अर्जुन की पात्रता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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अर्जुन की पात्रता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥21॥

“हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य मेरा रथ स्थापित करें।”

~ श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक २१, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग

आचार्य प्रशांत: अर्जुन का ये अनुरोध मेरे मन के बड़ा निकट रहा है सदा से। दो बातें हैं यहाँ पर अर्जुन के विषय में, दोनों ही पूरे तरीके से अभी वयस्क नहीं, पल्लवित नहीं, परिपक्व नहीं लेकिन दोनों के बीज बिलकुल आरंभ में ही अर्जुन में दिखाई दे जा रहे हैं। पहला, अर्जुन को अवलोकन करना है, माने अर्जुन को ज्ञान चाहिए। दूसरा, अर्जुन जिनको देख रहा है, उनको कम-से-कम धन-धान्य, सत्ता, राज्य इनसे ऊपर का स्थान दे रहा है। साधारण सांसारिक भोग से अधिक प्रिय कुछ और उसको पता चल रहा है — ‘प्रेम’। विशुद्ध प्रेम नहीं है, मोह ज़्यादा है, पर बीज है प्रेम का। वो बीज नहीं होता तो गीता भी अर्जुन को समझ नहीं आती। “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”; अर्जुन अलग हैं, विलक्षण हैं और वो विलक्षणता आरम्भ में ही दृष्टिगोचर हो जाती है।

एक तरफ़ दुर्योधन व्यथित है कि कैसे हरा दें जल्दी-से-जल्दी; सारी गणना ये है कि किसकी सेना बड़ी है, किसकी छोटी है, कैसे अपने सेनापति की रक्षा कर लें; दूसरी ओर अर्जुन, अंतर देखिए, नहीं गिन रहे कि कितने योद्धा इधर हैं कितने उधर हैं। दुर्योधन ने नाम गिना दिए – हमारी ओर के प्रमुख सेनानी ये हैं, उधर के प्रमुख योद्धा वो हैं इत्यादि-इत्यादि। अर्जुन को इन बातों से कोई प्रयोजन नहीं, एक तरह का वैराग्य। अर्जुन की उत्सुकता दूसरी दिशा में है, अर्जुन को जानना है। “हे केशव! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ स्थापित करो।” ये मध्यता बड़ी विलक्षण चीज़ है, हम ये नहीं कर पाते। ‘मध्यता’ का मतलब समझिएगा। हम जिधर होते हैं हम उधर के ही होते हैं। मैं अगर पांडव पक्ष में हूँ तो मैं पांडवों का हूँ। मुझे पांडवों से दूर जाकर के पांडवों को क्यों देखना है, मुझे बीच में जाकर के पांडवों को क्यों देखना है। और अगर मैं कौरवों के विरोध में हूँ तो मैं उनसे खूब दूरी रखूँगा न, मुझे उनके निकट जाकर के उनको क्यों देखना है।

मध्य में जाने का मतलब समझो — अहंकार जिस चीज़ से परिचित होता है, जिसका अभिमान और जिससे तादात्म्य रखता है, उसको वो छोड़ना चाहता ही नहीं। वो कहता है, “मैं जहाँ पर हूँ वहीं सत्य है, दूसरी तरफ़ जो है वो तो असत्य है ही और जो असत्य है मैं उसके निकट क्यों जाऊँ। हाँ, मैं उसको नष्ट ज़रूर कर सकता हूँ, उसके निकट जाने की कोई आवश्यकता नहीं। निकट जाऊँगा तो नष्ट करने में असुविधा भी हो सकती है, दूर रहकर ठीक है, यहाँ से ही नष्ट कर दूँगा।”

निकट जाने में अहंकार डरता है, क्योंकि निकट जाने में जो प्रतिपक्ष है, जो शत्रुपक्ष है, उसको लेकर के जो मान्यताएँ हैं उसके पास, वो नष्ट होती हैं, उन पर चुनौती आती है। दूसरे को शत्रु मानने के लिए दूसरे के विषय में बहुत सारी कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं; दूसरे के निकट जाएँगे तो कल्पनाओं के ध्वस्त होने का खतरा है। तो कौन बीच में जाकर के शत्रुपक्ष को निकटता से देखे और कौन अपने पक्ष को क्षण भर के लिए ही सही त्याग करके अपने पक्ष से दूर जाए और अपने पक्ष को भी निष्पक्ष दृष्टि से देखे। बीच में जाकर के अर्जुन निष्पक्ष निरपेक्ष हो गए हैं, थोड़ी देर के लिए ही सही। ऐसा उन्होंने विचार नहीं किया होगा, इतनी स्पष्टता के साथ शायद उन्हें आभास ना हो कि वो क्या कर रहे हैं, पर जैसा मैंने कहा, एक बीज मौजूद है। अवलोकन की ये मंशा अद्भुत है, सब में नहीं आती। आपको ऐसे कितने युद्ध पता हैं जहाँ पर जो प्रमुख, बल्कि प्रमुखतम् योद्धा है, उसने कहा हो कि ‘मैं अपनी सेना से किंचित दूर जाकर के अपनी ही सेना का अवलोकन करना चाहता हूँ’, ऐसा कभी आपने देखा है? ऐसा आपको कौन-सा सेनानी मिला है जो कहता है “बीच में रहूँगा; एक तरफ़ नहीं, बीच में रहूँगा।”

ये बहुत आवश्यक है और अहंकार के लिए बहुत मुश्किल। कोई कारण है कि कृष्ण निर्णय करते हैं गीता जैसा उपदेश अर्जुन को देने का, ये साधारण बात नहीं है। गीता शास्त्र के अंत में कृष्ण स्वयं ही अर्जुन को कहते हैं कि ‘जो भी लोग मुझमें श्रद्धा ना रखते हों अर्जुन, भूल कर भी उनसे गीता ना कहना।‘ जो बात वो अर्जुन को सिखा रहे हैं, वो बात निश्चित ही अपने ऊपर भी लागू करेंगे। अर्जुन को कहीं-न-कहीं उन्होंने सुपात्र पाया है। मेरी दृष्टि कहती है कि विषादयोग में अर्जुन की दशा ही अर्जुन की पात्रता का प्रमाण बनी। यूँ ही नहीं गीता बरस गई अर्जुन के ऊपर, कृष्ण बड़े पारखी हैं, साफ़-साफ़ देख रहे हैं, अर्जुन को बहुत लंबे समय से जानते हैं। और इस क्षण भी वो छोटी-छोटी बात पकड़ रहे हैं। कौरव पक्ष में क्या हलचल है ये भी देख रहे हैं और अर्जुन की क्या प्रतिक्रिया है ये भी।

तो अर्जुन को जानना है। अर्जुन को लड़ना भर नहीं है, अर्जुन को पाना भर नहीं है, अर्जुन को जानना है। जाने बिना ही टूट पड़ना ये पाशविक अहंकार का काम है; सामने चाहे शत्रु की सेना हो, चाहे कोई आकर्षक सांसारिक लक्ष्य। अहंकार तो चाहता है कि उस पर टूट पड़े यदि वह बुलाता है तो, लुभाता है तो। पशु ऐसा ही करते हैं। मनुष्य आप तब होते हैं जब आप टूट पड़ने के पहले जानने का प्रयास करो। वो टूट पड़ना शत्रुता में भी हो सकता है, लोभ में भी हो सकता है, साधारण सांसारिक प्रेम में भी हो सकता है। सामने कुछ दिख रहा था, बड़ा मीठा, बड़ा लुभावना, हम टूट पड़े उस पर। आम व्यक्ति लगभग पशु की तरह ही जीता है, बस टूट पड़ता है; जैसे अभी दुर्योधन टूट पड़ने को तैयार है। अर्जुन ने पशुता से ऊपर की किसी चीज़ का अभी संकेत दिया है, प्रमाण दिया है, ये कह करके कि ‘बीच में ले चलिए मुझे अवलोकन करना है, मैं जानना चाहता हूँ।‘

आपको जो भी कुछ चाहिए जीवन में, चाहे पाने के लिए, चाहे मिटाने के लिए, आप उसको जानते भी हैं या बस टूट पड़ना चाहते हैं? आप सामने की दिशा में भाग रहे हैं चाहे मित्र से मिलने के लिए, चाहे शत्रु को मिटाने के लिए, आप मित्र को जानते हो जिसकी ओर जाने के लिए इतनी उत्सुकता है? आप शत्रु को जानते हो जिसको मिटाने के लिए इतना आग्रह? नहीं, आपको बस टूट पड़ना है। अर्जुन ने कहा, “मुझे जानना है।”

ये क्यों हुआ, अर्जुन के साथ ही ऐसा क्यों हुआ? कुछ कह नहीं सकते, पर एक बात लगती है – कृष्ण की संगत का असर होगा ज़रूर। बगल में ही धर्मराज युधिष्ठिर थे, उन्होंने भी ये नहीं कहा कि ‘मुझे जानना है’, वो तो शायद पहले से ही सब कुछ जानते थे, सब स्पष्ट था उनको, धर्मराज हैं भाई! अर्जुन ने कहा, “मुझे अभी जानना है”, ये नहीं कहा “मैं जानता हूँ”, “मुझे जानना है, अभी जानना है। कैसे तीर चला दूँ या कैसे पुष्प चढ़ा दूँ जब जानता ही नहीं कि सामने जो अभी है मेरे, वो वस्तु है क्या।”

मैं बार-बार कहता हूँ, गीता हमारे लिए तभी उपयोगी है जब हम अर्जुन हों। और अर्जुन हम सब हैं ही क्योंकि हम सबके सामने एक लक्ष्य है, ठीक वैसे जैसे अर्जुन के तीरों के सामने एक लक्ष्य था। कोई है यहाँ ऐसा जिसके पास कोई लक्ष्य ना हो? जिसके पास कोई लक्ष्य है, वो अर्जुन है। हाँ, साधारण व्यक्ति में और अर्जुन में अंतर ये है कि साधारण व्यक्ति बिलकुल अंधेरे और अंधेपन में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है, जैसा हमने कहा, चाहे उसे पाने के लिए चाहे मिटाने के लिए। अर्जुन को प्रकाश चाहिए था, अर्जुन ने कहा, “तीर तो अब बरसेंगे ही, उससे पहले कुछ समझ लूँ; कुछ समझ तो लेने दीजिए।”

काश! कि हम देख पाते कि कृष्ण कैसे मुस्कुराए होंगे उस पल! कृष्ण की भी आस रही होगी कि कोई मिले सुयोग्य जिस पर गीता की कृपा की जा सके। और युद्ध स्थल के मध्य ही सही उन्हें मिल गया वो शिष्य, वो श्रोता, वो कृपापात्र जिस तक गीता पहुँच सकती है। देखने की अगर आपकी दृष्टि हो तो आप ये तक कह सकते हैं कि ये पूरा युद्ध तो एक तैयारी मात्र है, एक रंगमंच मात्र है, एक पृष्ठभूमि मात्र है, बस गीता को घटना था। गीता को उतरना था इसलिए इतनी तैयारी करनी पड़ी? हाँ, इतनी तैयारी ना होती तो अर्जुन की तैयारी ना होती। ऐसे सेनाएँ ना खड़ी होतीं आमने-सामने तो अर्जुन का मन वैसे कैसे स्पंदित होता जैसे अभी हुआ है और ऐसा स्पंदन ना होता, अर्जुन में इतना क्रंदन ना होता तो गीता बे-असर चली जाती, उतरती भी तो निष्प्रभावी हो जाती।

तो ऐसे योद्धाओं के लिए है गीता, जिनके सामने बहुत बड़ा लक्ष्य हो, उनके लिए है गीता। जो जीवन में विकट स्थितियों में फँसे हुए हों, जिन्होंने किसी बड़े काम का बीड़ा उठाया हो, जिनमें बड़ी चुनौतियाँ उठाने का दम हो, उनके लिए है गीता। सोचिए तो, कृष्ण अर्जुन सदा साथ हैं, गीता का उपदेश पहले क्यों नहीं दे दिया, पहली बार नहीं मिल रहे। अरे! युद्ध से ही अगर संबंधित था गीता का उपदेश, तो भी युद्ध से दो घण्टे पहले दिया जा सकता था, युद्ध से एक रात पहले दिया जा सकता था; ऐन मौके पर, बीच युद्ध भूमि पर, ये बात क्या है? बात यही है — गीता आपके लिए सार्थक सिर्फ़ तब ही होगी जब आप धर्मयुद्ध में, मृत्यु का वरण करने को भी तैयार खड़े होंगे। नहीं तो गीता आपके किसी काम नहीं आएगी। और यही वजह है कि इतिहास में मुट्ठी भर ही लोग हुए हैं गीता जिनके काम आयी है। गीता सिर्फ़ अर्जुन के ही काम आ सकती है। गीता सिर्फ़ उसके काम आ सकती है जो कौरवों की बड़ी भारी सेना का मुकाबला करने के लिए तैयार खड़ा हो और डगमगा भी हो रहा हो तो इसलिए नहीं कि सामने की सेना बड़ी है और मृत्यु का भय है हमें, वो विचलित कंपित भी हो रहा है तो इसलिए कि मारूँगा कैसे। इस विचलन में भी शूरता है।

देखिए, आप अर्जुन का डर समझिएगा। अर्जुन को डर ये नहीं है कि ‘भीष्म और द्रोण और कर्ण मुझे मिलकर मार डालेंगे’, अर्जुन को इतना आत्मविश्वास है कि ‘ये तो कुछ हानि मेरी कर सकते नहीं’, अर्जुन को पता है। अर्जुन की शूरता ऐसी है कि अर्जुन को ऐसा संशय, ऐसा विचार उठ भी नहीं रहा कि ‘हाय! मेरा क्या होगा।‘ एक अग्रिम आश्वस्ति है कि ‘युद्ध यदि होगा तो पताका तो मेरी ही फहरनी है’ और चूँकि ये आश्वस्ति है फिर इसलिए कंपन है, क्या कंपन है? कि ‘जब जीतना मुझे ही है तो माने मरना उन्हें ही है, हाय! कैसे मार दूँ उनको।‘

दो व्यक्ति आमने-सामने लड़ने को खड़े हों और उनमें से एक व्यक्ति यही सोचकर व्यथित हुआ जाता हो कि ‘मैं इसकी हत्या कैसे कर दूँ’, तो इससे आपको क्या पता चलता है? उस व्यक्ति को पूरी आश्वस्ति है कि यदि युद्ध हुआ तो मरेगा ये सामने वाला ही, तभी तो उसको इतनी व्यथा है। अर्जुन एक बार भी ये नहीं कहते कि ‘यदि मैं मर गया तो मेरे भाइयों का क्या होगा, मेरे पुत्रों का क्या होगा, मेरी माता, मेरी पत्नी का क्या होगा।‘ अर्जुन को ऐसा कोई भय नहीं, जैसे कि पता हो कि ये तो होने का नहीं, ये अर्जुन की शूरता है।

ऐसा जो होता है, गीता उस पर उतरती है। जो यदि डर भी रहा है तो अपने लिए नहीं, जो यदि कमज़ोर भी हो रहा है तो अपने लिए नहीं। अभी आगे कहेंगे अर्जुन “पाँव काँप रहे हैं, शरीर जल रहा है, बलहीन हो रहा हूँ, धनुष पकड़ा नहीं जाता।” ये बलहीनता भी बल की अधिकता के कारण है। ऐसे हृदय वाला प्रार्थी चाहिए। हाथ इसलिए नहीं काँप रहा है कि ‘अरे! महायोद्धा हैं सामने, द्रोण, इनके सामने मैं कैसे टिकूँगा।‘ धनुष इसलिए काँप रहा है क्योंकि पता है कि ‘द्रोण से आमना-सामना होगा तो मृत्यु तो द्रोण की ही होगी, कैसे मार दूँ द्रोण को!’

जो इतने बली होते हुए भी, जो अपेक्षतया निर्बल हैं उनके लिए भाव रखता हो, सिर्फ़ उस पर उतर सकती है गीता। महान बल है, पर अपने बल का प्रयोग करने से कतरा रहे हैं अर्जुन। चाहे तो एक पल में सब ध्वस्त कर दें, पर भावुक हो रहे हैं। और वो भावप्रधानता गीता के बाद भी पूरी तरह मिटती नहीं है। भीष्म जब सामने पड़ते हैं तो पुराने संबंध और स्मृतियाँ फिर जागृत हो जाते हैं। भीष्म से डटकर पैना, तीखा, घोर युद्ध कर ही नहीं पाते अर्जुन। तीर यूँ चला रहे हैं जैसे फूल बरसा रहे हों। ऐसा योद्धा चाहिए, तब गीता काम आती है; कमज़ोर लोगों के लिए नहीं है। महाबली, लेकिन फिर भी भाव रखने वाले, महाबली, लेकिन अपने बल का उपयोग बस अपनी सत्ता, अपने हितों, अपने स्वार्थों के पूर्ति हेतु ना करने वाले। जब ऐसा मन होता है तब उसको और ऊँचाई पर ले जाने के लिए गीता उपयुक्त होती है। दुर्योधन के काम की नहीं गीता। गीता दुर्योधन के काम की नहीं और बराबर की बात ये कि दुर्योधन को भी गीता में कोई रुचि नहीं। नहीं तो साक्षात् कृष्ण ही सामने थे और रक्त-संबंध तो दुर्योधन का भी कुछ था कृष्ण के साथ। हाथ जोड़कर के ज्ञान माँगने जाता तो कृष्ण ठुकराते नहीं। समझ में आ रही है बात?

‘मुझे समझना है और मेरे हृदय में कोमलता है। मैं विशाल, अति विशाल हूँ, मैं अति सामर्थ्यवान हूँ लेकिन फिर भी भाव मुझमें कुछ ऐसा है कि दुष्टों को मारने में भी सकुचा रहा हूँ, लग रहा है क्यों किसी के प्राण हर लूँ। बल मुझमें पूरा है और अधिकार भी मुझे पूरा है कि दुष्टों को घोर दंड दूँ, लेकिन जो दुष्ट है, मैं उसे भी दंड नहीं दे पा रहा, लगता है इसको दंड देकर मुझे क्या मिल जाएगा।‘ – जिसकी ऐसी स्थिति हो, उसके लिए है गीता। जो स्वयं को दुर्बल बनाए घूमता हो, अभी गीता उसके लिए नहीं है। जिसको कृष्ण से कोई नाता ही ना रखना हो, गीता उसके लिए नहीं है। जिसके लिए धन, स्वार्थ, सत्ता ही सब कुछ हो, गीता उनके लिए नहीं है।

आरंभ में ही अर्जुन ठुकराते हैं सिंहासन को। कहते हैं, “क्या करूँगा ऐसा सिंहासन लेकर के।” जो सिंहासन से ऊपर किसी और चीज़ को वरीयता देता हो, उसके लिए है गीता। कृष्ण कहते हैं, “ठीक, अद्भुत व्यक्ति है ये, सिंहासन छोड़ने को तैयार है, बस एक ग़लती कर रहा है, सिंहासन मोह के लिए छोड़ने को तैयार है। मैं तुम्हें सिखाऊँगा अर्जुन कि सिंहासन किसके लिए छोड़ना चाहिए। सिंहासन निश्चित रूप से त्याज्य है, निश्चित रूप से सिंहासन से बहुत ऊँचा स्थान किसी और का है; मैं तुम्हें सिखाऊँगा सिंहासन से ऊपर का स्थान किसका है। तुम सोच रहे हो सिंहासन से ऊपर भावनाएँ आती हैं, मोह आते हैं, रक्त-संबंध आते हैं, अतीत की स्मृतियाँ आती हैं, नहीं! सिंहासन निश्चित रूप से नीचे है, पर किससे नीचे है सिंहासन, वो मैं तुम्हें सिखाऊँगा अर्जुन।”

जो अभी सिंहासन को नीचे ही ना मानता हो उसको अभी कृष्ण कुछ नहीं सिखा पाएँगे। और उस समय का सबसे बड़ा और सबसे समृद्ध राज्य था हस्तिनापुर। हस्तिनापुर के सिंहासन को त्यागने के लिए जो तैयार बैठा हो वो फिर वेदांत के उच्चतम ज्ञान का अधिकारी हो जाता है, और याद रखिए वो त्याग रहा है, भय के कारण नहीं, भाव के कारण। भय के कारण तो न जाने कितने लोग कितनी चीज़ों को छोड़ कर भाग जाते हैं, ऐसों की कोई गिनती नहीं। समझ में आ रही है बात?

दो विशेषताएँ हमने कौनसी कही अर्जुन की? पहली, अर्जुन को जानना है। दूसरा, अर्जुन सिंहासन से ऊपर भाव को प्रधानता दे रहे हैं और ये बात प्रेम के कुछ निकट की है, क्योंकि प्रेम में भी आप संसार से ऊपर रखते हो सत्य को। अर्जुन सांसारिक उपलब्धि से ऊपर रख रहे हैं भाव को। संसार स्थूल है, भाव सूक्ष्म है। तो अर्जुन ने इतना तो सीख ही लिया है कि स्थूल संसार से ऊपर होता है स्थान किसी सूक्ष्म चीज़ का। बस अर्जुन को ऐसा लग रहा है कि जो सूक्ष्म चीज़ इस स्थूल संसार के ऊपर की है उसका नाम है ‘भाव’ या ‘मोह’। कृष्ण अर्जुन को सिखाएँगे कि ‘बिलकुल ठीक कहा अर्जुन, संसार स्थूल है और जो सूक्ष्मतम हो वो इस स्थूल जगत से कहीं ऊपर का है, पर वो सूक्ष्मतम है क्या, अब मैं तुमको बताऊँगा। भाव अपेक्षतया सूक्ष्म है लेकिन भाव से भी कहीं ज़्यादा सूक्ष्म है ‘सत्य’। जो तुम्हारा भाव है उस पर मोह की छाया है, मैं तुमको सिखाऊँगा ‘प्रेम’।‘ और प्रेम का विषय मात्र ‘सत्य’ ही हो सकता है। जब गीता पाठ करें तो जल्दी-जल्दी आगे ना भाग जाएँ। एक-एक श्लोक चिंतन माँगता है, गहरा विचार माँगता है। समझ में आ रही है बात?

एक बली चाहिए, कठोर बलिष्ठ भुजाओं वाला और कोमल हृदय वाला। बलिष्ठ भुजाएँ और कोमल हृदय — ऐसे के लिए है गीता। युद्ध में जिससे तुम जीत ना सको पर जो प्रेम में हारा हुआ है, ऐसे के लिए है गीता। कहाँ अर्जुन को जीत सकते हैं कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म, दुर्योधन, दु:शासन, कहाँ जीत सकते हैं! उनकी क्या गति हुई हमने क्या देखा नहीं? जिस अर्जुन को कोई जीत नहीं सकता वो अर्जुन अपने आँसुओं से विह्वल है, अपनी भावनाओं से विवश है। जिसमें कोई कमज़ोरी नहीं, वो अपनी भावुकता के कारण कमज़ोर बना हुआ है, जिसे कोई हरा नहीं सकता, वो अपने ही हाथों हारा हुआ है। जिसकी ऐसी दशा हो उसके लिए है गीता।

प्रेम होना चाहिए। एक मन जो प्रकाश की ओर बढ़ता है उसे ज्ञान चाहिए। एक मन जो आर्द्र है, गीला है, उसे प्रेम चाहिए। दुर्लभ है ऐसा संगम। बहुत मिल जाएँगे जिन्हें प्रकाश चाहिए, वो अपने-आपको ज्ञानमार्गी बोलते हैं। बहुत मिल जाएँगे जिन्हें प्रेम चाहिए, वो अपने आपको प्रेममार्गी, भक्तिमार्गी इत्यादि बोलते हैं। ऐसा मिलना दुर्लभ है जिसे प्रकाश और प्रेम दोनों चाहिए, जो दोनों के लिए तैयार है।

इसीलिए गीता का वर्गीकरण करना बड़ा मुश्किल है, आप नहीं कह पाएँगे कि गीता ज्ञानमार्ग का ही ग्रंथ है या भक्तिमार्ग का ग्रंथ है; गीता सब कुछ है। गीता को कोई एक नाम देना अपने ही अहंकार की अभिव्यक्ति होगी। अपने ही अज्ञान का सूचक होगा। समझ में आ रही है बात?

अर्जुन में एक नायकत्व है, एक हीरोइज़्म है। बौनों के लिए, वामनों के लिए गीता नहीं है। जिसके रथ पर कृष्ण हों और ध्वजा में हनुमान, उसके लिए है गीता। जिसका शौर्य ऐसा हो जो चारों दिशाओं को जीत सके लेकिन जिसकी कोमलता ऐसी हो जो कि संबंधों की खातिर सबकुछ छोड़कर पलायन करने को तैयार हो जाए, उसके लिए है गीता। कठोरता और कोमलता का ऐसा अद्भुत संगम जहाँ हो, वहाँ है गीता। वो अद्भुत संगम होता है, वो बहुत पाया जाता है, पर उल्टे तरीके से पाया जाता है। दुनिया में आपको लोग मिलेंगे जो मन से अति कठोर होंगे और बाहर से अति कोमल, कोमल माने दुर्बल। बाहर उनकी हालत ऐसी होगी कि अभी धक्का मार दो तो गिर जाएँ या स्थितियों का आघात लग जाए तो भी गिर जाएँ। कोई उनमें शूरता नहीं, कोई साहस नहीं और साथ-ही-साथ उनका दिल पत्थर का, पाषाण हृदय; भीतर कठोर, बाहर दुर्बल; दुनिया उल्टी है। बाहर बल नहीं भीतर प्रेम नहीं, दुनिया उल्टी है।

अर्जुन विरल हैं — बाहर अति बलिष्ठ, भीतर सुकोमल। कौन हाथ आया राज्य जाने देता है? कौन प्रतिपक्षी की ही मृत्यु पर फूट-फूटकर रोता है? कौन मारने की अपेक्षा मर जाने का चयन करने को तैयार हो जाता है? कौन अपने शत्रु को भी क्षमा करके स्वयं सन्यस्त हो जाना चाहता है? दुर्योधन को तो लगभग सिंहासन सौंप ही दिया था अर्जुन ने कि ‘कोई बात नहीं, तुम रख लो।‘ समझ में आ रही है बात? गीता कोई पुस्तक नहीं है कि आप उठा करके पढ़ लेंगे उसको, गीता एक उपलब्धि है जो बड़े श्रम के बाद मिलती है; सबको मिल ही नहीं सकती वो। पुस्तक को तो कोई भी उठा सकता है, उपलब्धियाँ क्या सबको होती हैं?

गीता को पढ़ा नहीं जाता, गीता को पाया जाता है। गीता के लायक बना जाता है।

रणक्षेत्र में हम सभी हैं, पैदा हम सब संघर्षों में ही होते हैं। कोई नहीं है जो धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में ना पैदा होता हो, पर सब अर्जुन नहीं हैं कुरुक्षेत्र के मैदान पर, या सब हैं? जो एक अर्जुन है सिर्फ़ उसके लिए गीता है, बाकियों के लिए कुछ नहीं। लाखों, नहीं तो हज़ारों वहाँ पर योद्धा खड़े हुए हैं, गीता सिर्फ़ एक के लिए है। ठीक जैसे जगत में इतने लोग हैं, गीता कुछ चुनिंदा लोगों के लिए ही है। गीता के लायक बनना पड़ता है, तब गीता आपकी होती है। कृष्ण की समीपता टेढ़ी खीर है, बड़ा मूल्य माँगती है। यहाँ पर तो कृष्ण सारथी हैं फिर गुरु हो करके अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं, पर यकायक थोड़े ही उतर आए हैं कृष्ण अर्जुन के जीवन में।

अर्जुन ने बरसों तक, दशकों तक कृष्ण को अपने जीवन में बड़ी श्रेष्ठता दी है। जैसा कहा है कृष्ण ने, अर्जुन ने चुपचाप करा है। कोई आध्यात्मिक जीवन भर में नहीं, अपने व्यक्तिगत जीवन में भी। अपनी हर छोटी-बड़ी बात उन्होंने कृष्ण के सामने रखी है, अर्जुन के सब निर्णयों पर कृष्ण की सलाह का प्रकाश है। जब ऐसा घनिष्ठ संबंध अर्जुन ने दशकों तक पनपाया है, उस पौधे को दशकों तक खाद-पानी दिया है, तब जाकर के आज उस वृक्ष पर गीता का फल लगा है। अचानक कुछ नहीं हो जाता है, और कृष्ण के समीप रहना हल्की बात नहीं है। कृष्ण का तो काम ही है अर्जुन को बस अर्जुन ना रहने देना बल्कि कुछ और बना देना। कृष्ण के समीप रहने का अर्थ होता है टूटते चलना। और समीपता का मतलब वैसी समीपता नहीं होता जैसी समीपता भीम की है या युधिष्ठिर की है। एक सीमा तक तो दुर्योधन भी समीप है, वैसी समीपता नहीं। उतनी निकटता चाहिए होती है कि जिसमें हाथ ही पकड़ लें वो तुम्हारा। उतने निकट नहीं हो तो अपने-आपको फुसलाकर मत रखो कि निकट हो।

मैंने बहुत साल पहले एक ट्वीट करा था जिसमें लिखा था कि यू मस्ट बि विदीन स्लैपिंग डिस्टेंस ऑफ द टीचर (आपको गुरु थप्पड़ मार सकें, उतनी समीपता होनी चाहिए)। अगर जानना चाहते हो कि तुम निकट हो या नहीं हो तो ये पूछ लो अपने-आपसे कि आर यू विदिन स्लैपिंग डिस्टेंस (क्या तुम थप्पड़ मारने की दूरी के भीतर हो)? और स्लैपिंग डिस्टेंस से ज़रा-सा भी अगर तुम अधिक दूर हो तो पास नहीं हो फिर तुम। आप कहेंगे, “कैसी हिंसक बात है, गुरु-शिष्य का ये रिश्ता होता है?” यही होता है, बिलकुल ऐसा ही होता है। सारथी और रथी में कितनी दूरी होती है? बस उससे ज़्यादा दूरी स्वीकार नहीं है। कृष्ण वक्ता हैं अर्जुन श्रोता हैं, वक्ता और श्रोता में कितनी दूरी हो सकती है? उससे अधिक दूरी स्वीकार नहीं है। उससे ज़रा-सी भी अधिक हो गई दूरी तो समझ लो कि अनंत हो गई दूरी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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