प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, ऊँचा जीवन जीने में बहुत डर लगता है। कीमत चुकाने से मुँह चुराता रहता हूँ। जितना देख पाता हूँ कि समय ही व्यर्थ कर रहा हूँ लेकिन फिर भी उसे रोक नहीं पाता। कभी-कभार भावुक होकर कुछ करने की कोशिश करता हूँ लेकिन बाद में वहीं पहुँच जाता हूँ जहाँ से शुरुआत करी थी। इस पर कृपा करके प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: जहाँ तुम बैठे हो, वहाँ बैठे-बैठे कोई बदलाव नहीं आ जायेगा। एक कदम तो बढ़ाओ! एक कदम तो बढ़ाओ। बहुत सारे लोग होते हैं, देखा है, सोते समय, बड़ी खिड़कियाँ भी हों उनके कमरे में , तो उनपर पर्दे चढ़ा देते हैं और पर्दे भी उनके गाढ़े रंग के होते हैं। अब दरवाज़ा भी बन्द है, पर्दे भी चढ़ा दिए, तो कैसा हो जाता है कमरा? एकदम अन्धेरा हो जाता है, एकदम अन्धेरा है! एकदम अन्धेरा ! अब जाड़े का मौसम है, मान लो सुबह के आठ-नौ बज गए हैं, ये अभी सो कर उठ रहे हैं। एकदम अन्धेरा ! एकदम अन्धेरा !
और कमरा जब रात भर बन्द रहे, तो उसमें ज़रा गन्ध भी आ जाती है और कमरे के भीतर हो सकता है, हीटर, ब्लोअर कुछ चला दिया था तो कमरे का एक तापमान भी था। गर्म हो गया था कमरा। और ये कमरे के भीतर से बैठकर कह रहे हैं ये समस्या है, वो समस्या है, अच्छा नहीं लग रहा है, घुटन भी हो रही है, अन्धेरा भी बहुत है। एक कदम बढ़ाओ, ज़रा सा दरवाज़ा खोल तो दो, देखो क्या होता है? ताज़ी हवा और बढ़िया रोशनी भीतर आयेंगे और तुमने कुल किया क्या? एक कदम बढ़ा कर दरवाज़ा खोल दिया।
जहाँ तुम बैठे हो, वहाँ की बात मत करो। कुछ थोड़ा सा तो नया करो न। बस इतना सा नया कि एक कदम बढ़ा कर दरवाज़ा खोला। मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुमने, बहुत लम्बी दौड़ लगा दी, किसी और देश ही चले गए। वो होगा मेहनत का काम, आप शायद इतनी मेहनत अभी नहीं कर सकते, पर इतना तो कर सकते हैं कि थोड़ा सा दरवाज़ा खोल दें। लम्बी दौड़ नहीं लगा सकते, एक कदम तो बाहर निकाल सकते हैं, निकालिए तो।
अपनी स्थिति का वर्णन भर करना ही काफ़ी नहीं होता है, अपनी स्थिति से इतनी खिन्नता भी होनी चाहिए, इतनी क्षुब्धता होनी चाहिए, ऐसा वैराग्य होना चाहिए कि आप उससे दूर जाने को सहज ही सहमत हो जायें। जैसे ही मौका मिले आप ज़रा दूर निकल जायें।
अब लोग कहते हैं कि ये नहीं है, वो नहीं है, आचार्य जी हम जिन माहौलों में हैं, वहाँ बात नहीं बनती और सही माहौल क्या है, हमें समझ में नहीं आता है। साधारण दिनों में सैकड़ों, बल्कि हजारों में सन्देश आते हैं कि कैसे मिल सकते हैं आपसे? कैसे मिल सकते हैं आपसे? वास्तव में सन्देश आते ही यही कहते हुए हैं, "मैं आचार्य जी से कैसे मिल सकता हू?" और अब जब माहौल बदलने का अवसर दे रहे हैं, शिविर हो रहा है, तो आप जहाँ कहीं भी हैं अपने शहर में, अहमदाबाद हो, बम्बई हो, जहाँ भी रहते हैं आप, वहाँ से आप कहें, "आचार्य जी, मैं अपने माहौल से बाहर नहीं निकल पा रहा। चीज़े नहीं बदल रहीं हैं, कीमत अदा करते हुए डरता हूँ। नया जीवन डराता है मुझको।" ये सब बातें ही करते रह जाओगे।
देखो, बहुत सारे जो डर होते है न, वो प्रेम में ही तिरोहित होते हैं। उन डरों को जीता नहीं जाता, मैं दोहरा रहा हूँ, " उन डरों को भूला जाता है।" उन डरों को भूला जाता है।
एक कवि की रचना है, जिसमें वो एक ऐसे ही दुबली-पतली लड़की का वर्णन करता है, बिलकुल भी वो कोई विशेष लड़की नहीं है, अति साधारण! दुबली-पतली, औसत सी। और बरसात की अन्धेरी रात, वो अकेले, नंगे पैर अपने प्रेमी से मिलने भागी जा रही है। और कवि प्रश्न करता है, "इसमें इतना साहस कहाँ से आ गया?" कवि प्रश्न इसलिए नहीं करता कि कवि हम से उत्तर माँग रहा है। कवि को उत्तर पता है। उसे साहस चाहिए ही नहीं, उसके पास प्रेम है।
प्रेम साहस से ऊपर का होता है। जहाँ प्रेम है, वहाँ साहस चाहिए ही नहीं। साहस तो वहाँ चाहिए, जहाँ डर है। जहाँ डर है, वहाँ साहस चाहिए। जहाँ प्रेम है, वहाँ साहस चाहिए ही नहीं। साधारण स्थिति में, वो दिन में अपने घर से बाहर न निकले लड़की। और ये नहीं कह रहा हूँ कि परम प्रेम है, कि उसको गोविंद ही मिल गए हैं, उनसे मिलने जा रही है। उसको भी कोई ऐसा साधारण सा, औसत सा लड़का मिल गया है, उससे मिलने भागी जा रही है।
जब साधारण भौतिक शारीरिक प्रेम तुम्हें इतना साहस दे देता है, तुम्हें इतना अभीत बना देता है, इतना निर्भय कर देता है तो सत्य के प्रति जो परम प्रेम होता है, वो सोचो, तुम्हें कितने महासाहस से भर देगा। ऐसा साहस, जिसे मैं कह रहा हूँ "साहस कहना भी ठीक नहीं है", वो एक तरह की सहजता है। तुम सहज ही बहुत सारे साहसिक काम कर डालोगे, बिना साहस का उपयोग किए। अपने आपको प्रेम में पड़ने का अवसर तो दो।
नहीं समझे बात को?
गंगा के निकट आओगे, काव्य की रचना स्वयं ही हो जाएगी, सहज ही हो जाएगी। पर गंगा के निकट तो तुम्हें आना पड़ेगा न। शिविर में आओगे, जादू स्वयं हो जायेगा, पर शिविर आना तो तुम्हें पड़ेगा न। तुम वहाँ घर में बैठकर के बोलो कि "ये नहीं होता, वो नहीं होता, तो मैं क्या करूँ?" मैं जब कभी इतना संसाधनयुक्त हो जाऊँगा, इतना सामर्थ्यशाली, बली हो जाऊँगा कि एक-एक करके सबके घरों में जा सकूँ, तो मैं आपके घर भी आ जाऊँगा, लगेंगे आठ-दस हज़ार साल, आऊँगा। थोड़ा अगर समय बचाना चाहते हो, थोड़ा जल्दी करना चाहते हो तो तुम आ जाओ।
समझ में आ रही है बात?
हममें अपनी हालत के खिलाफ़ एक रोष होता नहीं, जिसको मैं खिन्नता कह रहा था न, एक विद्रोह होता नहीं। हम वर्णन तो बड़ा विस्तारपूर्वक करते हैं, मुझे ये समस्या है, मुझे वो समस्या है, मुझे ये नहीं अच्छा लग रहा। वर्णन बड़ा विविध होता है, एक-एक कोण से हम बात को बताते हैं, ऐसा है, वैसा है। अरे! इतना बता क्यों रहे हो, छोड़ दो। छोड़ो।
तुम्हें घाव हो गया है, फोड़ा हो गया है, उसमें मवाद बह रहा है और उसमें तमाम तरह के दूषण इधर-उधर हो रहे हैं। क्या करते हो? जाकर दिखाते हो, देखो! ये देखो, ये पीला मवाद है, ये बदबू मार रहा है और ये इधर देखो, ये लाल हल्का-हल्का ख़ून यहाँ चिपक गया है। ऐसे करते हो, क्या करते हो? तो इतना मुझे सवाल में विविध तरीके से चित्र क्या रचते हो कि मुझे ये है, वो है। ये बताओ न कि साफ़ कब कर रहे हो, साफ़ कब कर रहे हो? साफ़ आपको ही करना पड़ेगा।
समस्याओं का ऐसा जब आप सजीव वर्णन करते हो, तो धक्क से रह जाता हूँ मैं। मैं कहता हूँ, इस आदमी को बड़ा प्रेम है अपनी समस्या से। ये अपनी समस्या का वैसे ही अलंकारयुक्त वर्णन कर रहा है, जैसे कोई अपनी प्रेमिका का करता है कि उसके नयन है ऐसे (आंखों की तरफ़ इशारा करते हुए), लम्बे-चौड़े, ऐसा होता है न, छोटी-छोटी बात का वर्णन किया जाता है। उसके केश ऐसे हैं, उसके नयन ऐसे हैं, उसका अलंकार ऐसा, उसकी पायल ऐसी, उसका काजल ऐसा, वैसे ही लोग अपनी समस्याओं का वर्णन करते हैं। और तो फिर न, आचार्य जी, क्या होता है कि मैं कस-मसा कर रह जाता हूँ और मुझे न बड़ी चोट लगती है, लेकिन मैं फिर भी नालायक हूँ। मैं फिर भी कुछ करता नहीं। पूरा निबन्ध लिख दो! मेघदूतम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम्!
इतना बताओ मत, क्या करना है। कुछ छी:-छी: पड़ा होता है यहाँ पर, उसको ज़ूम इन करके उसका वीडियो बनाते हो कि उसको हर कोण से मैं परखूँगा, देखूँगा? वो छी:-छी: है, छी:-छी: की इतनी बात नहीं करनी है। क्या करना है? छी: (हाथ से हटाने का इशारा करते हुए)। छी: छी: की पेंटिंग (चित्र) बनाई, दस लोगों से बताया छी: छी: के बारे में, ये कोई बात है।
अच्छी बातें करी जाती हैं न, ऐसा थोड़ी है कोई कि तुम किसी से मिलते हो जाकर के सुबह-सुबह, बताते हो आज मुझे हरे रंग का दस्त आया था, उसकी स्पेसिफिक ग्रेविटी (आपेक्षिक गुरुत्व) इतनी थी। और जो मैंने मटर खाए थे, वो पचे नहीं थे, वो बीच-बीच में मटर दिखाई दे रहे थे। लाल-लाल टमाटर दिख रहा था, मुझे लगा खून आ गया है। कितना तुम विस्तार से बता रहे हो और सुनने वाले को भी बड़ी रुचि आ रही है। वो भी पूछ रहा है, और वहाँ, और, उँगली डाली?
ये बातें कोई इतना वर्णन करने की होती हैं? क्या करना होता है? हटाओ। एक बार जान गए कि छी:-छी: है फिर उसको हटा देते हो। कूड़े का ढेर पड़ा होता है, उसमें नाना प्रकार की सामग्री होती है। होती है या नहीं होती है? कूड़े के ढेर में विविध प्रकार की सामग्री होती है, ये भी है, वो भी है, पचास तरह की चीज़ें हैं। तुम क्या करते हो? बैठ कर डॉक्यूमेंटेशन(प्रलेखन) करते हो? सड़ा हुआ पनीर, साढ़े छह ग्राम, मरा हुआ चूहा अठारह ग्राम, ऐसे लिखते हो क्या? क्या करते हो? वो जो कुछ भी है, कूड़ा है। मुझे नहीं जानना कि इसके भीतर क्या-क्या है, क्योंकि मैं ये जान गया हूँ कि वो जो कुछ भी है, मुझे क्या करना है, हटा छी:-छी:, हटाओ। ये रवैया रखो न, एक विकर्षण हो, वैराग्य हो।
समझ में आ रही है बात कुछ?