हम अपने काम से प्यार क्यों नहीं करते?

Acharya Prashant

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हम अपने काम से प्यार क्यों नहीं करते?
प्रेम ही ज़िंदगी को अर्थ, आज़ादी और सच्चाई देता है, लेकिन हमारे जीवन में किसी भी क्षेत्र में प्रेम नहीं होता। जब मामला Loveless होता है, तो हर आदमी भागना चाहता है—अपने काम से, रिश्तों से और खुद से भी। हमें खुद से भी प्यार नहीं है। हमारा समाज और अर्थव्यवस्था ऐसी नौकरियां देती ही नहीं, जिनसे प्यार हो सके। न कंपनियां प्यार के कारण बनती हैं, न जॉब्स ऐसी होती हैं कि कोई उनसे चाहे भी तो प्रेम कर सके। हम काम से कैसे प्रेम कर लेंगे? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। पाँच दिन पहले हमारे पूर्व प्रधानमंत्री का निधन हुआ और उसी के चलते स्कूल, कॉलेजेज और सरकारी दफ्तरों की छुट्टी कर दी गई। और ऐसा हम आसपास भी देखते हैं कि जब भी किसी के घर में मृत्यु होती है तो हम काम-काज छोड़कर शोक में डूब जाते हैं। भारत में यह कार्यक्रम तेरह दिन तक पूरा चलता है।

एक ओर यह स्थिति है और जब दूसरी ओर मैं आपका जीवन देखती हूँ तो वहाँ कुछ ऑपोजिट दिखता है कि जब भी आपके जीवन में ऐसा कुछ हुआ तो संस्था का काम नहीं रुका। मिशन और तेजी से आगे बढ़ता गया। तो यह किस हद तक ठीक है कि किसी की मृत्यु हो जाए तो हम अपना सारा कामकाज छोड़ के शोक में डूब जाएँ। आपसे यह भी समझा है कि मृत्यु जीवन का तथ्य है। यह आना तो है। तो किस तरीके से ये....

आचार्य प्रशांत: यह हर जगह नहीं होता है। आपके लिए यह आज की एक्टिविटी रहेगी। खोजिएगा। दुनिया के कई प्रमुख देश हैं जिनमें यह बिल्कुल नहीं होता कि श्रद्धांजलि देने के लिए काम रोकेंगे। कहीं-कहीं पर तो आपको यह उदाहरण मिलेगा कि श्रद्धांजलि दी जाती है और ज़्यादा काम करके।

काम हमें रोकना इसलिए पड़ता है क्योंकि हमारे लिए काम सिर्फ़ शरीर चलाने का साधन है। उसका हमारे जीवन के लक्ष्य से, हमारे पवित्रतम केंद्र से कोई संबंध होता थोड़ी है।

गरीबी का हमारा चूंकि अब कई सौ सालों का इतिहास रहा है। हमारे लिए यही बड़ी बात होती है कि पेट भरने के लिए किसी काम से रोटी मिल गई। हम अपने आप को वहाँ ला ही नहीं पाए हैं। हालांकि आजाद हुए भी अब ७५ साल हो रहे हैं, राजनैतिक आजादी। जहाँ हम कह पाए कि काम हमारी सच्चाई की अभिव्यक्ति होता है।

हमारे लिए असली ज़िन्दगी दूसरी है और काम अलग है। काम तो बस इसलिए है कि दाना पानी आ जाए। गाड़ी चलती रहे। जहाँ कहीं हमारी इस तथाकथित सो कॉल्ड असली ज़िन्दगी में कुछ उठापटक होती है, हम सबसे पहले काम रोक देते हैं ना।

क्योंकि काम असली ज़िन्दगी तो है ही नहीं। काम तो असली ज़िन्दगी से अलग कुछ है। काम तो बस ऐसा है जैसे कहीं से फ्यूल डल जाएगा, कुछ पैसे आ जाएँगे। बहुत जल्दी छूटता है काम। काम उनका नहीं छूटता जिनके लिए काम प्रेम होता है, आशिकी होती है। और यह एक शब्द है जिससे भारत बहुत दूर आ गया है—प्रेम।

हमारे जीवन में किसी भी क्षेत्र में, किसी भी तार में प्रेम नहीं होता है। हम काम से कैसे प्रेम कर लेंगे? कोई नहीं मिलेगा आदमी। होगा, हज़ारों-करोड़ों में कोई एक होगा। जो कहे कि काम काम के लिए करता हूँ। उसमें से जीविका चल जाती है, वह अलग बात है पर पैसे नहीं भी मिल रहे होते तो काम तो मैं यही कर रहा होता।

तो जहाँ मौका मिला नहीं वहाँ काम बंद। बारिश हो रही है काम बंद। कुछ हो रहा है काम बंद। कोई त्योहार आया है उसके दस दिन पहले से काम बंद। उसके दस दिन बाद काम शुरू होगा। और ज़िन्दगी जितनी मीडियोक्रिटी की होती है ना आदमी काम उतनी जल्दी बंद करता है।

मैं आईआईटी गया था। मुझे बात अजीब लगी थी। यहाँ पर दिवाली की भी एक दिन की छुट्टी दे रहे हैं। पर शायद ऐसा हुआ था कि दिवाली थी या क्या था, रविवार को पड़ गई। मैं सचमुच किसी के साथ बैठा और बातें की। उसमें अचरज आश्चर्य था, साथ में क्रोध था कि ये क्या मतलब है? मैंने ताल्लुक ये लगाया कि इसमें मटेरियलिज्म है। ये लोग इंसान की कोमल भावनाओं को नहीं समझ रहे हैं। धीरे-धीरे बात खुलनी शुरू हुई।

बात और तब खुल गई जब अद्वैत लाइफ एजुकेशन का काम बहुत सारे कॉलेजेज तक पहुँचा और वहाँ मैंने देखना शुरू करा कि जो कॉलेज जितना गया गुजरा होता था वहाँ त्योहार उतने ज़्यादा मनाए जाते थे। तो थोड़ा ठीक-ठाक कॉलेज है तो दिवाली पर एक हफ्ता बंद रहेगा। सिर्फ़ एक हफ्ता। थोड़ा उससे नीचे का है तो दशहरे से दिवाली तक।

और स्टूडेंट्स ही नहीं फैकल्टी बहुत खुश है। अभी तो बच्चे घर गए हैं। और नहीं भी गए हैं तो ऐसे जैसे फैकल्टी खुद चाहती है कि घर चले जाए। कोई आ भी गया है क्लास में तो ऐसा कि तुम क्यों आ गए? घर वालों ने निकाल दिया क्या? और उससे और नीचे के कॉलेज में जाओ तो नवदुर्गा से शुरू है वहाँ पर। समझ में आ रही है बात?

अच्छा जी आपने कहा था दिवाली के एक हफ्ते बाद तो वापस आ जाएँगे। अभी तक क्यों नहीं आए? अब सब एक साथ वापस आते हैं तो ट्रेन भरी रहती है ना तो टिकट नहीं मिला होगा। तो लौटते-लौटते वो लौटते थे क्योंकि पढ़ाई से प्रेम नहीं है। पढ़ाई में किसी भी तरह का निवेश नहीं करा है। दिली जान नहीं लगाई है। कोई लेना देना नहीं है। एक बहुत अनमना सा रिश्ता है। चाहे काम हो, चाहे पढ़ाई हो कुछ हो बस कोई बोल दे कि आज काम नहीं करना है खुशी-खुशी छा जाएगी।

और संस्था में भी तो होता है; अब जैसे आज था, आज जैसे ही घोषित हुआ कि आज शाम को यह है तो मैं और शुभंकर बैठे थे, हमें पहले ही पता था कि कौन-कौन लोग होंगे जो नहीं पूरा करेंगे काम और कौन है जो अपना यथावत पूरा कर ले जाएँगे? कौन है जिनको मौका मिला नहीं कि वह कहेंगे बस हो गया आज तो बल्ले-बल्ले। आज आप देख रहे होंगे, कहाँ गए संजय? ये माइक संजय के हाथ में है क्योंकि यह वह व्यक्ति है फर्क नहीं पड़ता कि छुट्टी है कि नहीं है, धूप हो रही है, बरसात हो रही है क्या हो रहा है, उसको अपना काम जो है वह छह बजे निपटा लेना उसका निपटता ही निपटता है।

और जो सज्जन आज करने वाले थे वह मौका ढूँढते हैं। मौका मिल जाए किसी तरीके से बस आज कुछ हो रहा है कहीं कुछ सूंघते-सूंघते। वो काम तब पूरा होगा जब पूरी तरह ना उम्मीद हो जाए कि आज कहीं कुछ नहीं हो रहा। तब चलो, कुछ और जब है ही नहीं तो काम ही कर लेते हैं। इससे क्या पता चलता है? दिल नहीं है, प्यार नहीं है। अब उसमें बात आगे जाएगी तो और चोट लगेगी। बात यह है कि हम में से ज़्यादातर लोग पैदाइश ही प्यार की नहीं है।

तो हमारा पूरा समाज और पूरी अर्थव्यवस्था ही ऐसी है जिसमें ऐसी नौकरियाँ है भी नहीं कि जिनसे प्यार किया जा सके। इस पूरे वातावरण में इस पूरे इकोसिस्टम में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है। ना औलादें प्यार से आती हैं, ना कंपनियाँ प्यार के कारण बनती हैं, ना जॉब्स ऐसी बनाई जाती है कि कोई उनसे चाहे भी तो प्यार कर सके। किसी का काम है कन्वेयर बेल्ट पे खड़े रहना। और जो वहाँ से मैन्युफैक्चरर्ड माल आ रहा है उसको ऐसे ऐसे (हाथ से गोल गोल घुमाते हुए) करना। उसको एक डंडे से ठेलना। वो कैसे इस काम से प्यार कर लेगा? कैसे कर लेगा?

प्यार ऐसी चीज़ तो है नहीं कि सबसे कर लोगे। सामने वाला होना भी तो ऐसा चाहिए कि उस पे दिल आ जाए। यहाँ ऐसा है भी नहीं मामला कि सब पर दिल आ सके। पूरा पूरा खेल ही ऐसा है। लवलेस। समझ में आ रही है बात? जब मामला लवलेस होता है तो हर आदमी भागना चाहता है। कौन नहीं भागना चाहता? हम काम से ही भागना चाहते हैं। हम रिश्तों से भागना चाहते हैं। हम खुद से भी तो दूर भागना चाहते हैं। हमें खुद से भी प्यार कहाँ है। हमारा बस चले तो हम गायब ही हो जाए।

प्रेम ही वह चीज़ होती है जो ज़िन्दगी को अर्थ देती है। आज़ादी देती है। कुछ सच्चाई देती है।

दो जगह होती है इंसान जहाँ अपना समय बिताता है। ऑफिस और घर। वहाँ काम से प्रेम नहीं है। और घर में तो दुनिया का खौफ ना हो तो पड़ोसी घर में घुस जाए। अपने घर से बेहतर तो कुछ भी है। कुछ भी चलेगा। चिड़िया घर में घुस जाए।

हँस क्या रहे हो? पता नहीं है क्या? इतने ही लोग होते हैं वह जब दफ्तर से घर को चलते हैं सोचते हैं कहीं और नहीं जा सकता। कहीं और नहीं। बस वह कहीं और इसलिए नहीं जाते क्योंकि कहीं और जा नहीं सकते। और जिनको फिर इसीलिए कहीं और जाने का कुछ मौका मिल जाता है वो चले भी जाते हैं।

फिर आप कहते हो हाय हाय गलत हो गया। बेवफाई हो गई, एक्स्ट्रा मैरिटल हो गया। बच्चे खुश हो जाते हैं, बारिश हो गई, आज स्कूल नहीं आना होगा। मैंने तो पेशेंट देखे हैं जो खुश हो जाते हैं, आज डॉक्टर साहब नहीं आए। मैं भी उनमें से एक हूँ। मैंने पकड़ा अपने आप को। मुझे दो चार लोग बाँध के ले गए। बोले चलो चलो चलो। चला गया। वहाँ पता चला आज डॉक्टर आई ही नहीं है। और मैंने पकड़ा कि मैं मुस्कुरा रहा हूँ। मुझे अच्छा लग रहा था। उसमें कोई आध्यात्मिक बात नहीं है।

बात बस वही है कि शरीर भी कोई चीज़ होती है उससे भी थोड़ा प्यार, थोड़ी इज़्ज़त, ये उतना सीखा नहीं है। और इसका कोई जवाब नहीं है। इसमें कोई गूढ़ बात नहीं है। ये आप एक कॉलेज में बैठे हो। जिस कॉलेज में यहाँ बैठे हो, यहाँ पर उनका कोई सेमिनार होता होगा पंद्रह पर्सेंट नहीं अटेंडेंस होती होगी और आप यहाँ ऐसा बैठे हो कि २०२४ से शुरू किया था २०२५ लगा दिया। पता नहीं रात में अभी एक बज रहा है दो बज रहे हैं क्या बज रहे हैं पर आप बैठे हुए हो।

प्यार से दुनिया चलती है। जहाँ प्यार नहीं होता वहाँ खाली कुर्सी है। चाहे उसमें आप कुछ कर लो फिर। बिकना नहीं है। थोड़ा दो चार चीजें कम रह लेंगी कोई बात नहीं हो जाती। ज़िन्दगी खरी और असली रहे, चेहरा दूसरा हो जाता है।

आज आपकी एक्टिविटी थी ना कि पहले की फोटो लगाओ, अभी की लगाओ। अभी तो एक ही साल का आपने लगाया पिछला इतना। यही था ना आज का? एक साल की लगानी थी, हाँ? दस साल की लगानी थी। तो जब यहाँ गीता के साथ आपके कम से कम तीन या पाँच साल बीत जाएँगे, फिर आप लगाइएगा, गीता से पहले, गीता के बाद और ना आपको अपना चेहरा बदला हुआ दिखाई दे तो बात करिएगा।

चेहरा बदल जाता है और बिके हुए आदमी का चेहरा दूसरा होता है और पाँच साल रुक गए गीता में तो बिके हुए को आप भी दूर से ही देख के पहचानने लगेंगे। ये बिका हुआ है। शान बड़ी चीज होती है। है ना?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी अगर काम ऊँचा हो और खुद प्रेम ना कर पा रहे हो उस काम से?

आचार्य प्रशांत: तो कुछ नहीं है। इसमें इतनी कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं होती है। प्यार की बात नहीं तो रात। इसमें क्या है? मैं आपको क्या गुण रहस्य बताऊँ? प्रकृति बहुत ममत्व नहीं रखती है ना। प्रकृति में तो बहुत सीधा है। इंसान क्या? प्रजाति ही ठीक नहीं है तो विलुप्त हो जाएगी। प्रकृति का तो तरीका एक ही है। बढ़िया हो तो फलो फूलो नहीं तो..।

उसमें कुछ नहीं है। उसमें फिर यही बेहतर होता है कि जल्दी से जल्दी सजा मिल जाए। जितनी जल्दी सजा मिलेगी उतनी जल्दी सुधार की संभावना रहेगी। फंसते वह हैं जिन्होंने अपने आप को किसी सुरक्षा वाले घोंसले में रखा होता है कि उनको फिर सजा भी नहीं मिल सकती। समझ रहे हैं बात को?

उदाहरण के लिए आपको अच्छा काम मिला हुआ है, बढ़िया बात है। तो उस अच्छे काम को खोने का डर भी तो होना चाहिए ना। अगर वो सचमुच अच्छा काम है तो उसका डर भी तो होना चाहिए ना। साहब ने कहा है ना कि भय तो होना चाहिए। किसका? राम का।

निर्भय होए ना कोई। भय पारस है जीव को निरभय होए ना कोई।

एक डर तो होना चाहिए राम का। और राम का डर यही होता है। राम का डर ये तो होता नहीं कि राम लठ मारेंगे। राम का डर ये होता है कहीं राम को खो ना दूँ। अब डर जहाँ नहीं है वहाँ पर फिर बात बनती नहीं है। मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है मेरी सुख सुविधाएँ। सुख सुविधाएँ मुझे कहीं और से ही मिलती रहेंगी। मेरे पास कोई अल्टरनेट ठिकाना है तो फिर बात नहीं बनती है।

प्यार में दो चार अड्डे नहीं होते हैं। एक के प्रति समर्पण होता है ना। जैसे ही आपने अपने लिए कोई दूसरा अड्डा, कोई दूसरा सहारा बनाया, आपने प्रेमहीनता का, लवलेसनेस का खुद ही इंतजाम कर लिया। प्रेम बना ही तभी रहता है जब प्रेम टूटने लगे और तकलीफ हो। जिसने उस तकलीफ से बचने का साधन जुटा लिया है उसका प्रेम तो अब टूटेगा।

प्रेम उसी का बचा रह सकता है जो सजा खाने के लिए उपलब्ध हो। जिसने अपने आप को प्रोटेक्ट या इंसुलेट ना कर लिया हो।

अपने इंसुलेशंस और प्रोटेक्शंस आप बहुत अच्छे से जानती हैं। उनको हटा दीजिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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