अपने विकास के लिए क्या करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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अपने विकास के लिए क्या करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी समझ नहीं आता कि जीवन में अपने विकास के लिए क्या करें? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें परीक्षा केन्द्र में पता चले कि तुम किसी दूसरे का पर्चा लिख रहे थे अभी तक; पर्चा किसी दूसरे का था और लिखे तुम जा रहे थे, और तुम्हें पता चले कि ये किसी और का पर्चा है जो तुम लिख रहे हो तो फिर क्या तुम मुझसे ये पूछोगे कि आचार्य जी अब इनमें लिखें क्या, फिर क्या करोगे? छोड़ दोगे न, ये थोड़े ही पूछोगे कि लिखें क्या। तुम्हारा है ही नहीं अभी और लिखना है उसमें?

तुम हो सोहन और पर्चा लिख रहे हो मोहन का; और जब ज़ाहिर भी हो गया कि पर्चा मोहन को ही लिखना चाहिए तुम्हें नहीं, तुम व्यर्थ ही गोदे दे रहे थे इतनी देर से, तब भी यही कर रहे हो, ‘अच्छा पता तो चल गया है कि पर्चा मोहन का है तो अब लिखे क्या?’ ऐसे ही पूछते हो, ‘करें क्या?’

इतना तो कर लिया। कुछ नहीं करना है। जो करे जा रहे हो, अपनेआप से पूछो कि कितना ज़रूरी है ये करना। जब पूछोगे कितना ज़रूरी है करना, तो दो बातें होंगी — पहला, जो कर रहे हो उसको करने के प्रति तुम्हारी प्रतिबद्धता छूटेगी, ये जो अपने ऊपर तुमने नियम डाल लिया है न कि ये चीज़ें तो करनी-ही-करनी है, फ़लाना काम तो होना ज़रूरी है, ये भी करना ज़रूरी है, ये भी। ऐसी बहुत सारी चीज़ों से पिंड छूटेगा। दूसरी बात, तुम्हें ये भी दिखाई देगा कि कुछ चीज़े तुमने बहुत भद्दी लिख दी हैं मोहन के पर्चे में। बहुत सारे काम ऐसे कर डाले हैं जो नहीं करने चाहिए थे। उनको तुम करने से तो बाज़ आओगे ही, अगर हो सकेगा तो इरेज़र लेकर मिटा भी दोगे।

लेकिन हर स्थिति में एक बात तो पक्की है, तुम और ज़्यादा कुछ नहीं लिखोगे, लिखना बन्द करोगे और यथासम्भव जो मिटा सकते हो उसको मिटा भी दोगे। बहुत कुछ है जो अब मिटा नहीं सकते, उसको नहीं मिटाओगे; कहोगे, ‘अब क्या करें, ये तो अब हो गया।' लेकिन जो मिट सकता है उसको मिटा दोगे और नया तो बिलकुल नहीं लिखोगे।

ये सब तभी हो पाएगा जब और करने और, और लिखने की ज़िद छोड़कर अभी तक तुमने जो लिख और कर डाला है तुम उस पर ही ईमानदार नज़र डालो, ‘जीवन भर ये जो मैंने किया, क्या किया? आज भी सुबह से लेकर शाम तक जो करता हूँ, क्या करता हूँ?’ उसको ही ग़ौर से देखो। तो करना छूटेगा, और फिर भी अगर लगे कि अभी कुछ और करना तो चाहिए, तो फिर करने के नाम पर तुम क्या करोगे? (आचार्य जी मिटाने का संकेत करते हुए) इस तरीक़े से दो चीज़ें हो सकती हैं। ऐसे लिखा भी जा सकता है, और ऐसे मिटाया भी जाता है। तो अगर अभी भी करने की बहुत ललक बाक़ी हो, तो कुछ इस तरीक़े से करो कि पहले जो करा वो मिट जाए, पर नया कुछ मत लिखना।

अगर करने की ललक बिलकुल छूट गयी है, तो पर्चा जैसा है वैसा ही छोड़कर के उठ जाओ। और अगर करने, लिखने की ललक बहुत बाक़ी है, पीछा नहीं छोड़ रही तो इरेज़र उठाओ और जो लिखा है उसको मिटाओ। इन दो के अलावा तीसरा कोई काम नहीं।

मिटाना बहुत मेहनत का काम है, उसी को साधना कहते हैं। संसारी लिखता है साधक मिटाता है, और लिखने से मिटाने में थोड़ी ज़्यादा ही मेहनत लगती है। तो करने का अगर बहुत ही शौक हो, तो साधना करो और मिटाओ। बहुत कुछ है न मिटाने को? कितनी सारी भद्दी-अश्लील बातें लिख डाली हैं ज़िन्दगी की किताब में; लिखी हैं कि नहीं? कितनी व्यर्थ की बातें जो होनी ही नहीं चाहिए थीं, वो लिख डाली हैं। और अभी भी जान बहुत बाक़ी है कुछ करने के लिए बेताब हैं; क्या करना है फिर? मिटाना है।

मिल गया न काम करने को? कह रहे थे, ‘अध्यात्म का तो मतलब अकर्ता हो जाना है। अकर्ता हो गये तो कितने बोर होंगे! कुछ करने को ही नहीं होगा। मुझे तो लग रहा है वज़न भी बढ़ जाएगा, अकर्ता माने वेट गेन।' कैसे-कैसे ख़याल, क्या कहना! तो फिर करो, जमकर करो, क्या? साधना। साधना माने मिटाना; मिटाओ, सफ़ाई!

इससे बढ़िया क्या हो सकता है! मोहन का पर्चा मोहन जाने, हमने इतना लिख दिया यही बड़ी ग़लती थी अब हम और कुछ नहीं करेंगे, हम जा रहे हैं। यदि एकदम बात बिजली की तरह कौंध गयी है, मन के आकाश पर चमक गयी है, कि हम व्यर्थ लिख रहे हैं, हमारा काम ही नहीं है लिखना, किसी और का अधिकार है लिखना, तो तुम विदा हो जाओ। अगर बात इतनी स्पष्ट हो जाए तो लिखना छोड़ दो। पर इतनी स्पष्ट किसी-किसी को ही होती है, बाक़ियों की तो लिखने से, और पर्चे से, और कुछ करने से आसक्ति बनी ही रहती है। तो उनसे मैं कह रहा हूँ कि तुम पहले कर्म करते थे, अब साधना करो। पहले लिखते थे अब मिटाओ। क्योंकि कुछ तो तुम करोगे, करे बिना तुम्हें चैन नहीं मिलेगा।

प्र२: आचार्य जी, आप मिटाने के बारे में बता रहे थे, अभी यहाँ पर डर ये लगता है कि फिर मिटाने के बाद क्या, मतलब उन पैटर्न्स (ढर्रों) को छोड़ना ही बहुत मुश्किल होता है कि इसके बाद क्या करेंगे, अगर ये मिट जाएगा। तो हमेशा ये डर रहता है।

आचार्य: तो तुम मिटा थोड़े ही रहे हो, तुम तो लिख रहे हो। तुमने अगली कहानी लिखी, अगली कहानी का शीर्षक है, ‘पिछली कहानी के बाद क्या?’ तुम मिटाना, न लिखना इनसे तो बहुत दूर हो अभी। तुम्हारी रुचि तो अभी और लिखने में है, बाहुबली भाग दो। अपने सवाल को देखो; तुम कह रहे हो, ‘पिछली कहानी के बाद क्या?’ तुम्हें कहानी चाहिए ज़रूर। तुम्हारे ही जैसों के लिए एक वीडियो ख़त्म होता नहीं है कि वो अपनेआप दूसरा शुरू कर देता है यूट्यूब। तुमसे पूछता भी नहीं है कि अगला चलाऍं कि न चलाऍं; क्योंकि पिछली कहानी के बाद तुम्हें तत्काल अगली कहानी चाहिए।

इसे लत कहते हैं, ये नशाखोरी है, सीरियल कहानीबाज़ हो। ये बात ही हज़म नहीं हो रही कि कहानियाँ हटेंगी तब न हकीकत में जिऍंगे; पूछ रहे हो, ‘पिछली कहानी तो मिटा देंगे, तो अब अगली कहानी का इन्तज़ाम कहाँ से होना है?’

कहानी है कि बीड़ी? कि एक के बाद एक फूॅंके जा रहे हो। कहानी माने जानते हो क्या? जो मिथ्या है; चूॅंकि मिथ्या है इसीलिए तुम्हारे किसी काम की नहीं। अगली कहानी क्यों चाहिए? कुछ और, कहानी से बेहतर?

प्र२: पुरानी कहानी मिटने का डर था।

आचार्य: ठीक है, डरोगे तो लिखोगे, और लिखोगे।

प्र३: शायद ये कहना चाहते हैं कि कहानी में अकेला पात्र मैं नहीं हूँ। तो जो और पात्र जुड़े हुए होते हैं, तो शायद उन्हीं के कारण डर पैदा होता हो कि जो हमसे सम्बन्धित लोग हैं; हमारी माँ, या हमारे जो पैदा किये हुए बच्चे और पत्नी, तो वो किरदार उस कहानी के हिस्से हैं। तो हम अपना तो सोच लेंगे, इरेज़र तो चला लेंगे, तो इरेज़र के साथ-साथ उनकी टाॅंग वहाँ मिट गयी तो?

आचार्य: कौनसी टाॅंग मिट रही है उनकी, वही तो जो कहानी भर है न? अच्छा लगता है तुम्हें जब पत्नी तुम्हारे बारे में कहानियाँ बनाती है? अभी यहाँ बैठे हो, पत्नी कहानी बना रही हो कि आज फिर नर्मदा में डूबे हुए हैं। अच्छा लगता है कहानियाँ बनाना किसी के बारे में? सबसे ज़्यादा तभी चिढ़ मचती है न तुम्हें जब पत्नी कहानियाँ बनाती है? बोलो! और कहानियों के अलावा हम कुछ बना नहीं सकते क्योंकि हकीक़त से हमारा कोई वास्ता नहीं।

तुम कहानी ही तो मिटा रहे हो, पत्नी थोड़ी ही मिटा रहे हो? कहानी माने — दोहरा रहा हूँ — वो जो मिथ्या है। सत्य मिट सकता है क्या? सत्य तो मिटेगा नहीं, जो मिट रहा है वो क्या होगा?

श्रोता: कहानियाँ।

आचार्य: जो झूठ था, उसको बचाकर रखना है? वो है कहाँ कि तुम उसको बचाकर रखना चाहते हो? झूठ माने वो जो है ही नहीं पर तुम उसके होने का भ्रम पाले हुए हो, जो है ही नहीं उसको बचाकर क्या करोगे?

ये ऐसी सी बात है कि मैं यहाँ बैठा-बैठा सुकून मना रहा हूँ कि इसके (ग्लास के) भीतर पानी बहुत है और है कुछ नहीं। और कोई आकर बता दे कि ये खाली है, तो मैं कहूॅं, तुझसे बड़ा दुश्मन नहीं देखा, तूने मेरा ज़ाम खाली कर दिया। जाम में कभी भी कुछ था ही कहाँ! तुम मिटा रहे हो तो क्या मिटा रहे हो? तुम अपना ये भ्रम मिटा रहे हो कि तुम्हारा जाम छलक रहा है।

हकीक़त क्या है? जाम में कभी कुछ था ही नहीं, पर डरते बहुत हो क्योंकि जानते तुम बहुत कुछ हो, तुम अच्छी तरह जानते हो कि जाम है खाली, लेकिन तुमने ख़ुद को ही बढ़िया बुद्धू बना रखा है। सब जानते-बूझते भी तुमने ख़ुद को बहला रखा है कि जाम तो छलक रहा है। अब कहते हो कि इस बात की लिखित में कैसे घोषणा कर दें कि जाम है खाली‌‌। लिखित में तो लिखे बैठे हो कि जाम भरा है, छलक ही रहा है।

मैं कह रहा हूँ, मिटा ही दो न इस बात को; क्योंकि अन्दर की बात ये है कि तुमको भी और मुझको भी दोनों को ये पता है कि जाम खाली है। तो मिटा ही दो यार! काहे को सफ़ेद कागज़ काला करते हो? काहे को लिखित में झूठ बोलते हो? तो कह रहे हो, ‘नहीं मिटा देंगे तो…।’ जाम भरा होता तो तुम्हें कुछ भी लिखा-पढ़ी व्यथित करती? तुम कहते, ‘लिखा हो चाहे न लिखा हो जाम तो भरा हुआ है।' तुम भली-भाॅंति जानते हो जाम खाली है इसीलिए मिटाने से घबराते हो। बेटा अगर जाम खाली है तो इन्तज़ाम करो उसे भरने का; झूठ-मूठ ये लिखने से क्या होगा कि भरा हुआ है?

मैं तुमसे कह रहा हूँ, जो झूठ-मूठ की बातें हैं उनको हटाओ ताकि वास्तव में ये (ग्लास) भर भी सके। ये ज़िन्दगी में जो भी लोग हैं, माॅं-बाप, मियाँ-बीवी, बच्चे, उनसे अगर रिश्ता सच्चा ही होता तो काहे की घबराहट फिर? ये घबराहट सबूत ही है इस बात का कि रिश्तों में कुछ गड़बड़ है मामला। अगर गड़बड़ है तो उस गड़बड़ को ठीक करना है, या उस गड़बड़ पर पर्दा डालना है?

श्रोता: ठीक करना है।

आचार्य: पर तुम बड़े नाउम्मीद लोग हो, तुम्हें ये उम्मीद ही नहीं है कि गड़बड़ ठीक भी हो सकती है, तुम हार माने बैठे हो; तो तुम कहते हो, ‘ठीक तो होगा नहीं इस जन्म में, रिश्ता जैसा है वैसा ही चलेगा, अपनी माँ को मैं भली-भाँति जानता हूँ, वो सुधरने की नहीं, और ख़ुद को भी जानता हूँ और अपनी बीवी को भी जानता हूँ। हमारा रिश्ता तो बर्बाद है, और बर्बाद ही रहेगा। अब बस किसी तरह चल रहा है, बच्चों की ख़ातिर चलने दो।'

'महाराज जी अध्यात्म के नाम पर गड़े मुर्दे मत उखड़वाओ, जो चल रहा है वो भी नहीं चलेगा। तुम तो पता नहीं कौनसा दिवास्वप्न दिखा रहे हो गुरुजी कि हकीक़त में रिश्ता ऐसा हो जाएगा और वैसा हो जाएगा, हम जानते हैं न कैसा हो जाएगा। अरे ये शक्ल देखो इसकी! दो-चार दिन मेरे घर में, मेरी ज़िन्दगी जीकर देखो गुरुजी, तो तुम्हें पता चलेगा कि मेरी हालत क्या है, किस नर्क में जीता हूँ। और तुम मेरे साथ ये आध्यात्मिक मज़ाक करना तो बिलकुल ही छोड़ दो कि पुरानी कहानी को मिटा दो और नयी कहानी में अप्सरा उतर आएगी।’

ये तुम्हारी स्थिति है, तुम बिलकुल नाउम्मीद हो। तुम्हें लगता है, कुछ ठीक हो ही नहीं सकता। तो जो कुछ जैसा लिखा है, और जैसा चल रहा है, तुम उसको यथावत चलते रहने देना चाहते हो; कहते हो, ‘ऐसे ही चलने दो कम-से-कम अभी चल तो रहा है, नहीं तो विस्फोट होगा सीधे।’ मैं इतना नाउम्मीद नहीं हूँ, “सत्यमेव जयते।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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