोशनल ब्लैकमेल (भावनात्मक भयादोहन) करते हैं बहुत बार या फिर कोई और हमें करता है कि मर जाएँगे, तुम ये नहीं करोगे। या फिर हम कभी-कभी अपराध भी करने के लिए, मतलब पता है कि मौत की भी सज़ा हो सकती है, फिर भी खुद मिट जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, शरीर रूप से। ये क्या चीज़ है कि अहंकार को सच्चाई से प्रेम भी है पर वो शरीर को मिटने देता है बहुत बार। वो खुद बचा रहता है।
आचार्य: पशु ऐसा नहीं करते। पशु ऐसा नहीं करते। दो पशुओं में अगर लड़ाई हो रही हो तो आमतौर पर जो हार रहा होता है, वो प्राण रक्षा के लिए दुम दबाकर भाग जाता है। पशु ऐसा नहीं करेंगे कि सम्मान की खातिर आखिरी साँस तक लड़े। मनुष्य ऐसा इसलिए करता है क्योंकि मनुष्य का तादात्म्य शरीर की अपेक्षा मन से ज़्यादा है। पशु का तादात्म्य शरीर से है। तो पशु शरीर रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है। मनुष्य शरीर से ज़्यादा मन है। मनुष्य मन रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है। यहाँ तक कि मनुष्य मन रक्षा के लिए अपने शरीर को सौ तरह के कष्ट दे सकता है और बहुत जो विरल स्थितियों में, वो मन की रक्षा के लिए उसका शरीर की कुर्बानी तक दे सकता है। इसलिए पशु आत्महत्या नहीं करते। समझ में आ रही है बात?
प्र ३: जी।
आचार्य: ये अच्छी बात है कि मनुष्य मन को शरीर से ऊपर का स्थान देता है। लेकिन ये बात दो रूप ले सकती है। एक तो ये कि मन को उठाने के लिए आप शरीर की बलि दे दो, जैसा ऋषियों ने करा, जैसा बहुत सारे योद्धाओं ने करा कि किसी ऊँचे लक्ष्य के लिए उन्होंने शरीर को कुर्बान कर दिया और उल्टा भी हो सकता है कि मन को गिराने के लिए आप शरीर को बर्बाद कर लो, जैसा एक शराबी करता है।
भाई, मन दोनों चीज़ें माँग सकता है। मन एक चीज़ माँग सकता है कि मुझे कोई बहुत ऊँचा ध्येय पाना है। और उसके लिए यदि शरीर की आहुति देनी पड़े, स्वीकार। तो शरीर की आहुति दे दी गयी, क्यों? क्योंकि मन की इच्छा थी, ऊँची। उल्टा भी हो सकता है। शरीर की आहुति दे दी गयी क्योंकि मन की इच्छा थी, नीची। लेकिन दोनों स्थितियों में एक बात साझी है। मन शरीर से ऊपर आता है, मनुष्यों में। पशुओं में नहीं आता। इसीलिए मन को साधना होता है। शरीर को नहीं। इसीलिए वेदान्त का स्थान योग से बहुत ऊपर का होता है।
इसलिए आप यदि रमण महर्षि से जाकर पूछे कि आसन आदि लगाने से क्या लाभ होगा? और उनसे पूछा गया तो हँसकर बोलते थे, बोलते थे कि तुम कब शरीर नामक पशु को पूरी तरह साध पाओगे? ये प्रयत्न व्यर्थ है। मन को साधो, मन को। और यही वजह है कि योग वेदान्त से कहीं ज़्यादा प्रचलित भी है। क्योंकि ज़्यादातर लोग पशु के तल पर जीते हैं। तो उनको जब कोई शारीरिक क्रिया वगैरह बता दी जाती है तो उनको ज़्यादा सुविधा रहती है। आप एक पशु से कहें कि अपने मन को स्वच्छ करो। वो बेचारा कैसे करेगा? पर पशुओं को शारीरिक तौर पर कुछ प्रशिक्षण दिया जा सकता है, ऐसे दौड़ना है, ऐसे कूदना है। देखा है? सर्कस में जानवर कूद पड़ते हैं और ऐसे तो ज़्यादातर लोग उसी तल पर जीते हैं। तो कहते हैं, ‘हमें कोई तुम शारीरिक अभ्यास की बात बता दो। हमारा चल जाएगा।’
वेदान्त में शारीरिक, अभ्यास जैसा कुछ नहीं है। वेदान्त कहता है, ‘ये शरीर! इसको अभ्यास देकर क्या कर लोगे? मन की बात करो। क्योंकि तुम मन हो।’ पशु शरीर होता है, मनुष्य मन होता है।
प्र ४: आचार्य जी,आपने बताया कि जैसे जब झूठ पूरी तरह से झूठ होता है तो सामने पूरी तरह से आ जाता है, जैसे दुर्योधन के रूप में आ गया। फिर आपने देवी का जब कोर्स हुआ, उसमें भी आपने बताया था कि देवताओं के कारण ही राक्षस पैदा हुए थे। तो जब राक्षस और दुर्योधन बन जाते हैं पूरी तरीके से, तो सामने आ जाते हैं। और फिर युद्ध होता है। पर जब ये हो रहा होता है धीरे-धीरे, बहुत ही बारीक तरीके से तब उसमें कैसे सावधान रहें? डे टू डे (रोज़मर्रा) के जीवन में कैसे नज़र रखें? क्योंकि झूठ की तरफ़ आ जाते हैं और पता भी नहीं चलता है।
आचार्य: कम-से-कम जीवन में कुछ ऐसा रहे जिसमें आप किसी तरह का कोई मिश्रण या दूषण स्वीकार न करे। इसीलिए दुनिया भर की तमाम धार्मिक धाराओं में कुछ बातों का सख्त अनुपालन करने को कहा जाता है। और कुछ बातों की सख्त मनाही होती है। कहते हैं, ‘इतना तो करना-ही-करना है।’ हर चीज़ ही मिश्रित न हो जाए। अगर कुछ भी जीवन में ऐसा छोड़ दिया जो लगभग पूर्णतया शुद्ध है तो बात बन जाएगी। ठीक वैसे जैसे लाखों से घिरे हुए अर्जुन ने उन लाखों के बावजूद कृष्ण को नहीं छोड़ दिया। अर्जुन ये भी नहीं कर पाये हैं कि सिर्फ़ कृष्ण के साथ रहें, उन लाखों को छोड़ दें। सबकी अपनी विवशताएँ होती है, व्यवहारिक जीवन की। उन लाखों के साथ तो मौजूद रह नहीं है। और नहीं पता चलेगा कि उन लाखों में किस प्रकार का दूषण घुसा हुआ है, कैसे वो लाखों लोग आपको प्रभावित कर रहे हैं, किस-किस तरीके से आप संक्रमित होते जा रहे हैं। लेकिन इतना तो कर सकते हैं न कि हजारों लाखों कोई भी घेरे हो, जीवन की कैसी परिस्थितियाँ हो, कैसे भी सहयोग बन रहे हैं, उसमें एक चीज़ को भ्रष्ट न होने दें, क्या? कृष्ण की निकटता। कि वो तो रहेगी-ही-रहेगी।
अब बाकी सब का तो हम कुछ कर नहीं सकते है। जीव पैदा हुए हैं। तमाम तरह के संयोग होते हैं जीवन के। उन पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं। लेकिन कुछ चीज़ों को लेकर हम बहुत पाबन्द रहेंगे। वास्तव में मर्यादा का यही वास्तविक अर्थ है। मर्यादा का असली अर्थ यही है। परिस्थिति कैसी भी हो, कुछ काम अवश्य करने हैं। परिस्थिति कैसी भी हो, कुछ काम बिलकुल नहीं करने हैं। इसी को मर्यादा कहते हैं।
कुछ भी हो जाए, कृष्ण की बात नहीं टाल सकता। कितना भी मुझे लग रहा हो कि मैं ही सही हूँ, कृष्ण ने कह दिया तो कह दिया। और मुझे पता है, मुझमें सौ तरह के गुण, दोष होंगे। और मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ पर धर्मी होता हूँ, कहाँ अधर्मी होता हूँ। लेकिन एक नियम का पालन मैं प्राणों के मूल्य पर भी करूँगा। कृष्ण से दूर नहीं जाऊँगा, कृष्ण की बात नहीं टालूँगा, कृष्ण की अवज्ञा नहीं करूँगा। समझ रहे हैं?
ऐसी अगर वस्तु भी हो जीवन में, तो वो बचा ले जाती है। अर्जुन के पास कृष्ण थे, आप अपना कुछ खोज लीजिए। कोई पुस्तक हो सकती है, कोई मूल्य हो सकता है, कोई उद्देश्य हो सकता है, पर जीवन में ऐसा कुछ ज़रूर रखिए जिसपर किसी भी हालत में समझौता नहीं किया जा सकता। नहीं करना तो नहीं करना। माने प्राण चला जाए तो भी नहीं करना। बेशर्त। अगर आपके जीवन में कुछ भी नहीं है बेशर्त, एकदम कुछ नहीं है बेशर्त, यदि सबकुछ हालातों पर ही निर्भर करता है, तो सोचिए, आपका जीवन कितना कितना लाचारगी का है! कितनी खतरनाक बात है ये! सबकुछ फिर आप कह रहे हैं कि परिस्थिति वश होता है आपके जीवन में। तो बहुत ही विवशता का जीवन हो गया न? परिस्थितियाँ जैसी है।
एक चीज़ ऐसी रख लीजिए कि परिस्थितियाँ कैसी भी हो जाएँ, ये चीज़ अडिग रहेगी। कुछ भी हो जाए ये नहीं होगा या कुछ भी हो जाए ये अवश्य होगा। हाँ, इस बात को चैतन्य रूप से करना है। यही बात अगर चैतन्य रूप से नहीं की गयी तो फिर बस एक रीति या रिवाज़ बनकर रह जाती है। अब जैसे कुछ भी हो जाए, सुबह-सुबह गंगा में डुबकी ज़रूर मारनी है। अगर गंगा में डुबकी मारते वक्त आपको स्मरण रह गया कि इस डुबकी का संकेत क्या है, तब तो वो डुबकी आपको जीवन भर बचाती रहेगी। और अगर वो आपके लिए बस एक खोखली प्रथा बनकर रह गयी तो आप कितनी भी डुबकियाँ मारते रहे हैं, आप डूब गये।
तो भारतीयों ने ये तो अच्छा करा कि अपनी प्रथाओं को बड़े दिल से निभाया। ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिन भी जाकर के और बड़े-बड़े ठंड का समय है तब भी जाकर के गंगा में डुबकी मारी ज़रूर है। बोले, ‘कुछ भी हो जाए, प्राण अभी चले जाएँ लेकिन डुबकी ज़रूर मारेंगे।’ और ये बात बड़े भाव की है। बड़ा सम्मान माँगती है। लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि ये करके भी बहुतों को कोई लाभ हुआ नहीं। आपको पता होना चाहिए, वो डुबकी किसका प्रतीक है। दोनों बातें हैं। प्राण भले ही चले जाए पर डुबकी बेशर्त है। ये चीज़ ऐसी है, ये मर्यादा ऐसी है जिसको हम तोड़ नहीं सकते। और दूसरी बात, जो कर रहे हो उसका अर्थ भी तो पता हो, उसका संकेत भी तो स्पष्ट हो। ये दोनों बातें अगर आपने पकड़ लीं जीवन में तो आप बच जाएँगे।